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शेख हसीना सरकार की विदाई के बाद बांग्लादेश में एक बार फिर प्रशासनिक कामकाजों में सेना के दख़ल का ख़तरा मंडराने लगा है.
Image Source: Getty Images
बांग्लादेश के सेना प्रमुख जनरल वकार उज़ ज़मान ने 17 अगस्त, 2025 को न सिर्फ़ धर्मनिरपेक्ष बांग्लादेश के महत्व पर ज़ोर दिया, बल्कि शांति व बहुलता को बनाए रखने में सेना की भूमिका का भी इज़हार किया. इशारों-इशारों में दिए गए इस सख़्त संदेश के गहरे संकेत हैं. दरअसल, देश में कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ रही है और अल्पसंख्यकों पर हमले हो रहे हैं. मई 2025 में भी जनरल ज़मान ने अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए कहा था कि अब सत्ता निर्वाचित सरकार को सौंप देनी चाहिए. वास्तव में, पिछले 15 वर्षों में, राजनीतिक स्थिरता के कारण ही बांग्लादेश की फ़ौज एक पेशेवर संस्था बन सकी है. हालांकि, हाल की घटनाओं से यह आशंका बढ़ गई है कि बांग्लादेश के रोज़मर्रा के प्रशासनिक कामकाजों में उसे दख़ल देना पड़ सकता है. अब चूंकि फरवरी 2026 में चुनाव होने की बात कही जा रही है, इसलिए राजनीतिक घटनाक्रमों पर सेना की गहरी नज़र है.
बांग्लादेश अपने जन्म के बाद से ही पाकिस्तान की सियासत में सैन्य दख़ल की संस्कृति से ख़ासा प्रभावित रहा है. यह हस्तक्षेप आमतौर पर स्थिरता और संप्रभुता को बढ़ावा देने के बहाने किया जाता रहा. बांग्लादेशी फ़ौज की राजनीतिक व्यवस्था से होड़ लेने की प्रकृति, उसकी अंदरूनी गुटबाजी और कमज़ोर लोकतांत्रिक संस्थानों के कारण बांग्लादेश में राजनीतिक अस्थिरता और तख़्तापलट की घटनाएं हुई हैं. जबकि अतीत में, देश के नेताओं ने अपने स्तर पर ख़तरे उठाकर फ़ौज को नियंत्रित करने या उसे काबू में रखने के लिए विभिन्न व्यवस्थाएं की हैं.
सबसे पहले, राष्ट्रपिता शेख मुजीबुर्रहमान ने सेना में स्वतंत्रता सेनानियों को स्थान दिया और अर्धसैनिक बल मुजीब वाहिनी को मज़बूत बनाया. मगर अगस्त 1975 में, कुछ जूनियर स्तर के फ़ौजी अधिकारियों ने उनकी हत्या कर दी. इस घटना का एक बड़ा कारण भारत के साथ उनके अच्छे संबंध और सेना के साथ चल रहा तनाव था. नतीजतन, फ़ौज ने पहली बार राजनीति में दख़ल देते हुए व्यवस्था संभाली. नवंबर 1975 में एक बार फिर तख़्तापलट हुआ, लेकिन इस बार ब्रिगेडियर जनरल खालिद मुशर्रफ ने सेना में व्यवस्था बनाने के नाम पर यह किया. हालांकि, चार दिनों के भीतर ही भारत और मुजीब समर्थक होने के आरोप में, उन्हें सेना के भीतर के समाजवादी तत्वों ने पद से हटा दिया और उनकी हत्या कर दी.
इस उथल-पुथल के बीच, जनरल ज़िया-उर-रहमान तेजी से सेना प्रमुख से राष्ट्रपति पद तक पहुंच गए, जिससे वह मुल्क के पहले सैन्य शासक कहलाए. अपनी सत्ता को और मज़बूत करने और जनादेश पाने के लिए, उन्होंने 1978 में बांग्लादेश नेशनल पार्टी (BNP) की स्थापना की.
इस उथल-पुथल के बीच, जनरल ज़िया-उर-रहमान तेजी से सेना प्रमुख से राष्ट्रपति पद तक पहुंच गए, जिससे वह मुल्क के पहले सैन्य शासक कहलाए. अपनी सत्ता को और मज़बूत करने और जनादेश पाने के लिए, उन्होंने 1978 में बांग्लादेश नेशनल पार्टी (BNP) की स्थापना की. चूंकि वह खुद पाकिस्तान के पूर्व अधिकारी थे, इसलिए उन्होंने अन्य पाकिस्तानी अधिकारियों को सत्ता में आने में मदद की. उनके कार्यकाल में कई बार तख़्तापलट के प्रयास हुए, जिनके जवाब में उन्होंने सैनिकों की हत्या की, विपक्ष को दबाया और फ़ौज से समाजवादी तत्वों को निकाल बाहर करने का प्रयास किया. फिर भी, वह सेना को एक नहीं रख सके, जिस कारण 1981 में, तख़्तापलट के एक प्रयास में कुछ अधिकारियों ने उनकी जान ले ली.
सेना प्रमुख एच. एम. इरशाद ने इस विद्रोह को दबाया. फिर भी, सत्तारूढ़ दल के भीतर बढ़ते मतभेदों और कमज़ोर नागरिक नेतृत्व ने सेना को प्रशासनिक कामों में अच्छा-खासा दख़ल देने को विवश कर दिया. नागरिक नेतृत्व के साथ मतभेद बढ़ने पर, 1982 में इरशाद ने तख़्तापलट करके तब की सरकार को सत्ता से बेदख़ल कर दिया. जनता का भरोसा जीतने के लिए, उन्होंने 1986 में जातीय पार्टी बनाई, लेकिन सेना के भीतर, ख़ास तौर से ज़िया के वफादारों को नियंत्रित करने में उन्हें खूब दिक्क़तें पेश आईं.
इस बीच, अवामी लीग की शेख हसीना और BNP की खालिदा ज़िया के बीच बढ़ते टकराव ने स्वस्थ राजनीतिक प्रतिस्पर्धा बढ़ाने, नागरिक नेतृत्व को मज़बूत करने और इरशाद पर लोकतंत्र बहाल करने का दबाव बनाया। भारत और पश्चिमी देशों के अंतरराष्ट्रीय दबाव ने इस पहल को और मज़बूत किया. इन सबके कारण 1991 के एक संवैधानिक संशोधन से संसदीय प्रणाली की फिर से स्थापना हुई, जिससे सेना के हस्तक्षेप की गुंजाइश कम हो गई. देखा जाए, तो चुनी हुई सरकारों ने भी अपने फ़ायदे के लिए सेना के भीतर गुटबाजी को संस्थागत रूप दिया. बहरहाल, 15 साल के खून-खराबे के बाद, सेना घरेलू राजनीति में और अधिक हस्तक्षेप से बचना चाहती थी, क्योंकि इससे देश में अशांति और सेना के भीतर मतभेद पैदा हो गया था.
दो साल की छोटी अवधि वाले सैन्य शासन (2007-09) के बाद हसीना 2009 में सत्ता में लौटीं. उसी साल, बांग्लादेश राइफल्स (BDR) ने विद्रोह कर दिया, जिसकी एक वज़ह तो सैनिकों के वेतन और जीवन स्तर में गिरावट थी, तो दूसरी वज़ह, हसीना की धर्मनिरपेक्ष राजनीति व भारत के साथ करीबी संबंधों के प्रति उनकी नाराज़गी. यह माना जाता था कि BDR के सदस्य ‘कट्टर मज़हबी सोच’ रखते हैं और चरमपंथी संगठन हिज़्ब-उत-तहरीर के साथ रिश्ता बनाए हुए हैं. BNP-JI गठबंधन सरकार (2001-2006) के दौरान कट्टरपंथी जमात-ए-इस्लामी (JI) के कई कैडरों को BDR में भर्ती किया गया था.
विद्रोह के दौरान, हसीना ने सैन्य नीति के बजाय राजनीति से समाधान तलाशने का प्रयास किया. उन्होंने पीड़ितों से मुलाकात की और विद्रोह को दबाने के लिए रक्षा मंत्रालय के बजाय गृह मंत्रालय के अधीन बलों का इस्तेमाल किया. इससे सेना के भीतर खून-खराबा कम हुआ और उनके मतभेद भी घटे. इन सब कामों में भारत ने हसीना का समर्थन किया, जिस कारण फ़ौज को लेकर उन्हें अपनी नीति आगे बढ़ाने का विश्वास पैदा हुआ. BDR के विद्रोह के बाद, हसीना ने फ़ौज के साथ एक नया संतुलन बनाया, जो लगभग 15 वर्षों तक, यानी उनके पद से हटने तक बना रहा.
हसीना सेना के भीतर मौजूद मतभेदों का फ़ायदा उठाकर ‘इनाम और दंड की नीति’ अपनाती रहीं. उनके कार्यकाल में, सेना के रैंकों में भाई-भतीजावाद चरम पर था और बोर्ड मूल्यांकन की पारंपरिक व्यवस्था को किनारे करते हुए ‘नोट शीट प्रमोशन’ के जरिये पदोन्नति दी जाने लगी थी. उस समय जनरल ज़मान को सेना प्रमुख बनाया गया, जिनको कथित तौर पर हसीना का रिश्तेदार माना जाता है. शेख हसीना ने एक तरफ़ सेना का विस्तार करके उसे संतुष्ट कर दिया, तो दूसरी तरफ़ बढ़े हुए बजट, नए उपकरण व अनुबंधों द्वारा उसका ‘दोहन’ भी किया. सरकार ने सेना द्वारा चलाए जा रहे तस्करी नेटवर्क और उसके भ्रष्टाचार पर भी आंखें मूंदे रखीं.
शेख हसीना ने एक तरफ़ सेना का विस्तार करके उसे संतुष्ट कर दिया, तो दूसरी तरफ़ बढ़े हुए बजट, नए उपकरण व अनुबंधों द्वारा उसका ‘दोहन’ भी किया. सरकार ने सेना द्वारा चलाए जा रहे तस्करी नेटवर्क और उसके भ्रष्टाचार पर भी आंखें मूंदे रखीं.
इसके साथ-साथ, हसीना ने सेना को निर्बल भी बना दिया. 2011 में, सरकार ने 15वां संविधान संशोधन पारित किया, जिससे कार्यवाहक सरकार द्वारा जारी नियम बेअसर कर दिए गए. 2007 के आपातकाल का हवाला देते हुए यह सब किया गया, जिसमें फ़ौज-समर्थित कार्यवाहक सरकार ने चुनावी प्रक्रिया पर नियंत्रण कर लिया था. 2013 में, सरकार ने एक न्यायाधिकरण का गठन किया, जिसने 2009 के BDR विद्रोह में भाग लेने के कारण सैकड़ों सैनिकों व पूर्व अधिकारियों को फांसी व आजीवन कारावास की सजा सुनाई. इस्लामी दलों पर प्रतिबंध लगाकर या उन पर शिकंजा कसकर और पाकिस्तान के साथ सहयोग कम करके, शेख हसीना ने यह भी कोशिश की कि चरमपंथी सेना को प्रभावित न कर सकें.
उनके इन प्रयासों को और मज़बूती तब मिली, जब सरकार ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ शून्य-सहिष्णुता की नीति अपनाई और 2009 में आतंकवाद-रोधी कानून बनाया, जिसमें बाद में संशोधन भी किए गए. हसीना ने विपक्ष और असहमति के स्वर को दबाने के लिए गृह मंत्रालय के अधीन रैपिड एक्शन बटालियन की भी तैनाती की. इससे घरेलू राजनीति में सेना की भूमिका कम हुई और उसने रक्षा व सुरक्षा पर अपना ध्यान लगाना शुरू किया.
साल 2024 में जैसे ही देश भर में विरोध-प्रदर्शन शुरू हुए, सेना ने छात्रों और आम जनता के ख़िलाफ़ कार्रवाई शुरू कर दी. मगर जैसे-जैसे आंदोलन लोकप्रिय होता गया, फ़ौज ने सरकार का साथ देने से इनकार कर दिया. उसे यह आशंका सताने लगी थी कि बढ़ रही अशांति और खून-खराबे से उसकी छवि खराब हो सकती है और घरेलू राजनीति में उसे उतरना पड़ सकता है. हसीना को पद छोड़ने के लिए राजी करके और एक अंतरिम सरकार के गठन का दबाव बनाकर सेना वास्तव में अस्थिरता को रोकने और घरेलू राजनीति में दख़ल देने से बचने का प्रयास कर रही थी.
हालांकि, कार्यवाहक सरकार ने नागरिक-सैन्य समीकरण को दो तरह से बदल दिया है. पहला, सेना के अंदर दरार फिर से बढ़ने लगी है. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, कट्टरपंथी इस्लामवादी झुकाव वाले कई बड़े अधिकारियों को ऊंचे पदों पर पदोन्नत किया जा रहा है. 2009 के विद्रोह के दोषी करीब 300 विद्रोहियों को रिहा कर दिया गया है. जनरल ज़मान ने यह भी घोषणा की है कि हसीना के शासनकाल में अपहरण, हत्या और दमन में शामिल बलों की जांच की जाएगी. इसी तरह, अवामी लीग का अब भी समर्थन करने वाले कुछ जवानों को देश में अशांति फैलाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है. पाकिस्तान के साथ रक्षा और सुरक्षा सहयोग बढ़ाया जा रहा है, जिससे इस्लामवादियों और भारत-विरोधी अधिकारियों का हौसला बढ़ सकता है. हालांकि, कार्यवाहक सरकार के सीमित अधिकार और अब तक जनादेश न हासिल कर सकने के कारण ये बदलाव पूरी तरह से प्रभावी नहीं हो पाए हैं.
दूसरी बात, सेना अब घरेलू राजनीति और कानून-व्यवस्था को बनाए रखने के कामों में शामिल होने लगी है, जिस कारण उसकी निराशा साफ़ दिखाई दे रही है. हालांकि, जहां एक तरफ़, सरकार अपने दम पर कानून-व्यवस्था बहाल करने के लिए संघर्ष कर रही है, वहीं दूसरी तरफ़, उसने सुरक्षा को लेकर ऐसे फ़ैसले भी लिए हैं, जिससे सैन्य प्रतिष्ठान के साथ उसके टकराव हो रहे हैं- जैसे, चटगांव को म्यांमार के रखाइन सूबे से जोड़ने वाला एक ‘मानवीय गलियारा’ बनाने की कथित योजना. इस बीच, इस्लामवादियों को भी शह मिला है, और छात्रों व राजनीतिक पार्टियों के बीच तनाव बढ़ा है. अल्पसंख्यकों पर भी अत्याचार के मामले बढ़े हैं. सरकारी कर्मचारी, शिक्षक और राजनीतिक कार्यकर्ता सरकार के ख़िलाफ़ विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं. सुधारों की गति धीमी हो रही है, और राजनीतिक दलों में सुधारों की प्रकृति और उसके दायरे को लेकर एक-दूसरे का विरोध है. अपनी नाखुशी ज़ाहिर करते हुए जनरल ज़मान ने ज़ोर देकर कहा है, ‘फ़ौज मुल्क की सुरक्षा के लिए है, पुलिस का काम करने के लिए नहीं’, और उन्होंने सरकार से साल के अंत तक चुनाव करने को भी कहा.
जहां सेना सुचारु बदलाव और बैरकों में अपनी वापसी चाहती है, वहीं हाल की घटनाओं ने उसे एक बार फिर सियासत की गलियारों में घेर लिया है. इसके अलावा, बढ़ती हिंसा और अशांति, चरमपंथियों की बढ़ रही मौजूदगी, कमज़ोर नागरिक नेतृत्व और सेना के भीतर मतभेद ने फ़ौज के रोज़मर्रा के कामकाजों में उतरने का ख़तरा बढ़ा दिया है.
हालांकि, चुनाव के बाद भी बांग्लादेश का भविष्य बहुत उज्ज्वल नहीं दिख रहा है. नागरिक नेतृत्व 1990 के दशक से पहले जितना कमज़ोर था, आज भी उतना ही है. शेख हसीना और अवामी लीग जहां समीकरण से बाहर हैं, वहीं BNP अध्यक्ष खालिदा ज़िया बीमार हैं. ज़िया के बेटे और BNP के कार्यवाहक अध्यक्ष तारिक रहमान अभी भी लंदन में रहते हैं. वैसे भी, मौजूदा राजनीतिक तस्वीर में उनकी प्रासंगिकता बहुत कम दिख रही है. नेशनल सिटीजन पार्टी और JI जैसी अन्य पार्टियां बहुत नई या छोटी हैं, और उनमें राजनीतिक शून्य को भरने की क्षमता या अनुभव नहीं के बराबर है. इस्लामी गुटों और चरमपंथियों से उनके संबंध, और देश में बढ़ती भीड़ हिंसा को देखकर यही कहा जा सकता है कि यहां एक ख़तरनाक मिसाल कायम करने का ख़तरा उठाया जा रहा है.
पिछले 15 वर्षों में, राजनीतिक स्थिरता ने ही सेना को एक पेशेवर संस्था बनने में मदद की है. मगर हसीना के निष्कासन ने नागरिक-सैन्य समीकरण को गंभीर रूप से प्रभावित किया है. जहां सेना सुचारु बदलाव और बैरकों में अपनी वापसी चाहती है, वहीं हाल की घटनाओं ने उसे एक बार फिर सियासत की गलियारों में घेर लिया है. इसके अलावा, बढ़ती हिंसा और अशांति, चरमपंथियों की बढ़ रही मौजूदगी, कमज़ोर नागरिक नेतृत्व और सेना के भीतर मतभेद ने फ़ौज के रोज़मर्रा के कामकाजों में उतरने का ख़तरा बढ़ा दिया है. ऐसे में, आने वाले दिनों में सेना का गणित किस तरह से बदलता है, यह काफी हद तक चुनावी नतीजों और आने वाली सरकार की स्थिरता व सुरक्षा को बढ़ावा देने की क्षमता पर निर्भर करेगा.
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Aditya Gowdara Shivamurthy is an Associate Fellow with the Strategic Studies Programme’s Neighbourhood Studies Initiative. He focuses on strategic and security-related developments in the South Asian ...
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Madhurima Pramanik is an intern with ORF’s Strategic Studies Programme. Her works focus on political, strategic and security related developments in South Asia , with a ...
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