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Published on Apr 01, 2024 Updated 0 Hours ago

न तो नैरेटिव, न ही बयानबाज़ी: यूरोपीय संघ को चाहिए कि वो अपनी सामरिक निद्रा से जागे और चीन की अपनी लत से पीछा छुड़ाने के लिए काम करे.

चीन से भीख मांग कर यूरोपीय संघ अपने जोख़िमों में कमी ला पाने में असमर्थ साबित होगा!

Source Image: Nikkei Asia

चीन से डी-कपलिंग और डी-रिस्किंग के शोर शराबे के बीच यूरोपीय संघ (EU) के चैंबर ऑफ कॉमर्स इन चाइना और चाइना मैक्रो ग्रुप की एक नई रिपोर्ट आई है. ये रिपोर्ट उबासी लेते हुए मीडिया में सुर्ख़ियां बटोरेगी, थिंक टैंक की बैठकों में इस पर लगातार चर्चा होगी. चीन का मज़ाक़ उड़ाया जाएगा और फिर इस रिपोर्ट को खोखली बयानबाज़ी के कचरेदान में फेंक दिया जाएगा. रिस्कफुल थिंकिंग: नैविगेटिंग दि पॉलिटिक्स ऑफ इकॉनमिक सिक्योरिटी शीर्षक से आई इस रिपोर्ट की बुनियाद में ये बचकानी सोच है कि चीन को लेकर उसके 11 सुझावों को लागू किया जाएगा.

वास्तविकता ये है कि इस रिपोर्ट में चीन से लगभग गिड़गिड़ाते हुए ये अपील की गई है कि वो नियमों पर आधारित व्यवस्था का पालन करे. रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि चीन, आत्मनिर्भरता पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर देने से बचे. 

वास्तविकता ये है कि इस रिपोर्ट में चीन से लगभग गिड़गिड़ाते हुए ये अपील की गई है कि वो नियमों पर आधारित व्यवस्था का पालन करे. रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि चीन, आत्मनिर्भरता पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर देने से बचे. पर, इसके साथ ही साथ ‘अत्यधिक’ शब्द के दायरे पर परिचर्चा की संभावना को काफ़ी हद तक खुला छोड़ दिया गया है. रिपोर्ट में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था से गुज़ारिश की गई है कि वो उन क़ानूनों में पारदर्शिता लाए, जो उसके बाज़ार तक दूसरों की पहुंच को सीमित करते हैं. मगर ऐसा कहते वक़्त रिपोर्ट बनाने वाले इस सच्चाई को भूल जाते हैं कि वही अपारदर्शी हुकूमत उन क़ानूनों को आख़िर पारदर्शी क्यों बनाएगी, जिसने ख़ुद ये क़ानून बनाए हों. इसके बाद, रिपोर्ट में चीन से कहा गया है कि वो डी-रिस्किंग यानी जोख़िम कम करने को परिभाषित करने की एक आम सहमति वाली भाषा इस्तेमाल करे. अपनी अज्ञानता में रिपोर्ट बनाने वाले ग़लती से ये मान बैठे हैं कि चीन की सरकार यूरोपीय संघ के हितों को पालती पोसती है.

अपील व अपेक्षायें

इस रिपोर्ट में की गई अन्य अपीलों में व्यापारिक संरक्षणवाद, चीन द्वारा अचानक नीतियों में तब्दीली करना और स्थानीयकरण की कोशिशें भी शामिल हैं. रिपोर्ट में लगभग घिघियाते हुए चीन से गुहार लगाई गई है कि वो ‘कंपनियों को उनके देश की सरकारों द्वारा उठाए गए क़दमों के लिए दंडित करने से बाज़ आए.’

इस रिपोर्ट में जो भी अपेक्षाएं की गई हैं, वो अनुचित नहीं हैं. इसके बजाय, परेशान करने वाली बात ये है कि इस बात को 34 हज़ार शब्दों वाले 54 पन्नों के दस्तावेज़ में उस समूह की ओर से बयान किया गया है, जो 27 लोकतांत्रिक देशों वाला 19.35 ट्रिलियन डॉलर का विशाल समूह है, और वो समूह 18.56 ट्रिलियन डॉलर वाली तानाशाही हुकूमत के आगे झुका जा रहा है. ये रिपोर्ट में चीन में हर ओहदे के आक़ा शी जिनपिंग के चेहरे पर इस हक़ीक़त को उजागर करने की प्रसन्नता भरी मुस्कान लाने के सिवा कुछ और हासिल नहीं कर सकेगी कि यूरोपीय संघ उनके देश पर बहुत बुरी तरह निर्भर है.

लेकिन, जब ये रिपोर्ट कंपनियों को उभरते हुए वैश्विक नियमन के लिए तैयार रहने की अपील करती है, तो ये इस बात की अनदेखी कर देती है कि सारे के सारे ‘वैश्विक’ नियमों को ख़ुद चीन की कमज़ोर कर रहा है, क्योंकि वो बार-बार इनका पालन करने से इनकार करता रहा है.

वहीं दूसरी ओर EU के लिए इस रिपोर्ट में दिए गए सात सुझाव- शायद (और ये बहुत बड़ा सवालिया निशान है) - इस समूह को और संभवत: पूरे महाद्वीप को उसकी सामरिक निद्रा से जगा दें. इन सात सुझावों में से सबसे अहम मशविरा, अहम तत्वों की आपूर्ति श्रृंखलाओं को नए सिरे से तैयार करने और निर्यात पर नियंत्रण की रूप-रेखा से जुड़ा है. पर, इस मामले में भी ये रिपोर्ट बिना चीन की दुनिया का तसव्वुर कर पाने में नाकाम साबित हुई है. रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि, ‘चीन से दूरी बनाने की मांग को ख़ारिज करते हुए, उसके साथ सक्रियता से संपर्क बढ़ाया जाए.’ यही नहीं, रिपोर्ट में इस खेल के किरदारों- यानी चेंबर ऑफ कॉमर्स चीन पर केंद्रित थिंक टैंकों और कारोबारियों को- जोख़िम कम करने (de-risking) की याद दिलाने की कोशिश की गई है. पर, रिपोर्ट ये बता पाने में पूरी तरह नाकाम रही है कि आख़िर इस बात पर अभी क्यों तवज्जो दी जाए.

आख़िर में इस रिपोर्ट में यूरोप के कारोबारियों के लिए नौ सुझाव दिए गए हैं. एक औद्योगिक चेंबर होने की वजह से इनमें से कुछ अच्छी भाषा और पूरी जानकारी के साथ लिखे गए हैं. मिसाल के तौर पर रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि क़ानूनी बदलावों और राजनीतिक जोख़िमों से निपटने की तैयारी पहले से कर ली जाए. इसमें, आपूर्ति श्रृंखलाओं और की विस्तार से समीक्षा करने और जोख़िम के मूल्यांकन करने का सुझाव भी दिया गया है. इसके साथ साथ संभावित झटकों के असर का अंदाज़ा लगाने के लिए भी पूरी कर्मठता से काम करने की बात भी कही गई है. रिपोर्ट में कंपनियों से अपील की गई है कि वो जोख़िम के मामलों जैसे कि जनता की तरफ़ से नाराज़गी या फिर बाज़ार के हालात में अचानक आने वाले बदलावों पर नज़र रखे. लेकिन, जब ये रिपोर्ट कंपनियों को उभरते हुए वैश्विक नियमन के लिए तैयार रहने की अपील करती है, तो ये इस बात की अनदेखी कर देती है कि सारे के सारे ‘वैश्विक’ नियमों को ख़ुद चीन की कमज़ोर कर रहा है, क्योंकि वो बार-बार इनका पालन करने से इनकार करता रहा है.

कुल मिलाकर, अपने से पहले आई कई रपटों की तरह ये रिपोर्ट भी उन जोख़िमों को बयान करती है, जिनका सामना चीन में कारोबार करने वाली यूरोपीय कंपनियां करती हैं और फिर ये मानकर चलती है कि चीन की मेहरबान हुकूमत इन परेशानियों को जानती है और इनके निपटारे के लिए कुछ न कुछ ज़रूर करेगी. इससे भी बुरी बात तो ये है कि रिपोर्ट में चीन के फ़ायदे के लिए ये भी बताया गया है कि EU उसके बाज़ारों, उसके निवेश और उसे मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पर कितनी बुरी तरह निर्भर है. 

चूंकि राष्ट्रीय मुद्दों के आधार पर गढ़ी जाने वाली सामूहिक आर्थिक सुरक्षा असल में साझा मक़सद के लिए तैयार की गई सामूहिक राष्ट्रीय सुरक्षा का ही एक हिस्सा है, ऐसे में आपसी हित वाला एजेंडा तैयार करना यूरोपीय संघ के लिए लगभग असंभव होगा. मिसाल के तौर पर, ऐसा करने की तुलना इस बात से नहीं की जा सकती कि युद्ध के वक़्त (न कि उसके पहले) रूस के ख़िलाफ़ EU ने एक साथ आकर सामूहिक सुरक्षा/ रक्षा का रुख़ अपनाया था.

आज यूरोपीय संघ, दूसरे विश्व युद्ध के बाद आई समृद्धि के बिस्तर पर लेटा अपनी ख़्वाबों वाली सामरिक निद्रा में खोया हुआ है. यूरोपीय संघ की आंखें इस क़दर बंद हैं कि उसे चीन के सस्ते सामान, उसके बाज़ार और चीन के निर्माण क्षेत्र की लत पड़ गई है.

चीन का मूल्यांकन एक कारोबारी उद्यम के तौर पर किया जाता है और इस बात की उम्मीद कम ही है कि कारोबारी संस्थाएं राष्ट्रीय सुरक्षा का बोझ तब तक नहीं उठाएंगी, जब तक बहुत देर न हो जाए और इसकी क़ीमत उनके और बाक़ियों के लिए बहुत अधिक नहीं हो जाती. और तब वो पूछेंगी; आप ज़रा जर्मनी के उद्योगों से यूक्रेन पर रूस के हमले के बारे में तो पूछिए. लेकिन, जब बात सुरक्षा के मसलों की आती है, तो ज़्यादातर कारोबारी आगे की सोच के बजाय पीछे मुड़कर देखते हुए चलते हैं, क्योंकि उनको इस बात झूठा यक़ीन होता है कि वो आगे चलकर नतीजों को अपने हिसाब से ढाल सकते हैं.

ईयू की चीन पर अत्यधिक ‘निर्भरता’

मिसाल के तौर पर यूरोपीय संघ द्वारा चीन से अलग होने की नीति अपनाने के बावजूद जब स्टुटगार्ट स्थित मर्सिडीज़ बेंज ने चीन में अपना निवेश बढ़ाने का फ़ैसला किया था, तो इससे ज़ाहिर था कि किस तरह एक कॉरपोरेट कंपनी, पूरे महाद्वीप की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति को अपने इशारों पर नचा रही थी. मर्सिडीज़ में 19.67 प्रतिशत हिस्सेदारी चीन की दो कंपनियों (BAIC ग्रुप के पास 9.98 प्रतिशत और ली शुफु के पास 9.69 फ़ीसद शेयर हैं) के पास है और इस तरह चीन न केवल EU की सबसे हाई प्रोफाइल कंपनी में फ़ैसलों को प्रभावित कर रहा है, बल्कि वो चीन और यूरोपीय संघ के सामरिक मामलों में EU की स्थिति को कमज़ोर कर रहा है. इससे भी ख़राब बात ये है कि चीन से बाहर निकलने का रास्ता तलाशने के बजाय, इस रिपोर्ट में कहा गया है कि यूरोपीय कंपनियों को लगता है कि डि-कपलिंग, यानी चीन के बाज़ार से पूरी तरह कट जाने का फ़ैसला एक बड़ा जोख़िम है.

तो, जहां चीन ने व्यापार से निवेश तक और तकनीक से संस्कृति तक, हर चीज़ को हथियार बना लिया है. वहीं, यूरोपीय संघ एक तरफ़ तो अपनी सामरिक और कारोबारी मजबूरियों के जाल में उलझा है. वहीं दूसरी ओर वहां कन्फ्यूशियस से प्रभावित ‘वोकवाद’ का तेज़ी से उभार हो रहा है. आज यूरोपीय संघ का दम अपनी ही बनायी हुई नियम आधारित व्यवस्था से घुट रहा है. चीन ने EU के नियमों को ही अपनी हिफ़ाज़त का हथियार बना लिया है. इस तरह वो यूरोप की कंपनियों, ग्राहकों और नागरिकों का गला घोंट रहा है. इन लोकतांत्रिक बंदिशों और सामरिक गफ़लतों के उलट, अपनी नज़रिये और करतूतों के मामले में चीन का मॉडल बिल्कुल स्पष्ट है. 

एक क़दम पीछे हटकर अगर हम चीन और यूरोपीय संघ के इस खींचतान को भारत के नज़रिए से देखें, तो चीन को लेकर EU का रुख़ बेहद कमज़ोर है. आज यूरोपीय संघ, दूसरे विश्व युद्ध के बाद आई समृद्धि के बिस्तर पर लेटा अपनी ख़्वाबों वाली सामरिक निद्रा में खोया हुआ है. यूरोपीय संघ की आंखें इस क़दर बंद हैं कि उसे चीन के सस्ते सामान, उसके बाज़ार और चीन के निर्माण क्षेत्र की लत पड़ गई है. ऐसा लगता है कि कुछ भी नहीं बदलने वाला है. चीन, यूरोपीय संघ को नचाता रहेगा. उसको चक्कर आते देखकर ख़ुश होगा और खोखली बयानबाज़ी के अगले दौर का इंतज़ार करते हुए EU के सामरिक रूप से अहम मसलों पर अपना शिकंजा और कसता जाएगा. चीन को लेकर यूरोप का रवैया वैसा ही है, जैसे कोई प्रजा सम्राट से मेहरबानी की जज़्बाती अपील करे. सीमा के पार से ‘दान’ की अपील करने को रणनीति नहीं कहा जा सकता. क्योंकि ये रणनीति होती भी नहीं.

भारत के नज़रिए से देखें, तो उसके लिए आने वाले समय में चिंता की बात बस यही नहीं है कि कहीं रूस भी, चीन के सुर में सुर न मिलाने लगे; बल्कि इसके बजाय भारत के लिए ज़्यादा चिंताजनक बात तो यूरोपीय संघ का चीन से मेहरबानी की गुहारें लगाना है. ये ख़तरा वास्तविक और फ़ौरी है. यूरोपीय संघ के बाहर के पढ़ने वालों के लिए इस दस्तावेज़ से जो सबसे बड़ा सबक़ मिलता है, वो बेहद डरावना है. अगर ऊर्जा के लिए रूस पर निर्भरता और उसकी वजह से हाल के वर्षों में उसकी सुरक्षा के लिए घातक बने प्रभावों ने यूरोपीय संघ को उसकी’ रणनीति 101’ से कोई सबक़ नहीं सिखाया है, तो फिर उसको कभी कोई पाठ नहीं सिखाया जा सकता. क्या अब ये वक़्त नहीं है कि हम एक साधारण सी हक़ीक़त का सामना करने के लिए तैयार हो जाएं कि: यूरोपीय संघ एक ग़ैर सामरिक समूह है, और अगर वनो अपनी सामरिक सोच में कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं लाता, तो वो हमेशा ऐसा ही रहने वाला है?

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Authors

Gautam Chikermane

Gautam Chikermane

Gautam Chikermane is a Vice President at ORF. His areas of research are economics, politics and foreign policy. A Jefferson Fellow (Fall 2001) at the East-West ...

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Samir Saran

Samir Saran

Samir Saran is the President of the Observer Research Foundation (ORF), India’s premier think tank, headquartered in New Delhi with affiliates in North America and ...

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