बीजिंग में कुछ दिनों पहले चाइना-अरब स्टेट्स कोऑपरेशन फोरम की 10वीं मंत्रिस्तरीय कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया गया था. इस सम्मेलन के दौरान साफ़तौर पर दिखाई दिया कि चीन की पूरी कोशिश अरब भागीदार देशों को अपने एजेंडे के साथ जोड़ने की थी. सबसे अहम बात यह है कि चीन और अरब देशों के बीच यह सम्मेलन इज़राइल-हमास टकराव के बाद और ख़ास तौर पर पारंपरिक रूप से अमेरिकी दबदबे वाले पश्चिम एशिया में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग द्वारा अपना वर्चस्व बढ़ाने की कोशिशों के तत्काल बाद आयोजित किया गया था.
चीन द्वारा पश्चिम एशिया में और विशेष रूप से अरब देशों में अपनी क्षमताएं स्थापित करने और अपना दख़ल बढ़ाने की तमाम कोशिशें पहले भी की जा चुकी हैं और वो इनमें सफल भी हुआ है. यह अलग बात है कि उसकी इन सफलताओं के पीछे रणनीति से अधिक परिस्थितियों का योगदान रहा है. वर्ष 2023 में इस क्षेत्र में सऊदी अरब और ईरान के संबंधों में आई खटास को दूर करने के लिए चीन ने मध्यस्थता की थी और वो इसमें क़ामयाब भी हुआ था. इसी प्रकार से फिलस्तीन के मसले पर भी चीन ने खुलकर अपना समर्थन किया था. इन घटनाओं ने कहीं न कहीं चीन को पश्चिम एशिया में अपने पैर जमाने में मदद की है. हालांकि, चीन की इन कोशिशों की वजह से इज़राइल के साथ उसके द्विपक्षीय संबंधों पर प्रतिकूल असर पड़ा है.
चीन द्वारा पश्चिम एशिया में और विशेष रूप से अरब देशों में अपनी क्षमताएं स्थापित करने और अपना दख़ल बढ़ाने की तमाम कोशिशें पहले भी की जा चुकी हैं और वो इनमें सफल भी हुआ है. यह अलग बात है कि उसकी इन सफलताओं के पीछे रणनीति से अधिक परिस्थितियों का योगदान रहा है.
चाइना-अरब स्टेट्स कोऑपरेशन फोरम की बैठक को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा कि "युद्ध अनंत काल तक नहीं चलना चाहिए और ऐसा नहीं लगना चाहिए कि न्याय नहीं हो पा रहा है. इसके साथ ही फ़िलिस्तीन और इज़राइल को लेकर टू-स्टेट सॉल्यूशन यानी दो-राष्ट्र समाधान को लेकर जो प्रतिबद्धता है उसे अपने हिसाब से नहीं बदला जाना चाहिए." हमास ने अक्टूबर 2023 में इज़राइल के ख़िलाफ़ आतंकी हमला किया और इजराइली नागरिकों का अपहरण किया था, इसके बाद हमास और इज़राइल के बीच भीषण जंग शुरू हो गई. लेकिन तब से लेकर आज तक चीन ने एक बार भी हमास का नाम लेकर उसकी आलोचना नहीं की है. दरअसल, बीजिंग ने फ़िलिस्तीन में सक्रिय गुटों यानी हमास और फतह, जिनका इस मसले पर एकदम अलग-अलग नज़रिया है, के बीच बातचीत आयोजित की है. चीनी विशेषज्ञ यून सुन के अनुसार चीन भविष्य में हमास को फ़िलिस्तीन की एक राजनीतिक ताक़त के तौर पर देख रहा है, यानी कि उसे लगता है कि आने वाले दिनों में हमास फिलस्तीन पर शासन करेगा. ज़ाहिर है कि चीन के यह विचार गाज़ा में इजराइली सैन्य ऑपरेशन के मकसद के एकदम उलट हैं. ऐसा इसलिए है, क्योंकि इज़राइल लगातार इस बात को दोहरा रहा कि उसका उद्देश्य फ़िलिस्तीन से हमास को पूरी तरह से नेस्तनाबूद करना है.
इस सारी भू-राजनीति उथल-पुथल से अलग, चीन का सबसे बड़ा लक्ष्य अपने आर्थिक हितों को साधना है. बीजिंग में आयोजित चीन-अरब शिखर सम्मेलन का मुख्य मुद्दा भी आर्थिक हित ही था. अरब देश और चीन दोनों ही व्यापार व निवेश को बढ़ाना चाहते हैं. इसकी वजह यह है कि दोनों ही भविष्य में अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए एक-दूसरे के साथ प्रगाढ़ रिश्तों को बेहद महत्वपूर्ण मानते हैं. ज़ाहिर है कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) जैसे अरब राष्ट्र तेल के बड़े निर्यातक हैं, जबकि चीन तेल का एक बड़ा आयातक है. चीन और अरब राष्ट्र, तेल उत्पादन को लेकर तमाम उतार-चढ़ाव के बावज़ूद पारस्परिक संबंधों को मज़बूत करना चाहते हैं. वास्तविकता यह है कि गैर-ओपेक देशों द्वारा किया जाने वाला तेल उत्पादन अरब राष्ट्रों द्वारा किए जाने वाले तेल उत्पादन से आगे निकल गया है.
‘आर्थिक पहलू सबसे अहम्’
कुल मिलाकर देखा जाए तो पश्चिम एशिया में भी परिवर्तन का दौर चल रहा है. उदाहरण के लिए, सऊदी अरब राजशाही का जो विज़न 2030 है, उसमें धीरे-धीरे तेल के निर्यात और उससे होने वाली इनकम पर निर्भरता कम करने, आय के स्रोतों में विविधता लाने, मानव पूंजी में सुधार करने यानी लोगों के प्रशिक्षण एवं कौशल विकास को बढ़ाने और विनिर्माण सेक्टर को प्रोत्साहित करने पर ध्यान केंद्रित किया गया है. यही वो क्षेत्र हैं जहां चीन सऊदी अरब के साथ व्यापक सहयोग की संभावनाएं देख रहा है और इसे आगे बढ़ाना चाहता है. बीजिंग में आयोजित सम्मेलन के दौरान राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अरब राष्ट्रों के सामने 'पांच महत्वपूर्ण सहयोग फ्रेमवर्क्स' का प्रस्ताव पेश किया है. अरब राष्ट्रों के साथ मिलकर चीन आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI), हरित परिवर्तन, कृषि और सूचना प्रौद्योगिकी पर रिसर्च को आगे बढ़ाने के लिए साझा संरचनाएं विकसित करने की योजना बना रहा है. सऊदी अरब जैसे पश्चिम एशियाई देशों के लिए अंतरिक्ष भी नया क्षेत्र है, जहां वो कुछ बेहतर करना चाहता है. हाल ही में चीन ने चंद्रमा के सुदूर हिस्से पर अपने यान को उतारने में सफलता हासिल की है और इससे उत्साहित होकर चीन मानवयुक्त अंतरिक्ष मिशनों में सहयोग करना चाहता है. इसके अलावा, चीन अरब राष्ट्रों के साथ मिलकर अंतरिक्ष में मौज़ूद कचरे की निगरानी के लिए साझा सुविधाओं का निर्माण करना चाहता है, साथ ही बाइडू सैटेलाइट नेविगेशन सिस्टम के लिए सहयोग करना चाहता है. चीन ने अपनी इस नेविगेशन प्रणाली को अमेरिका के ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (GPS) के विकल्प के तौर पर तैयार किया है.
सऊदी अरब जैसे पश्चिम एशियाई देशों के लिए अंतरिक्ष भी नया क्षेत्र है, जहां वो कुछ बेहतर करना चाहता है. हाल ही में चीन ने चंद्रमा के सुदूर हिस्से पर अपने यान को उतारने में सफलता हासिल की है और इससे उत्साहित होकर चीन मानवयुक्त अंतरिक्ष मिशनों में सहयोग करना चाहता है.
अरब देशों के साथ चीन के पारस्परिक सहयोग का एक अन्य प्रमुख क्षेत्र वित्त और निवेश है. चीन ने अरब राष्ट्रों में औद्योगीकरण का समर्थन करने के लिए विशेष कर्ज़ देने का वादा किया है. इस सहयोग के बदले में चीन अपने और अरब देशों के वित्तीय संस्थानों यानी बैंकों के बीच नज़दीकी सहयोग की उम्मीद करता है. चीन द्वारा अरब बैंकों को क्रॉस-बॉर्डर इंटरबैंक पेमेंट सिस्टम (CIPS) में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया है. ज़ाहिर है कि चीन ने व्यापार भुगतान में अपनी आधिकारिक मुद्रा रॉन्मिन्बी के वैश्विक इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए CIPS को शुरू किया था. चीन ने अपने क्रॉस बार्डर इंटरबैंक पेमेंट सिस्टम को पश्चिमी वित्तीय प्रणाली के विकल्प के रूप में स्थापित किया है. रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद से पश्चिमी देशों ने स्विफ्ट फाइनेंशियल मेसेजिंग सिस्टम से रूसी बैंकों को हटा दिया है या कहा जाए कि प्रतिबंधित कर दिया है.
इतना ही नहीं चीन, अरब देशों के साथ पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना द्वारा विकसित डिजिटल करेंसी पर भी सहयोग को बढ़ाना चाहता है. ऊर्जा और व्यापार की बात की जाए, तो चीन अरब देशों में नवीकरणीय ऊर्जा उपक्रमों में भागीदारी करने वाली चीनी ऊर्जा कंपनियों और वित्तीय संस्थानों के साथ नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकियों में अनुसंधान और विकास से जुड़े कार्यों को भी आगे बढ़ाने के बारे में सोच-विचार कर रहा है. इसके अलावा, चीन अरब देशों के साथ द्विपक्षीय और क्षेत्रीय मुक्त व्यापार समझौतों पर बातचीत में तेज़ी लाने और ई-कॉमर्स सेक्टर में सहयोग बढ़ाने के लिए आपसी चर्चा को आगे बढ़ाने पर भी गंभीरता से काम कर रहा है. मार्च 2023 में चीन ने मानवाधिकारों और लोकतंत्र के मुद्दे पर अमेरिकी आरोपों के जवाब में ग्लोबल सिविलाइज़ेशन इनीशिएटिव (GCI) की शुरुआत की है. चीन ने अरब देशों में ग्लोबल सिविलाइजेशन इनीशिएटिव के चाइना-अरब सेंटर को स्थापित करने का भी प्रस्ताव रखा है. ऐसा होने पर पश्चिम एशियाई देशों और चीन के राजनेताओं के बीच तालमेल में मदद मिलेगी.
चीन-अरब स्टेट्स कोऑपरेशन फोरम अफेयर्स के पूर्व राजदूत ली चेंगवेन के मुताबिक़ इस फोरम की स्थापना के दो दशकों के दरम्यान पश्चिमी एशियाई देशों और चीन के बीच व्यापार में ज़बरदस्त बढ़ोतरी हुई है. वर्ष 2004 में चीन और पश्चिमी एशिया के देशों के बीच 30 बिलियन अमेरिकी डॉलर का व्यापार होता था, जो वर्ष 2023 में बढ़कर 400 बिलियन अमेरिकी डॉलर का हो गया है. व्यावसायिक संबंधों के आधार पर ही ली चेंगवेन का कहना है कि चीन ने अरब राष्ट्रों और अरब लीग के साथ ‘व्यापक रणनीतिक साझेदारी’ या ‘स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप’ स्थापित की है.
अर्थव्यवस्था बनाम सुरक्षा
अरब देशों और चीन के बीच सुरक्षा भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, लेकिन दोनों पक्षों के मध्य चर्चा-परिचर्चाओं में यह मुद्दा कहीं नहीं दिखाई दिया है. हालांकि, शी जिनपिंग का कहना है कि विश्व इस समय भारी उथल-पुथल के दौर से गुज़र रहा है और बीजिंग अपने अरब भागीदारों राष्ट्रों के साथ रक्षा क्षेत्र में सहयोग करना चाहता है और डिफेंस बिजनेस को आगे बढ़ाने का इच्छुक है. लेकिन अरब राष्ट्रों के साथ एक सीमा से आगे रणनीतिक रक्षा संबंध स्थापित करने में चीन की कोई दिलचस्पी नहीं है.
चीन ने अरब देशों में ग्लोबल सिविलाइजेशन इनीशिएटिव के चाइना-अरब सेंटर को स्थापित करने का भी प्रस्ताव रखा है. ऐसा होने पर पश्चिम एशियाई देशों और चीन के राजनेताओं के बीच तालमेल में मदद मिलेगी.
वर्तमान में सऊदी अरब के चीन के साथ प्रगाढ़ आर्थिक संबंध हैं. चीन से मज़बूत रिश्तों के बावज़ूद सऊदी अरब अभी भी अमेरिका के साथ व्यापक सुरक्षा और रक्षा समझौता करने की इच्छा रखता है. इसके अलावा वह इज़राइल के साथ अपने रिश्तों को सामान्य करना चाहता है (हालांकि, कम से कम निकट भविष्य में तो अब ऐसा होना असंभव सा प्रतीत होता है). इसके साथ ही सऊदी अरब नागरिक परमाणु ताक़त हासिल करना चाहता है. ज़ाहिर है कि अगर यह सारी चीज़ें धरातल पर उतरती हैं और सऊदी अरब इन्हें करने में सफल हो जाता है, तो फिर वह कहीं न कहीं अमरेकी की सुरक्षा गारंटी के अंतर्गत आ सकता है. यानी कुछ इसी तरह की सुरक्षा गारंटी, जो अमेरिका के सहयोगी राष्ट्रों जापान और दक्षिण कोरिया को मिल रही है.
अमेरिका अगर सऊदी अरब की इन इच्छाओं को पूरा करने में अपनी भागीदारी निभाता है, तो निश्चित तौर पर ऐसा करके वह सऊदी अरब में चीने के बढ़ते दबदबे पर भी लगाम लगा सकता है. वॉशिंगटन डी.सी. को उम्मीद है कि यदि इस प्रकार का कोई समझौता सऊदी अरब के साथ परवान चढ़ता है, तो वह रियाद पर रक्षा, सेमीकंडक्टर और कुछ हद तक अत्याधुनिक प्रौद्योगियों से जुड़े क्षेत्रों में चीन को प्रवेश की अनुमति नहीं देने के लिए दबाव बना सकता है. हालांकि, यह कहना जितना आसान सा लग रहा है, हक़ीक़त में इसे अमल में लाना उतना ही कठिन है. सऊदी अरब में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म टिकटॉक के मसले से इसे आसानी से समझा जा सकता है, क्योंकि वहां टिकटॉक पर प्रतिबंध लगाने की मांग लगातार की जा रही है, लेकिन इस पर अभी तक कुछ हो नहीं पाया है.
ख़ास बात यह है कि पश्चिम एशिया क्षेत्र में चीन ने कभी भी किसी तरह की सुरक्षा गारंटी देने की मंशा ज़ाहिर नहीं की है और न ही वो ऐसा करना चाहता है. हाल ही में जब लाल सागर संकट पैदा हुआ था, तब चीन ने अपने राजनयिक संबंधों का उपयोग करते हुए ईरान की मदद से अपने जहाजों को सुरक्षित निकालने के लिए एक तरह की सुरक्षा गारंटी बनाई थी. लेकिन चीन ने इस क्षेत्र में अपनी नौसेना यानी युद्ध पोतों को तैनात नहीं किया है, जैसा कि पश्चिमी देशों या यहां तक कि भारत की ओर से किया गया है. चीन को सिर्फ़ अपने आर्थिक हितों से मतलब है और आर्थिक हितों को साधने पर ही उसका ध्यान है, बाक़ी मामलों पर देखा जाए तो चीन की रणनीति किसी भी ख़तरे में पड़ने से परहेज़ करने की होती है.
आख़िर में, चीन ने गाज़ा के मामले में अपने रुख़ को साफ तौर पर ज़ाहिर किया है और ऐसा करके उसने अरब देशों के साथ नज़दीकी बढ़ाने की कोशिश की है. यानी चीन ने इस क्षेत्र में जो भी परिस्थितियां हैं उनका लाभ उठाने के लिए अरब देशों के सुर में सुर मिलाने की रणनीति अपनाई है. इससे चीन को 'अरब स्ट्रीट' कहे जाने वाले इलाक़े में लोगों का कुछ न कुछ समर्थन ज़रूर हासिल होगा. लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि अरब देशों के राजतंत्रों और वहां शासन करने वाली सरकारों व स्थानीय नागरिकों की राय में कोई बहुत अंतर है. इन सबके बीच चीन की नीति हमेशा से ही इस क्षेत्र में 'अरब देशों की रणनीति पर चलने' की रही है. चीन इस क्षेत्र में उभरने वाली तमाम चुनौतियों के बावज़ूद अपनी इसी नीति पर चलते हुए अरब देशों के साथ आर्थिक रिश्तों को मज़बूत करने और उनका विस्तार करने की मंशा को पूरा करने में जुटा है.
कबीर तनेजा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम में फेलो हैं.
कल्पित मानकीकर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम में फेलो हैं.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.