Author : Sohini Nayak

Published on Aug 31, 2021 Updated 0 Hours ago

हिमालय की घाटी में बसा देश नेपाल भी अपने उन नागरिकों को निकालने की प्रक्रिया में है जो इस ख़तरनाक स्थिति में अफ़ग़ानिस्तान में फंसे हुए हैं

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के शासन में  नेपाली नागरिकों की बुरी हालत

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के कब्ज़े को दुनिया बेहद उत्सुकता लेकिन बिना कुछ किए धरे देख रही है. 2001 में अमेरिका के नेतृत्व वाले बल के द्वारा हटाए जाने के दो दशक बाद जैसे-जैसे तालिबान के उग्रवादी पूरी तरह सत्ता पर काबिज़ हो रहे हैं, वैसे-वैसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वहां रहने वाले दूसरे देशों के नागरिकों और अफ़ग़ान लोगों की परेशान करने वाली तस्वीरें सामने आ रही हैं. वो जल्द-से-जल्द बाहर निकलने के लिए बेचैन हैं. राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी के नेतृत्व वाली सरकार के गिरने के बाद की परिस्थिति में अफ़ग़ानिस्तान से दुनिया के अलग-अलग देश विमान के ज़रिए अपने लोगों को वहां से निकाल रहे हैं. हिमालय की घाटी में बसा देश नेपाल भी अपने उन नागरिकों को निकालने की प्रक्रिया में है जो इस ख़तरनाक स्थिति में अफ़ग़ानिस्तान में फंसे हुए हैं. हालांकि नेपाल के 118 नागरिकों को अमेरिकी दूतावास (17 अगस्त 2021 तक) काबुल से क़तर के विमान के ज़रिए काठमांडू पहुंचा चुका है लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में फंसे बाक़ी नेपाली नागरिकों, जिनकी सटीक संख्या का पता नहीं है, को बाहर निकालने के लिए अभी इस तरह के कई और उड़ानों की ज़रूरत है.

अफ़ग़ानिस्तान में नेपाली श्रमिक

नेपाल के गृह मंत्री बाल कृष्ण खंड ने इस हालात पर प्रतिक्रिया देते हुए तुरंत फंसे हुए नेपाली नागरिकों को अफ़ग़ानिस्तान से लाने की बात कही है. एक अनुमान के मुताबिक़ क़रीब 1,500 से 2,000 नेपाली नागरिक अफ़ग़ानिस्तान के औपचारिक सेक्टर में काम कर रहे हैं. विदेश मामलों के मंत्रालय के सचिव भरतराज पौडयाल के मुताबिक़ इन नेपाली नागरिकों को काबुल से बाहर नहीं निकाला जा सका है. अफ़ग़ानिस्तान में काम करने वाले ज़्यादातर नेपाली नागरिक अलग-अलग देशों जैसे कनाडा, जर्मनी, जापान, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका के दूतावासों में काम करते हैं. आम तौर पर वो राजनयिक क्षेत्र में सुरक्षा कर्मी के तौर पर तैनात हैं. इसके अलावा कुछ नेपाली नागरिक कंधार के बगराम एयर बेस में अमेरिकी और ब्रिटिश रक्षा ठेकेदार के तौर पर काम करते हैं. इसके अलावा कुछ दूसरे देशों के सैन्य अड्डों पर भी काम करते हैं. कुछ निजी नेपाली ठेकेदार भी हैं जो काबुल में तुर्की के सब-कॉन्ट्रैक्टर या फ्लूअर कॉरपोरेशन जैसी अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए काम करते हैं. नेपाल के अख़बार काठमांडू पोस्ट के मुताबिक़ काबुल में जर्मनी के दूतावास में 60 नेपाली नागरिक हैं जबकि यूनाइटेड किंगडम के दूतावास में 87 नेपाली नागरिक हैं, जापान के दूतावास में 62 नेपाली नागरिक और कनाडा के मिशन में 60 नेपाली नागरिक हैं. इसके अलावा 467 नेपाली नागरिक काबुल में संयुक्त राष्ट्र की अलग-अलग विशिष्ट एजेंसियों में काम करते हैं. इसके अतिरिक्त सैकड़ों नेपाली नागरिक हैं जिनके पास अफ़ग़ानिस्तान में कोई आधिकारिक दस्तावेज़ नहीं है जिसकी वजह से उन्हें वापस भेजने में दिक़्क़त हो रही है. अनुमानों के मुताबिक़ बिना दस्तावेज़ वाले इन प्रवासी मज़दूरों की संख्या 14,000 से ज़्यादा हो सकती है जिन्हें अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकलने का शायद कोई मौक़ा नहीं मिले.

अफ़ग़ानिस्तान में काम करने वाले ज़्यादातर नेपाली नागरिक अलग-अलग देशों जैसे कनाडा, जर्मनी, जापान, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका के दूतावासों में काम करते हैं. आम तौर पर वो राजनयिक क्षेत्र में सुरक्षा कर्मी के तौर पर तैनात हैं. 

नेपाल के विदेश रोज़गार विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक़ पिछले साल मध्य जुलाई में ख़त्म नेपाल के वित्तीय वर्ष के दौरान 1,073 नेपाली नागरिकों ने अफ़ग़ानिस्तान में काम करने के लिए श्रम परमिट हासिल किया था. पिछले सात वर्षों में 8,000 नेपाली प्रवासी आजीविका की तलाश में युद्धग्रस्त देश अफ़ग़ानिस्तान जा चुके हैं. यहां इस बात का ज़िक्र करना ज़रूरी है कि नेपाल से अफ़ग़ानिस्तान ज़्यादातर अवैध तरीक़ों से जाते हैं और दोनों देशों के बीच कोई व्यवस्थित और मज़बूत सीधा कूटनीतिक संपर्क नहीं है. नेपाल के विदेश रोज़गार विभाग ने दुबई के रास्ते काम के लिए अफ़ग़ानिस्तान जाने में आने वाली परेशानियों का अक्सर ज़िक्र किया है. इसकी मुख्य वजह कमज़ोर सुरक्षा हालात हैं. लेकिन कई ऐसे एजेंट हैं जो कंपनियों की तरफ़ से प्रवासियों को तैनात करते हैं और कंपनी के पदनाम, मुहर और जगह के साथ डिमांड लेटर भी जारी करते हैं. इसकी वजह से ग्राहक को पूरी प्रक्रिया के लिए हज़ारों डॉलर खर्च करना पड़ता है. आमतौर पर इस तरह की प्रक्रिया आधिकारिक नहीं होती है. श्रम क़ानून भी अलग-अलग देश में अलग-अलग होते हैं और ये देखा जाना चाहिए कि हर देश में श्रम क़ानून की संरचना में रोज़गार देने वाली कंपनी और कर्मचारी के बीच मौजूद द्विपक्षीय तौर-तरीक़े क्या हैं.

इस वक़्त नेपाल के लिए ज़रूरी है कि वो भारत से संपर्क साधे. ये इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि इससे भारत के विमानों को नेपाल के लोगों को लाने में आसानी होगी और इस तरह वो अपने घर तक आराम से पहुंच सकेंगे 

आमतौर पर देखा जाए तो ज़मीनी सीमा वाले देशों में इस तरह के घटनाक्रम से परहेज़ करने के लिए ये मुश्किल हालात हैं. इसकी मुख्य वजह अस्तित्व बचाने के लिए मूलभूत ज़रूरतों की कमी और निम्न-मध्य आमदनी वाला देश बनने के लिए सीढ़ी चढ़ना है. नेपाल ऐसा देश है जो विदेशी रोज़गार के मौक़ों से होने वाली आमदनी पर बहुत ज़्यादा निर्भर है. इसका सीधा असर राष्ट्रीय जीडीपी पर भी होता है. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के मुताबिक़ नेपाल के प्रवासी मज़दूर न सिर्फ़ अपने देश के विकास में योगदान देते हैं बल्कि मेजबान देश के विकास में भी उनकी भूमिका होती है. नेपाल के प्रवासी मज़दूरों की संख्या हर साल बढ़ती रही है और वित्तीय वर्ष 2014 के दौरान क़रीब 5,20,000 श्रम परमिट मुख्य तौर पर मलेशिया, क़तर, सऊदी अरब, कुवैत और यूएई के लिए जारी किए गए. कई मौक़ों पर नज़दीक होने की वजह से भारत को बीच के रास्ते के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है जहां से वो आगे की यात्रा तय करते हैं. लेकिन श्रमिकों के शोषण के साथ असुरक्षा एक अननियंत्रित वास्तविकता है. ऐसा ही एक मामला 2016 का है जब एक आतंकी हमले के दौरान काबुल में 12 नेपाली सुरक्षा ठेकेदार मारे गए थे. इन लोगों को कनाडा के दूतावास ने काम पर रखा था और जब वो एक मिनी वैन से जा रहे थे तो आत्मघाती हमले में उनकी मौत हो गई. इस घटना को याद कर अब भी नेपाल के लोगों का ज़ख्म ताज़ा हो जाता है और तब से नेपाल की सरकार अफ़ग़ानिस्तान के लिए काम-काज का परमिट जारी करने के ख़िलाफ़ है. लेकिन इन बाधाओं के बावजूद लोगों का जाना रुका नहीं है क्योंकि उनका अपना देश उन्हें एक मूलभूत जीवन स्तर मुहैया कराने में सक्षम नहीं है.

अफ़ग़ानिस्तान में काम करने वाले ज़्यादातर नेपाली नागरिक अलग-अलग देशों जैसे कनाडा, जर्मनी, जापान, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका के दूतावासों में काम करते हैं. आम तौर पर वो राजनयिक क्षेत्र में सुरक्षा कर्मी के तौर पर तैनात हैं. 

मौजूदा दिक्कतें

वर्तमान परिस्थिति में जिस बड़ी समस्या की पहचान की गई है वो है नेपाल में नई-नवेली शेर बहादुर देउबा सरकार की अक्षमता. दुर्भाग्यवश देउबा कैबिनेट में अभी तक विदेश मामलों, श्रम या पर्यटन मंत्री की नियुक्ति नहीं की गई है जो कम-से-कम मौजूदा स्वदेश लाने की स्थिति को आसान बना सके. नेपाल अपने आंतरिक मतभेद में इस तरह डूबा हुआ है कि नेपाली कांग्रेस- जो कि ख़ुद बंटी हुई है- की नई सरकार बनने के महीने भर के बाद भी अभी तक स्थिर नहीं हो पाया है. एक सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम के अलावा कोई भी रचनात्मक क़दम नहीं उठाया गया है. नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता और अनिश्चित लोकतंत्र के इतिहास को देखते हुए कोविड-19 की इस मुश्किल घड़ी में आगे क्या होने वाला है, इस सवाल का जवाब हर कोई चाहता है. यही वजह है कि नेपाल अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से अपील कर रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान से उसके नागरिकों को वापस लाने में मदद की जाए. इसके लिए नेपाल ने संयुक्त राष्ट्र को चिट्ठी लिखने के साथ-साथ अमेरिका जैसे कई देशों को कूटनीतिक संदेश भेजा है. अपने नागरिकों को वापस लाने में उसे कितनी मदद मिलेगी ये भी एक सवाल है क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान से निकलने के लिए छटपटा रहे लोगों की संख्या बहुत ज़्यादा है जिनमें अफ़ग़ानिस्तान के आम लोग भी शामिल हैं जो अलग-अलग देशों से संपर्क साध रहे हैं. इस वक़्त नेपाल के लिए ज़रूरी है कि वो भारत से संपर्क साधे. ये इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि इससे भारत के विमानों को नेपाल के लोगों को लाने में आसानी होगी और इस तरह वो अपने घर तक आराम से पहुंच सकेंगे. ये मदद दोनों देशों के बीच संपर्क का एक और ज़रिया होगा जो पिछले साल राजनीतिक नक्शे के विवाद और सीमा से जुड़े मुद्दों के सामने आने की वजह से ग़ायब था. इस संकट से नेपाल किस तरह निपटता है ये नये प्रधानमंत्री के लिए भी एक चुनौती है और इसकी वजह से नई सरकार की छवि बन या बिगड़ सकती है. वो सरकार जो काफ़ी वादों और आशंकाओं के साथ सत्ता में आई है.

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