Author : Harsh V. Pant

Published on Apr 30, 2019 Updated 0 Hours ago

अनेक देशों के राजनीतिक परिदृश्य को नया आकार देने में चीन की भूमिका बैचैनी का सबब बन रही है।

एशियाई चुनावों में सबकी नजर चीन की चुनौती पर

भारतीय चुनावों में चीन ने बहुत ही कम भूमिका निभाई है। जहां एक ओर यहां चुनावी बयानबाजी का केंद्र पाकिस्तान रहा है, वहीं दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के गंभीर नीति निर्माता इस बात की पहचान कर चुके हैं कि असल चुनौती चीन है। फ़ोटो: Getty Images

अब जबकि भारत चुनावी दौर से गुजर रहा है, ऐसे में यह याद रखना महत्वपूर्ण होगा कि एशिया के बड़े हिस्से में चुनावी मंथन जारी है। इंडोनेशिया से फिलीपींस तक, अफगानिस्तान से थाईलैंड तक, और ऑस्ट्रेलिया से श्रीलंका तक, इस क्षेत्र में यह साल मतदाताओं के नाम है। यहां तक कि उत्तर कोरिया ने भी मार्च में अपनी 14 वीं सुप्रीम पीपुल्स असेंबली (एसपीए) के प्रतिनिधियों के चुनाव का ढोंग किया, जिसमें पहली बार किसी उत्तर कोरियाई नेता ने उम्मीदवार के तौर पर भाग नहीं लिया। इन चुनावों के नतीजे के तौर पर कुछ देशों में बदलाव देखने को मिलेगा, जबकि कुछ अन्य देश अपने घरेलू राजनीतिक ढांचे में निरंतरता के गवाह बनेंगे। लेकिन इन चुनावों में इस बात पर गौर करना दिलचस्प होगा कि बदलता वैश्विक सत्ता संतुलन किस तरह अनेक देशों के चुनावी विमर्श को आकार दे रहा है। अनेक देशों के राजनीतिक परिदृश्य को नए आकार देने में चीन अब एक महत्वपूर्ण परिवर्तनशील घटक बन चुका है, जो न केवल वैश्विक राजनीति में चीन के बढ़ते महत्व का उदाहरण पेश कर रहा है, बल्कि विश्व में, क्षेत्र में और तो और कुछ देशों के भीतर चीन की भूमिका को लेकर एक तरह की बेचैनी की शुरूआत भी हो चुकी है।

इंडोनेशिया के चुनावों में आर्थिक राष्ट्रवाद को चुनावी राजनीति का केंद्र बनते देखा गया। राष्ट्रपति जोको विडोडो, या जोकोवी, जो दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव मैदान में हैं, वह इंडोनेशिया में चीनी निवेशों के प्रति दिलचस्पी रखते रहे हैं, जिनमें जकार्ता और जावा के बांडुंग शहर के बीच एक मल्टी-बिलियन हाई-स्पीड रेलवे और पॉवर प्लांट्स जैसी ढांचागत परियोजनाएं शामिल हैं।

दूसरी ओर, उनके प्रतिद्वंद्वी सेवानिवृत्त जनरल परबोवो सुबिअंतो चीन के आर्थिक कारोबार के तरीके के कारण उपजे ​अ​त्याधिक विदेशी हित, कर्ज और प्रमुख परियोजनाओं में स्थानीय लोगों को शामिल नहीं किए जाने के घोर आलोचक रहे हैं। मलेशिया के महातिर मोहम्मद की याद दिलाने वाले परबोवो ने दावा किया है कि वह चीन पर इंडो​नेशिया की निर्भरता में कमी लाएंगे। हालांकि वह ऐसा किस तरह करेंगे, यह अब तक स्पष्ट नहीं है। जहां जोकोवी चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) को उत्साह से अपना चुके हैं, वहीं परबोवो का सुझाव है कि इस बात का पता लगाने के लिए मौजूदा परियोजनाओं की समीक्षा की जाएगी कि क्या इंडोनेशिया को कुछ “बेहतर सौदा” मिल सकता है।

वैसे चुनाव संपन्न हो जाने के बाद भी चीन के साथ संबंध बदस्तूर जारी रहेंगे, लेकिन यह स्पष्ट हो गया है कि इंडोनेशिया में चीन की बढ़ती भूमिका को लेकर बहस छिड़ चुकी है, जिसमें नए राष्ट्रपति के सत्ता में आने के बाद भी कमी आने की कोई संभावना नहीं है।

आस्ट्रेलिया भी पिछले कुछ समय से ऐसी ही परिस्थितियों का सामना कर रहा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से चीन वहां काफी प्रबलता के साथ उभर रहा है। आस्ट्रेलिया दशकों से अपने सबसे बड़े कारोबारी साझेदार चीन और अपने मुख्य सामरिक गठबंधन सहयोगी अमेरिका के बीच अपनी विदेश नीति को संचालित करता आ रहा है। चीन के वास्तव में क्षेत्रीय ताकत बनने और खुद को ज्यादा सशक्त रूप से प्रस्तुत करने तक तो सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। जैसे ही आस्ट्रेलिया की घरेलू राजनीति में चीन की भूमिका मुखर होनी शुरू हुई, आस्ट्रेलिया को उसके साथ अपने संबंधों का नए सिरे से आकलन करने को मजबूर होना पड़ा।

एक प्रमुख आस्ट्रेलियन सीनेटर सैम दस्तीयारी को चीन के लिए लॉबिंग करने और चीन में जन्मे राजनीतिक दानदाताओं से पैसा लेने के आरोप में 2017 में इस्तीफा देना पड़ा। इसके परिणामस्वरूप आस्ट्रेलिया ने विदेशी हस्तक्षेप कानून पास किया। जिसके तहत अन्य देशों के लिए लॉबिंग करने वालों को खुद को पंजीकृत कराना और अपनी गतिविधियों की जानकारी देना आवश्यक था; इसके बाद आस्ट्रेलिया ने फिफ्थ-जेनरेशन टेलीकम्युनिकेशन नेटवर्क के निर्माण में चीन की प्रमुख टेक्नोलॉजी कम्पनी हुवेई के भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया।

चीन की चुनौती अब खुलकर सामने आ चुकी है और आस्ट्रेलिया की मुख्य राजनीतिक पार्टियों को इससे मुकाबला करना होगा। इस अभूतपूर्व सामरिक परिवर्तन के दौर में, जिस तरह विशाल हिंद-प्रशांत क्षेत्र अपना नए सिरे से निर्माण कर रहा है, जो भी सत्ता में आएगा, उसे विदेश नीति की ऐसी महत्वपूर्ण चुनौती का सामना करना होगा, जैसा आस्ट्रेलिया ने पीढ़ियों से नहीं किया होगा।

भारत के दक्षिण एशियाई पड़ोसियों — अफगानिस्तान और श्रीलंका में इस साल चुनाव होने जा रहे हैं। अफगानिस्तान में अपने प्रतिनिधि पाकिस्तान के जरिए चीन की जटिल मौजूदगी न सिर्फ तालिबान के साथ वर्तमान में जारी वार्ता को, बल्कि सुदृढ़ अफगानिस्तान की दीर्घकालिक संभावना को आकार देगी। चीन न सिर्फ अफगानिस्तान का सबसे बड़ा निवेशक है, बल्कि वह अपनी कम्पनियों को वहां की निर्माण परियोजनाओं में शामिल करवाते हुए उस देश में आर्थिक मौजूदगी बढ़ाने का प्रयास कर रहा है। अफगानिस्तान की खनिज सम्पदा में चीन की दिलचस्पी जगजाहिर है, लेकिन साथ ही वह अमेरिका की वहां से एकाएक वापसी के भी हक में नहीं है। वह इस बात को लेकर चिंतित है कि अस्थिर अफगानिस्तान उसके महत्वाकांक्षी चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे के मार्ग को अवरुद्ध कर देगा।

श्रीलंका में, चीन की मौजूदगी खुले तौर पर रहेगी। पिछले राष्ट्रपति पद के चुनाव में केवल मैत्रीपाला ​सिरिसेना ही चीन की बढ़ती मौजूदगी को चुनौती दे रहे थे, जबकि महिंदा राजपक्से चीन के साथ अपने करीबी संबंधों का बचाव कर रहे थे। पदभार ग्रहण करते ही सिरीसेना को समझ में आ गया कि चीन की बढ़ती आर्थिक मौजूदगी की चुनौती से निपटना इतना आसान नहीं है। आखिरकार हम्बनटोटा 99 साल के पट्टे पर चीन को सौंपना ही पड़ा।

भारतीय चुनावों में चीन ने बहुत ही कम भूमिका निभाई है। जहां एक ओर यहां चुनावी बयानबाजी का केंद्र पाकिस्तान रहा है, वहीं दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के गंभीर नीति निर्माता इस बात की पहचान कर चुके हैं कि असल चुनौती चीन है। वैश्विक मंचों पर पाकिस्तान का बचाव करने और विश्व की सर्वोच्च संस्था में भारत की सीट की संभावनाओं को नष्ट करने में चीन की भूमिका अब काफी हद तक जाहिर हो चुकी है। भारत की पाकिस्तान समस्या, अब भारत की चीन समस्या का उपवर्ग है।

सत्ता के वैश्विक संतुलन को नया आकार देने में चीन की भूमिका महत्वपूर्ण रूप से बढ़ती जा रही है। लेकिन इससे पहले कि देशों को इस ढांचागत वास्तविकता के अनुरूप ढलने का समय मिल पाता, उन्हें इस बात का अहसास होने लगा है कि घरेलू राजनीति तक चीन के उदय के प्रभाव से अछूती नहीं रह सकी है। इस तरह से देखा जाए तो घरेलू स्थिति, अब नई वैश्विक स्थिति है।


यह लेख मूल रूप से Live Mint में प्रकाशित हो चुका है।

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