Author : Kashish Parpiani

Published on Feb 03, 2021 Updated 0 Hours ago

साल 2016 में ट्रंप की जीत ने अमेरिका के कामगार वर्ग को चुनावी प्रक्रिया के केंद्र में ला खड़ा किया था और ट्रंप की अमेरिका फ़र्स्ट की विदेश नीति ने अमेरिकी विदेश नीति संस्थानों को इस बात की याद दिलाई कि विदेश नीति के नाम पर घरेलू प्राथमिकताओं को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है.

इंडो पैसिफ़िक पर बाइडेन का रुख़: अमेरिका फ़र्स्ट की नीति की निरंतरता

साल 2020 में अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर प्रचार के दौरान अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन ने तब पुनर्सुधार एजेंडे पर काम करने का जोर शोर से ऐलान किया था. बाइडेन अपनी चुनावी रैलियों में अमेरिका की विदेश नीति  को अपने पूर्ववर्ती डोनाल्ड ट्रंप के ‘अमेरिका फ़र्स्ट दृष्टिकोण’ के संकुचित दायरे से बचाने का वादा करते रहे. हो भी क्यों ना ट्रंप के शासन के दौरान अमेरिका के सहयोगी मुल्क़ों की सुरक्षा ज़ोख़िमों को लेकर वॉशिंगटन की चिंता की पृष्ठभूमि में ‘अमेरिका फ़र्स्ट’ (पहले अमेरिका) की नीति दरअसल ‘अमेरिका अलोन’ (अकेला अमेरिका) में तब्दील हो गई थी. हालांकि, एशिया में ट्रंप की अमेरिका फ़र्स्ट की नीति कई मायनों में संतुलित नज़र आई क्योंकि ट्रंप प्रशासन ने चीन के आक्रामक रुख़ को लेकर निरंतर चुनौती देने वाली रणनीति को अपनाया. क्योंकि इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते दबदबे पर लगाम लगाने के लिए इस नीति को द्विपक्षीय सहयोग हासिल था.

अपने प्रशासन की इंडो पैसिफ़िक रणनीति – जो हिंद और प्रशांत महासागर क्षेत्र के भाग्य को एक दूसरे से जोड़ती है – के साये में ट्रंप ने बराक ओबामा की धुरी/एशियाई नीति में फिर से संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया. इस क्षेत्र में अमेरिका के सहयोग के संबंध में ट्रंप ने जिन नीतियों को आगे बढ़ाया वो नीतियां अमेरिका की पूर्व विदेश नीतियों से थोड़ी अलग थी. उदाहरण स्वरूप, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे परंपरागत सहयोगियों के साथ ट्रंप ने रचनात्मक रूख़ अपनाया. इस मक़सद को पूरा करने के लिए ट्रंप ने ओबामा युग की प्रतिबद्धता, जैसे अमेरिका जापान गठजोड़ के दायरे को उन इलाक़ों में फिर से पुष्ट करना जिन्हें लेकर विवाद है और डारविन में अमेरिकी सेना की रोटेशन में मौज़ूदगी के लिए तयशुदा लक्ष्य को प्राप्त करना शामिल है. जबकि भारत और वियतनाम जैसे नए सहयोगियों के साथ ट्रंप ने इन मुल्क़ों की नौसेना की कैपिसिटी बिल्डिंग का ज़िम्मा उठाया और नए सुरक्षा समझौतों को आख़िरी रूप दिया. संस्थागत सुरक्षा सहयोग की नीति के प्रति ट्रंप का रूख़ वैसे भी काफी नज़रअंदाज़ करने वाला रहा है.

हालांकि, राष्ट्रपति चुनाव जीतने के बाद से ही जो बाइडेन ने इंडो-पैसिफ़िक को लेकर ट्रंप की प्रचलित शब्दावली से दूरी बना ली जो शायद इस कोशिश का नतीज़ा था कि वो चीन के साथ एक समझौताकारी नीति की खोज में कुछ सियासी मौक़े को पैदा करना चाहते हैं. 

इसलिए जो बाइडेन ने “हमारी (अमेरिका की) ऐतिहासिक भागीदारी की  वापसी” की प्रतिबद्धता को दोहराया, और जिसमें इंडो-पैसिफ़िक को लेकर एक ऐसी रणनीति उभरी जो ट्रंप की नीतियों के रिकॉर्ड और बाइडेन की प्रस्तावित नीतियों से हल्की अलग थी, जो वास्तव में स्वागत योग्य है. हालांकि, राष्ट्रपति चुनाव जीतने के बाद से ही जो बाइडेन ने इंडो-पैसिफ़िक को लेकर ट्रंप की प्रचलित शब्दावली से दूरी बना ली जो शायद इस कोशिश का नतीज़ा था कि वो चीन के साथ एक समझौताकारी नीति की खोज में कुछ सियासी मौक़े को पैदा करना चाहते हैं. इंडोपैसिफ़िक क्षेत्र में अमेरिकी  भागीदारी के ट्रंप के रचनात्मक रिकॉर्ड के इतर इस क्षेत्र में बाइडेन प्रशासन की आर्थिक नीतियां इस ओर संकेत देती हैं कि बाइडेन भी ट्रंप की नीतियों की निरंतरता को ही अमल में ला रहे हैं.

ट्रंप की इंडो पैसिफ़िक रणनीति के ‘आर्थिक आधार’

ओबामा की सबसे उत्कृष्ट ट्रांस-पैसिफ़िक भागीदारी से ट्रंप की निर्लिप्तता कभी इस क्षेत्र के आर्थिक पटल पर अमेरिका के रुख़ के विश्लेषण पर भारी साबित होती है ख़ासकर इसे लेकर कि वाशिंगटन अब बहुत ज़्यादा ‘एशियाई सदी’ की प्रचारित विशिष्टता पर भरोसा जताने लगा है. जो बाइडेन ने भी ‘सड़क के नियमों’ को तय करने के लिए ‘चीन को ड्राइवर सीट’ पर बिठाने की नीति पर सहमति जताई है. हालांकि इस क्षेत्र के आर्थिक भविष्य की रूपरेखा तय करने में बाइडेन ट्रंप की इंडो-पैसिफ़िक रणनीति की ‘आर्थिक आधार’ वाली नीति को ही मानेंगे, जो भविष्य में “बाज़ार आधारित आर्थिक व्यवस्था, वित्त के निज़ी क्षेत्र और निवेश के नए द्वार खोलेगी.”

ट्रंप प्रशासन ने ख़ास कर चीन के वन बेल्ट वन रोड के पहल के ज़रिए दूसरे मुल्क़ों को कर्ज़ के जाल में फंसाने की चाल के ख़िलाफ़ ब्लू डॉट नेटवर्क (बीडीएन) को स्थापित किया था जिससे अमेरिका और इसके सहयोगी देशों द्वारा किए गए उच्च स्तरीय निवेश को रेखांकित किया जा सकता था. “उच्च मानदंडों के पालन को मंज़ूरी देने को लेकर स्वीकृति” देने में बीडीएन बाज़ार आधारित, पारदर्शी और ढांचागत परियोजनाओं की वित्तीय निरंतरता को बढ़ावा देती है. यह ‘विशिष्ट गुण वाले ढांचागत निवेश के सिद्धांत‘ को बनाने में जापान के जी 20 के नेतृत्व की भी पुष्टि करता है.

आख़िरकार साल 2016 में ट्रंप की जीत ने अमेरिका के कामगार वर्ग को चुनावी प्रक्रिया के केंद्र में ला खड़ा किया था और ट्रंप की अमेरिका फ़र्स्ट की विदेश नीति ने अमेरिकी विदेश नीति संस्थानों को इस बात की याद दिलाई कि विदेश नीति के नाम पर घरेलू प्राथमिकताओं को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है. 

इतना ही नहीं इस कदम के साथ ही निवेशों के बेहतर इस्तेमाल जिसकी वज़ह से डेवलपमेंट एक्ट ऑफ 2018 अस्तित्व में आया, जिसकी बदौलत ट्रंप प्रशासन ने 60 बिलियन अमेरिकी डॉलर की बज़ट के साथ यूएस इंटरनेशनल डेवलपमेंट फ़ाइनेंस कॉरपोरेशन (डीएफसी) की स्थापना की. डीएफसी का मक़सद विकासशील मुल्क़ों के साथ “आर्थिक विकास के लिए निजी क्षेत्र की पूंजी और स्किल की भागीदारी को बढ़ावा और सहज बनाने” की है. सितंबर 2020 तक डीएफसी के पास 5.4 बिलियन डॉलर की वित्त/निवेश पूंजी/तकनीकी विकास से जुड़ी इंडो-पैसिफ़िक क्षेत्र में 200 से ज़्यादा परियोजनाएं थीं. इससे अमेरिकी समर्थित नीतियों को बनाने का मक़सद भी पूरा होता दिखता है.

साल 2018 में ट्रंप प्रशासन ने इंडो-पैसिफ़िक क्षेत्र में ईंधन के बाज़ार का लाभ उठाने के लक्ष्य से एशिया ईडीजीई की पहल की शुरुआत की थी जो साल 2040 तक ईंधन के वैश्विक बाज़ार में 60 फ़ीसदी मांग की बढ़ोतरी की संभावना से भरा हुआ है. इसके साथ ही तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था जैसे इंडोनेशिया, बांग्लादेश और वियतनाम में ईंधन के क्षेत्र में निवेश की तैयारी/चालू करने की योजना पर भी आगे बढ़ने की रणनीति बनाई गई है. अमेरिका ने मेकांग देशों में “मुफ़्त, खुले, स्थिर, नियम आधारित स्थानीय बिजली बाज़ार” को सहयोग देने के लिए निवेश करने का ऐलान किया था. दरअसल इस क्षेत्र के आर्थिक भविष्य को संवारने के लिए ट्रंप प्रशासन ने व्यापार को बढ़ावा देने की नीति अपनाई जो कहीं ना कहीं बाइडेन की कामगार वर्ग के प्रति विदेश नीति की चाह से संबंधित है.

अमेरिका फ़र्स्ट की दृष्टिकोण का आंतरिक विस्तार

बाइडेन की ओर से नीतियों को लेकर शुरू किए गए कई क़दम इस बात पर निर्भर करेंगे कि एक बार फिर अमेरिका मल्टीलेटरेलिज्म और अमेरिकी द्विपक्षीय सहमति, जिसमें ट्रंप शासन के दौरान की कुछ नीतियों की निरंतरता (जैसे बीयूआईएलडी कानून को पूरी तरह लागू करना) भी शामिल है, के विचार को पुनर्जीवित करने पर जोर देगा. इसके अलावा इंडो-पैसिफ़िक को लेकर नीतियों की निरंतरता इस बात पर भी आधारित होगी कि जो बाइडेन ने चुनाव प्रचार के दौरान ऐसी विदेश नीति पर चलने का वादा किया था जो “कामगार वर्ग के लोगों के जीवन को बेहतर, सुरक्षित और आसान बना सके”.

हो सकता है कि स्थानीयता को प्रमुखता देने की नीति को कुछ लोग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका की सियासी हैसियत में आई कमी से जोड़ कर देखने लगें, लेकिन बाइडेन की नीतियों में ट्रंप के दृष्टिकोण की झलक दिखनी तय है. आख़िरकार साल 2016 में ट्रंप की जीत ने अमेरिका के कामगार वर्ग को चुनावी प्रक्रिया के केंद्र में ला खड़ा किया था और ट्रंप की अमेरिका फ़र्स्ट की विदेश नीति ने अमेरिकी विदेश नीति संस्थानों को इस बात की याद दिलाई कि विदेश नीति के नाम पर घरेलू प्राथमिकताओं को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है.

फ्रेकिंग प्रक्रिया के ज़रिए ही अमेरिका की 95 फ़ीसदी तेल और गैस के कुओं की ड्रिलिंग होती है इस लिहाज़ से इस स्थिति में थोड़ी बहुत सियासी परिवर्तन भी इस सेक्टर में नौकरियों को बहुत हद तक प्रभावित कर सकता है. 

इंडो- पैसिफ़िक क्षेत्र को लेकर ट्रंप प्रशासन की एशिया ईडीजीई पहल के लक्ष्यों पर ध्यान दें तो यह बात सामने आती है कि अमेरिका की कुल एनर्जी आयात की 30 फ़ीसदी (साल 2018 में 50 बिलियन अमेरिकी डॉलर के मूल्य की) इंडो-पैसिफ़िक क्षेत्र पर केंद्रित है. यह बेहद साफ है कि ये कदम “ट्रंप प्रशासन के उस लक्ष्य से संबंधित है जिसमें अमेरिका के एनर्ज़ी वर्चस्व को क़ायम करने की बात शामिल है.” इंडो-पैसिफ़िक क्षेत्र में एनर्ज़ी से संबंधित ढांचागत सुविधाओं से होने वाले फ़ायदे के अलावा एशियन ईडीजीई की पहल का मक़सद इस क्षेत्र की एनर्ज़ी बाज़ार की तमाम क्षमता का उपयोग करना भी है. इसके साथ ही अमेरिका के एनर्ज़ी सेक्टर में अमेरिकी नागरिकों की नौकरियों को सुरक्षित करने और “अमेरिकी एनर्ज़ी उत्पादकों के लिए नए निर्यात की संभावनाओं” की तलाश करना भी ट्रंप के साल 2016 के चुनावी वादों से संबंधित रहा है.

दुनिया में सबसे बड़े एनर्ज़ी उत्पादक” और “तेल के निर्यातक देश के तौर पर अमेरिका की प्रगति को ट्रंप ने जिस प्रकार रेखांकित किया उससे बाइडेन के लिए आने वाले समय में इस पहल से होने वाले विदेश नीति के फायदों को नज़रअंदाज़ करना कठिन होगा. हालांकि, तेल क़ारोबार को नियंत्रित करने और क्लीनर फ्यूल की संभावनाओं को बल देने के लिए बाइडेन ने प्रगतिवादी एनर्ज़ी नीति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई है, लेकिन फ्रेकिंग को लेकर वो काफी व्यवहारिक नज़र आते हैं. फ्रेकिंग प्रक्रिया के ज़रिए ही अमेरिका की 95 फ़ीसदी तेल और गैस के कुओं की ड्रिलिंग होती है इस लिहाज़ से इस स्थिति में थोड़ी बहुत सियासी परिवर्तन भी इस सेक्टर में नौकरियों को बहुत हद तक प्रभावित कर सकता है. ऐसे में बाइडेन की “मध्यम वर्ग” संबंधी विदेश नीति इंडो-पैसिफ़िक और उससे आगे के क्षेत्र के लिए ट्रंप की बनाई गई एनर्जी नीति के एकदम उलट नहीं हो सकती है.

इसी तरह नौकरियों और आर्थिक सुधार को लेकर बाइडेन की ‘बिल्ड बैक बेटर’  योजना भी ट्रंप की उस नीति से मेल खाती है जिसके तहत अमेरिकी क़ारोबार के लिए बाज़ार की पहुंच को बढ़ाना और अमेरिकी मैन्युफैक्चरिंग आधार को बढ़ावा देना शामिल है. इंडो-पैसिफ़िक क्षेत्र में इंडो-पैसिफ़िक बिज़नेस फोरम के ज़रिए ट्रंप प्रशासन ने 9000 से ज़्यादा अमेरिकी कंपनियों की एंट्री को सुनिश्चित किया और 7.65 बिलियन अमेरिकी डॉलर के अतिरिक्त निर्यात को हासिल किया. इसके साथ ही अमेरिकी संसद को यूएस एक्सपोर्ट-इंपोर्ट बैंक के जनादेश को बहाल करने के लिए तैयार कर ट्रंप ने 40 बिलियन अमेरिकी डॉलर के अतिरिक्त निर्यात का रास्ता प्रशस्त किया जिससे देखने में 2 लाख 30 हजार नौकरियां पैदा करने में मदद मिली.

इसलिए अमेरिकी कामगार वर्ग के लिए अमेरिकी अंतर्राष्ट्रीयवाद के मूल को अपनी विदेश नीति से बदलने की बाइडेन की कोशिशें, इंडो-पैसिफ़िक के लिए उनकी आर्थिक नीति बहुत हद तक उसी दिशा में आगे बढ़ेगी जिस रास्ते को ट्रंप ने अपनी ‘अमेरिका फ़र्स्ट’ की नीति से तैयार किया था.

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