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मध्य पूर्व को लेकर बाइडेन की विरासत की सबसे बड़ी ख़ूबी, उनका पूरी मज़बूती से इज़राइल के पक्ष में खड़े रहने की है. इसकी वजह से आज उनकी तुलना अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपतियों की इज़राइल नीति के साथ की जा रही है. इनमें सबसे अहम तो हैरी एस. ट्रुमन थे, जिन्होंने 1948 में इज़राइल को एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता दी थी. अमेरिका ऐतिहासिक रूप से इज़राइल को मज़बूत समर्थन देता आया है. इसकी प्रमुख वजहों में यहूदियों के दमन का इतिहास और अमेरिका के लिए मध्य पूर्व के सामरिक रूप से उथल पुथल भरे खाड़ी क्षेत्र अपने एक लोकतांत्रिक साथी की सुरक्षा सुनिश्चित करना रहा है. इज़राइल को अमेरिका के समर्थन की एक वजह हमें मियरशिमर और वाल्ट की ‘इज़राइल लॉबी’ (2007) के सिद्धांत में नज़र आती है. इस सिद्धांत के मुताबिक़ इराक़ में अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने युद्ध (2002) सिर्फ़ इज़राइल और उसके ज़रिए मध्य पूर्व में अमेरिकी हितों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए छेड़ा था. क्योंकि, इराक़ का सऊदी अरब और इज़राइल के साथ संघर्ष का पुराना इतिहास रहा था. राष्ट्रपति बनने पर बाइडेन को विरासत में इज़राइल के समर्थन वाली नीति मिली थी. लेकिन, वो अगले राष्ट्रपति के लिए कौन सी विरासत छोड़कर जाने वाले हैं, वो बेहद अहम होगा.
अमेरिका ऐतिहासिक रूप से इज़राइल को मज़बूत समर्थन देता आया है. इसकी प्रमुख वजहों में यहूदियों के दमन का इतिहास और अमेरिका के लिए मध्य पूर्व के सामरिक रूप से उथल पुथल भरे खाड़ी क्षेत्र अपने एक लोकतांत्रिक साथी की सुरक्षा सुनिश्चित करना रहा है.
अमेरिका 1970 के दशक से ही इज़राइल को अरबों डॉलर की सैन्य सहायता देता आया है और वो 2028 तक ऐसा करना जारी रखेगा, जिस पर अमेरिकी संसद में भी आम सहमति बन चुकी है. 2021 से ही इस क्षेत्र के लिए बाइडेन का नीतिगत ज़ोर मध्य पूर्व में ‘सुरक्षा का एक नेटवर्क’ खड़ा करने पर रहा है. जिससे इज़राइल को इस क्षेत्र के देशों से सुरक्षा का भरोसा दिलाया जा सके. इस नेटवर्क में मुख्य रूप से संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब और जॉर्डन शामिल हैं. इसी साल अप्रैल में जब ईरान ने इज़राइल पर मिसाइलें और ड्रोन दाग़े थे, तो इन देशों ने इनका पता लगाकर इसकी ख़बर इज़राइल को की और उसे अपने बचाव में मदद की थी. फिर भी ग़ज़ा में इज़राइल के सैन्य अभियान और अब लेबनान पर हमलों से साफ़ है कि इज़राइल की गतिविधियों पर बाइडेन का नियंत्रण नहीं रह गया है. बेरूत में इज़राइल द्वारा सटीक हमला करके हिज़्बुल्लाह के प्रमुख हसन नसरल्लाह की हत्या करने के मिशन की जानकारी, अमेरिका के रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन को उस वक़्त दी गई थी, जब इज़राइल के हमलावर विमान उड़ान भर चुके थे. इसकी वजह से बाइडेन प्रशासन बेहद नाराज़ हुआ था. मध्य पूर्व में सुरक्षा का एक कवच निर्मित करने की एक पूर्व शर्त, इज़राइल और अमेरिका के संवाद में निरंतरता और एक दूसरे पर भरोसा है.
लक्ष्यहीन संवाद
लेकिन, अमेरिका और इज़राइल के बीच जो मौजूदा संवाद हो रहा है, उसमें इन दोनों का नितांत अभाव दिखता है. इसकी एक वजह शायद ये भी हो सकती है कि इस क्षेत्र के लिए अमेरिका और इज़राइल के दृष्टिकोण और लक्ष्य बिल्कुल अलग अलग हैं. बाइडेन के कार्यकाल में अब कुछ ही महीने बचे हैं. ऐसे में वो इस क्षेत्र में युद्ध विराम लागू कराकर अपनी एक बड़ी अंतिम विरासत छोड़ जाने का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं. वहीं, नेतन्याहू के लिए उनकी कैबिनेट द्वारा तय एजेंडा अहम है, जिसके तहत इज़राइल मध्य पूर्व में स्थायी अमन के लिए अपने इर्द गिर्द सुरक्षा और दुश्मन के दिल में भय का माहौल बनाना चाहता है. इस क्षेत्र में दबदबे की इज़राइल की ख़्वाहिश और एक फिलिस्तीनी राष्ट्र के गठन के बीच फ़ौरी तौर पर एक क्षेत्रीय युद्ध छिड़ने का ख़तरा मंडरा रहा है.
बाइडेन की दुविधा में इस बात से भी इज़ाफ़ा हो गया है कि इस क्षेत्र की ईरान जैसी ताक़तों पर अमेरिका का नियंत्रण कमज़ोर पड़ता जा रहा है. डोनल्ड ट्रंप ने ईरान के साथ परमाणु समझौते (JCPOA) से अमेरिका को अलग कर लिया था. इस वजह से बाइडेन प्रशासन के हाथ से एक सुनहरा मौक़ा निकल गया. इसके बाद से इस क्षेत्र में अमेरिका के साथी देशों, ख़ास तौर से इज़राइल और सऊदी अरब के सामने ये सवाल और गंभीर होता गया है कि अगर ईरान ने परमाणु हथियार बना लिए, तब क्या होगा. ये दोनों ही देश अमेरिका से अपनी सुरक्षा की गारंटी हासिल करना चाहते हैं. परमाणु समझौते से अमेरिका के अलग होने का नतीजा ये हुआ कि बाइडेन के शासन काल में ईरान ने अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) की शर्तों का उल्लंघन तो किया ही है. इसके साथ साथ, ईरान, इज़राइल और सऊदी अरब, अमेरिका से इस बात को लेकर उलझते रहे हैं कि क्या उस परमाणु समझौते को दोबारा जीवित किया जाना चाहिए. अब चूंकि ईरान ने कुछ महीनों के भीतर दो बार इज़राइल पर हमले किए हैं, ऐसे में ये सवाल तो और भी पीछे चला गया है.
डोनल्ड ट्रंप ने ईरान के साथ परमाणु समझौते (JCPOA) से अमेरिका को अलग कर लिया था. इस वजह से बाइडेन प्रशासन के हाथ से एक सुनहरा मौक़ा निकल गया. इसके बाद से इस क्षेत्र में अमेरिका के साथी देशों, ख़ास तौर से इज़राइल और सऊदी अरब के सामने ये सवाल और गंभीर होता गया है कि अगर ईरान ने परमाणु हथियार बना लिए, तब क्या होगा.
वैसे तो, बाइडेन प्रशासन ईरान को ‘ख़तरनाक’ कहता रहा है और पूरी मज़बूती से इज़राइल के पक्ष में खड़ा रहा है. फिर भी अमेरिका ने नरम रुख़ अपनाते हुए नेतन्याहू से गुज़ारिश की कि वो ईरान के हमले के जवाब में उसके तेल के कुओं पर हमला करने के बजाय दूसरे निशाने साधें. अमेरिका ने इज़राइल को साफ़ तौर पर ईरान के परमाणु ठिकानों को निशाना बनाने से गुरेज़ करने की सलाह दी है. हालांकि, बाद में 3 अक्टूबर को एक अस्पष्ट से बयान में जो बाइडेन ने संकेत दिया था कि अमेरिका और इज़राइल के बीच, ईरान के तेल के ठिकानों को निशाना बनाने पर बात चल रही है. पर इसके बावजूद, इज़राइल ने बार बार दिखाया है कि उस पर अमेरिका का सीमित नियंत्रण है; अमेरिका ने इज़राइल को सलाह दी थी कि वो हिज़्बुल्लाह के साथ जंग का दायरा न बढ़ाए और बाइडेन ने तो युद्ध विराम की मांग की है. वहीं, इज़राइल ने लेबनान में अपना सैन्य अभियान तेज़ कर दिया है, और लेबनान के भीतर इज़राइल द्वारा संयुक्त राष्ट्र के मिशन (UNIFIL) को निशाना बनाने की ख़बरों से भी बाइडेन की छवि पर वो दाग़ लगा है, जिसकी वो अपेक्षा नहीं कर रहे थे.
बाइडेन प्रशासन की दुविधा ये है कि वो अपने एक साथी देश के साथ खड़ा हो या फिर इस सोच का सामना करे कि इस युद्ध को अमेरिका की भड़का रहा है. अमेरिका में ये साल चुनावी होने की वजह से ये दुविधा और भी बढ़ गई है. अमेरिका और इज़राइल के संबंध शायद अपने सबसे बड़े इम्तिहान के दौर से गुज़र रहे हैं. इज़राइल और हमास के युद्ध और अब लेबनान में इज़राइल के सैन्य अभियान ने अमेरिका के सामाजिक ताने-बाने पर दबाव बहुत बढ़ा दिया है. अमेरिकी प्रशासन की नज़र में ये बात तो बिल्कुल साफ़ है कि मध्य पूर्व ही नहीं पूरी दुनिया में इज़राइल उसका बेशक़ीमती और सबसे अहम साझीदार है. लेकिन, अमेरिका के विश्वविद्यालयों में इज़राइल के ख़िलाफ़ हो रहे विरोध प्रदर्शनों और यहूदियों के ख़िलाफ़ बढ़ती नफ़रत से ये संकेत मिलता है कि अमेरिका के राजनीतिक वर्ग और वहां की तेज़ी से बदल रही आबादी की सोच के बीच इज़राइल को लेकर फ़ासले बढ़ते जा रहे हैं, जो अमेरिका में आ रहे पीढ़ीगत बदलाव का प्रतीक है. जब पूरे अमेरिका ही नहीं, दुनिया भर में इज़राइल के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन तेज़ हो गए, तो डेमोक्रेटिक पार्टी ने इज़राइल को लेकर अपनी नीति में संशोधन करने की कोशिश की. क्योंकि उसके सामने दांव पर अरब मुस्लिम मूल के वो लगभग 35 लाख वोटर हैं, जो अमेरिका में रहते हैं.
जब पूरे अमेरिका ही नहीं, दुनिया भर में इज़राइल के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन तेज़ हो गए, तो डेमोक्रेटिक पार्टी ने इज़राइल को लेकर अपनी नीति में संशोधन करने की कोशिश की. क्योंकि उसके सामने दांव पर अरब मुस्लिम मूल के वो लगभग 35 लाख वोटर हैं, जो अमेरिका में रहते हैं.
व्यापक वैश्विक पहेली को देखें, तो इज़राइल मध्य पूर्व में अमेरिकी नीति का एक अहम पहलू रहा है, और अमेरिका सामरिक रूप से इज़राइल पर बहुत अधिक निर्भर है. इज़राइल की तकनीकी प्रगति के साथ अमेरिका चाहता है कि वो अपने औद्योगिक विस्तार को संयुक्त अरब अमीरात (UAE) तक ले जाए. क्योंकि अमेरिका और UAE के बीच अरबों डॉलर का तकनीकी व्यापार होता है, जो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के विकास के साथ ही और भी बढ़ता जा रहा है. इससे भी अहम बात ये है कि इस क्षेत्र में इज़राइल, रूस और चीन के दख़ल का मुक़ाबला करने में भी अमेरिका की मदद करता है. रूस और चीन दोनों ही 7 अक्टूबर के हमलों के जवाब के तौर पर शुरू किए गए इज़राइल के अभियानों का विरोध करते रहे हैं.
चीन का बढ़ता प्रभाव
बाइडेन प्रशासन के लिए मध्य पूर्व में चीन के बढ़ते प्रभाव ने इस इलाक़े को लेकर उनके सामरिक समीकरण बिगाड़ दिए हैं. चीन ने न केवल इज़राइल के सैन्य अभियानों की निंदा की है, बल्कि इस इलाक़े में निवेश के ज़रिए चीन की बढ़ती मौजूदगी की वजह से यहां के लोगों की नज़र में वो अमेरिका की तुलना में बेहतर शक्ति है. अगर इज़राइल ने आगे चलकर मजबूर किया, तो ईरान और सऊदी अरब के बीच चीन की अगुवाई में शुरू हुई बातचीत ने संभवत: भविष्य में दोनों देशों के बीच आपसी संवाद के बीज बो दिए हैं. इस वजह से इस क्षेत्र में अमेरिका के हित साधने के लिए अमेरिका जो भी प्रयास कर रहा है, उसमें सबसे बड़ी भूमिका इज़राइल की गतिविधियों की होगी. इस बात का शायद सबसे बड़ा उदाहरण, सऊदी अरब और इज़राइल के रिश्ते सामान्य होने का होगा. सऊदी अरब, ईरान को कमज़ोर करना और इस इलाक़े में उसकी ‘प्रतिरोध की धुरी’ को नष्ट तो करना चाहता है. लेकिन, इज़राइल के साथ वो शायद तब तक रिश्ते सामान्य करने के लिए सहमत नहीं होगा, जब तक एक स्वतंत्र फिलिस्तीनी राष्ट्र के लिए बातचीत किसी ठोस नतीजे की तरफ़ न बढ़े.
इस बीच, अमेरिका की घरेलू राजनीति के संकेत ऐसे हैं, जिसमें कमला हैरिस और डोनल्ड ट्रंप की अमेरिका और इज़राइल के रिश्तों को लेकर नीतियां अलग अलग दिख रही हैं. इज़राइल और ख़ास तौर से नेतन्याहू के लिए ट्रंप का दोबारा चुनाव जीतना ज़्यादा मुफ़ीद होगा. शुरुआती संकेत पहले ही दिए जा चुके हैं. इसी साल जब नेतन्याहू ने अमेरिकी संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित किया था, तब कमला हैरिस उसमें शामिल नहीं हुई थीं. अपनी उसी दौरे में नेतन्याहू ने डोनल्ड ट्रंप से मुलाक़ात की थी, जिसकी ख़ूब चर्चा हुई थी. इसी साल की शुरुआत में बाइडेन की डेमोक्रेटिक पार्टी ने इज़राइल ओनली बिल को भी ख़ारिज कर दिया था. जिसकी वजह से इज़राइल को अमेरिका से मिलने वाली 17.6 अरब डॉलर की सहायता रुक गई थी. इससे, पता चलता है कि कमला हैरिस के चुनाव जीतने की स्थिति में इज़राइल को लेकर अमेरिका की क्या नीति रहने वाली है.
इज़राइल और हमास के बीच मौजूदा संघर्ष शुरू होने से पहले, मध्य पूर्व को लेकर अमेरिका की नीति का ज़ोर शांतिपूर्ण कूटनीति और धीरे धीरे इस क्षेत्र से अपना दबदबा कम करने पर था, जिसकी शुरुआत अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना वापस बुलाकर कर दी थी. जबकि इस वजह से इस क्षेत्र में चीन को अपने पांव जमाने का मौक़ा मिल गया था. बाइडेन, मध्य पूर्व को अमेरिका और चीन के बीच दबदबे की जंग का मैदान बनाने का जोखिम लेने से बचना चाहेंगे. यही नहीं, 7 अक्टूबर की घटनाओं के बाद से अमेरिका और सऊदी अरब के रिश्ते में आए तनाव से चीन को इस इलाक़े में अपना प्रभाव बढ़ाने का अच्छा मौक़ा भी मिल गया है. हालांकि, जो बाइडेन के पास शायद मध्य पूर्व में अमेरिका की स्थिति मज़बूत बनाए रखने के लिए इज़राइल को समर्थन देने की अपनी विरासत को आगे बढ़ाने का ज़्यादा वक़्त है नहीं. जबकि ऐसा करके ही अमेरिका, दोबारा हिंद प्रशांत क्षेत्र पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकेगा.
विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन के दस दौरों और बाइडेन के इज़राइल से अनगिनत बार बात करने के बावजूद युद्ध विराम का समझौता अभी दूर की कौड़ी नज़र आ रहा है. इज़राइल ने ज़रूरत पड़ने पर स्वतंत्र रूप से फ़ैसले लेने के विकल्प को अपनाने के संकेत खुलकर दिए हैं. वहीं, अमेरिका, इज़राइली सेना को उस वक़्त मदद देने से बिल्कुल इनकार करता रहा है, जब उसके हमले से आम नागरिकों को बहुत नुक़सान होने का डर होता है. आज जब हमास या फिर इज़राइल दोनों में से कोई भी एक झुकने को तैयार नहीं है. ऐसे में हालात एक आदर्श गेम थ्योरी वाले तमाशे में तब्दील होते जा रहे हैं.
बाइडेन, मध्य पूर्व को अमेरिका और चीन के बीच दबदबे की जंग का मैदान बनाने का जोखिम लेने से बचना चाहेंगे. यही नहीं, 7 अक्टूबर की घटनाओं के बाद से अमेरिका और सऊदी अरब के रिश्ते में आए तनाव से चीन को इस इलाक़े में अपना प्रभाव बढ़ाने का अच्छा मौक़ा भी मिल गया है.
ताज़ा ओपिनियन पोल्स के मुताबिक़ आज लोकप्रिय जन समर्थन में कमला हैरिस को डोनल्ड ट्रंप पर मामूली बढ़त हासिल है. वहीं, नेतन्याहू अमेरिकी जनता के बीच बेहद अलोकप्रिय होते जा रहे हैं. ऐसे में सवाल ये है कि क्या कमला हैरिस, इज़राइल को लेकर जो बाइडेन की नीतियों का ही अनुसरण करेंगी? अभी तो ये बात बिल्कुल साफ़ दिख रही है कि कमला हैरिस, खाड़ी क्षेत्र में ईरान को अस्थिर करने वाली ताक़त के तौर पर देखती हैं. उन्होंने इज़राइल को खुलकर समर्थन की बातें भी की हैं. लेकिन, कमला हैरिस हज़ारों फिलिस्तीनी नागरिकों की मौत की भी निंदा कर चुकी हैं. उन्होंने ये भरोसा भी दिया है कि अमेरिका युद्ध विराम के लिए इज़राइल पर दबाव बनाता रहेगा. ये बाइडेन की तुलना में कहीं कड़ा रुख़ है. आज जब अरब मूल के अमेरिकी नागरिक ये उम्मीद कर रहे हैं कि कमला हैरिस, नेतन्याहू से दूरी बनाएंगी. वहीं, इस वक़्त की बात करें, तो मध्य पूर्व को लेकर बाइडेन और कमला हैरिस की नीतियों में कोई ख़ास फ़र्क़ नज़र नहीं आ रहा है. क्योंकि, कमला हैरिस को विरासत में उथल पुथल भरा मध्य पूर्व क्षेत्र ही मिलने जा रहा है.
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