क्या चीन को INF संधि में शामिल किया जाना चाहिए? अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने इस संधि से अलग होने का इसे भी एक कारण माना है. INF संधि ने दुनिया में हथियारों की होड़ को कम करने में अहम भूमिका निभाई है. हालांकि, अब इसके खत्म होने पर परमाणु हथियारों की होड़ फिर से तेज होने का खतरा है. अगर ऐसा हुआ तो दुनिया की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी. इस संधि के खत्म होने का मतलब परमाणु हथियार बनाने का ख्वाब पालने वाले देशों को मौन सहमति भी होगी. इसका भारत की सुरक्षा के लिए क्या मतलब है? चीन के साथ परमाणु सैन्य संतुलन पर इसका क्या असर होगा? एशिया में सहयोगी देशों के साथ अमेरिका के रिश्तों और नीतियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? इन सबकी पड़ताल इस लेख में की गई है.
Attribution: Sukrit Kumar, ‘शस्त्र नियंत्रण और INF संधि: नए आयाम की तलाश (Arms Control and INF Treaty: Exploring New Dimensions)’, ORF Occasional Paper No. 232, January 2020, Observer Research Foundation.
परिचय
अमेरिका और रूस के पास दुनिया के 90 प्रतिशत से भी अधिक परमाणु हथियार हैं.[1] माना जाता है कि ये धरती को कई बार तबाह करने की क्षमता रखते हैं. INF संधि की वजह से दोनों देशों के बीच परमाणु हथियारों की होड़ पर लगाम लगी थी. इसके बावज़ूद 2 अगस्त, 2019 को अमेरिका ने रूस के साथ हुई इंटरमीडिएट-रेंज न्यूक्लियर फोर्सेज (INF) संधि से ख़ुद को औपचारिक रूप से अलग करने का ऐलान किया. राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने अपने फैसले के पीछे रूस के मिसाइल 9M729 और चीन के इस संधि का हिस्सा नहीं होने का हवाला दिया.[2] उन्होंने कहा कि इस संधि के तहत जहां अमेरिका और रूस पर खास किस्म के परमाणु हथियार बनाने पर रोक लगी हुई थी, वहीं चीन इसका हिस्सा नहीं था. वह इसका फायदा उठाकर एशिया में अमेरिका और उसके सहयोगी देशों का मुक़ाबला करने के लिए सोची-समझी रणनीति के तहत तेजी से अपने मिसाइलों की संख्या बढ़ा रहा है. चीन भी INF संधि से अमेरिका के पीछे हटने से नाराज है, लेकिन यह भी सच है कि वह इस संधि का हिस्सा नहीं बनना चाहता.[3] चीनी विशेषज्ञों का कहना है कि संधि से पीछे हटकर अमेरिका ने अपने परमाणु कार्यक्रम और मिसाइलों को लेकर आक्रामकता का संकेत दिया है. उनके मुताब़िक, वह इसके जरिये चीन के साथ रूस पर भी दबाव बनाना चाहता है. हालांकि, चीनी स्कॉलर्स ने चेतावनी दी है कि अगर भविष्य में अमेरिका एशिया में अपने मिसाइल तैनात करता है तो उसका अंज़ाम उसके सहयोगियों को भुगतना पड़ सकता है.
INF संधि से अमेरिका के पीछे हटने से एशिया में सैन्य संतुलन, वैश्विक शस्त्र नियंत्रण व्यवस्था, एशियाई सहयोगियों के साथ उसके संबंधों और चीन-रूस के रिश्तों पर असर पड़ेगा.
ट्रंप के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के बाद वैश्विक सुरक्षा के लिहाज से सबसे बड़ी घटना कौन सी हुई है? इस संदर्भ में किसी एक मामले का जिक्र करना ठीक नहीं होगा, लेकिन कई ऐसी चीजें हुई हैं, जिनका असर वैश्विक सुरक्षा पर पड़ सकता है. मसलन, ईरान के साथ अचानक ट्रंप का परमाणु समझौता तोड़ना, जिसके बाद ईरान यूरेनियम संवर्धन में लग गया.[4] इस लिस्ट में किम जोन उन के साथ हुए बैठक के बाद ट्रंप के तंज को भी शामिल किया जा सकता है, जिसके बाद उत्तर कोरिया ने अपने परमाणु कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने की बात कही थी. इसी सिलसिले में जलवायु-परिवर्तन समझौते से अमेरिका के पीछे हटने का भी हवाला दिया जा सकता है. रूस के साथ संबंधों में तल्खी बढ़ाना हो या चीन के साथ व्यापार युद्ध की शुरुआत और अब INF संधि से ट्रंप का पीछे हटना. वैश्विक सुरक्षा के लिहाज से ये सारी घटनाएं अहमियत रखती हैं, लेकिन इनमें लंबी अवधि में सबसे ज्यादा नुकसान INF संधि के टूटने से हो सकता है. रूस के साथ इस द्विपक्षीय समझौते से पीछे हटकर ट्रंप ने ग़ैर-जिम्मेदाराना रुख़ दिखाया है.
इस संधि के तहत अमेरिका और रूस ने दो वर्गों के परमाणु हथियारों के परीक्षण पर रोक लगा रखी थी. पहले वर्ग में जमीन से छोड़े जाने वालीं मध्यम दूरी की मिसाइलें थीं, जबकि दूसरे वर्ग में कम दूरी की ऐसी मिसाइलें शामिल थीं. पहले ऐसा लग रहा था कि संधि की अवधि खत्म होने से पहले इसे जारी रखने पर सहमति बन जाएगी, लेकिन जापान के ओसाका में हुई जी-20 बैठक में इस मुद्दे पर ट्रंप-पुतिन की वार्ता में कोई प्रगति नहीं हुई. पुतिन ने इसके बाद सार्वजनिक रूप से राष्ट्रपति ट्रंप के खिलाफ़ यह शिकायत की थी कि वह ‘न्यू स्टार्ट’ संधि की भी समयसीमा बढ़ाने पर चर्चा नहीं करना चाहते. यह संधि फरवरी 2021 में खत्म हो जाएगी.[5] INF शीत युद्ध काल की दूसरी प्रमुख शस्त्र नियंत्रण संधि है, जिसे अमेरिका तोड़ रहा है. इसके बाद एकमात्र हथियार नियंत्रण संधि न्यू स्टार्ट है, जिसकी अवधि फरवरी 2021 में खत्म हो जाएगी.
शीत युद्ध का तर्क
यह एशिया और यूरोप के सिक्योरिटी आर्किटेक्चर के लिए बड़ा झटका है. 32 साल पहले INF पर सहमति बनी थी. 1987 की इंटरमीडिएट-रेंज न्यूक्लियर फ़ोर्सेज (INF) संधि पर अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और सोवियत संघ के नेता मिखाइल गोर्बाचोव ने दोनों देशों के बीच चली लंबी बातचीत के बाद दस्तखत किए थे. यह हथियार नियंत्रण के क्षेत्र में इतिहास की सबसे सफल और दूरगामी परिणाम वाली संधि थी. इसके तहत 500 किलोमीटर से 5,500 किलोमीटर की दूरी वाली जमीन से छोड़ जाने वाली परमाणु मिसाइलों को ख़त्म करना और यूरोप में मध्यम दूरी तक मार करने वाले हथियारों को नष्ट किया जाना था.[6] मिसाइल की मारक क्षमता 5,500 किलोमीटर से अधिक होने पर उसे स्ट्रैटिजिक बैलिस्टिक मिसाइल माना गया, जो न्यू स्ट्रैटेजिक ऑफेंसिव आर्म्स कंट्रोल ट्रीटी (न्यू स्टार्ट) के दायरे में आए. INF संधि के तहत अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचोव के बीच 2,692 छोटी और मध्यम श्रेणी के मिसाइलों को नष्ट करने पर सहमति बनी थी, जिनमें सोवियत संघ ने 1,446 मिसाइलें (इनमें 654 एसएस-20 मिसाइलें शामिल थीं), जबकि अमेरिका ने 846 मिसाइलों को नष्ट किया था. ये मिसाइलें दोनों ने एक दूसरे के ख़िलाफ़ तैनात की हुई थीं. इस संधि से शीत युद्ध के दौरान परमाणु हथियारों की दौड़ खत्म करने में मदद मिली थी. इससे दोनों महाशक्तियों के बीच समझौते का रास्ता बना था. इस वजह से रणनीतिक परमाणु हथियारों को नष्ट किया गया और हजारों की संख्या में तैनात किए गए हथियारों को हटाया गया था. यह संधि 1 जून 1988 को वजूद में आई थी. इसने शीत युद्ध के दौर में अंतरराष्ट्रीय राजनीति में शांति व स्थिरता क़ायम करने में अहम भूमिका निभाई थी, विशेष रूप में यूरोप में. इसने टकराव की आशंका कम करने, देशों के बीच आपसी विश्वास बढ़ाने और शीत युद्ध का ख़ात्मा करने में काफ़ी मदद की थी.[7]
आज हम जिस मुकाम पर हैं, यहां तक पहुंचने में कई दशकों की मेहनत शामिल है. हथियार नियंत्रण और निशस्त्रीकरण विचारधारा के विरोधी ऐसी संधियों के पीछे की सोच को भूल जाते हैं. दुनिया में अमन-चैन बनाए रखने में इन संधियों ने जो भूमिका निभाई है, उसे भुला दिया गया है. ट्रंप प्रशासन यही कर रहा है. शीत युद्ध के दौर में दुनिया किसी अनहोनी से बची रही, यह उसकी खुशकिस्मती थी. क्या हम यही दावा आने वाले वक्त के बारे में भी कर सकते हैं? शीत युद्ध के दौर में अमेरिका और सोवियत संघ के बीच विभिन्न गलतफहमियों और अविश्वास का ही नतीजा था कि दोनों महाशक्तियां के पास 60,000 से अधिक परमाणु हथियार जमा हो गए थे.[8] इसके बाद दोनों देशों के नेताओं ने अवांछित परमाणु युद्ध में फंसने से पहले स्थिति को नियंत्रण में लाने के कुछ तरीकों की मांग की. जिसका न केवल राजनयिकों बल्कि सैनिक नेतृत्व ने भी समर्थन किया था. तब दोनों पक्षों के बीच हथियारों की संख्या और खास किस्म के हथियारों को खत्म करने पर सहमति बनी. दोनों समझ चुके थे कि ऐसी संधियों से उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा को बढ़ावा मिला था. इन समझौतों से अंततः अमेरिका और रूस के परमाणु हथियारों की संख्या लगभग 4,000 तक सीमित करने में मदद मिली थी.[9] इसके बाद दोनों में से हरेक ने 2,000 से कम परमाणु मिसाइल तैनात किए. यह भी बहुत अधिक है, लेकिन हथियारों की दौड़ शुरू होने के वक्त स्थिति जितनी भयानक थी, उसके मुकाबले आज के हालात काफी बेहतर हैं.
विनाशकरी प्रवृत्ति
राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के INF संधि से हटे अभी एक महीना भी नहीं हुआ था कि अमेरिकी सेना ने जमीन से छोड़े जाने वाली क्रूज़ मिसाइल का परीक्षण कर दुनिया के सामने अपने इरादे स्पष्ट कर दिए.[10] यह मिसाइल सैन निकोलस द्वीप पर एक लॉन्चर से छोड़ा गया, जो लॉस एंजिलिस, कैलिफोर्निया के तट से एक नौसैनिक परीक्षण स्थल और प्रशांत महासागर तक 310 मील से अधिक दूरी तक फैला हुआ है. इस मिसाइल परीक्षण से जो जानकारियां मिली हैं, उनका इस्तेमाल अमेरिकी रक्षा विभाग भविष्य में मध्यम दूरी की मिसाइलें बनाने के लिए कर सकता है. अमेरिका लंबे समय से रूस पर INF संधि के उल्लंघन का आरोप भी लगाता आया है. हालांकि, रूस का दावा है कि 9M729 जमीन से छोड़े जाने वाली उतनी दूरी की क्रूज मिसाइलों का परीक्षण कभी नहीं किया गया, जिन पर INF संधि के तहत रोक लगी हुई थी. रूस यह भी कहता रहा है कि उसने इस मिसाइल का अस्तित्व कभी नहीं छिपाया.
रूस का दावा है कि उसने हमेशा संधि का पूरी तरह पालन किया. उसने अमेरिका के सभी आरोपों का खंडन किया है. संधि से अमेरिका के पीछे हटने की घोषणा के बाद 2 अगस्त को रूस के विदेश मंत्रालय ने कहा, ‘इससे पता चलता है कि अमेरिका उन सभी अंतरराष्ट्रीय समझौतों को नष्ट करने पर आमादा है, जो उसे किसी न किसी वजह से सूट नहीं करता.’[11] अमेरिका के मिसाइल परीक्षण करने के लगभग तीन सप्ताह बाद रूस ने भी एक छोटी दूरी की बैलिस्टिक मिसाइल का सफल परीक्षण किया[12]. माना जा रहा है कि अमेरिका के पिछले महीने क्रूज मिसाइल के परीक्षण के जवाब में रूस ने यह कदम उठाया. पिछले साल जून में अमेरिका ने एगिस एशोर मिसाइल-रक्षा प्रणालियों के साथ-साथ एमके-41 कार्यक्षेत्र लॉन्चिंग सिस्टम ट्यूब की तैनाती शुरू कर दी थी, जिसका इस्तेमाल यूरोप में मध्यम दूरी की क्रूज मिसाइलों को लॉन्च करने के लिए किया जा सकता है.[13] रूस के अप्रसार और शस्त्र नियंत्रण मंत्रालय विभाग के प्रमुख व्लादिमीर येरमाकोव के अनुसार, रोमानिया और पोलैंड में अमेरिकी एमके-41 प्रक्षेपण प्रणालियों की तैनाती इंटरमीडिएट-रेंज न्यूक्लियर फ़ोर्सेज (INF) संधि के खिलाफ है[14]. उनके मुताब़िक, इससे पता चलता है कि अमेरिका परमाणु हथियार बनाने और तैनात करने को लेकर कितना बेचैन है. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने रक्षा और विदेशी मामलों के मंत्रालयों और अन्य विभागों को इसका पता लगाने को कहा है कि इंटरमीडिएट-रेंज न्यूक्लियर फोर्सेज (INF) संधि के खत्म होने का क्या परिणाम होगा. 18 अगस्त, 2019 को ज़मीन से प्रक्षेपित क्रूज मिसाइल (GLCM) के अमेरिकी परीक्षण के बाद उन्होंने इसका सधा हुआ जवाब देने को भी कहा था.[15] रूस को पता है कि अगर वह हथियारों की महंगी और विनाशकारी दौड़ में शामिल होता है तो उस पर आर्थिक दबाव बहुत बढ़ जाएगा. वैसे, यह भी सच है कि अमेरिका से आसन्न खतरों के मद्देनजर रूस को अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के व्यापक उपाय करने होंगे. पुतिन ने अमेरिका के आधिकारिक रूप से INF संधि से बाहर निकलने के बाद कहा था, ‘रूस यूरोप या अन्य क्षेत्रों में जमीन से छोड़े जाने वाली मध्यम और कम दूरी की मिसाइलें तब तक तैनात नहीं करेगा, जब तक कि अमेरिका ऐसा नहीं करता.[16]
दुनिया के परमाणु-सशस्त्र राज्यों के पास कुल 14,000 परमाणु वॉरहेड्स हैं, जिनमें से 90% से अधिक रूस और अमेरिका के हैं. लगभग 9,500 वॉरहेड सैन्य सेवा में हैं, शेष के विघटन की प्रतीक्षा की जा रही है.
2019 में वैश्विक परमाणु वॉरहेड कीअनुमानित सूची
इंटरमीडिएट रेंज न्यूक्लियर फ़ोर्सेज (INF) संधि के बारे में बहुत कुछ कहा गया है; शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ ने इस संधि पर हस्ताक्षर किए थे, लेकिन अमेरिका और रूस[17] को एक बार फिर से संधि के बारे में गंभीरता से विचार-विमर्श करना चाहिए. पिछले कई वर्षों से रूस और अमेरिका संधि में चीन को शामिल करने की भी बात कर रहे थे. अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन ने कहा था कि चीन ने जिस तरह की मिसाइल क्षमता तैयार की है, उससे ‘नई सामरिक ज़रूरत’ आन पड़ी है. INF द्विपक्षीय संधि है, जबकि दुनिया बैलिस्टिक मिसाइलों की दुनिया बहुध्रुवीय हो चुकी है.[18] हालांकि, ट्रंप के संधि से पीछे हटने से हथियार नियंत्रण के भविष्य पर सवाल खड़ा हो गया है. क्या अब हथियारों की होड़ रोकने के लिए कोई नई संधि होगी? क्या इस नई संधि के लिए संबंधित पक्ष बातचीत को तैयार होंगे? क्या चीन इस संधि में आना चाहेगा? क्या दुनिया के अन्य परमाणु संपन्न राष्ट्र INF संधि के खत्म होने के बाद मिसाइलों के प्रक्षेपण में संयम बरतेंगे? क्या अमेरिका एशिया में मिसाइलों की तैनाती की फ़िराक में है? क्या शीत युद्ध के बाद एक बार फिर हथियारों की दौड़ शुरू होगी?
विवादों से घिरी रही INF संधि
INF संधि काफी हद तक सफल रही, लेकिन इस पर हमेशा विवादों का भी साया रहा. 2014 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने रूस पर संधि के उल्लंघन का आरोप लगाया था. 2017 के बाद माहौल तब और ख़राब हो गया, जब रूस ने ज़मीन से लॉन्च होने वाली क्रूज़ मिसाइल 9M729 की तैनाती शुरू की. INF संधि में 500-5,500 किलोमीटर की रेंज वाली मिसाइलों के परीक्षण और तैनाती पर रोक थी, जबकि यह मिसाइल इसी दायरे में आती है.[19] ट्रंप सरकार ने 2017 से इसे लेकर रूस पर दबाव बनाना शुरू किया था, लेकिन अक्टूबर 2018 में राष्ट्रपति ट्रंप ने अचानक रणनीति बदल दी और 2 फरवरी, 2019 को समझौते से बाहर निकलने का ऐलान कर दिया. इसी रोज अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने घोषणा की कि रूस आज की तारीख में भी INF संधि का उल्लंघन कर रहा है. उन्होंने इसके साथ ही अमेरिका के औपचारिक रूप से संधि को खत्म करने का ऐलान किया.[20] अमेरिकी अखबार द वॉल स्ट्रीट जर्नल ने खुफिया एजेंसियों के हवाले से बताया कि रूस के पास 9M729 मिसाइलों की चार बटालियन हैं. नेशनल इंटेलिजेंस डायरेक्टर के अनुसार, यह मिसाइल परमाणु हथियार ले जा सकती हैं.[21] INF संधि के खत्म होने से यूरोप और यूरोप से बाहर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भी मध्यम दूरी की मिसाइलों की तैनाती में तेजी आ सकती है.
न्यू स्ट्रैटिजिक आर्म्स रिडक्शन ट्रीटी (न्यू स्टार्ट) के तहत अमेरिका और रूस के पास कितने परमाणु हथियार हैं, इसका वेरिफिकेशन किया जा सकता है. यह भी फरवरी 2021 में खत्म हो जाएगी, बशर्ते ट्रंप और पुतिन इसे और पांच साल के लिए बढ़ाने पर सहमत न हो जाएं.[22] सच यह भी है कि अमेरिका ने INF संधि से संबंधित समस्याओं पर भले ही खूब चर्चा की हो, लेकिन उसने रूस के इसके कथित उल्लंघन को लेकर कभी सबूत पेश नहीं किए. इसके बावजूद अमेरिका ने रूस को अल्टिमेटम दिया था कि अगर वह 9M729 मिसाइलों को लॉन्चर्स-इक्विपमेंट समेत नष्ट नहीं करता और भविष्य में इसकी जांच के लिए तैयार नहीं होता है तो वह संधि से बाहर निकल जाएगा.
चीन को INF संधि में क्यों लाना चाहता था रूस?
कई पश्चिमी रक्षा विश्लेषक लंबे समय से कहते आ रहे हैं कि चीन ने बड़े पैमाने पर जमीन से छोड़े जाने वाली मध्यम श्रेणी की मिसाइलें बनाई हैं, जिनका मकसद मुख्य रूप से ताइवान की मोर्चेबंदी, गुआम द्वीप के साथ अमेरिका के अन्य प्रमुख ठिकानों को टारगेट करना और एशिया में अमेरिका के सहयोगियों पर धौंस जमाना है. चीन की इस चाल का उद्देश्य अमेरिकी, ऑस्ट्रेलियाई और भारतीय नौ सैनिकों को इस क्षेत्र में आने से रोकना भी है. परमाणु हथियार ले जाने वालीं इन मध्यम दूरी की मिसाइलों से चीन एशिया में भारत, जापान, दक्षिण कोरिया और आसियान देशों को डराना चाहता है. वह यह भी चाहता है कि इस क्षेत्र में अमेरिका के सहयोगियों की संख्या और न बढ़े.
मानचित्र के जरिये समझा जा सकता है कि चीन किस तरह से समय के साथ धीरे-धीरे मिसाइलों की संख्या और तैनाती बढ़ा रहा है.
चीनी मिसाइलों का विस्तार
2013 में अमेरिका की नेशनल एयर एंड स्पेस इंटेलिजेंस सेंटर ने खुलासा किया था, ‘चीन के पास दुनिया के सबसे एक्टिव और कई किस्म की बैलिस्टिक मिसाइलें हैं.’[23] चीन बैलिस्टिक मिसाइलों का क्वॉलिटी को भी बेहतर बना रहा है ताकि इस क्षेत्र में परमाणु हथियारों के लिहाज से उसका दबदबा बना रहे.
हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन जिस जगह पर स्थित है, उससे उसे भू-रणनीतिक और भू-राजनीतिक दोनों के लिहाज से बढ़त हासिल है. चीन ने जो मिसाइलें तैनात की हैं, उनके दायरे में रूस, जापान, दक्षिण कोरिया, यूरोप के कई सारे क्षेत्र आते हैं. साथ ही, अमेरिका के हिंद-प्रशांत क्षेत्र में कई सैन्य ठिकाने भी इनकी जद में हैं. चीन ने अपने परमाणु हथियारों के बारे में कोई सार्वजनिक जानकारी नहीं दी है, लेकिन उसके पास 240 से 400 न्यूक्लियर वॉरहेड होने का अनुमान है.[24] पिछले कुछ वर्षों में चीन के परमाणु हथियारों की संख्या बढ़ी है. वर्ष 2011 में 240, 2013 में 250, 2016 में 260 और 2018 में उसके पास 280 वॉरहेड थे.[25]
यह सच है कि ताइवान, सेनकाकू द्वीप और दक्षिण चीन सागर को लेकर वह अमेरिका के साथ सीमित संघर्ष की तैयारी कर रहा है. इससे इन क्षेत्रों में युद्ध की आशंका को बढ़ावा मिला है. चीन इसके लिए अपनी योजना अमेरिका की क्षमता को देखकर तैयार कर रहा है. ताइवान पर उसके हमला करने की सूरत में अमेरिका किस हद तक दख़ल दे सकता है, उसकी प्लानिंग में यह पहलू भी शामिल है. चीन के रणनीतिकारों ने इस पहलू को भी ध्यान में रखा है कि अमेरिका ऐसी स्थिति में किन हथियारों का इस्तेमाल कर सकता है.
चीन अपनी परमाणु क्षमता पीपल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) के आधुनिकीकरण के प्रयासों को ध्यान में रखते हुए भी तैयार कर रहा है. वह दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बनना चाहता है. एच. एम. क्रिस्टेंसन और रॉबर्ट एस. नॉरिस की रिपोर्ट के मुताब़िक, ‘चीन के पास ऐसी क्षमता है कि वह सीमित अमेरिकी बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा प्रणाली को प्रभावित कर सकता है.’ अमेरिकी रक्षा विभाग (डीओडी) के अनुसार, चीन बेहतर रेंज और विनाशकारी क्षमता के साथ नए और उन्नत परमाणु वितरण प्रणाली तैयार कर रहा है. [26] जिस तरह से चीन अपने हथियारों का विस्तार कर रहा था, उससे INF संधि लगातार बेअसर हो रही थी. हथियार नियंत्रण के क्षेत्र में काम करने वाले कई जानकारों का मानना है कि जब तक चीन को इसके दायरे में नहीं लाया जाता, तब तक इसमें सफलता मिलना मुश्किल है. वैसे, चीन को INF संधि में लाना रूस और अमेरिका के लिए आसान नहीं होगा, लेकिन कई वजहों से उसे इसका हिस्सा बनाना जरूरी है.
यदि चीन INF संधि का हिस्सा होता तो उसकी कितनी मिसाइलें इस संधि का उल्लंघन करतीं
मिसाइल सिस्टम
INF संधि के तहत प्रतिबंधित किया जाना चाहिए?
अनुमानित श्रेणी
लॉन्चर
मिसाइलें
इंटरमीडिएट-रेंज
बैलिस्टिक मिसाइलें
हां
3000+ km
16–30
16–30
मध्यम-रेंज
बैलिस्टिक मिसाइलें
हां
1500+ km
100–125
200–300
भूमि आधारित क्रूज मिसाइलें
हां
1,500+ km
40–55
200–300
छोटे दूरी की बैलिस्टिक मिसाइलें
हाँ, 500 किमी से अधिक की दूरी तक
मार करने वाली मिसाइलें
300 –
1,000 km
250–300
1,000–1,200
इंटरकॉन्टिनेंटल
बैलिस्टिक मिसाइलें
केवल छोटी मिसाइलों की रेंज जिनकी मारक क्षमता 5,500 km हो
5,400 –
13,000+ km
50–75
75–100
स्रोत: Adapted from U.S. Department of Defense, Annual Report to Congress, Military and Security Developments Involving the People’s Republic of China 2018, August 16, 2018, 125.
चीन ने आक्रामक रणनीति के तहत भारतीय सीमा के पास मध्यम दूरी की बैलिस्टिक मिसाइलें डोंग फेंग - 21 (DF-21 / CSS-5) को तैनात किया है.[27] चीन की CSS-5 मिसाइलें भारत के सिविलियंस को टारगेट करने के लिए तैनात की गई हैं. उसने ताइवान, जापान, दक्षिण कोरिया और गुआम पर हमला करने में सक्षम हथियारों की एक श्रृंखला का निर्माण भी किया है. उधर, INF संधि से हटने के बाद अमेरिका ने अपने मध्यम और इंटरमीडिएट-रेंज मिसाइलों की तैनाती शुरू की, तो यह वैश्विक रणनीतिक संतुलन और स्थिरता को गंभीर रूप से प्रभावित करेगा, तनाव और अविश्वास को बढ़ाएगा, अंतरराष्ट्रीय परमाणु निरस्त्रीकरण और बहुपक्षीय हथियार नियंत्रण प्रक्रियाओं को बाधित करेगा और शांति और सुरक्षा को भी भंग करेगा.
इस क्षेत्र में चीन के आक्रामक रुख ने अमेरिका के ऑस्ट्रेलिया, जापान, दक्षिण कोरिया, वियतनाम और न्यूजीलैंड जैसे पारंपरिक सहयोगियों को फिक्रमंद कर दिया है. साथ ही, दक्षिण चीन सागर में वह जो काम करवा रहा है और रणनीतिक जलमार्गों पर चीन के दावों ने इस क्षेत्र के देशों की चिंताओं को और बढ़ा दी है. रक्षा विश्लेषक लंबे समय से कहते आ रहे हैं कि चीन ने मध्यम दूरी की मिसाइलों का बेड़ा इसलिए तैयार किया है ताकि वह गुआम द्वीप के साथ अमेरिका के अन्य प्रमुख ठिकानों को टारगेट कर सके. इससे वह अमेरिकी नौसेना का इस क्षेत्र में दखल भी घटाना चाहता है. इसके लिए चीन DF-26 इंटरमीडिएट-रेंज बैलिस्टिक मिसाइल पर खास तौर पर भरोसा कर रहा है, जो पारंपरिक और न्यूक्लियर वॉरहेड दोनों से लैस है.
इस तरह के हथियारों से चीन क्षेत्र में दबदबा क़ायम करने के साथ इंटरकॉन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइलों और हाइपरसोनिक ग्लाइड हथियारों से अमेरिकी महाद्वीप पर हमला करने की क्षमता बढ़ा रहा है.
ट्रंप की एशिया नीति और चीन
अमेरिका आईलैंड चैन के आस-पास अपनी मिसाइलों को तैनात कर चीन के महत्वपूर्ण ठिकानों को अपनी जद में लाना चाहता है. इससे वह दक्षिण और पूर्वी चीन सागर को लेकर चीन की चालों को बेअसर करके क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करना चाहता है. इससे अमेरिका के सहयोगियों का हौसला भी बढ़ेगा. हालांकि, यह देखना अभी बाकी है कि क्या पेंटागन को गुआम के अमेरिकी क्षेत्र के बाहर पूर्वी एशिया में मध्यम दूरी मिसाइलों की तैनाती के लिए जगह मिलेगी? असल में, चीन की बढ़ती सैन्य शक्ति और सक्रियता के बावजूद ऑस्ट्रेलिया, जापान, दक्षिण कोरिया और फिलीपींस जैसे अमेरिका के सहयोगी इसके लिए तैयार नहीं हैं.[28] दक्षिण कोरिया के रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा, ‘हमने आंतरिक रूप से इस मुद्दे की समीक्षा नहीं की है और अमेरिका की इंटरमीडिएट रेंज मिसाइलों को इस क्षेत्र में तैनात करने की ऐसी कोई योजना नहीं है. यदि अमेरिका ऐसा करता है तो उसे इस क्षेत्र में अपनी मिसाइलों को तैनात करने के लिए चीन के विरोध का सामना करना पड़ेगा.’[29]
इस पर चीन के विदेश मंत्रालय के शस्त्र नियंत्रण विभाग के निदेशक फू कांग ने कहा, ‘हमने पड़ोसी देशों से अपनी समझ-बूझ का इस्तेमाल करने और क्षेत्र में मध्यम दूरी की मिसाइलों की अमेरिकी तैनाती की अनुमति नहीं देने का आग्रह किया.’[30] उन्होंने इस संदर्भ में ऑस्ट्रेलिया, जापान और दक्षिण कोरिया का जिक्र किया. इस बीच, ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने इन अफ़वाहों को ख़ारिज़ कर दिया कि वह अपने यहां अमेरिका की नई मिसाइलें तैनात करने को राजी हो गई है. ऑस्ट्रेलिया ने कहा कि इस बारे में अमेरिका ने उससे संपर्क नहीं किया है. कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि अमेरिका गुआम द्वीप में नई मिसाइलें तैनात करना चाहता है.[31]
INF संधि से अमेरिका के पीछे हटने के बाद चीन के विदेश मंत्रालय में हथियार नियंत्रण विभाग के महानिदेशक फू कांग ने चीन के ‘पड़ोसियों को समझदारी से काम लेने और अपने क्षेत्र में अमेरिकी मिसाइलों की तैनाती की अनुमति नहीं देने के लिए चेतावनी भी दी थी.’[32] गुआम द्वीप में अमेरिका इसलिए मिसाइलें तैनात करना चाहता है कि क्योंकि यहां से चीनी तट की दूरी 3,000 किलोमीटर से भी कम है.[33] गुआम द्वीप पर अमेरिका ने पहले से जमीन से छोड़े जाने वालीं मिसाइलें तैनात की हुई हैं, लेकिन चीन के हमला करने पर इससे उसे रोकना मुश्किल होगा.
इसके अलावा, पूर्वी एशिया में INF संधि-श्रेणी की मिसाइलों को तैनात करने से चीन और चौकस हो जाएगा. फू ने कहा कि ‘अगर अमेरिका दुनिया के इस हिस्से में (मध्यम श्रेणी) मिसाइलों को तैनात करता है, तो चीन जवाबी कार्रवाई के लिए मजबूर हो जाएगा.’[34] अमेरिका के मध्यम श्रेणी की मिसाइलें इस क्षेत्र में तैनात करने को चीन अपने लिए खतरा मानेगा. वह ऐसी स्थिति में अपनी मिसाइलों की तैनाती बढ़ा सकता है. इसलिए अमेरिका को मिसाइलों की तैनाती से परहेज करनी चाहिए ताकि उसके सहयोगी देशों के लिए खतरा न बढ़े. वैसे अभी तक अमेरिका ने इस बारे में कुछ नहीं कहा है कि वह एशिया में मध्यम दूरी की मिसाइलों को क्यों तैनात करना चाहता है. पूर्वी चीन और दक्षिण चीन सागर के कुछ विवादित और चीन के कब्ज़े वाले द्वीपों को वह जापान और फिलीपींस के अपने ठिकानों से टारगेट कर सकता है, लेकिन ये मिसाइलें चीन में काफी अंदर तक मार करने में सक्षम नहीं होंगी. लंबी दूरी की हवा और समुद्र से छोड़ी जाने वाली मिसाइलों पर INF संधि में प्रतिबंध नहीं लगाया गया था. यदि भविष्य में ताइवान या दक्षिण चीन सागर के विवादित क्षेत्र या फ़िर सेनकाकू द्वीप समूह को लेकर संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है तो वे चीन की मुख्य भूमि को लक्ष्य बना सकती हैं.
कुछ विश्लेषकों का यह तर्क है कि अमेरिका को मध्यम श्रेणी की मिसाइलों को स्थायी रूप से सहयोगी देशों में तैनात करने की जरूरत नहीं है. वह किसी संकट की स्थिति में इन मिसाइलों को बहुत कम समय में तैनात कर सकता है. अमेरिका के रक्षा सचिव मार्क एरिज़ोना ने कहा कि अगले कुछ वर्षों में अमेरिका के पास हाइपरसोनिक हथियार भी होंगे.[35]
तात्कालिक ज़रूरत
यदि शस्त्र नियंत्रण को लेकर जल्द सार्थक कदम नहीं उठाए गए तो अब से लगभग एक साल बाद परमाणु हथियारों पर लगाम लगाने वाली कोई भी संधि नहीं रहेगी. INF समझौते के खत्म होने के बाद हथियारों की नई होड़ शुरू होने में कोई शक नहीं है. अमेरिका व रूस तो नई क्रूज मिसाइलों का परीक्षण भी कर चुके हैं. परमाणु हथियार रखने वाले देश एक दूसरे पर विश्वास नहीं करते. ऐसे में दुनिया ऐसे चौराहे पर आ गई है, जहां हथियार नियंत्रण के वो सारे तंत्र बिखरे पड़े नज़र आ रहे हैं, जिन्हें योजनाकारों ने परमाणु युद्ध के ख़तरों से दुनिया को सुरक्षित रखने के लिए बनाया था. आज हथियार नियंत्रण की ऐसी व्यवस्था की जरूरत है. दुनिया दोनों महाशक्तियों से आशा करती है कि वे कम से कम न्य स्टार्ट संधि को जारी रखेंगे, जिसका मकसद अमेरिका और रूस के परमाणु हथियारों की संख्या को सीमित करना है. न्यू स्टार्ट पर वार्ता में दुनिया के अन्य परमाणु शक्ति संपन्न देशों जैसे- पाकिस्तान, भारत, इजरायल, उत्तर कोरिया और ईरान को शामिल करने की चर्चा चल रही है. आज अमेरिका और रूस के बीच अविश्वास गहरा गया है. ऐसे में हथियार नियंत्रण संधि की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता.
वैश्विक सुरक्षा के लिहाज से ट्रंप, पुतिन और शी जिनपिंग सहित नाटो के सदस्य देशों को मिसाइलों की नई होड़ शुरू करने से पहले ही शस्त्र नियंत्रण की गंभीर कोशिश करनी चाहिए.
इस संदर्भ में संधि से जुड़े कुछ सुझाव दिए जा रहे हैं, जिन पर संबंधित पक्ष विचार कर सकते हैं:
लगभग 18 महीने के भीतर 36 टॉम हॉक मिसाइलों को अमेरिका तैनात कर सकता है. माना जा रहा है कि गुआम द्वीप पर अमेरिका इन्हें तैनात कर सकता है. इसके बाद वह एशिया-प्रशांत, ऑस्ट्रेलिया, जापान और दक्षिण कोरिया में मिसाइल तैनात करने की फिराक में है.
नाटो के सदस्य देशों को चाहिए कि वे भी अपनी धरती का इस्तेमाल ऐसी गतिविधियों के लिए न करें, जिससे संधि द्वारा प्रतिबंधित मिसाइलों को लेकर तनाव पैदा हो. युद्धस्थल बनने से बचने के लिए यूरोप को नाटो के साथ मिलकर इसकी घोषणा करनी चाहिए कि कोई भी सदस्य देश यूरोप में INF संधि द्वारा प्रतिबंधित मिसाइलों की तैनाती तब तक नहीं करेगा, जब तक कि रूस ऐसा नहीं करता.
सितंबर में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने एशिया और यूरोप के कई देशों को एक प्रस्ताव भेजा है.[36] यह प्रस्ताव नाटो के सदस्य देशों को भी गया है. इसमें उन्होंने इस संधि द्वारा प्रतिबंधित मिसाइलों की तैनाती रोकने का आग्रह किया है. पुतिन ने कहा है कि वैश्विक शांति और सुरक्षा के लिहाज से सभी देश इससे परहेज करें. उन्होंने यह वादा भी किया है कि रूस पहले इन मिसाइलों को तैनात नहीं करेगा.
एशिया और खासतौर पर जापान, दक्षिण कोरिया और वियतनाम को किसी विदेशी ताकत को अपनी जमीन का इस्तेमाल मिसाइल तैनात करने के लिए नहीं करने देना चाहिए.
अमेरिका और रूस के राष्ट्रपति INF श्रेणी की मिसाइलों को 'पहले न तैनात करने के' एक कार्यकारी समझौते पर दस्तखत करें, जिसके वेरिफिकेशन की भी व्यवस्था हो. रूस को आश्वस्त करने और विश्वास बहाली के लिए अमेरिका अपने एमके-41 मिसाइल इंटरसेप्टर लॉन्चर रोमानिया और पोलैंड में न लगाए.[37]
इससे दुनिया की महाशक्तियों की तरफ से जमीन से छोड़े जाने वालीं मिसाइलों की तैनाती रोकी जा सकेगी. अमेरिका व रूस के पास हवा और समुद्र से मिसाइल छोड़ने की क्षमता है. ऐसी पहल से इसके इस्तेमाल की आशंका भी कम होगी.
अमेरिका और रूस नए समझौते पर बातचीत के लिए तैयार हों, जिसमें परमाणु हथियारों से लैस ज़मीन-आधारित, मध्यम श्रेणी की बैलिस्टिक या क्रूज मिसाइलों की तैनाती पर प्रतिबंध लगाने की बात हो.
भारत को परमाणु नियंत्रण के मामले में बदले हुए हालात को करीब से समझना होगा. उसे इनके मुताब़िक तैयारी करनी होगी. भू-राजनीतिक घटनाक्रमों, नई तकनीकों के विकास, प्रमुख शक्तियों के अपने हित और राजनीतिक इच्छा शक्तियों की कमी से हथियार नियंत्रण व्यवस्था कमजोर पड़ रही है.
INF संधि के ख़त्म होने के बाद अब भारत के नीति-निर्माताओं को तीन बातों पर ध्यान देने की ज़रूरत हैं; पहली, संधि के टूटने के बाद पैदा होने वाले किसी भी अंतरराष्ट्रीय दबाव से निपटने के लिए कूटनीति का इस्तेमाल किया जाए. दूसरी, इसके लिए अगर कोई नई संधि होती है तो क्या उसके दायरे में अन्य परमाणु हथियारों से संपन्न देश भी आएंगे? अगर ऐसा होता है तो इससे भारत की परेशानी बढ़ सकती है. तीसरी, अपने मिसाइल कार्यक्रमों को आगे कैसे संरक्षित, संवर्धित और विकसित किया जाए. भारत को देखना चाहिए कि इस मामले में दुनिया की प्रमुख शक्तियों का क्या कदम होता है. उसे इसी के मुताब़िक अपनी योजना तैयार करनी चाहिए.
भारत को अब पारंपरिक परमाणु क्षमता से लैस मिसाइलों के साथ हाइपरसोनिक मिसाइलों (जो ध्वनि की गति से कम से कम पांच गुना अधिक गति से मार करती हैं) के विकास पर ध्यान देना चाहिए. परमाणु शक्ति सम्पन्न देश अब हाइपरसोनिक हथियारों में निवेश कर रहे हैं.[38] चीन इसमें पहले से ही काफी निवेश कर चुका है. वहीं, भारत, रूस के साथ मिलकर स्वदेशी और सुपरसोनिक ब्रह्मोस मिसाइलों का निर्माण कर रहा है, जो ध्वनि की गति के दोगुना तेजी से मार करती हैं. .भारत को अपने मिसाइल कार्यक्रम की योजना भविष्य की चुनौतियों को देखर बनानी होगी. उसे घरेलू प्रयासों को गति देने के साथ हाइपरसोनिक हथियारों को लेकर अंतरराष्ट्रीय सहयोग बढ़ाने पर तुरंत ध्यान देना चाहिए.
निष्कर्ष
परमाणु हथियारों और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा पर लंबे समय से गंभीर मतभेद बने हुए हैं. पिछले एक दशक में हथियार नियंत्रण को लेकर स्थिति बिगड़ी है, जिससे वैश्विक सुरक्षा के लिए खतरा बढ़ा है. कई देशों ने इस बीच हथियारों का ज़ख़ीरा बना लिया है. इसके साथ यह भी सच है कि परमाणु हथियारों की संख्या में गिरावट आ रही है. लेकिन ट्रंप के INF संधि से पीछे हटने और नई मिसाइलें तैनात करने से दो चीजें हो सकती हैं- पहला, हिंद-प्रशांत क्षेत्र को परमाणु हथियारों का निशाना बनता देख उसे रणक्षेत्र में बदलने से रोकने के लिए रूस और चीन नए परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए तैयार हो जाएं, ठीक वैसे ही जैसे 1980 के दशक की शुरुआत में यूरोप में परमाणु मिसाइलों की तैनाती के कारण मॉस्को INF संधि के लिए राजी हो गया था. दूसरा, अगर ये नई संधि के लिए सहमत नहीं होते हैं तो हथियारों की होड़ के कारण इनकी अर्थव्यवस्था कमजोर हो जाए, जिससे वे आख़िरकार इसके लिए विवश हो जाएं.
मिसाइलों की होड़ शुरू होने पर अमेरिका, रूस, चीन या उभरती हुई कोई अन्य महाशक्ति तब तक आश्वस्त नहीं हो सकते, जब तक कि संबंधित देश इसे रोकने के लिए संधि की पहल नहीं करते और आपसी विश्वास बहाली के लिए मिलकर कोई रास्ता नहीं निकालते. इसके साथ रूस और अमेरिका दोनों को न्यू स्टार्ट संधि की समयसीमा बढ़ाने पर भी गौर करना चाहिए.
आभार: लेखक प्रो. हर्ष वी. पंत और एसोसिएट फ़ेलो कार्तिक बोम्माकांति का आभार व्यक्त करता है जिन्होंने इस पेपर के अध्ययन के दौरान अपने बहुमूल्य सुझाव दिये. इसके अलावा, उन समीक्षकों का भी आभार प्रकट करता हैं जिन्होंने इस पेपर की समीक्षा की.
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Sukrit Kumar is a Research Assistant with ORF’s Strategic Studies Programme.
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