Author : Arpan Tulsyan

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Published on Feb 25, 2025 Updated 0 Hours ago

माना जाता है कि बच्चे किस तरह से या किन माध्यमों के ज़रिये पढ़ाई कर रहे हैं, उसका असर उनकी एकाग्रता, अनुभव, समझ और मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ता है. यही वजह कि वर्तमान में डिजिटल शिक्षा के प्रभाव, ख़ास तौर पर स्कूली बच्चों पर पाठ्यपुस्तकों के डिजिटलीकरण के असर की तथ्यात्मक पड़ताल करने की ज़रूरत है.

समय आ गया है कि हम पढ़ाई के लिये ई-बुक्स को छोड़कर पारंपरिक पाठ्य पुस्तकों का रुख़ करें...!

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स्वीडन में एक बेहद दिलचस्प मामला सामने आया है. स्वीडन ने स्कूलों में डिजिटल पाठ्यपुस्तकों की जगह पर दोबारा से पढ़ाई की क़िताबों को वापस लाने का निर्णय लिया है. आपको बता दें कि पंद्रह साल पहले स्कूल की कक्षाओं को डिजिटल बनाने वाले दुनिया के शुरुआती देशों में स्वीडन भी शामिल था. अब, तमाम अध्ययनों और शोधों से पता चला है कि पढ़ाई की सामग्री के डिजिटलीकरण की वजह से बच्चों को काफ़ी नुक़सान हो रहा है, पढ़ाई में उनका ध्यान नहीं लग रहा है, साथ ही बच्चों में पढ़ाई-लिखाई जैसी बुनियादी योग्यता में भी कमी आ रही है. इसी के चलते स्वीडन ने स्कूली शिक्षा के डिजिटलीकरण को समाप्त करने और पढ़ाई की क़िताबों यानी पाठ्यपुस्तकों को फिर से शुरू करने का फैसला किया है और इसमें 104 मिलियन यूरो का ख़र्च किया जा रहा है.

 

इतना ही नहीं, स्वीडन की नेशनल एजेंसी फॉर एजुकेशन को स्कूली बच्चों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली डिजिटल डिवाइसेज की विस्तृत जांच का ज़िम्मा सौंपा गया है और यह पता लगाने को कहा गया है कि बच्चे स्कूल के भीतर एवं स्कूल के बाहर इन डिजिटल उपकरणों का कितना और किस प्रकार उपयोग करते हैं. इसके साथ ही इस एजेंसी को डिजिटल उपकरणों के उपयोग को कम से कम करने में मदद करने वाले उपायों के बारे में बताने की भी ज़िम्मेदारी दी गई है. स्वीडन में प्री-स्कूल पाठ्यक्रम में अभी तक हर बच्चे की डिजिटिल उपकरणों तक बेहतर पहुंच पर ज़ोर दिया जाता था. लेकिन अब इसमें बदलाव किया गया है और वैज्ञानिक मूल्य व बेहतर शैक्षिक वातावरण के साथ ही बच्चों के समग्र विकास के मद्देनज़र डिजिटिल उपकरणों के उपयोग को अब सेलेक्टिव यानी वैकल्पिक कर दिया गया है.

 

शिक्षा में डिजिटल डिवाइसेज के उपयोग को कम करने की कोशिशें फिनलैंड के कुछ स्कूलों में भी देखने को मिल रही हैं. वहां स्कूलों में छोटे बच्चों के बीच डिजिटिल माध्यमों और उपकरणों पर आधारित शिक्षा के तौर-तरीक़ों को समाप्त किया जा रहा है, ताकि बच्चों में एकाग्रता बढ़ सके और उनका स्क्रीन टाइम कम हो, साथ ही ध्यान भटकना बंद हो. इसी प्रकार से ऑस्ट्रेलिया में भी शैक्षिणिक संस्थाओं ने स्टूडेंट्स की पढ़ने की क्षमता में कमी आने को लेकर चिंता जताई है और इसके लिए कहीं न कहीं छात्र-छात्राओं के बढ़ते स्क्रीन टाइम को ज़िम्मेदार ठहराया है. शिक्षा विशेषज्ञ अब इन परिस्थियों का समाधान निकालने की कोशिश में जुटे हैं और इसके लिए छपी हुई क़िताबों को पढ़ने के साथ ही हाथ से लिखने को बढ़ावा दे रहे हैं.

 यूनाइटेड किंगडम के कैम्ब्रिज में स्थित हेरिटेज स्कूल ऐसा है, जिसे देश का इकलौता ‘स्क्रीन-मुक्त स्कूल’ माना जाता है. यानी हेरिटेज स्कूल में स्टूडेंट्स को पढ़ाने के लिए लैपटॉप, मोबाइल फोन, इंटरनेट या इंटरैक्टिव व्हाइटबोर्ड का इस्तेमाल नहीं किया जाता है.

यूनाइटेड किंगडम के कैम्ब्रिज में स्थित हेरिटेज स्कूल ऐसा है, जिसे देश का इकलौता ‘स्क्रीन-मुक्त स्कूल’ माना जाता है. यानी हेरिटेज स्कूल में स्टूडेंट्स को पढ़ाने के लिए लैपटॉप, मोबाइल फोन, इंटरनेट या इंटरैक्टिव व्हाइटबोर्ड का इस्तेमाल नहीं किया जाता है. इस स्कूल के बच्चों के नतीज़े काफ़ी बेहतरीन रहे हैं. हेरिटेज स्कूल अपने शानदार शैक्षणिक नतीज़ों का श्रेय बच्चों को पाठ्यपुस्तकों से दी जाने वाली शिक्षा, बच्चों द्वारा नोटबुक्स पर लिखने, बच्चों द्वारा कविता याद करने, प्रकृतिक वातावरण में समय बिताने और फाइन आर्ट्स पर अधिक ध्यान देने को देता है. हेरिटेज स्कूल अपनी टेक-फ्री यानी टेक्नोलॉजी-मुक्त शिक्षा के तरीक़े को ‘इनोवेटिव’ मानता है. संडे टाइम्स में छपे एक अर्टिकल में हेरिटेज स्कूल की शिक्षा पद्धति को “शिक्षा के एक ऐसे तरीक़े के रूप में बताया गया, जिसे कई माता-पिता अपने बच्चों को देना चाहते हैं और इसकी तलाश में जुटे हैं.”

 

कई अध्ययनों में यह सामने आया है कि बच्चों में पढ़ाई के कौशल एवं मनोरंजन के लिए उनके द्वारा की जाने वाली पढ़ाई के बीच आपस में काफ़ी मज़बूत संबंध होता है. छोटे बच्चों (10-11 ईयर- रिक्रिएशनल रीडिंग ओल्ड्स; प्रोग्रेस इन इंटरनेशनल रीडिंग लिटरेसी स्टडी) और किशोर बच्चों (15-ईयर-ओल्ड्; प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट एसेसमेंट) के बीच व्यापक स्तर पर किए गए अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षणों में यह सामने आया है कि ऐसे बच्चों की तादाद में ज़बरदस्त कमी आई है, जो यह कहते हैं कि उन्हें पढ़ने में मजा आता है या उन्हें पढ़ना पसंद है. इससे साफ संकेत मिलता है कि बच्चों की रीडिंग स्किल्स में कमी आ रही है. इतना ही नहीं इन सर्वेक्षणों से यह भी पता चला है कि हर उम्र के बच्चों के बीच क़िताबों को पढ़ने में रुचि कम हो रही है, क्योंकि पुस्तकों में लंबे-लंबे चैप्टर होते हैं, इसलिए बच्चे इन्हें पढ़ने से बचते हैं. इसके अलावा बच्चों में शॉर्ट्स, मल्टीमीडिया कंटेंट जैसे कि टेक्स्ट मैसेज, ग्राफिक्स, ऑडियो, वीडियो, एनिमेशन यानी सोशल मीडिया कंटेंट को देखने, पढ़ने और सुनने का प्रचलन बढ़ रहा है. इन तथ्यों से पता चलता है कि स्कूली शिक्षा में ई-टेक्स्टबुक्स की भूमिका और इनके उपयोग को नए सिरे से निर्धारित करने की ज़रूरत है, ताकि यह बच्चों को प्रभावी तरीक़े से शिक्षा देने में मददगार साबित हो सकें.

 

शिक्षा से संबंधित चीज़ों पर ध्यान केंद्रित करना और समझना 

 

अध्ययनों के मुताबिक़ क़िताब को पढ़ने से एक अलग तरह का एहसास होता है, पुस्तक का कागज़ पढ़ाई का वास्तविक आभास कराते हैं. क़िताब को पढ़ने से जहां उसे अपने हाथों में लेने का अनुभव होता है, वहीं उसके पन्नों को छूने और पलटने का मौक़ा मिलता है. ई-बुक्स में इस तरह का एहसास नहीं मिल सकता है. यानी क़िताबों को पढ़ने से विद्यार्थियों का विषय के साथ अधिक जुड़ाव तो होता ही है, साथ ही वे उसमें दी गई जानकारी को ज़्यादा समझ पाते हैं और उसे अपने मन-मस्तिष्क में समाहित कर पाते हैं. वहीं अगर ई-बुक्स की बात की जाए, तो इनमें हाइपरलिंक की भरमार होती है, इन्हें स्क्रॉल करके ऊपर-नीचे किया जा सकता है. इसके साथ ही इनमें मल्टीमीडिया फीचर्स जैसे की ग्राफिक्स, वीडियो, एनिमेशन आदि भी होते हैं और कहीं न कहीं ई-पुस्तकें पाठकों को अपने साथ जोड़े तो रखती हैं, लेकिन ई-बुक्स में डिजिटल भटकाव बहुत अधिक होता है. इस वजह से ख़ास तौर युवा इन्हें पढ़ने के दौरान अपना ध्यान केंद्रित नहीं रख पाते हैं और विषय भी अच्छे से नहीं समझ पाते हैं. ऑनलाइन पढ़ाई से न केवल छात्रों के व्यवहार पर असर पड़ता है, बल्कि यह उनकी पसंद को भी प्रभावित करती है. कहने का मतलब है कि ऑनलाइन माध्यमों के ज़रिए पढ़ाई करने से विद्यार्थियों के ध्यानपूर्वक और मन लगाकर पढ़ने की कोशिशों पर नकारात्मक असर पड़ता है.

 क़िताबों और ई-बुक्स के ज़रिए पढ़ाई करने के तुलनात्मक प्रभावों को लेकर वर्ष 2000 से 2017 के बीच प्रकाशित 58 स्टडी पेपर्स के व्यापक मेटा-विश्लेषण के मुताबिक़ स्क्रीन पर पढ़ाई करने के मुक़ाबले पेपर की क़िताबों को पढ़ना ज़्यादा प्रभावशाली होता है. 

क़िताबों और ई-बुक्स के ज़रिए पढ़ाई करने के तुलनात्मक प्रभावों को लेकर वर्ष 2000 से 2017 के बीच प्रकाशित 58 स्टडी पेपर्स के व्यापक मेटा-विश्लेषण के मुताबिक़ स्क्रीन पर पढ़ाई करने के मुक़ाबले पेपर की क़िताबों को पढ़ना ज़्यादा प्रभावशाली होता है. इस विश्लेषण के दौरान जितनी भी रिसर्च स्टडीज़ की समीक्षा की गई, भले ही उन्हें तैयार करने के सैद्धांतिक तौर-तरीक़ों में तमाम अंतर रहे हों, बावज़ूद इसके सभी के नतीज़े एक जैसे रहे. इतना ही नहीं, आयु समूह, शिक्षा के स्तर, चैप्टर की लंबाई और समझबूझ के आकलन जैसे दूसरे फैक्टर्स की वजह से भी स्टडी पेपर्स के परिणामों में कोई बदलाव नहीं हुआ, यानी नतीज़ा वही निकला. इसके अलावा, क़िताबों से पढ़ाई करने का सबसे बड़ा फायदा यह था कि समय पर पढ़ाई पूरी हो जाती है, साथ ही जानकारी से भरे चैप्टरों, जिनमें काल्पनिक विषय भी शामिल हैं, को पढ़ने में भी बहुत आसानी होती है. 

 

सीखने व समझने का जुड़ाव और शिक्षा के दोनों तरीक़ों में आपसी संबंध

 

पाठ्य पुस्तकों और ई-बुक्स के तुलनात्मक प्रभाव के बारे में किए गए 39 अन्य अध्ययनों की समीक्षा में यह भी सामने आया है कि डिजिटल बुक्स के मल्टीमीडिया फीचर्स जैसे कि पाठ्य सामग्री के साथ म्यूज़िक और साउंड इफेक्ट्स, एनिमेटेड पिक्चर्स और एम्बेडेड डिक्शनरी कहीं न कहीं पढ़ाई के दौरान स्टूडेंट्स के जुड़ाव को बढ़ाते हैं, साथ ही उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित भी करते हैं. हालांकि, किसी डिजिटल बुक में इन मल्टीमीडिया फीचर्स का शिक्षा के लिहाज़ से या कहा जाए कि विद्यार्थियों की जानकारी बढ़ाने के लिहाज़ से कितना प्रभाव पड़ता है, तो यह काफ़ी हद तक उनकी डिज़ाइन और प्रासंगिकता पर निर्भर करता है. इसके अलावा, ई-टेक्स्टबुक्स को पढ़ाई के अलग-अलग तरीक़ों और ज़रूरतों के मुताबिक़ ढाला जा सकता है, जिससे विविधता से भरे क्लासरूम में छात्र-छात्राओं को, यानी अलग- अलग मानसिक स्तर के स्टूडेंट्स को उनकी ज़रूरत के मुताबिक़ व्यक्तिगत शिक्षा देना आसान हो जाता है.

 

तमाम अध्ययनों की समीक्षा करने के बाद जो निष्कर्ष निकला, उससे मुताबिक़ ई-बुक्स सामान्य क़िताबों से तभी ज़्यादा प्रभावी हो सकती हैं, जब इनमें दी गई पाठ्य सामग्री को न केवल अच्छी तरह से डिज़ाइन किया गया हो और मल्टीमीडिया कंटेंट का समुचित उपयोग किया गया है, बल्कि इसमें किसी विशेषज्ञ की मदद ली गई हो. यानी एक अच्छी तरह से डिज़ाइन की गई ई-बुक्स ही छपी हुई क़िताब से ज़्यादा असरदार हो सकती है. अगर कागज़ की क़िताबें और डिजिटल बुक्स लगभग एक जैसी हैं और ई-बुक्स में कहीं-कहीं पर वॉयसओवर या पॉपअप्स का इस्तेमाल किया गया हो, तो ऐसे में छपी हुई क़िताबों को पढ़ने से ज़्यादा अच्छे नतीज़े हासिल होते हैं. इसके अलावा, एक सच्चाई यह भी है कि अपने ख़ास और आकर्षक मल्टीमीडिया फीचर्स की वजह से डिजिटल टेक्स्टबुक्स भले ही विद्यार्थियों को अपने साथ जोड़ने में क़ामयाब होती हैं, लेकिन अक्सर देखने में आता है कि इनके साथ स्टूडेंट्स का जुड़ाव गहरा नहीं होता है. इसकी वजह यह है कि ई-बुक्स को पढ़ते समय छात्रों का ध्यान भटकने की संभावना बहुत अधिक होती है, क्योंकि उसमें शामिल किए गए तमाम फीचर्स की वजह से उन्हें अलग-अलग लिंक्स को खोलना और समझना पड़ता है. जबकि इसके उलट पारंपरिक छपी हुई पाठ्यपुस्तकें पढ़ने के दौरान छात्रों का ध्यान हमेशा अपनी पढ़ाई पर रहता है, उनकी एकाग्रता बनी रहती है और इस वजह से उन्हें पाठ बहुत ज़ल्द याद हो जाता है.

 

ई-बुक्स स्टूडेंट्स के स्वास्थ्य के लिहाज़ से नुक़सानदायक

 

डिजिटल माध्यमों और डिवाइसेज के अधिक उपयोग से बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर से जुड़ी स्टडीज़ में प्रमुख रूप से उनमें बढ़ती सोशल मीडिया और इंटरनेट की आदत पर ध्यान केंद्रित किया गया है. ऐसे अध्ययनों में से इक्का-दुक्का में ही डिजिटल टेक्टबुक्स के इस्तेमाल से बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले संभावित दुष्प्रभावों के बारे में बताया गया है. ऐसे ही एक अध्ययन में कम से कम एक साल से ई-बुक्स को पढ़ रहे स्टूडेंट्स के बीच की गई रिसर्च में, उनमें कुछ न कुछ शारीरिक और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य समस्याएं मिली हैं. शारीरिक परेशानियों की बात की जाए, तो ई-टेक्सटबुक्स से पढ़ने वाले बच्चों में आंखों की दिक़्क़त (आंखों में खिंचाव और नींद आते रहना), मस्कुलोस्केलेटल परेशानी (गर्दन, कलाई या रीढ़ की हड्डी में दर्द) और त्वचा संबंधी दिक़्क़तें (ड्राई स्किन, ड्राई आइज) शामिल थीं. अगर इन स्टूडेंट्स में दिखने वाले मनोवैज्ञानिक प्रभावों की बात करें, तो ई-बुक्स के ज़रिए पढ़ाई में छात्रों का शिक्षकों के साथ व्यक्तिगत मेल-जोल और सीधा संवाद कम हो जाता है, इसके चलते स्टूडेंट्स में तनाव, बेचैनी, चिंता और निराशा बढ़ जाती है. इस स्टडी में यह भी पता चला कि ई-बुक्स को पढ़ने के दौरान विद्यार्थियों को तमाम तकनीकी दिक़्क़तों का भी सामना करना पड़ता है. इस सभी वजहों से स्टूडेंट्स को ध्यान केंद्रित करने में परेशानियों से जूझना पड़ा और इससे उनकी पढ़ाई-लिखाई पर विपरीत असर पड़ा. इस परेशानियों के मद्देनज़र देखा जाए तो छपी हुई पाठ्यपुस्तकें ही छात्रों के हित में हैं. इन क़िताबों में डिजिटल बुक्स की तरह स्क्रीन की चमक और बैकलाइटिंग तो नहीं होती है, लेकिन इन्हें हाथ में लेकर पढ़ा जाता है और रखखाव आसान है, इसलिए ये छात्रों के लिए काफ़ी फायदेमंद हैं. कुल मिलाकर छपी हुई पाठ्यपुस्तकें विद्यार्थियों के शरीर और दिमाग दोनों के लिहाज़ से बेहद अनुकूल हैं और पढ़ाई का बेहतरीन अनुभव प्रदान करती हैं. 

 अगर इन स्टूडेंट्स में दिखने वाले मनोवैज्ञानिक प्रभावों की बात करें, तो ई-बुक्स के ज़रिए पढ़ाई में छात्रों का शिक्षकों के साथ व्यक्तिगत मेल-जोल और सीधा संवाद कम हो जाता है, इसके चलते स्टूडेंट्स में तनाव, बेचैनी, चिंता और निराशा बढ़ जाती है. 

किस तरह के नीतिगत क़दमों की ज़रूरत

 

इसमें कोई संदेह नहीं है कि ई-बुक्स से छात्रों को कुछ न कुछ लाभ तो मिलते हैं, जैसे कि इन्हें हासिल करना बहुत आसान है, इन्हें पढ़ने के दौरान छात्रों को जुड़ाव व जानकारी के लिए कई विकल्प मिलते हैं और इन्हें पढ़ने के लिए कोई ख़ास संसाधन भी ज़रूरी नहीं है. फिर भी ई-बुक्स के अत्यधिक उपयोग के दीर्घकालिक प्रभावों की समुचित जांच-पड़ताल किए बगैर छपी हुई पाठ्यपुस्तकों को स्कूल-कॉलेज के बच्चों से दूर कर देना कहीं न कहीं एक ग़लत क़दम हो सकता है.

 आज बच्चों को बाईलिटरेट बनने की ज़रूरत है, यानी उनमें छपी हुई पुस्तकों और ई-बुक्स दोनों को ही पढ़ने, समझने और गहराई से अपने दिमाग में उतारने की क़ाबिलियत होनी चाहिए. पढाई के इन दोनों तरीक़ों पर अच्छी पकड़ होने से निश्चित रूप से छात्रों को दोनों ही माध्यमों के लाभ हासिल करने में मदद मिलेगी.

डिजिटल ई-बुक्स के दुष्प्रभावों के बारे में चर्चा करने का मतलब यह कतई नहीं है कि इनका उपयोग पूरी तरह से बंद कर दिया जाए. दरअसल, ज़रूरत ऐसी नीतियों की है, जो परंपरागत पाठ्यपुस्तकों और ई-बुक्स के न्यायोचित उपयोग को बढ़ावा दें, यानी नीतियां ऐसी हों, जिनमें टेक्नोल़ॉजी क़िताबों के ज़रिए पढ़ाई-लिखाई के बुनियादी तौर-तरीक़ों की मदद करे, न कि उसे पूरी तरह से हटा दे. मौज़ूदा समय में ई-लर्निंग और ई-रीडिंग अनिवार्य है, ख़ास तौर पर उच्च शिक्षा और ऑफिसों में कामकाज के दौरान इसके बगैर काम नहीं चल सकता है. ऐसे में आज स्टूडेंट्स को सीखने-समझने के अपने कौशल को विकसित करने के अलावा शिक्षा के परांपरिक और आधुनिक तकनीक़ी तरीक़ों, दोनों को सीखने की आवश्यकता है. कहने का मतलब है कि आज बच्चों को बाईलिटरेट बनने की ज़रूरत है, यानी उनमें छपी हुई पुस्तकों और ई-बुक्स दोनों को ही पढ़ने, समझने और गहराई से अपने दिमाग में उतारने की क़ाबिलियत होनी चाहिए. पढाई के इन दोनों तरीक़ों पर अच्छी पकड़ होने से निश्चित रूप से छात्रों को दोनों ही माध्यमों के लाभ हासिल करने में मदद मिलेगी. इसलिए, सरकार द्वारा नीति बनाने के दौरान इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए और ‘सबके लिए एक ही तरीक़ा’ अपनाना उचित नहीं है. बल्कि इसकी जगह पर इस सच्चाई पर ध्यान देना चाहिए कि छात्रों को किस प्रकार की शिक्षा की ज़रूरत है, उन्हें किस तरह की शिक्षण सामग्री चाहिए और किस प्रकार की पढ़ाई-लिखाई उन्हें तेज़ी से विकसित हो रही दुनिया में अपनी जगह सुनिश्चित करने में मददगार साबित होगी. ज़ाहिर है कि शिक्षा का भविष्य छपी हुई क़िताबों और ई-बुक्स दोनों ही तरीक़ों से पढ़ाई करने के लिए ज़रूरी शिक्षण सामग्री के मिलेजुले उपयोग में निहित है. यानी शिक्षा का भविष्य एक ऐसी पारंपरिक और तकनीक़ी शिक्षण सामिग्री के मिलेजुले उपयोग पर निर्भर है, जो छात्रों की ज़रूरतों, रुचियों और पढ़ाई के लक्ष्यों के साथ तालमेल स्थापित करता हो.


अर्पण तुलस्यान ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक डिप्लोमेसी में सीनियर फेलो हैं.

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