Author : Kabir Taneja

Expert Speak Raisina Debates
Published on Aug 27, 2025 Updated 0 Hours ago

दमिश्क और काबुल दोनों ही जगह पर जिहाद से सत्ता तक का सफर करने वाले राजनेता क़ाबिज़ हैं. सीरिया में अहमद अल-शरा की तो काबुल में अमीर हिबतुल्लाह अखुंदज़ादा की सरकार है और दोनों ही बंटी हुई वैश्विक व्यवस्था में अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे हैं. ऐसे में सवाल यह है कि क्या सीरियाई राष्ट्रपति दुनिया में अपना प्रभाव स्थापित करने के लिए तालिबान की रणनीति को अमल में ला सकते हैं?

नाज़ुक संतुलन: जिहाद और भू-राजनीति के मोर्चे पर सीरिया व अफ़ग़ानिस्तान

Image Source: Wikipedia Commons

बशर अल-असद के दमिश्क पर लगभग तीन दशक लंबे शासन के अंत के बाद वहां फिलहाल कुछ महीनों से हयात तहरीर अल-शाम (HTS) संगठन के नेता अहमद अल-शरा (जिन्हें पहले अबू मोहम्मद अल-जोलानी के नाम से जाना जाता था) का कब्ज़ा है. यानी तख्तापलट के बाद दमिश्क में अहमद अल-शरा का शासन है और वो सीरिया के एक ताक़तवर नेता के तौर पर उभरे हैं. पश्चिमी देशों के साथ ही सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) जैसे बड़े अरब देशों ने अहमद अल-शरा और उनके संगठन हयात तहरीर अल-शाम का समर्थन किया है. इतना ही नहीं, जिस अमेरिका ने HTS को विदेशी आतंकवादी संगठनों की सूची में डाल रखा था, उसने भी हाल ही में एचटीएस को उस सूची से बाहर निकालने का ऐलान कर दिया है. वर्तमान में अल-शरा को सीरिया में बदलाव लाने वाले और वहां के लोगों की ज़िंदगी को सुगम बनाने वाले अग्रणी नेता के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है. हालांकि, देखा जाए तो जिस प्रकार से सीरिया में अहमद अल-शरा का उभार हुआ है और उन्हें दुनिया भर से जिस तरह से समर्थन मिल रहा है, उसका उद्देश्य केवल सीरिया में स्थिरता लाना नहीं है, बल्कि भू-राजनीतिक नज़रिए से इसके निहितार्थ काफ़ी गहरे हैं.

सीरिया-अफ़ग़ानिस्तान की  भू-राजनीतिक स्थिति 

पिछले एक दशक के दौरान अहमद अल-शरा दुनिया में जिहादी पृष्ठभूमि से आए ऐसे दूसरा नेता बन गए हैं, जिसने किसी बड़े देश की सत्ता पर अपना अधिकार जमाया है. सीरिया के अलावा अफ़ग़ानिस्तान वह देश है, जहां जिहादी गुट तालिबान का कब्ज़ा है. अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगियों ने लगभग 20 सालों तक अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध लड़ा, लेकिन वहां कुछ ख़ास बदलाव लाने में नाक़ाम रहे और आख़िर में जानबूझकर अफ़ग़ानिस्तान को उसके हाल पर छोड़ दिया गया. अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका को बस इतनी क़ामयाबी ज़रूर मिली कि पहले जहां वहां मुल्ला उमर की अगुवाई में तालिबानी सरकार स्थापित थी, वहीं वाशिंगटन और उसके सहयोगियों ने बाद में वहां अमीर हिबतुल्लाह अखुंदज़ादा के नेतृत्व में नई तालिबानी सरकार को क़ाबिज़ करा दिया है.

सबसे अहम तो यह बात थी कि सीरियाई लोगों को लगने लगा वि अब वे सालों के उत्पीड़न और हिंसा से निजात पा लेंगे. लेकिन विडंबना की बात यह है कि सीरियाई लोगों को यह राहत एक ऐसे व्यक्ति से मिलने की उम्मीद है, जो खुद कभी अल-क़ायदा जैसे आतंकी संगठन के लिए काम कर चुका है . 

सीरिया में जब बशर अल-असद ने हथियार डाल दिए और देश छोड़कर भाग गए, तो अहमद अल-शरा के लिए रास्ता एकदम साफ हो गया. विद्रोहियों की लड़ाई का नेतृत्व कर रहे अल-शरा बगैर किसी विरोध के सत्ता के शीर्ष तक पहुंच गए. उस दौरान सीरियाई लोगों में जो उत्साह और जोश दिखा उसके कई मायने थे. सबसे अहम तो यह बात थी कि सीरियाई लोगों को लगने लगा वि अब वे सालों के उत्पीड़न और हिंसा से निजात पा लेंगे. लेकिन विडंबना की बात यह है कि सीरियाई लोगों को यह राहत एक ऐसे व्यक्ति से मिलने की उम्मीद है, जो खुद कभी अल-क़ायदा जैसे आतंकी संगठन के लिए काम कर चुका है . हालांकि, आज सीरिया की यही सच्चाई है और यह सब वहां घटित होते दिख रहा है. इस पूरे घटनाक्रम का दूसरा सबसे अहम पहलू यह था कि वर्षों तक सीरिया के अंदरूनी मामलों में दख़ल देने वाले और वहां लंबे वक़्त से चल रहे गृह युद्ध के दौरान शासक बशर अल-असद की हर तरह से मदद करके उसके मज़बूती देने वाले रूस और ईरान वहां से बाहर हो गए थे. लेकिन अब इसमें भी बदलाव आ रहा है. सीरिया के नए विदेश मंत्री असद अल-शैबानी रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव से मुलाकात करने के लिए मास्को गए हैं. इस मुलाक़ात के दौरान रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भी ख़ास तौर पर मौज़ूद रहे हैं. इससे साफ पता चलता है कि क्रेमलिन का अभी सीरिया से पूरी तरह से अलगाव नहीं हुआ है. इस ताज़ा घटनाक्रम से यह भी साफ हो गया है कि दमिश्क अपने पुराने साझेदार यानी रूस पर भरोसा कर रहा है और उससे मदद चाह रहा है. लेकिन अल-शरा को सीरिया में ऐसे हालात बनाने होंगे कि वह महाशक्तियों की लड़ाई की ज़मीन न बन पाए और उसे अपने पड़ोसी इराक़ जैसी दुर्गति का सामना नहीं करना पड़े. ज़ाहिर है कि इराक़ लंबे समय से ईरानी और अमेरिकी हितों के बीच संघर्ष में फंसा हुआ है. जिस तरह से अल-शरा की सरकार ने मास्को से संपर्क साधा है, उससे लगता है कि यह उसके लिए मददगार होगा. इससे यह भी संभावना बनती है कि ज़ल्द ही दमिश्क ईरान के साथ भी राजनीतिक रिश्ते प्रगाढ़ करने के लिए क़दम बढ़ा सकता है.

एक और अहम बात है कि अल-शरा के नेतृत्व वाली सीरिया की नई सरकार भले ही अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान शासन के तौर-तरीक़ों को अस्वीकार करती है, लेकिन तालिबान ने उसे कहीं न कहीं प्रेरित ज़रूर किया है. अगस्त 2021 में जब तालिबान ने अमेरिका पर फतह हासिल की थी तो HTS के कार्यकर्ताओं में जोश का आलम था. तब HTS के लोग इदलिब की सड़कों पर तालिबान का झंडा लहरा रहे थे और अमेरिका पर उसकी जीत का जश्न मना रहे थे. उस समय HTS की ओर से जारी किए गए आधिकारिक बयान में कहा गया था: "हमें अफ़ग़ानिस्तान में अपने लोगों की जीत और तालिबान के कब्ज़े और उनकी ज़मीन की आज़ादी की ख़बर से बहुत ख़ुशी मिली है. अल्लाह उनकी रुकावटों को दूर करे और उनकी मदद करे. अफ़ग़ानिस्तान के लोगों को इस बड़ी जीत के लिए बहुत बधाई." एचटीएस के बयान में आगे कहा गया है कि सीरिया में लड़े जा रहे युद्ध को "प्रतिरोध और जिहाद" के ऐसे उदाहरणों से प्रेरणा मिली है.

भारत-यूरोपीय संघ व्यापार और प्रौद्योगिकी परिषद ने समुद्री कूड़े से निपटने और समुद्री कचरे के इर्द-गिर्द सर्कुलर अर्थव्यवस्थाएं बनाने के लिए परियोजनाएं शुरू की हैं. 

तब से, अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान ने तमाम मुश्किलों का सामना करते हुए न केवल कुशलतापूर्वक सरकार चलाई है, बल्कि वह वैश्विक स्तर पर पहुंच स्थापित करने की कोशिशों में जुटा हुआ है. ज़ाहिर है कि तालिबान पर दोहरा दबाव है, पहला तो उसे बाहरी ताक़तों से जूझना पड़ता है, वहीं आंतरिक तौर पर अखुंदज़ादा के नेतृत्व में कंधार में आंदोलन के वैचारिक केंद्र और काबुल में राजनीतिक वर्ग के लोगों बीच संघर्ष से जूझना पड़ता है. अफ़ग़ानिस्तान के कार्यवाहक आंतरिक मंत्री सिराजुद्दीन हक्क़ानी काफ़ी ताक़तवर हैं और देश का यह राजनीतिक वर्ग चर्चित हक्क़ानी नेटवर्क के तहत ही काम करता है और इसे ज़्यादा 'व्यावहारिक' माना जाता है. ताज़ा अध्ययनों के मुताबिक़ तालिबानी सरकार ने बताया है कि उसने वर्ष 2021 और 2024 के बीच 80 देशों के साथ 1,382 राजनयिक वार्ताएं की हैं. इनमें से सबसे अधिक वार्ताओं का नेतृत्व चीन ने किया है और कहीं न कहीं तालिबानी सरकार में गहरी पैठ जमाते हुए चीन ने राजनीतिक रूप से खुद को वहां अच्छे से स्थापित कर लिया है. चीन के बाद अफ़ग़ानिस्तान के साथ राजनयिक वार्ताओं में ईरान और तुर्किये का नंबर आता है. सीरिया ने राष्ट्रपति अहमद अल-शरा के नेतृत्व में तालिबान की तुलना में अब तक 1,500 से ज़्यादा राजनयिक वार्ताओं को अंज़ाम दिया है, जिनमें तुर्किये और क़तर के साथ सबसे अधिक द्विपक्षीय वार्ताएं हुई हैं.

अफ़ग़ानिस्तान की अन्य दो सीमाओं पर कहीं ज़्यादा चुनौतीपूर्ण हालात बने हुए हैं. देखा जाए तो पाकिस्तान तालिबान की विचारधारा को पोषित करने वाला और उसे रणनीतिक रूप से संरक्षण देने वाल देश है, लेकिन पाकिस्तान के साथ तालिबान के रिश्ते उतार-चढ़ाव वाले रहे हैं.

तालिबान शासकों ने अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों को प्रगाढ़ करने में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखाई है और कहीं न कहीं उसका यह नज़रिए काफ़ी फायदेमंद ही साबित हुआ है. मध्य एशिया के देशों ने तालिबान सरकार के साथ टकराव में नहीं फंसने का निर्णय लिया और इसकी जगह पर तालिबान के साथ आर्थिक रिश्ते क़ायम करने का विकल्प चुना. इसके पीछे उनका मकसद जहां अपनी सीमाओं की सुरक्षा करने का था, वहीं जातीय अल्पसंख्यकों के समूह को व्यापक स्तर पर पश्तूनों के हमलों से बचाना था. अफ़ग़ानिस्तान की अन्य दो सीमाओं पर कहीं ज़्यादा चुनौतीपूर्ण हालात बने हुए हैं. देखा जाए तो पाकिस्तान तालिबान की विचारधारा को पोषित करने वाला और उसे रणनीतिक रूप से संरक्षण देने वाल देश है, लेकिन पाकिस्तान के साथ तालिबान के रिश्ते उतार-चढ़ाव वाले रहे हैं. तालिबान शासन को इस्लामाबाद के साथ डूरंड रेखा पर सीमा विवाद विरासत में मिला है. यह सीमा विवाद काफ़ी पुराना है और इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं. अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान सरकारों की तुलना में हामिद करज़ई और अशरफ़ गनी की सरकारों के दौरान पाकिस्तान की सीमाओं पर सुरक्षा व्यवस्था काफ़ी बेहतर थी. एक और अहम बात यह कि अफ़ग़ान तालिबान और पाकिस्तान में सक्रिय तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) के बीच भी रिश्ते सहज नहीं हैं. इसकी प्रबल आशंका है कि अफ़ग़ान तालिबान टीटीपी की भूमिका और पाकिस्तान में उसके मौज़ूदा आतंकी अभियानों के कारण कार्रवाई कर सकता है. इस वजह से भी दोनों देशों की सीमा पर तनाव बहुत बढ़ गया है.

जहां तक अफ़ग़ानिस्तान की पश्चिमी सीमाओं की बात की जाए, तो वहां की सीमाएं ईरान से जुड़ी हुई हैं. ईरान एक ऐसा देश है, जो तालिबान का वैचारिक रूप से और राजनीतिक तौर पर समर्थन नहीं करता है, लेकिन कहीं न कहीं उसकी मौज़ूदगी से ज़्यादा असहज महसूस भी नहीं करता है. अमेरिका में सितंबर 2001 के आतंकवादी हमलों के बाद कार्रवाई करते हुए अमेरिका की ओर से ईरान पर हमला किया गया था, साथ ही जनवरी 2002 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने ईरान को 'एक्सिस ऑफ एविल' यानी बुराई की धुरी में शामिल राष्ट्रों की पंक्ति में खड़ा कर दिया था. इसके बाद ईरान ने लंबे समय से तालिबान के साथ कार्यात्मक संबंध बनाए रखे हैं. अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी फौज की वापसी हो चुकी है और तेहरान इसे अपने लिए बहुत अच्छा मानता है, क्योंकि अब उसे अपनी पूर्वी सीमाओं पर पश्चिमी देशों की सेनाओं का कोई ख़तरा नहीं है. ज़ाहिर है कि ईरान का इजराइल के साथ तनाव बहुत बढ़ा हुआ है.

वैश्विक स्तर पर तालिबान सरकार के दूसरे देशों को साथ संबंधों की बात की जाए, तो अफ़ग़ान सरकार ने अन्य राष्ट्रों के साथ उतनी ही नज़दीकी बनाई है, जितनी उन देशों ने अनुमति दी है. अफ़ग़ानिस्तान की सरकार में हक्क़ानी प्रभावशाली मंत्री हैं और विदेशी मामलों में उन्हीं का दबदबा है. हक्क़ानी नेटवर्क ने तालिबान सरकार के प्रमुख हिबतुल्ला अखुंदज़ादा और कंधार में मौज़ूद उनके लोगों को देश की विदेश नीति से दूर रखा है. आंतरिक मंत्री होने के नाते सुरक्षा की ज़िम्मेदारी हक्क़ानी की है और उन्होंने इसका भरपूर फायदा उठाया है. उन्होंने न केवल इस्लामिक स्टेट खुरासान (जिसे ISKP के नाम से भी जाना जाता है, जो 2015 से अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान के सीमाई इलाक़ों में इस्लामिक स्टेट का ही अंग है) पर काबू पाने के लिए उससे लड़ाई की है, बल्कि अल-क़ायदा व इस जैसे दूसरे आतंकी गुटों को भी अपने नियंत्रण में रखा है. हक्क़ानी ने यह सब कहीं न कहीं चीन, रूस, अमेरिका और यूरोप में सुरक्षा का भाव पैदा करने के लिहाज़ से किया है, क्योंकि उन्हें इसकी ज़रूरत है. अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान सरकार के लिए अंतर्राष्ट्रीय मान्यता हासिल करने फिलहाल दूर की कौड़ी बना हुआ है, लेकिन बीजिंग और मास्को ने तालिबान सरकार के राजदूत को औपचारिक रूप से स्वीकार कर लिया है. विश्व के कई इस्लामी मुल्क भी हिचकिचाते हुए इसी राह पर चल रहे हैं. इन इस्लामिक देशों ने औपचारिक रूप से तो तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी है, लेकिन व्यावहारिक रूप से उसे मान्यता दे रहे हैं. उदाहरण के तौर पर यूएई ने वर्ष 2023 में तालिबान सरकार की ओर से नियुक्त किए गए राजदूत को स्वीकार कर लिया. हालांकि, जब अबू धाबी में तालिबान के राजूदत मावलवी बदरुद्दीन हक्कानी का शपथ ग्रहण समारोह हुआ था, तब वहां तालिबान का झंडा रखने की स्वीकृति नहीं दी गई थी.

जहां तक तालिबान की बात है, तो लगभग आधे दशक से वो ऐसा करने में क़ामयाब भी रहा है और आतंकियों पर लगाम कसने में सफल रहा है.

सीरिया की अहमद अल-शरा की सरकार को तालिबान की तुलना में कम मशक्कत करनी पड़ रही है. इजराइल के साथ सीरिया के बढ़ते तनाव के अलावा उसे वैश्विक स्तर पर संबंध स्थापित करने में अपेक्षाकृत काफ़ी कम मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. जिस प्रकार से सीरिया की नई सरकार को अरब देशों और पश्चिमी राष्ट्रों की ओर से समर्थन मिला है, उसने देखा जाए तो न केवल अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं तक उसकी पहुंच को आसान किया है, बल्कि कई देशों में अपने आप बगैर किसी प्रयास के उसकी मान्यता का मार्ग भी प्रशस्त हुआ है. इस दिशा में रियाद में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ सीरियाई सरकार के प्रमुख अहमद अल-शरा की मुलाक़ात बेहद अहम थी. वाशिंगटन डी.सी. में दिसंबर 2024 के बाद से नया सीरियाई झंडा पहले से ही लहरा रहा था. इतना ही नहीं कई यूरोपीय देशों के नेताओं ने भी दमिश्क का दौरा किया. इसके अलावा, सऊदी अरब जैसे कई अरब राष्ट्रों ने सीरिया में स्थिरता और पुनर्निर्माण के लिए अरबों डॉलर की आर्थिक मदद का भी ऐलान किया है. पहले अल-जोलानी के रूप में अल-शरा हमेशा सैन्य वर्दी में नज़र आते थे, लेकिन अब वे हमेशा थ्री पीस के पश्चिमी कोट-पैंट में दिखाई देते हैं. हालांकि, इसमें कोई संदेह नहीं है कि रूस, ईरान और चीन के साथ अपने संबंधों को मज़बूत किए बगैर अल-शरा के लिए सीरिया में प्रभावी और टिकाऊ सरकार स्थापित करना असंभव होगा. ज़ाहिर है कि पश्चिमी राष्ट्र सीरिया के बिगड़े हालातों और वहां मची उठापटक के पीछे इन्हीं तीनों देशों का हाथ मानते हैं.

हाल ही में सीरिया के कई इलाक़ों को मजहबी हिंसा ने अपनी चपेट में ले लिया. इस हिंसा में ख़ास तौर पर देश में रहने वाले ड्रूज़ और अलावाइट जैसे अल्पसंख्यक जातीय समूहों को निशाना बनाया गया. ऐसा ही कुछ अफ़ग़ानिस्तान में भी हो रहा है और तालिबान के सामने चुनौतियां खड़ी कर रहा है. दरअसल, तालिबान उज़्बेक्स, ताजिक और सबसे महत्वपूर्ण शिया हज़ारा जैसे जातीय समूहों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर रहा था, तब वहां भी ऐसे ही हालात पैदा हो गए थे. शिया हज़ारा के मामले में तालिबान ने पुरानी अवसरवादी राजनीतिक हथकंडा अपनाया और तेहरान को सीमाओं की सुरक्षा और अखंडता का हवाला दिया, ताकि शियाओं समेत शरणार्थियों की वापसी को कम से कम किया जा सके. ज़ाहिर है कि ईरान ने इजराइल के साथ 12 दिनों तक चली लड़ाई के बाद हाल ही में दस लाख से ज़्यादा अफ़ग़ान शरणार्थियों को अफ़ग़ानिस्तान निर्वासित किया है. इसके पीछे ईरान ने एक वजह यह भी बताई है कि कुछ अफ़ग़ान नागरिक इजराइल के लिए जासूसी कर रहे थे. गनीमत यह रही कि अफ़ग़ानिस्तान और ईरान के बीच नागरिकों की वापसी को लेकर पैदा हुआ यह विवाद दोनों देशों के बीच किसी बड़े राजनीतिक संकट का रूप नहीं ले पाया.

निष्कर्ष

कुल मिलाकर अहमद अल-शरा हर लिहाज़ से तालिबान से बेहतर स्थिति में हैं. उन्होंने असद अल-बशर के ख़िलाफ़ विद्रोह किया और बिना ज़्यादा मुश्किलों के सीरिया के राष्ट्रपति पद पर कब्ज़ा कर लिया. सीरिया की नई सरकार को हालांकि तालिबान की तुलना में कहीं अधिक क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समर्थन मिला हुआ है. लेकिन तालिबान के पास वैश्विक स्तर पर दूसरे देशों के साथ रिश्ते क़ायम करने का पूरा ब्लूप्रिंट है और इस वजह से वो लंबे समय से मज़बूती से टिका हुआ है और उसे वैश्विक स्तर पर कोई ख़ास दिक़्क़त नहीं हो रही है. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से वैश्विक व्यवस्था प्रभावित हुई है और तमाम पश्चिमी देश भी युद्धों में उलझे हुए हैं. देखा जाए तो सीरियाई राष्ट्रपति अहमद अल-शरा और तालिबान सरकार के प्रमुख अखुंदज़ादा को इन हालातों का बहुत लाभ मिला है. ज़ाहिर है कि वर्तमान हालातों में ये दोनों ही राष्ट्राध्यक्ष पुरज़ोर कोशिश करेंगे कि 9/11 जैसी कोई आतंकी घटना उनके देशों को दोबारा से पुरानी परिस्थितियों में नहीं धकेल दे. जहां तक तालिबान की बात है, तो लगभग आधे दशक से वो ऐसा करने में क़ामयाब भी रहा है और आतंकियों पर लगाम कसने में सफल रहा है. हालांकि, सीरिया के राष्ट्रपति अहमद अल-शरा भी ऐसा कर पाएंगे या नहीं, इसके बारे में फिलहाल कुछ भी साफ तौर पर कहा नहीं जा सकता है.


कबीर तनेजा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में डिप्टी डायरेक्टर और फेलो हैं.

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