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चीन भले ही पीछे हटने को तैयार हो गया है लेकिन एक बात तय है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी पर अभी हालात अस्थिर बने रहेंगे. बीते एक साल से दोनों देशों के बीच जो दरार बढ़ी है वह आसानी से भरने वाली नहीं.
पिछले साल की गर्मियों से तमाम उतार-चढ़ाव के बाद भारत और चीन के बीच तनाव घटने के संकेत मिलने लगे हैं. चीन ने पैंगोंग झील के दोनों छोरों से पीछे हटने का फैसला किया है. इसे दोनों देशों के बीच विवादों का अंत न माना जाए, बल्कि विवादों की समाप्ति की दिशा में एक शुरुआत के तौर पर देखना चाहिए. ऐसा इसलिए, क्योंकि दोनों देशों के बीच अभी एक ही बिंदु सुलझा है, जबकि तमाम अन्य पहलू अभी भी उलझे हुए हैं. इन पहलुओं का रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में भलीभांति उल्लेख भी किया. उन्होंने चीन के साथ विवादों की पूरी सूची गिनाई. चीन को ये मुद्दे सुलझाने के लिए भी तत्परता दिखानी होगी, क्योंकि सिर्फ पैंगोंग झील के किनारों से पीछे हटना काफी नहीं होगा. वास्तव में चीनी गतिविधियों ने द्विपक्षीय संबंधों में अविश्वास का जो भाव भरा है, उसकी भरपाई के लिए चीन को अतिरिक्त प्रयास करने होंगे.
प्रश्न यह उभरता है कि अड़ियल चीन आखिर झुकने के लिए राजी कैसे हुआ? इसका जवाब भारत की व्यापक रणनीति में छिपा है. भारत ने चीन पर कूटनीतिक, राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य सहित हरसंभव मोर्चे पर दबाव बढ़ाकर उसे पीछे हटने पर मजबूर किया. कूटनीतिक मोर्चे पर भारत ने क्वॉड जैसे संगठन में नई प्राण वायु का संचार किया. चीन की काट के लिए आकार ले रहे इस संगठन में पहले से सक्रिय अमेरिका और जापान के साथ ही भारत ने हाल में मालाबार संयुक्त युद्ध अभ्यास के लिए ऑस्ट्रेलिया को भी आमंत्रित किया. इससे इस संगठन में नई जान आई और चीन को सख्त संदेश गया.
कोरोना के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन के खिलाफ़ पनप रहे असंतोष को भी भारत ने भुनाया. इससे भी चीन के रुख पर असर पड़ा, लेकिन इसमें सबसे निर्णायक भूमिका निभाई भारत द्वारा चीन पर कसे आर्थिक शिकंजे ने. चीन जल्द से जल्द दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति बनना चाहता है. इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह उसी अनुपात में अपना आर्थिक रुतबा बढ़ाने में लगा हुआ है. ऐसे में भारत ने आर्थिक प्रतिबंधों के जरिये चीन की दुखती रग पर चोट करने का काम किया. इस कड़ी में भारत ने चीन से आने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआइ को लेकर नए प्रविधान बनाए, चीनी दूरसंचार कंपनियों के लिए राह मुश्किल की और कई चीनी एप्स पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया. इन कदमों पर चीन की बौखलाहट भरी प्रतिक्रिया ने स्वाभाविक रूप से संकेत किया कि भारत का निशाना एकदम सटीक लगा है.
भारत के सैन्य रुख ने भी चीन को अपनी उस रणनीति पर नए सिरे से विचार करने पर विवश किया, जिसमें वह अपनी ताकत का रौब दिखाकर पड़ोसियों पर मानसिक बढ़त बनाकर अपने हित साधने का काम करता है. दोनों देशों के सैन्य नेतृत्व के बीच नौ दौर की वार्ता में भारत ने स्पष्ट कर दिया कि जब तक चीन अपेक्षित कदम नहीं उठाता, तब तक इस गतिरोध का कोई हल निकलने से रहा. इस मामले में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा था कि सीमा पर शांति स्थापित हुए बिना द्विपक्षीय संबंधों का आगे बढ़ना मुश्किल है.
ध्यान रहे कि चीन से संबंध तब बिगड़ गए थे जब गलवन घाटी में दोनों देशों के सैनिकों के बीच बिना हथियारों के खूनी संघर्ष हुआ था और जिसमें भारत के 20 जवान शहीद हो गए थे. इस संघर्ष में चीनी सैनिक भी हताहत हुए, लेकिन उसने कभी यह स्वीकार नहीं किया. हाल में एक रूसी एजेंसी द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार उस झड़प में चीन के 45 सैनिकों के मरने की बात सामने आई है. इस नुकसान से चीन को स्पष्ट संदेश मिला कि भारत से उसे करारा जवाब मिलना तय है. वह इस तथ्य से भी भलीभांति परिचित है कि ऊंचे रण क्षेत्र में भारतीय सैनिकों जैसा अनुभव और रणकौशल उसके सैन्य बलों के पास नहीं. भारत ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि वह पहले पलक नहीं झपकाने वाला. भारत का रुख साफ था कि अगर चीन इस गतिरोध को लंबा खींचना चाहता है तो भारत को इससे भी गुरेज नहीं. इससे उन अन्य पड़ोसी देशों को भी संबल मिला, जो चीन की दादागीरी से परेशान हैं.
अंतरराष्ट्रीय रुख और दबाव ने भी चीन को प्रभावित किया. इन दिनों दुनिया भर में भारत की वैक्सीन मैत्री वाली कूटनीति की धूम मची है. भारत उन देशों को भी कोरोना टीका उपलब्ध करा रहा है, जिनमें से कई के नाम आम भारतीयों ने सुने भी नहीं होंगे. अक्सर भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान को कुपित करने वाले कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो तक ने वैक्सीन के लिए भारत के आगे झोली फैलाई और प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें पूरी तरह आश्वस्त किया. इस मामले में दुनिया चीन को समस्या बढ़ाने वाले और भारत को समाधान मुहैया कराने वाले देश के रूप में देख रही है. इसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रति अच्छी भावनाएं और माहौल बनाया है.
चीन अमेरिका में सत्ता परिवर्तन के बाद अपने प्रति रुख में बदलाव की उम्मीद कर रहा था, लेकिन बाइडेन प्रशासन के रुख से उसे निराशा ही हाथ लगी, क्योंकि राष्ट्रपति बाइडेन ने तकनीक, व्यापार और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के साथ सख़्ती से निपटने के संकेत दिए.
चीन से निपटने के लिए भारत के पास ऐसे विकल्प पहले भी थे, लेकिन वैसी राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव था, जो इन विकल्पों को आज़माने के लिए आवश्यक थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वह इच्छाशक्ति दिखाई. उन्होंने दुनिया को दिखा दिया कि चीन से शक्ति और संसाधनों में कम होने के बावजूद भारत उसकी आंख में आंख डालकर खड़ा हो सकता है. मोदी ने आत्मनिर्भर भारत अभियान के माध्यम से इस चुनौती को अवसर बना दिया. उनके नेतृत्व में भारतीय विदेश नीति ने नए तेवरों वाली नई करवट ली है.
अब चीन भले ही पीछे हटने को तैयार हो गया है, लेकिन एक बात तय है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी पर अभी हालात अस्थिर बने रहेंगे. बीते एक साल से दोनों देशों के बीच जो दरार बढ़ी है, वह आसानी से भरने वाली नहीं. अब भारत की विदेश एवं सामरिक नीति में चीन पर और ज्यादा ध्यान केंद्रित होगा. भारत को चीन से और अधिक चौकन्ना इसलिए रहना होगा, क्योंकि चीन वादाखिलाफ़ के लिए कुख्यात है.
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Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...
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