Author : Srijan Shukla

Expert Speak India Matters
Published on Sep 26, 2025 Updated 4 Days ago

विकासशील राज्य के बिना भारत के सुधार लड़खड़ा सकते हैं, लेकिन अगर संस्थाओं के बीच बेहतर समन्वय होगा तो वे वृद्धिशील परिवर्तनों को बड़े औद्योगिक रूपांतरण में बदल सकती हैं.

‘बिग बैंग’ और क्रमिक सुधार से आगे: भारत की विकास यात्रा कैसी होनी चाहिए?

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारत पर 50 प्रतिशत टैरिफ लगाए जाने के बाद, नई दिल्ली के आर्थिक टिप्पणीकार फिर से सक्रिय हो गए हैं. किसी भी राजकोषीय संकट या झटके की आहट मात्र से ही ये टिप्पणीकार आर्थिक सुधारों की एक लंबी सूची बनाने लगते हैं, और फिर ये मांग करते हैं कि इन सुधारों को केंद्र सरकार को जल्द से जल्द लागू करना चाहिए. उनका तर्क है कि ये संकट एक ऐसा सुनहरा अवसर है, जिसे गंवाना नहीं चाहिए, और इन सुधारों को लागू न करना ही "देश को अपनी वास्तविक आर्थिक शक्ति को उजागर करने से रोकने वाली एकमात्र चीज़ है". इस विमर्श में, भारत में सुधार समर्थक दो खेमों में बंटे हुए हैं: "बिग बैंग" के समर्थक और क्रमिक सुधारवादी.

'बिग बैंग' श्रेणी के समर्थक

पहली श्रेणी 'बिग बैंग' के समर्थकों की है. इनमें वो लोग शामिल हैं, जो 1991 की तरह के बड़े और क्रांतिकारी सुधार पैकेजों का समर्थन करते हैं. उनके अनुसार, नब्बे की दशक के शुरुआत में हुए इन सुधारों ने अकेले ही देश का भाग्य बदल दिया. फिर भी, श्रम और पूंजी बाज़ारों से लेकर जटिल और अत्यधिक नियंत्रित नियामक व्यवस्था तक, बहुत सारी पाबंदियां अभी भी लागू हैं. बाइज़ेन्टाइन नियामक व्यवस्था का अर्थ ऐसी प्रणाली से है, जहां एक केंद्रीय सत्ता ही महत्वपूर्ण उद्योगों, स्थिर मुद्रा जारी करने, टैक्स संकलित करने और व्यापार नीति को लागू करती है. इन बाधाओं को व्यापक रूप से दूर करने से, विशेष रूप से भारतीय विनिर्माण क्षेत्र की, दक्षता में कई सुधार हो सकते हैं. हां, मुख्य तर्क ये है कि भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था सीमित है, और एक बड़ा संकट सुधारों के एक पैकेज को लागू करने का अवसर प्रदान करता है, जो आम तौर पर सामान्य स्थिति में राजनीतिक रूप से अव्यवहारिक होगा.

धीरे-धीरे होने वाले बदलावों के समर्थक

दूसरी श्रेणी में क्रमिकवादी या वृद्धिवादी शामिल हैं. जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है, इस श्रेणी के लोग धीरे-धीरे होने वाले बदलावों के समर्थक हैं. इस समूह के विद्वानों का तर्क है कि 1991 के बड़े सुधारों के बाद भारत की विकास गाथा क्रमिक सुधारों का नतीजा रही है. उनका कहना है कि सुधारों को स्वभाविक गति से होने देना चाहिए, क्योंकि इनसे ज़्यादा लाभ होता है. यहां परिभाषित क्रमिक परिवर्तन भारत के विकास मॉडल का केंद्रीय आधार है, जो किसी भी बड़े राजनीतिक विरोध या अस्थिरता से बचने में मदद करता है. इस व्यवस्था के समर्थकों की एकमात्र आपत्ति ये है कि भारतीय सरकारों ने आवश्यक रूप से योजनाबद्ध, क्रमिक सुधार दृष्टिकोण नहीं अपनाया है.

ये संकट एक ऐसा सुनहरा अवसर है, जिसे गंवाना नहीं चाहिए, और इन सुधारों को लागू न करना ही "देश को अपनी वास्तविक आर्थिक शक्ति को उजागर करने से रोकने वाली एकमात्र चीज़ है". इस विमर्श में, भारत में सुधार समर्थक दो खेमों में बंटे हुए हैं: "बिग बैंग" के समर्थक और क्रमिक सुधारवादी.

योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने 1991 के सुधारों के एक दशक बाद भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन का आकलन करते हुए एक लेख लिखा. इसमें अहलूवालिया ने लिखा था कि, "क्रमिक सुधार का अर्थ है लक्ष्य की स्पष्ट परिभाषा और उस तक पहुंचने के लिए लगने वाले समय को बढ़ाने का जानबूझकर किया गया चुनाव. ऐसा इसलिए किया जाता है, जिससे संक्रमण की पीड़ा थोड़ी कम हो सके". उन्होंने आगे कहा कि, "सभी क्षेत्रों में ऐसा नहीं हुआ. लक्ष्यों को अक्सर केवल एक व्यापक दिशा के रूप में ही दर्शाया जाता था, और विरोध को कम करने के लिए—और शायद पीछे हटने की गुंजाइश रखने के लिए—सटीक समापन बिंदु और संक्रमण की गति को अघोषित छोड़ दिया जाता था".

एक विकासात्मक राज्य का अभाव

हालांकि, यह बात ध्यान देने योग्य है कि 'बड़े पैमाने पर' सुधारों और क्रमिक सुधारों के बीच का द्वंद्व भारत जैसे राजनीतिक तंत्र में सुधारों के उद्देश्य के एक महत्वपूर्ण पहलू को समझने में विफल रहता है. महत्वपूर्ण अधिकार क्षेत्र केंद्र और राज्य सरकारों के बीच बंटे हुए हैं. आम तौर पर बड़ी नीतियों पर फैसला लेने के लिए दोनों स्तरों पर मंत्रिस्तरीय और निर्णय लेने की प्रणाली खंडित है. इसलिए, जब सुधार किए जाते हैं, तो उनका प्रभाव अक्सर निराशाजनक होता है. भारत में ऐसी समन्वयकारी संस्थाओं और तंत्रों का बहुत ज्यादा अभाव है, जो फर्मों को लागू किए गए सुधारों का वास्तविक लाभ उठाने में मदद कर सकें. दूसरे शब्दों में कहें तो, भारत में एक विकासात्मक राज्य का अभाव है, जिस प्रकार का शासन पूर्वी और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के औद्योगिक परिवर्तन का स्पष्ट आधार रहा है.

एक विकासशील शासन में निम्नलिखित विशेषताएं शामिल होती हैं:

  • सबसे पहले, देश को एक स्पष्ट आर्थिक एजेंडा पेश करना होगा जिसमें राष्ट्र के औद्योगिक परिवर्तन के लिए प्रोत्साहन और प्राथमिकता वाले विशिष्ट क्षेत्रों का उल्लेख हो. महत्वपूर्ण बात ये है कि यह एजेंडा उद्योग समर्थन इस बात पर आधारित होना चाहिए कि उनका प्रदर्शन, खासकर निर्यात के क्षेत्र, कैसा है?

  • दूसरा, इन सुधारों और एजेंडे के लिए जो आर्थिक नौकरशाही जिम्मेदार है, उसे एकजुट होना चाहिए और उद्योग के साथ एक गतिशील संबंध विकसित करना चाहिए. इस नौकरशाही का उद्योग के साथ इतना जुड़ाव और इतनी स्वायत्तता होना चाहिए कि वो "उद्यमियों द्वारा पेश की गई जानकारी और विचारों को गंभीरता से लेने के लिए तैयार हो, ना कि सिर्फ शासन के भीतर से आने वाले विचारों के आधार पर उद्योगों को विकसित करने की कोशिश करें". ये तर्क पीटर इवांस का है, जिन्होंने अंतर्निहित स्वायत्तता यानी इम्बेडेड ऑटोनॉमी की अवधारणा गढ़ी. बदले में, यही अंतर्निहित नौकरशाही ज़रूरत पड़ने पर इन्हीं फर्मों को अनुशासित भी करेगी और यह सुनिश्चित करेगी कि कोई लाभ-हानि ना हो.

चाहे भारत के लाइसेंस-परमिट राज के वर्षों के दौरान हो, या 1991 के सुधारों के बाद के दशकों के दौरान, भारत में ऐसा कोई विकासशील शासन नहीं रहा, जो इन उपरोक्त कार्यों को करने में सक्षम या इच्छुक रहा हो. आज भी, भारत में तीन महत्वपूर्ण समन्वय तंत्रों का अभाव है, जो सतत औद्योगीकरण के लिए ज़रूरी पूर्व शर्तें हैं. पहला, केंद्र और राज्य स्तर पर विभिन्न सरकारी मंत्रालयों, विभागों और एजेंसियों के बीच समन्वय. दूसरा, आंशिक रूप से भिन्न और आंशिक रूप से अतिव्यापी अधिकार क्षेत्रों को देखते हुए, केंद्र और राज्य सरकारों के बीच एक कार्यशील समन्वय. अतिव्यापी अधिकार क्षेत्रों का अर्थ ऐसे मामलों से हैं, जहां केंद्र और राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र टकराते हैं या एक-दूसरे को ओवरलैप करते हैं. तीसरा, सरकार और उद्योग के बीच बेहतर समन्वय.

दिलचस्प बात यह है कि भारत के दो अग्रणी औद्योगिक राज्यों, गुजरात और तमिलनाडु, ने अपने औद्योगिक विकास के सफर के दौरान कुछ बिंदुओं पर समन्वय संबंधी इन चुनौतियों को हल करने में सफलता हासिल की.

इन सुधारों और एजेंडे के लिए जो आर्थिक नौकरशाही जिम्मेदार है, उसे एकजुट होना चाहिए और उद्योग के साथ एक गतिशील संबंध विकसित करना चाहिए. इस नौकरशाही का उद्योग के साथ इतना जुड़ाव और इतनी स्वायत्तता होना चाहिए कि वो "उद्यमियों द्वारा पेश की गई जानकारी और विचारों को गंभीरता से लेने के लिए तैयार हो, ना कि सिर्फ शासन के भीतर से आने वाले विचारों के आधार पर उद्योगों को विकसित करने की कोशिश करें

भारत के समाजवादी और परमिट राज के दौर में गुजरात एक सक्रिय उप-राष्ट्रीय विकासात्मक राज्य के रूप में कार्यरत रहा. यही वजह है कि आम तौर पर प्रतिबंधात्मक नीतियों का दौर होने के बावजूद गुजरात ने उल्लेखनीय/महत्वपूर्ण औद्योगिक सफलताएं हासिल की. ऐसे समय में जब भारत की केंद्र सरकार सार्वजनिक उपक्रम पर आधारित औद्योगीकरण का समर्थन कर रही थी और अधिकांश निजी फर्मों के निवेश आवेदनों को प्रभावी ढंग से रोक रही थी, उस दौर में गुजरात सरकार ने इस बाधा से निपटने के लिए एक रणनीति तैयार की. राजनीतिक अर्थशास्त्री असीमा सिन्हा ने अपनी किताब, ‘द रीजनल रूट्स ऑफ डेवलपमेंटर पॉलिटिक्स इन इंडिया’, में इस बात पर प्रकाश डाला है कि किस तरह 1960 के दशक से लेकर लाइसेंस-परमिट प्रणाली के अंत तक, गुजरात की हर पार्टी की राज्य सरकार ने केंद्र सरकार द्वारा लगाई गई बाधाओं से बचने के लिए तीन-आयामी रणनीति अपनाई.

  • सबसे पहले, राज्य की सरकारी एजेंसियों ने निजी कंपनियों द्वारा जमा किए गए निवेश आवेदनों पर कड़ी नज़र रखी, खासकर उन कंपनियों पर जिन्होंने गुजरात को अपनी प्राथमिकताओं में से एक बताया था. इसके बाद राज्य सरकार की इन एजेंसियों ने इच्छुक कंपनियों से खुद संपर्क किया और उन्हें गुजरात में निवेश के लिए राजी किया.

  • दूसरा, दिल्ली में तैनात गुजरात सरकार के अधिकारियों ने केंद्र सरकार के अफसरों के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए रखें. केंद्र सरकार की नियामक जानकारी और क्षेत्रीय प्राथमिकताओं के बारे में जानकारी एकत्र की. इसके बाद इन अधिकारियों ने, औद्योगिक हितधारकों को महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान की. कड़े लाइसेंस-परमिट राज के ज़माने में सरकार के अंदर की जानकारी मिलना एक बहुत बड़ी सुविधा थी. इसके अलावा, उन्होंने गुजरात से संबंधित आवेदनों को मंजूरी देने के लिए केंद्र सरकार के अधिकारियों पर दबाव भी डाला.

  • तीसरा, आवेदनों की स्वीकृति सुनिश्चित करने के लिए, गुजरात सरकार ने राज्य के सार्वजनिक उपक्रमों और निजी फर्मों के बीच संयुक्त उद्यमों के गठन में मदद की. ऐसे समय में जब केंद्र निजी निवेश को सख्ती से हतोत्साहित कर रहा था, उस दौर में निजी निवेश की स्वीकृतियां पाने में सरकारी संस्थाओं की उपस्थिति महत्वपूर्ण थी.

असीम सिन्हा बताते हैं, इसी का नतीजा है कि  गुजरात में निवेश का पैटर्न पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु जैसे राज्यों से काफ़ी अलग हो गया. 1978 में, पश्चिम बंगाल में सार्वजनिक, संयुक्त और निजी क्षेत्रों में क्रमशः 74, 8 और 17 प्रतिशत निवेश हुआ. इसकी तुलना में, गुजरात में सार्वजनिक, संयुक्त और निजी क्षेत्र में क्रमशः 38, 30 और 31 प्रतिशत निवेश हुआ. गुजरात के संयुक्त उद्यमों के बारे में उपलब्ध जानकारी के अनुसार, कुछ निजी क्षेत्र की भागीदारी के साथ राज्य का निवेश हिस्सा 60 प्रतिशत से अधिक था. इसी का परिणाम था कि परमिट प्रणाली ख़त्म होने तक, गुजरात में पहले ही काफ़ी औद्योगिकीकरण हो चुका था.

अगर गुजरात ने ऊर्ध्वाधर समन्वय (वर्टिकल कोऑर्डिनेशन) में बेहतरीन प्रदर्शन किया, तो कई दशक बाद, तमिलनाडु ने क्षैतिज समन्वय (हॉरिजेंटल कोऑर्डिनेशन) की कला में महारत हासिल कर ली है. तमिलनाडु अब अपने आप में एक उप-राष्ट्रीय विकासात्मक राज्य है. यही वजह है कि तमिलनाडु की औद्योगिक कंपनियां और क्लस्टर तेज़ी से वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं में एकीकृत हो रहे हैं.

भारत की घरेलू राजनीतिक अर्थव्यवस्था की जटिलताओं को देखते हुए, सुधारों को लागू करने की गुंजाइश स्वाभाविक रूप से सीमित है. हालांकि, केंद्र और राज्य स्तर पर ऐसे समन्वयकारी संस्थानों का निर्माण करने की कोशिश करनी चाहिए.

 अर्थशास्त्री मौसम कुमार और उनके सह-लेखक के मुताबिक, तमिलनाडु की औद्योगिक नीति का समन्वय करने वाली प्रमुख संस्था उद्योग, निवेश संवर्धन और वाणिज्य विभाग (डीआईआईपीसी) है. कुमार और उनके सहयोगियों के अनुसार, "डीआईआईपीसी तमिलनाडु में बड़े पैमाने के, पूंजी-प्रधान और रणनीतिक औद्योगिक क्षेत्रों से संबंधित औद्योगिक नीति निर्माण और निवेश सुविधा के लिए केंद्रीय समन्वय एजेंसी के रूप में कार्य करता है" ये विभाग राज्य के उद्योग मंत्रालय के राजनीतिक नेतृत्व के अधीन काम करता है, जबकि प्रशासनिक पक्ष में इसका नेतृत्व एक सचिव करता है, जो भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) का अधिकारी होता है.

 तमिलनाडु की औद्योगिक नीति के विभिन्न पहलुओं को लागू करने के लिए कई उप-एजेंसियां और विभाग ज़िम्मेदार हैं. उदाहरण के लिए, तमिलनाडु राज्य उद्योग संवर्धन निगम (SIPCOT) औद्योगिक पार्कों और क्षेत्र-विशिष्ट यानी सेक्टर स्पेसिफिक आर्थिक क्षेत्रों (SSEZ) के प्रबंधन के लिए ज़िम्मेदार है. तमिलनाडु औद्योगिक विकास निगम (TIDCO) औद्योगिक गलियारों के प्रबंधन का प्रभारी है. निवेश सुविधा, सिंगल विंडो पोर्टल का प्रबंधन और परमिट मंजूरी सहायता का काम गाइडेंस तमिलनाडु द्वारा किया जाता है. वहीं, तमिलनाडु औद्योगिक निवेश निगम स्वीकृत परियोजनाओं के लिए कार्यशील पूंजी की आवश्यकताओं के समन्वय के लिए ज़िम्मेदार है.

 इसकी मुख्य विशेषता इन सभी विभिन्न एजेंसियों के विशिष्ट बोर्ड हैं, जिनकी अध्यक्षता उद्योग मंत्रालय में डीआईआईपीसी के सचिव करते हैं. इस तरह देखा जाए तो, डीआईआईपीसी विभिन्न एजेंसियों के बीच समन्वय का प्रबंधन करता है. इसके साथ ही, ये एक सफल औद्योगिक नीति को सुगम बनाने के लिए ज़रूरी सुगम संस्थागत संरचना प्रदान करता है.

 औद्योगिकीकरण को लेकर गुजरात और तमिलनाडु, दोनों ने काफ़ी सफलता हासिल की है. दोनों राज्यों के अनुभव वर्टिकल और हॉरिजेंटल नीतियों के एकीकरण को सुगम बनाने की महत्वपूर्ण भूमिका की ओर इशारा करते हैं. भारत की घरेलू राजनीतिक अर्थव्यवस्था की जटिलताओं को देखते हुए, सुधारों को लागू करने की गुंजाइश स्वाभाविक रूप से सीमित है. हालांकि, केंद्र और राज्य स्तर पर ऐसे समन्वयकारी संस्थानों का निर्माण करने की कोशिश करनी चाहिए. इतना ही नहीं, इन्हें उचित संस्थागत स्वायत्तता भी प्रदान करनी होगी. अगर ये सुनिश्चित किया जाए कि विभिन्न सरकारों की नौकरशाही उद्योगों में पर्याप्त रूप से अंतर्निहित हो, तो पहले से किए गए सुधारों के प्रभाव को बढ़ाया जा सकता है.


सृजन शुक्ला ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर इकोनॉमी एंड ग्रोथ प्रोग्राम में एसोसिएट फेलो हैं.

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