Published on Jan 02, 2024 Updated 0 Hours ago

ग्लोबल नॉर्थ से वित्तीय हस्तांतरण महज़ मरहमपट्टी है. ग्लोबल साउथ को जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता से दूर जाने के लिए प्रोत्साहित करने को लेकर संसाधन जुटाने की प्रक्रिया नदारद है.

दुबई COP28: बयानबाज़ियों से परे ठोस कार्रवाई पर ज़ोर

COP28 की शुरुआत पर बयानबाज़ी का दौर गरम था, जिसमें संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस द्वारा जीवाश्म ईंधनों को जलाए जाने से रोकने का आह्वान किया गया. उनका प्रस्ताव था कि “ना कम करें, ना रोकथाम करें, चरणबद्ध रूप से ख़त्म करें.” इस तात्कालिकता को आख़िरकार पहले वैश्विक स्टॉक में कोई महत्व नहीं मिला, जिसमें लगभग 200 देशों के 85,000 प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया, और 55,000 दस्तावेज़ पेश किए गए. 

पहले स्टॉकटेक की अंतिम रिपोर्ट में “2030 तक नवीकरणीय क्षमता को तिगुना” करने का आह्वान किया गया. ये ग्लासगो सम्मेलन के बाद भारत के राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों (NDCs) में पहले से ही एक अंतर्निहित लक्ष्य है. साथ ही “2030 तक प्रति वर्ष ऊर्जा दक्षता में 2 प्रतिशत से 4 प्रतिशत तक दोगुनी बढ़ोतरी करने” का इरादा भी है. ये लक्ष्य परिवहन के त्वरित विद्युतीकरण की तात्कालिकता की ओर इशारा करता है- जो नवीकरणीय ऊर्जा के विकास की कहानी का एक सहायक हिस्सा है. ये 2050 तक “ऊर्जा प्रणालियों में जीवाश्म ईंधनों से दूर जाने” का आग्रह करता है- जिसमें दो राय नहीं हो सकती. मौजूदा जीवाश्म ईंधन परिसंपत्तियों का परित्याग और अब तक अपरिपक्व स्वच्छ ऊर्जा विकल्पों में बड़े पैमाने पर निवेश करने का सामर्थ्य मुख्य मुद्दा बना हुआ है. 

आख़िरकार यथार्थवाद की आई याद

हालांकि यथार्थवाद को इस मान्यता में शामिल किया गया है कि “संक्रमणकालीन ईंधन, ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए ऊर्जा संक्रमण को सुविधाजनक बनाने में भूमिका निभा सकते हैं.” प्राकृतिक गैस और कोयला, दोनों इस श्रेणी में आते हैं. हालांकि, कोयले के ख़िलाफ़ COP26 में तैयार मुहिम को आगे बढ़ाने और क़ायम रखने के लिए “बेलगाम ताप बिजली को चरणबद्ध तरीक़े से कम करने के लिए क़वायदों में तेज़ी लाने” के लिए अलग से (भले ही मौन स्वरूप वाला) आह्वान किया गया है.

नेक भावनाओं का ये घालमेल “कार्बन कैप्चर जैसी छंटाई तकनीकों समेत शून्य- और कम-उत्सर्जन टेक्नोलॉजियों और विशेष रूप से हार्ड-टू-एबेट क्षेत्रों में उपयोग और भंडारण में रफ़्तार लाने” का अनुरोध करता है. ये कार्बन-सघन संक्रमण ईंधनों (जैसे कोयले) के लिए एक दरवाज़ा खोल देता है, अगर कार्बन की छंटाई के पैमानों के मानक बन जाने पर उनके टेलपाइप उत्सर्जनों पर लगाम लगाई जाती है और ऐसे टेलपाइप कार्बन कैप्चर टेक्नोलॉजियों की वित्तीय व्यवहार्यता में स्केलिंग के ज़रिए सुधार आता है.  

पेरिस में आधी-अधूरी क़वायद

भविष्य के बारे में जारी अगर-मगर आंशिक रूप से 2015 में पेरिस में COP21 के दौरान तैयार की गई छिछली रणनीति को दर्शाती है, जिसमें प्रक्रियागत सार तैयार करने की बजाए सम्मेलन के अंत में सर्वसम्मति को प्राथमिकता दी गई. पेरिस सम्मेलन ने स्व-निर्धारित मेट्रिक्स की छूट देकर देशों के लिए विवादास्पद भेदकारी संक्रमण मेट्रिक्स पर वार्ताओं की बजाए आसान रास्ता निकाल लिया. ये कल्पनात्मक रूप से न्यायसंगत दृष्टिकोण था क्योंकि इसने राज्यसत्ता द्वारा हस्तक्षेप ना करने की व्यवस्था को जारी रखा जिसने उन्नत देशों को अपने प्रथम-प्रस्तावक लाभ का दुरुपयोग करके वैश्विक कार्बन बजट को कम करने की छूट दे दी थी. हैरत की बात नहीं कि 2015-2020 के दौरान नतीजे संतोषजनक से कम हैं. विनियामक अस्पष्टता अपरिहार्य रूप से निवेश को सुस्त कर देती है. आख़िरी स्टॉकटेक रिपोर्ट में कहा गया है कि “2020 के अंत तक लागू की गई नीतियों के नतीजतन अधिक वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन होने का अनुमान है, जो राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों की तुलना में ज़्यादा है, जिससे क्रियान्वयन में अंतर के संकेत मिलते हैं.” 

हानि-लाभ का लेखा-जोखा

दुनिया को जलवायु कार्रवाई की ओर ले जाने वाले भविष्य के किसी भी समझौते को नीचे दी गई तीन सीमा स्थितियों को पहचानना होगा: 

(a) यूक्रेन संघर्ष से शुरू हुई आर्थिक अस्थिरता के बाद सभी अर्थव्यवस्थाएं निम्न कार्बन उत्सर्जन के लिए घरेलू जीवाश्म ईंधनों को आयातित गैस या अब बैटरी ऊर्जा भंडारण प्रणालियों (BESS) से प्रतिस्थापित करके ऊर्जा सुरक्षा का व्यापार करने में अनिच्छुक रहेंगी, जहां सहायक खनिजों को क़रीब से जुड़ी आपूर्ति श्रृंखलाओं के ज़रिए आयात किया जाता है. 

(b) कोई भी विकासशील देश उत्सर्जन की कमी के ऐसे लक्ष्यों को नहीं अपना सकता जो ऊर्जा उत्पादित करने की परिचालन लागत को बढ़ा दे और साथ ही सस्ती लेकिन "गंदी" ऊर्जा परिसंपत्तियों को निष्क्रिय रूप से भंडारित करने का दोहरा वित्तीय बोझ भी डालता हो. ऐसा तभी हो सकता है जब ऐसे संक्रमण के लिए भुगतान करने को लेकर वित्तीय हस्तांतरण हो. 

(c) कोई भी विकासशील देश घरेलू सार्वजनिक वित्त को उनके मौजूदा उपयोग से ऊर्जा संक्रमण की ओर तब तक नहीं मोड़ सकता, जब तक ऐसा करने के लिए ज़्यादा मुनाफ़ा या ग़ैर-वित्तीय प्रोत्साहन ना हो. रियायती वित्तीय हस्तांतरण से संक्रमण की गति तेज़ होगी. यही वो स्थान है जहां उन्नत अर्थव्यवस्थाएं अब भी नदारद हैं.

उन्नत से विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को "नुक़सान और क्षति" पर केंद्रित वित्तीय हस्तांतरण सबसे कमज़ोर विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए पैबंद के समान हैं जो उनकी तकलीफ़ों को कम करते हैं. विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता से दूर जाने के लिए प्रोत्साहित करने को लेकर संसाधन की पर्याप्त लामबंदी मौजूद नहीं है. 

एक अकुशल और बेरुख़ी भरा सीमा कर

हालात को बदतर बनाते हुए, यूरोपीय संघ (EU) कार्बन सीमा तंत्र के ज़रिए 2026 से कार्बन-सघन वस्तुओं के आयात पर कर लगाने का इरादा रखता है. ये जले पर नमक छिड़कने जैसा है. कर की दीवार दो मान्यताओं पर आधारित है. (a) सर्वप्रथम, यूरोपीय संघ के कार्बन बाज़ार की श्रेष्ठता, जो कर की दर निर्धारित करेगी-कभी भी इस बात पर ध्यान नहीं देती कि निर्यातक देश में कार्बन बाज़ार निम्न कार्बन मूल्य को प्रदर्शित करता है. (b) दूसरे, इसमें ये मान लिया जाता है (त्रुटिपूर्ण रूप से, अधिकांश अन्य उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के मामले को छोड़कर) कि कार्बन-मुक्त करने को लेकर निर्यातक का दायित्व यूरोपीय संघ के अनुरूप है-इस तरह भेदक ज़िम्मेदारियों के विचार को ही ख़ारिज कर दिया जाता है. 

अतीत में झांके तो 1900 की शुरुआत में ही यूरोपीय संघ में कार्बन डाइऑक्साइड का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 3.8 टन और अमेरिका में 8.9 टन था, जबकि उस कालखंड में वैश्विक औसत 1.2 टन था. दोनों ही पिछले लगभग 120 वर्षों से आबादी के आधार पर उनको उपलब्ध कार्बन क्षेत्र का बेहिसाब उपयोग करते आ रहे हैं. भारत जैसे निर्यातकों ने कभी भी वैश्विक औसत को पार नहीं किया है और उम्मीद है कि आगे भी कभी नहीं करेंगे. ऐसे में यूरोपीय संघ को होने वाले भारतीय निर्यातों पर आख़िर सीमा कर क्यों लगाया जाना चाहिए, जो यूरोपीय संघ के उत्पादन को कार्बन-मुक्त बनाने की लागत का भुगतान करने के लिहाज़ से डिज़ाइन किए गए हैं?

ये परंपरागत स्वरूप वाली दोहरी मुसीबत है. 1790 के बाद से कार्बन डाइऑक्साइड के ऐतिहासिक उत्सर्जनों में भारत की हिस्सेदारी हमारी जनसंख्या हिस्सेदारी 16 प्रतिशत के एक चौथाई से 3.4 प्रतिशत कम है. फिर भी, घरेलू कार्बन-सघन ऊर्जा स्रोतों से दूर जाने के लिए भारत से भुगतान किए जाने की उम्मीद रहेगी, भले ही हम लोग अपने जनसंख्या-भारित कार्बन बजट के भीतर हों. इतना ही नहीं, यूरोपीय संघ को उसके ख़ुद के उद्योग को कार्बन-मुक्त करने के लिए भुगतान भी करना होगा, भले ही यूरोपीय संघ ऐतिहासिक उत्सर्जनों में अपनी हिस्सेदारी के मामले में 16.7 प्रतिशत से ज़्यादा है, जबकि आबादी में उसकी हिस्सेदारी महज़ 6 फ़ीसदी है. 

CBM "विभेदित दायित्वों" के आधार को ख़ारिज करता है

यूरोपीय संघ को विकासशील देशों को CBM से छूट देनी चाहिए थी क्योंकि ज़्यादातर देश उनके न्यायसंगत कार्बन बजट से काफ़ी नीचे हैं (प्रॉक्सी मीट्रिक प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत से नीचे है). वैकल्पिक तौर पर ये एक अंतरिम फॉर्मूला भी प्रस्तावित कर सकता था. विकासशील देश के निर्यातों पर सीमा कर लगाने के बजाए ऋण को भुनाने के लिए करों में दी गई रियायत के सांकेतिक मूल्य का लेखा जोखा लिया जा सकता था. ये ऐसे ऋण है जिसकी देनदारी यूरोपीय संघ पर है और उन देशों के प्रति है जिन्होंने अपने कार्बन बजट का आवश्यकता से कम उपयोग किया है, और इस तरह EU को उस स्थान पर कब्ज़ा जमाने की छूट दे दी है. कर की दर में कल्पित की गई कार्बन की लागत से संबंधित अनुमानित वार्षिक किराया मूल्य की कल्पना की जा सकती है, जो यूरोपीय संघ द्वारा देय हो. इससे विकासशील देशों के निर्यातों को ग़ैर-प्रतिस्पर्धी होने से रोका जा सकेगा. हालांकि इससे यूरोपीय संघ को अतिरिक्त कर राजस्व से भी वंचित होना पड़ेगा, जिस रकम से वो ख़ुद के डिकार्बनाइज़ेशन के लिए कोष तैयार कर सकता था. 

क्षोभमंडल (ट्रोपोस्फीयर) में उपयोग अधिकारों की प्रकृति.

इस आर्थिक संवेदनहीनता की जड़ एक के बाद एक जलवायु सम्मेलनों द्वारा क्षोभमंडल (जहां कार्बन उत्सर्जन स्थित हैं) के उपयोग के लिए एक कोड को परिभाषित करने की बुनियादी ज़रूरत की अनदेखी में निहित है. उन्नत देशों ने ऐतिहासिक अन्याय के लिए एक सामान्य दायित्व स्वीकार किया है और नुक़सान और क्षति के लिए भुगतान करने की प्रतिबद्धता जताई है, जो एक सुखद बात है. हालांकि इस भुगतान के पीछे का सिद्धांत असंतोषजनक बना हुआ है- ज़रूरतमंदों की मदद के लिए रईसों द्वारा अपनाया जाने वाला एक उच्च नैतिक आधार. ये कपटपूर्ण है. 

सभी देशों को क्षोभमंडल में उपयोग के सामूहिक अधिकार हैं. आम किरदारों की पहुंच को विनियमित करने वाली नियामक निकाय की ग़ैर-मौजूदगी में स्व-नियंत्रण भी समझदारी है. हालांकि इस क़वायद के समर्थन में निगरानी, रिपोर्ट जैसे उपाय किए जाने चाहिए और अत्यधिक उपयोग को दंडित भी किया जाना चाहिए. हमारे पास पहले से ही निगरानी तंत्र है लेकिन हमने अत्यधिक उपयोग के लिए दंड के दायरे को परिभाषित करने से परहेज़ किया है. हम कार्बन के लिए क्षोभमंडल की वहन क्षमता की सीमाओं से जुड़ी बाधाओं के साथ उपयोग अधिकारों को परिभाषित करने से नहीं बच सकते. एक बार ऐसा हो जाने पर, वैश्विक कार्बन बजट में उनकी न्यायसंगत हिस्सेदारी से आगे निकल जाने वाले किसी भी देश पर इस दखलंदाज़ी के लिए भुगतान करने का दायित्व होगा और ऐसी दखलंदाज़ी से चोट खाने वाले देशों को ऐसा भुगतान किया जाएगा. तभी व्यवस्था बहाल हो सकेगी. 

ऊर्जा संक्रमण का तीन दशक से भी ज़्यादा लंबा कालखंड UNFCCC द्वारा दो मोर्चों पर क़दम उठाए जाने की आवश्यकता बताता है. सर्वप्रथम, मौजूदा और भावी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जनों को कम करन के लिए हर ज़रूरी उपाय, जिसके साथ COP रूपरेखा पहले से ही जुड़ी हुई है. दूसरा, उपयोग अधिकारों के वैश्विक ढांचे का विकास ताकि क्षोभमंडल के साझा तत्वों का ज़रूरत से ज़्यादा उपयोग तत्काल गंभीर दंड को आकर्षित करे. "सच्चाई और सुलह" प्रक्रिया उन ज़िम्मेदारियों की प्रकृति स्थापित कर सकती है जो ऐसे अत्यधिक उपयोग को आकर्षित करते हैं- वित्तीय भुगतान, टेक्नोलॉजी ट्रांसफर या रियायती परियोजना विकास गारंटी. अगर ऐसा किया जाता है, तभी वास्तविक सहभागिता, वैश्विक विद्वेष की जगह ले सकती है. हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि ऊर्जा संक्रमण के दौरान सहभागिता ही इस समय उपलब्ध इकलौता सबसे बड़ा दीर्घकालिक अवसर है, जो वैश्विक समझौते का पुनर्निर्माण कर सकेगा. 


संजीव अहलूवालिया ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सलाहकार हैं. 

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