हर तरह के युद्ध का एक प्राथमिक उद्देश्य है- दुश्मन पर अपनी राजनीतिक इच्छा को थोपना. प्रशिया के जनरल क्लाउज़ेवित्ज़ ने कहा था, “युद्ध कुछ नहीं बल्कि व्यापक पैमाने पर एक द्वंद युद्ध है, हिंसा की एक कार्रवाई है जिसका मक़सद हमारी इच्छा को पूरा करने के लिए विरोधी को मजबूर करना है.” मौजूदा समय में इस मक़सद को पूरा करने की पद्धति, संसाधन और कौशल बदल गए हैं. चीन का विदेशों में प्रभुत्व और लोगों पर निगरानी का ऑपरेशन, रूस का चुनावों में हस्तक्षेप और प्राइवेट तकनीकी कंपनियों का हथियार के रूप में इस्तेमाल वो कारण हैं जो इस बदलाव को तेज़ कर रहे हैं. ये महत्वपूर्ण है कि उभरते आधुनिक युद्ध की अवधारणा और भारत के सिद्धांत और नीतियों पर इसके असर का विश्लेषण किया जाए.
विभिन्न पीढ़ियों में युद्ध की उत्पति
पहली पीढ़ी का युद्ध एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति से लड़ाई थी जो मुख्य तौर पर शारीरिक शक्ति, कौशल और संख्या पर निर्भर थी. दूसरी पीढ़ी का युद्ध गोलाबारी के ज़रिए होता था. इसमें योद्धा असंतुलित बल या शक्ति के साथ अपनी इच्छा परंपरागत तौर पर ज़्यादा ताक़तवर दुश्मन पर थोपने में सक्षम होते थे. तीसरी पीढ़ी के युद्ध में दुश्मन की सीमा रेखा में घुसपैठ करने के बाद युद्धाभ्यास को प्राथमिकता दी जाती थी. चौथी पीढ़ी के युद्ध में देश की सेना और देश की सेना से अलग लड़ाकों के बीच सीमा धुंधली हो गई, सीमा के क्षेत्र और दूर-दराज़ के इलाक़ों के बीच भी अंतर धुंधला हो गया. इसमें आतंकवाद या छद्म युद्ध को प्रमुखता मिली. इस प्रकार के युद्ध में लक्ष्य के नेतृत्व की निर्णय लेने की प्रक्रिया पर निशाना साधा जाता है. पाकिस्तान के द्वारा आतंकवाद को प्रायोजित करना इसका एक उदाहरण है. पांचवीं पीढ़ी के युद्ध का मक़सद दुश्मन की आबादी के दृष्टिकोण और ख़तरे की सोच को विकृत करके नियंत्रित करना है, वो भी दुश्मन की जानकारी के बिना. रॉ (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) के पूर्व प्रमुख विक्रम सूद ने सोच के युद्ध को भी परिभाषित किया है. उन्होंने दलील दी है कि वैश्विक शक्तियों ने अपनी साज़िश के तहत पूरे समकालीन इतिहास में कहानी बनाने की कोशिश की है. पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के दुष्प्रचार की कोशिशें इस तरह के युद्ध के उदाहरण हैं.
रॉ (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) के पूर्व प्रमुख विक्रम सूद ने सोच के युद्ध को भी परिभाषित किया है. उन्होंने दलील दी है कि वैश्विक शक्तियों ने अपनी साज़िश के तहत पूरे समकालीन इतिहास में कहानी बनाने की कोशिश की है. पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के दुष्प्रचार की कोशिशें इस तरह के युद्ध के उदाहरण हैं.
छठी पीढ़ी का युद्ध शोशना ज़ुबोफ ने मौजूदा वैश्विक तकनीकी परिदृश्य को “निगरानी पूंजीवाद” के रूप में परिभाषित किया है और इसके संचालन के तीन चरणों के बारे में बताया है- निगरानी, व्यक्तिगत ज़रूरत को पूरा करना एवं संवाद, और लगातार प्रयोग. यूज़र के मेटाडाटा (डाटा जो दूसरे डाटा के बारे में जानकारी मुहैया कराता है) का व्यावसायिक इस्तेमाल किया जाता है और भविष्य की जानकारी देने वाले विश्लेषण के द्वारा और सुधार करके उससे फ़ायदा उठाया जाता है और उसको भविष्य की जानकारी देने वाले उभरते बाज़ार में बेच दिया जाता है. अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के पूर्व निदेशक जनरल माइकल हेडेन कहते हैं, ‘हम मेटाडाटा के आधार पर लोगों को मार देते हैं’. इस तरह मेटाडाटा की अहमियत का सुरक्षा के दृष्टिकोण से पता चलता है.
इसके अलावा, प्रयोग से यूज़र के व्यवहार में बदलाव की क्षमता का पता चला जिसका लक्ष्य ज्ञान से पैसा कमाना, संभावना की क्षमता और नियंत्रण है. इस तरह के प्रयोगों में वर्चुअल या वास्तविक दुनिया में रियल टाइम में निगरानी रखना, संवाद करना, विश्लेषण करना, संभावना बताना और व्यवहार में बदलाव ज़रूरी हैं. उदाहरण के लिए, फेसबुक और गूगल ने ख़ुद माना है कि उन्होंने सफलतापूर्वक मतदाता के व्यवहार को प्रभावित किया है. ये वास्तविकता का कारोबार दुनिया भर में डिजिटल कंपनियों के लिए बिज़नेस मॉडल बन गया है.
एनालिटिक्स और एआई का महत्व
युद्ध के क्षेत्र में साइबर स्पेस की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका है. अमेरिका के राष्ट्रीय खुफिया निदेशक का कार्यालय दो अलग हैसियत मे साइबर स्पेस की भूमिका को वर्गीकृत करता है- साइबर युद्ध जो तबाही, रुकावट और सूचना एवं संचार तकनीक (आईसीटी) प्रणाली के साथ छेड़छाड़ से जुड़ा है; और सूचना युद्ध जिसका लक्ष्य दुश्मन के नागरिकों की निर्णण लेने की प्रक्रिया पर असर डालना है ताकि किसी ख़ास सोच को आगे बढ़ाया जा सके. ऐसे अभियान के लिए डाटा महत्वपूर्ण है, ये अपनी सोच को बेहतर ढंग से फैलाने के लिए संसाधन के रूप में काम करता है. साथ ही आंतरिक समर्थन को कमज़ोर करके दुश्मन की राजनीतिक कार्यवाही की योजना को बदलने के लिए हथियार के तौर पर काम करता है.
बिग डाटा, व्यवहारवादी या भविष्य की बात बताने वाले एनालिटिक्स और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के साथ साइबर स्पेस में युद्ध का रूप विकसित हो गया है. अमेरिका की सरकार ने तकनीकी सेवाओं के द्वारा व्यवहार में बदलाव के ख़तरों के बारे में चेतावनी दी है. अमेरिका की सरकार के मुताबिक़ ‘बिग डाटा एनालिटिक्स के लिए इस बात की संभावना बढ़ रही है कि किसी व्यक्ति के चारों तरफ़ के माहौल या उस व्यक्ति के अपने जीवन के बारे में फ़ैसले लेने पर उसका तुरंत असर हो.’
बिग डाटा, व्यवहारवादी या भविष्य की बात बताने वाले एनालिटिक्स और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के साथ साइबर स्पेस में युद्ध का रूप विकसित हो गया है. अमेरिका की सरकार ने तकनीकी सेवाओं के द्वारा व्यवहार में बदलाव के ख़तरों के बारे में चेतावनी दी है.
इन घटनाक्रमों की मदद के द्वारा छठी पीढ़ी का युद्ध ‘स्वयं का नियंत्रण’ लागू करता है ताकि व्यक्तिगत रूप से निशाना साध कर व्यापक डाटा और व्यवहारवादी विश्लेषण के ज़रिए दुश्मन के नेतृत्व या नागरिकों की सोच को बदला जा सके. इसका उद्देश्य दुश्मन की ‘निगरानी, अनुकूल बनाना, निर्णय और कार्रवाई’ के फंदे से घुसपैठ करना है. स्वयं नियंत्रण का सिद्धांत ‘किसी साझेदार या किसी विरोधी को विशेष तौर पर तैयार जानकारी को बताने का ज़रिया है ताकि उसे स्वैच्छिक तौर पर इस कार्रवाई को शुरू करने वाले की इच्छा के मुताबिक़ पहले से निर्धारित फ़ैसला करने के लिए मोड़ा जा सके.’ सारांश में कहें तो दुनिया के दृष्टिकोण को बदलना, ख़तरे की सोच और दुश्मन के नागरिकों या नेतृत्व की वास्तविकता को व्यक्तिगत तौर पर लक्ष्य के ज़रिए समझना और इसके लिए व्यवहारवादी और भविष्य बताने वाले विश्लेषण के ज़रिए यूज़र के डाटा का इस्तेमाल करना और इस तरह अपनी साज़िश में दुश्मन के व्यवहार में बदलाव लाना.
वैश्विक शक्तियां ध्यान दे रही हैं
छठी पीढ़ी के युद्ध को युद्ध की सबसे नई पुनरावृति समझा जा रहा है. ऐसे में वैश्विक शक्तियों ने इस पर ध्यान दिया है और उसी के मुताबिक रणनीति तैयार की है. रूस ने अपने सिद्धांतों, अभियानों और नीतियों में इस घटना के कई पहलुओं को शामिल किया है और ‘दिमाग़ के युद्ध क्षेत्र’ पर ज़्यादा ज़ोर के साथ रूस के नये राजनीतिक युद्ध के सिद्धांत ‘गेरासिमोव डॉक्ट्रिन’ में भी इसका ज़िक्र है. उदाहरण के लिए, 2016 के अमेरिकी चुनाव में हस्तक्षेप कैंब्रिज एनालिटिका के द्वारा फेसबुक से हासिल डाटा पर निर्भर है. इस प्लैटफॉर्म के व्यवहारवादी विश्लेषण को एक स्वयं नियंत्रण अभियान में व्यक्तिगत आंदोलन चलाने के लिए इस्तेमाल किया गया. इसी तरह की चाल को दूसरे चुनाव हस्तक्षेप के अभियान में भी अपनाया किया गया.
चीन का ‘तीन युद्ध’ का सिद्धांत इसी तरह के मक़सद पर ज़ोर देता है. चीन “क़ानूनी और ग़ैर-क़ानूनी तरीक़ों के इस्तेमाल के ज़रिए दुनिया भर में बड़ी मात्रा में व्यक्तिगत डाटा के संग्रह में अग्रणी देशों में से एक’ का स्थान रखता है. चीन की तकनीक के बारे में माना जाता है कि वो विदेशी यूज़र की गतिविधियों की निगरानी करता है और जो विषय संवेदनशील दिखते हैं उन पर सेंसरशिप लागू करता है. राष्ट्रीय खुफिया क़ानून (एनआईएल) चीन की कंपनियों को विदेशों में जासूसी की गतिविधियों में मदद और यहां तक कि विदेशी यूज़र के डाटा को चीन की सरकार के साथ साझा करने के लिए मजबूर करता है. चीन की तरफ़ से विदेशों में असर डालने वाले अभियानों में बढ़ोतरी डाटा या भविष्य बताने वाले मेटाडाटा या व्यवहारवादी विश्लेषण पर निर्भर है. इसका पता शेनुआ डाटा लीक से भी चलता है जब चीन पूरे विश्व में लाखों लोगों का डाटा संग्रह करते हुए और लक्ष्य की सोच की प्रोफाइलिंग करते हुए पकड़ा गया.
चीन की तकनीक के बारे में माना जाता है कि वो विदेशी यूज़र की गतिविधियों की निगरानी करता है और जो विषय संवेदनशील दिखते हैं उन पर सेंसरशिप लागू करता है.
भारत के लिए आगे का रास्ता
भारत उन देशों में शामिल हैं जहां सबसे ज़्यादा निगरानी होती है. ऐसे में भारत ने विदेशी डाटा संग्रम को कम करने के लिए कुछ निश्चित उपाय किए हैं जिनमें क्षेत्रवार डाटा का स्थानीयकरण, ताज़ा डाटा सुरक्षा विधेयक, सरकारी संस्थानों को लेकर देशीकरण की कोशिश शामिल हैं. लेकिन इनमें से ज़्यादातर कोशिशें विषय को निजता के दृष्टिकोण से देखती हैं और रणनीतिक स्तर पर मुद्दे का सीमित तौर पर समाधान किया गया है. कम समय में भारत को निश्चित तौर पर डाटा सुरक्षा विधेयक को मंज़ूर करना चाहिए ताकि इस ख़तरे से विश्वसनीय सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके. इसके अलावा विधेयक अपने आप में जहां व्यक्तिगत डाटा को संसाधित करने और क़ानूनी तौर पर संग्रह को सीमित करता है लेकिन कहीं भी मेटाडाटा का ज़िक्र नहीं करता है. ये ऐसी चीज़ है जिसे दुरुस्त किया जा सकता है.
दीर्घ काल में भारत को अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति विकसित करते समय निश्चित तौर पर आधुनिक युद्ध की शैली पर विचार-विमर्श करना चाहिए, उसे एकीकृत करना चाहिए. ये काम न सिर्फ़ साइबर युद्ध बल्कि व्यापक रणनीतिक संदर्भ में होना चाहिए. साथ ही भारत के बढ़ते तकनीकी उद्योग का फ़ायदा भी उठाना चाहिए ताकि अपने रणनीतिक विरोधियों से बढ़त हासिल की जा सके. ये अमेरिका के प्रिज़्म प्रोग्राम या चीन के निल की तरह है.
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