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भारत के नीति-निर्माताओं ने संकेत दिए हैं कि रूस के साथ ऐतिहासिक रूप से मज़बूत रिश्ते अमेरिका के साथ उसी तरह की मज़बूती वाले रिश्तों के रास्ते में बाधा नहीं बननी चाहिए.
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ‘द्विपक्षीय या आर-पार के विभाजन’ आम हैं. इसमें दो विपरीत पक्ष, एक दूसरे को ‘ज़ीरो-सम गेम’ वाली मानसिकता से देखते हैं, जिसमें एक पक्ष की हानि का मतलब दूसरे का लाभ होता है. बहरहाल, अन्य देशों के लिए ऐसे हालात हमेशा असमंजस पैदा करते हैं क्योंकि एक देश के साथ नज़दीकियों को उसके प्रतिद्वंदी द्वारा सकारात्मक रूप से नहीं देखा जाता. भारत ने अमेरिका की अगुवाई वाले पश्चिमी जगत और रूस (पूर्ववर्ती सोवियत संघ) की रस्साकशी देखी है. इसने भारत की विदेश और सुरक्षा नीतियों पर गहरा प्रभाव डाला है. 1991 में शीत युद्ध के ख़ात्मे के बावजूद अमेरिका और रूस के नीति निर्माता, भारत के साथ अपने संबंधों को अपनी लंबी ऐतिहासिक प्रतिद्वंद्विता के सह-परिणाम के रूप में देखते आ रहे हैं.
चीन को संतुलित करने के भारत के प्रयासों पर इतिहास के आईने में झांकने से पता चलता है कि भारत ने चीन की चुनौती से निपटने के लिए 1962 में अमेरिका और 1971 में सोवियत संघ के साथ साझेदारी और गठबंधन किया.
यूक्रेन पर अमेरिका-रूस के बीच आए कूटनीतिक गतिरोध ने भारत की सुरक्षा चुनौतियों को और गहरा कर दिया है, क्योंकि दोनों ही देश भारत के लिए अहम रणनीतिक साझीदार हैं. महाद्वीपीय (यूरेशियाई) और सामुद्रिक (हिंद-प्रशांत), दोनों प्रकार की शक्ति होने के कारण भारत की अपनी ख़ास सुरक्षा चिंताएं हैं. चीन जैसे बाहरी सुरक्षा ख़तरे के प्रति भारत की प्रतिक्रिया, इस भौगोलिक वास्तविकता को दर्शाती है. चीन के साथ भारत के संबंध, अमेरिका-रूस रस्साकशी पर हिंदुस्तान की प्रतिक्रिया तय करने की क़वायद के अहम कारकों में से एक रहे हैं. चीन को संतुलित करने के भारत के प्रयासों पर इतिहास के आईने में झांकने से पता चलता है कि भारत ने चीन की चुनौती से निपटने के लिए 1962 में अमेरिका और 1971 में सोवियत संघ के साथ साझेदारी और गठबंधन किया. 1970 के दशक के शुरुआती कालखंड में अमेरिका-चीन रिश्तों में आई नरमी से भारत को संकेत मिल गए कि चीन को संतुलित करने के लिए अमेरिका एक भरोसेमंद साझीदार नहीं होगा! भारत ने 1971 में सोवियत संघ के साथ गठबंधन (मैत्री संधि) की राह तलाशी, क्योंकि दोनों देशों के चीन के साथ अच्छे संबंध नहीं थे. बाद में 1980 के दशक में सोवियत संघ ने चीन के साथ मेल-मिलाप की क़वायद शुरू कर दी. रूसी राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव की ‘नई राजनीतिक सोच’ के तहत इस प्रक्रिया ने और रफ़्तार पकड़ी. शीत युद्ध के दौरान सामने आए रुझान से पता चलता है कि भारत-चीन संबंधों में रूस एक संतुलनकर्ता रहा है. हालांकि भारतीय चिंताओं को समायोजित करने की चीन की इच्छा ऐसे क्षणों में सामने आई जब चीन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संकट महसूस हुआ या उन वक़्तों में जब चीन-सोवियत प्रतिस्पर्धा बहुत तीखी रही. बहरहाल, आज की दुनिया में चीन के सामने रूस की शक्ति और प्रभाव, कतई कोई अड़चन नहीं है. इससे साफ़ संकेत मिलते हैं कि रूस और चीन के बीच बढ़ती साझेदारी के बीच, भारत की चिंताओं को दूर करने के लिए चीन शायद रज़ामंद नहीं होगा!
यहीं पर अमेरिका-रूस रस्साकशी पर प्रधानमंत्री मोदी की प्रतिक्रिया का विश्लेषण करना अहम हो जाता है. पश्चिम के साथ रूस के संबंधों में सुधार से भारत को चीन के ख़िलाफ़ पैंतरे दिखाने या दांव चलने के लिए काफ़ी विकल्प मिलेंगे. हालांकि, यूक्रेन में रूसी कार्रवाइयों के मद्देनज़र यह परिदृश्य व्यावहारिक तौर पर संभव नहीं है. 2014 में जब प्रधानमंत्री मोदी ने सत्ता संभाली थी, तब उन्होंने ख़ुद को अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक संरचनात्मक बदलाव के बीच पाया, जिसमें रूस, भारत की तुलना में चीन पर ज़्यादा निर्भर था. PM मोदी को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने अमेरिका की ओर अतीत में दिखाई गई झिझक का त्याग कर दिया और इस रिश्ते को नए मुकाम पर ले गए. ख़ासकर जून 2020 में गलवान घाटी में हुई झड़प के बाद प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत, चीन के ख़िलाफ़ अमेरिका के साथ जुड़ने का एक और प्रयास कर रहा है. भारत-अमेरिका गठबंधन ऐसे समय में सामने आया है, जब यूरेशिया में शक्ति संतुलन में निरंतर बदलाव आ रहे हैं. 1947 के बाद से भारत को अपने उत्तर में एक बड़ा मित्र देश सोवियत संघ मिला हुआ था, जिसने यूरेशियाई परिदृश्य पर अपना दबदबा बना रखा था, और चीन से निपटने में भारत की मदद करता था. इस संभावना पर अब प्रश्नचिन्ह लग रहे हैं, क्योंकि रूस और चीन असीमित यानी बिना हदों वाली साझेदारी का दावा करते हैं. पहले ही यूक्रेन में रूस के लंबे सैन्य अभियान के चलते भारत को महत्वपूर्ण रक्षा आपूर्तियों में देरी हो रही है. चीन के साथ भारत का मेल-मिलाप अब अतीत की कहानी लगती है क्योंकि वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर अपने आक्रामक तेवरों के ज़रिए चीन पिछले सीमा समझौतों और व्यवस्थाओं पर सवाल खड़े करता जा रहा है. इससे रूस-भारत-चीन (RIC) त्रिपक्षीय समूह, शंघाई सहयोग संगठन (SCO) और ब्राज़ील रूस भारत चीन दक्षिण अफ्रीका (ब्रिक्स) बहुपक्षीय संगठनों में भारत की सदस्यता पर भी सवालिया निशान लगते हैं. इन तमाम संगठनों में रूस और चीन, दोनों सदस्य के रूप में शामिल हैं. लिहाज़ा इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत 2017 में क्वॉड के पुनर्जीवित (revived) संस्करण में शामिल हो गया था, उसी वर्ष वो SCO का भी सदस्य बन गया. यूरेशिया में पैक्स सिनिका (यानी रूस-चीन नज़दीकियां) आकार ले रही है, ऐसे में भारत अमेरिका और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में समान विचारधारा वाले देशों के साथ घनिष्ठ सुरक्षा संबंध विकसित करके अपने दांव चल रहा है.
भारत-अमेरिका गठबंधन ऐसे समय में सामने आया है, जब यूरेशिया में शक्ति संतुलन में निरंतर बदलाव आ रहे हैं. 1947 के बाद से भारत को अपने उत्तर में एक बड़ा मित्र देश सोवियत संघ मिला हुआ था, जिसने यूरेशियाई परिदृश्य पर अपना दबदबा बना रखा था
हाल में प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति के मुख्य आकर्षणों में से एक अमेरिका और रूस के बीच ‘डी-हाइफनेशन’ की तलाश करना है. इस क़वायद का मतलब है रूस और अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते दोनों महाशक्तियों की आपसी खींचतान से परे है. यही वजह है कि अमेरिका की अपनी ऐतिहासिक और कामयाब यात्रा पूरी करने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को फोन मिलाया. राष्ट्रपति पुतिन हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी को ‘रूस का बड़ा दोस्त’ बता चुके हैं. भारत, अमेरिका के साथ अपने रणनीतिक जुड़ावों को गहरा करने के बावजूद रूस के साथ संबंधों को स्थिर रखने की कोशिश करता आ रहा है.
कमज़ोर पड़ चुके रूस की चीन पर निर्भरता, यूरेशिया में भारत के रणनीतिक विकल्पों को जटिल बना देगी. बेशक़ भारत अकेले ही चीन की आक्रामकता का मुक़ाबला करने में पर्याप्त रूप से सक्षम है, यही वजह है कि विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर ने चीन के खिलाफ किसी भी सैन्य गठबंधन में शामिल होने से इनकार कर दिया है. अमेरिका से भारत की निकटता रूस की कीमत पर नहीं आ रही है; दरअसल ये क़रीबी उन क्षेत्रों में सामने आ रही है जहां रूस अब अगुवा नहीं बन सकता. इनमें टेक्नोलॉजी और अंतरिक्ष जैसे क्षेत्र शामिल हैं. हिंद-प्रशांत और क्वॉड जैसी पहलों को लेकर भारत और रूस के बीच भू-राजनीतिक मतभेद हैं. हालांकि रूस, इनमें से किसी भी पहल के निशाने पर नहीं है.
भारत के लिए चीन एक दोहरा (महाद्वीपीय और सामुद्रिक) ख़तरा है; लेकिन ज़रूरी नहीं कि हिंद महासागर रूस के लिए प्राथमिकता में हो! इस जलक्षेत्र में रूसी जहाज़ों की आवाजाही ना के बराबर है, जहां भारत और चीन रणनीतिक प्रतिस्पर्धा में उलझे हैं. रूस-चीन के बढ़ते रणनीतिक संबंधों और पश्चिमी जगत और रूस के टकराव के बीच भारत ने पूरी मुस्तैदी से अपनी तटस्थता व्यक्त की है. भारत को उम्मीद होगी कि रूस इसे याद रखेगा और चीन के साथ हिंदुस्तान के रिश्ते और ख़राब होने की सूरत में वो भी कम से कम तटस्थता ही बनाए रखेगा. भारत ने रूस के साथ द्विपक्षीय संबंधों को और मज़बूत कर लिया है. 2022-23 में दोनों देशों का व्यापार 45 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया. मुख्य रूप से रूस से भारत के तेल आयातों में उछाल की वजह से ऐसा हुआ है. ये एक दीर्घकालिक रुझान मालूम पड़ता है, जो अगर बरक़रार रहे, तो रक्षा व्यापार (जिसमें आने वाले वर्षों में गिरावट की आशंका है) से परे, भारत-रूस संबंधों के लिए एक नया आधार बन सकता है. रिकॉर्ड मात्रा में रूसी तेल की ख़रीद करने के अलावा भारत, यूरोप को रिफाइंड ईंधन के सबसे बड़े आपूर्तिकर्ता के रूप में भी उभरा है. इससे नाज़ुक वक़्त में यूरोप की ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने में मदद मिली है.
तटस्थतापूर्ण रुख़ पर क़ायम रहने के अलावा भारत अन्य प्रकार के बंधनों को भी तोड़ने की कोशिश कर रहा है. भारत ने ये स्पष्ट कर दिया है कि उसके रणनीतिक दृष्टिकोण में अमेरिका और रूस दोनों के अपने स्वतंत्र मूल्य हैं. भारत चाहता है कि ये दोनों देश भी उसके इस दृष्टिकोण का साथ दें. पश्चिम के दबाव के बावजूद भारत, रूस-यूक्रेन संकट को लेकर अपने रुख़ पर डटा हुआ है. इस संदर्भ में पाकिस्तान का रुख़ ठीक विपरीत है, जो तटस्थता का दावा तो करता है लेकिन उसने यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति की है. भारत, यूक्रेन में रूस की कार्रवाई का समर्थन नहीं कर रहा है, लेकिन पश्चिमी दुनिया में भारत के रुख़ की नियमित रूप से जांच-परख की जा रही है. बहरहाल, पश्चिमी देशों के नेता धीरे-धीरे रूस के साथ भारत के घनिष्ठ संबंधों की बात स्वीकारने लगे हैं. अगस्त 2022 में अमेरिका ने स्पष्ट किया था कि भारत, रूस के साथ रिश्ते नहीं तोड़ सकता क्योंकि ये क़वायद बिजली के स्विच बंद करने जैसी नहीं है. अप्रैल 2022 में ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने कहा था कि रूस के साथ भारत के रिश्ते ऐतिहासिक हैं जिन्हें दोनों देश कतई नहीं बदलेंगे. यूरोप में एक नज़रिया ये स्वीकार करता है कि रूस के साथ भारत के मज़बूत रिश्ते रूस को चीन के साथ सैन्य गठबंधन करने से रोकते हैं. एक और दृष्टिकोण अमेरिका से आता है, जिसमें दलील दी गई है कि अमेरिका को भारत-रूस संबंधों के पीछे के कारणों को समझना चाहिए, क्योंकि इसमें भविष्य में रूस-चीन संबंधों पर पानी फेरने की क़ाबिलियत है. दिलचस्प बात ये है कि चीन की ओर से एक दृष्टिकोण में इस बात को रेखांकित किया गया है कि क्वॉड को रूस को भारत के आर्थिक समर्थन से कोई परेशानी नहीं है, लेकिन चीन के साथ ऐसी रियायत उसे स्वीकार नहीं है. ये टिप्पणी सही जान पड़ती है. अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन ने हाल ही में चीनी राष्ट्रपति शी को चेतावनी देते हुए दो टूक कहा कि चीन को रूस के साथ कामकाज करते समय सावधान रहना चाहिए क्योंकि चीनी अर्थव्यवस्था पश्चिमी निवेश पर निर्भर है.
अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन ने हाल ही में चीनी राष्ट्रपति शी को चेतावनी देते हुए दो टूक कहा कि चीन को रूस के साथ कामकाज करते समय सावधान रहना चाहिए क्योंकि चीनी अर्थव्यवस्था पश्चिमी निवेश पर निर्भर है.
भारत के शीर्ष नीति निर्माताओं द्वारा अमेरिका और रूस के बारे में हाल ही में दिए गए बयानों से इन दोनों प्रतिद्वंद्वियों के साथ अपने संबंधों को लेकर स्वतंत्र और अलग-अलग रुख़ रखने की भारत की सूझबूझ भरी क़वायदों का स्पष्ट रूप से पता चलता है. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने कहा है कि अमेरिका के साथ भारत के बढ़ते सहयोग का रूस के साथ रिश्तों पर कोई असर नहीं पड़ेगा. विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा है कि भारत को विशिष्ट प्रकार के रिश्तों में बांधकर नहीं रखा जा सकता. उन्होंने आगे तर्क दिया कि रूस के साथ ऐतिहासिक रूप से मज़बूत संबंध, अमेरिका के साथ समान रूप से मज़बूत संबंधों में बाधा नहीं बनने चाहिए, क्योंकि रिश्ते किसी की लाभ तो दूसरे की हानि का खेल नहीं हैं. भारत ने अमेरिका के साथ जुड़ाव बनाते हुए रूस के साथ संबंधों को स्थिर रखा है. भारत के दृष्टिकोण से अमेरिका और रूस के बीच रिश्तों को अलग-अलग रखने की इस निरंतर जारी क़वायद से अवसरों के कई क्षेत्र खुल सकते हैं. जैसे-जैसे भारत और रूस, एक-दूसरे के प्रतिद्वंदियों (क्रमशः चीन और अमेरिका) के क़रीब आते जा रहे हैं, ऐसे में मुख्य चुनौती उनकी प्रमुख सुरक्षा चिंताओं की रक्षा करना हो सकती है. अब तक प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में इस रणनीति ने भारत के लिए बेहतर ढंग से काम किया है.
राज कुमार शर्मा यूनाइटेड सर्विस इंस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया, नई दिल्ली में विज़िटिंग फेलो हैं.
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Dr Raj Kumar Sharma is a Visiting Fellow at United Service Institution of India New Delhi. Prior to it he was Maharishi Kanad Post-Doc Fellow ...
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