Author : Abhishek Mishra

Expert Speak Raisina Debates
Published on Mar 22, 2023 Updated 1 Days ago

अफ्रीकी देशों के साथ साझेदारी को लेकर अपनी नई रणनीति के साथ फ्रांस का उद्देश्य अफ्रीका महाद्वीप के बारे में अपने पुराने दृष्टिकोण से अलग हटकर कुछ नया करने का है. 

अफ्रीका को लेकर फ्रांस की नई रणनीति का विश्लेषण!

अफ्रीका महाद्वीप में फ्रांस की पेचीदा और विविधितापूर्ण ऐतिहासिक विरासत की वजह से फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने वर्ष 2017 में अपने पहले कार्यकाल के बाद से ही अफ्रीका में राष्ट्रीय रणनीति, संबंधों और हस्तक्षेप को व्यापक स्तर पर फिर से स्थापित करने की ज़रूरत पर बल दिया है. नवंबर 2017 में औगाडौगौ, बुर्किना फासो के एक राजनयिक दौरे के दौरान, राष्ट्रपति मैक्रों ने आश्चर्यजनक रूप से स्वीकार किया कि फ्रांस के पास अब अफ्रीकी महाद्वीप पर अपनी कूटनीति के लिए एक व्यापक रणनीति नहीं है. इतना ही नहीं उन्होंने दोनों पक्षों के लिए अपने साझा इतिहास को स्वीकार करने और अपने राजनीतिक संबंधों को दोबारा शुरू करने की ज़रूरत पर भी ज़ोर दिया. ज़ाहिर है कि फ्रांस अब अपने अफ्रीकी साझेदारों के साथ एक ऐसी विदेश नीति को आगे बढ़ाना चाहता है, जो ज़्यादा बराबरी की नींव पर आधारित हो. हालांकि, देखा जाए तो राजनयिक स्तर पर संबंधों को दोबारा से स्थापित करने के इस तरह के फ्रांसीसी प्रयास अफ्रीकी महाद्वीप के ज़्यादातर हिस्सों में सीमित ही रहे हैं. इसके पीछे प्रमुख कारणों में नौकरशाही की अंतर्कलह, विवादास्पद नीतियों को अपनाना, लेन-देन संबंधी आर्थिक और सहायता नीति शामिल हैं. इसके अलावा, एक सैन्य-संचालित सुरक्षा नीति भी इसकी एक बड़ी वजह है, जो कि अफ्रीका के सहेल क्षेत्र में आतंकवाद को रोकने और क्षेत्र के सामाजिक व राजनीतिक बदलावों के साथ सामंजस्य स्थापित करने में नाक़ाम रही है.

नवंबर 2017 में औगाडौगौ, बुर्किना फासो के एक राजनयिक दौरे के दौरान, राष्ट्रपति मैक्रों ने आश्चर्यजनक रूप से स्वीकार किया कि फ्रांस के पास अब अफ्रीकी महाद्वीप पर अपनी कूटनीति के लिए एक व्यापक रणनीति नहीं है.

राष्ट्रपति मैक्रों ने 27 फरवरी 2023 को गैबॉन, अंगोला, दि डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो और कांगो गणराज्य के चार देशों के दौरे पर जाने से पहले अफ्रीका के साथ नए सिरे से साझेदारी स्थापित करने के बारे में अपने दृष्टिकोण को साझा किया था, जबकि यह वहां की मौज़ूदा परिस्थियों के ख़िलाफ़ है. राष्ट्रपति मैक्रों इस रणनीति के केंद्र में फ्रैंकोफोन देशों में फ्रांसीसी उपनिवेशवाद की विरासत को संबोधित करने की उनकी इच्छा निहित है, लेकिन उन्होंने अफ्रीकी पहचान का सम्मान करते हुए अफ्रीका के साथ "नए, संतुलित, पारस्परिक और ज़िम्मेदारी पूर्ण संबंध" के लिए भी आह्वान किया.

अफ्रीका के साथ फ्रांस के संबंधों के एक "नए युग" में प्रवेश करने का यह निर्णय ऐसे समय में आया है, जब अफ्रीका महाद्वीप पर फ्रांस का प्रभाव एक लिहाज़ से उतार की तरफ़ है. पश्चिम और उत्तरी अफ्रीका के कई देशों में फ्रांस विरोधी भावनाओं से प्रेरित होकर सड़कों पर होने वाले विरोध प्रदर्शन लगभग एक नियमित सी बात हो गई है. फ्रांसफ्रीक के नाम से जाने वाले फ्रांस के प्रभाव वाले पारंपरिक क्षेत्र, जिन्हें फ्रांस ने उपनिवेशीकरण का दौर गुजरने के बाद भी बरक़रार रखा, वो सारे क्षेत्र समय के साथ-साथ ज़्यादा अस्थिर और ख़तरनाक हो गए. यही वो समय था, जब अफ्रीकी देशों ने पश्चिमी सहायता पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए अलग-अलग विदेशी भागीदारों के संबंध स्थापित करने की दिशा में अपना विशेष ध्यान दिया. आज की बहुध्रुवीय दुनिया का मतलब, ऐसी दुनिया से है, जहां चीन, भारत और तुर्किये जैसे ग्लोबल साउथ के देश अफ्रीकी देशों को आगे बढ़ाने के लिए एक वैकल्पिक विकास मॉडल उपलब्ध कराते हैं.

फ्रांस की नई अफ्रीका रणनीत की प्रमुख बातें

निश्चित तौर पर राष्ट्रपति मैक्रों के भाषण ने अफ्रीका के साथ फ्रांस के संबंधों को गंभीरता के साथ बदलने की आकांक्षा को जागृत किया है. हालांकि, इस तरह के वादे कोई नए नहीं हैं. उन्होंने इससे पहले भी इस प्रकार के वादे किए हैं, लेकिन उनका ज़मीनी स्तर पर कोई वास्तविक रूपांतरण नहीं देखा गया है. राष्ट्रपति मैक्रों के भाषण की तीन प्रमुख बातें थी: सबसे पहले, राष्ट्रपति मैक्रों ने स्वीकार किया कि अफ्रीका अब "प्रतिस्पर्धा की भूमि" है. उन्होंने फ्रांस की कंपनियों और उद्यमों से "जागने" यानी सचेत होने और अफ्रीका के अन्य अंतर्राष्ट्रीय भागीदारों के साथ ज़्यादा सक्रिय ढंग से प्रतिस्पर्धा करने का आग्रह किया. फ्रांस अब एक ऐसे आर्थिक मॉडल को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहा है, जो "मदद वाले नज़रिए" से हटकर साझेदारी पर आधारित एकीकृत निवेश के दृष्टिकोण वाला है.

राष्ट्रपति मैक्रों के भाषण की दूसरी प्रमुख बात यह है कि उन्होंने एक बार फिर से इसकी पुष्टि की है कि सैन्य शासन के विपरीत फ्रांस का समर्थन अफ्रीकी देशों में लोकतंत्र की स्थापना को लेकर है. हालांकि, इसमें कोई संदेह नहीं है कि लोकतंत्र के संरक्षक के रूप में पेरिस अपनी भूमिका को बनाए रखना चाहता है, लेकिन मध्य अफ्रीका में तानाशाही और निरंकुश शासनों को इसका समर्थन कभी-कभी मानवाधिकार को लेकर इसकी बयानबाज़ी के बारे में जनता के बीच निराशा का भाव पैदा करता है. फ्रांस का यह दोहरा मानदंड उस वक़्त साफ तौर पर दिखाई दिया था, जब उसने एक तुष्टीकरण की, यानी समझौतावादी नीति अपनाई और अप्रैल 2021 में चाड के सैन्य अधिग्रहण का समर्थन किया, जबकि माली और गिनी में सैन्य तख़्तापलट की निंदा की थी.

फ्रांस का यह दोहरा मानदंड उस वक़्त साफ तौर पर दिखाई दिया था, जब उसने एक तुष्टीकरण की, यानी समझौतावादी नीति अपनाई और अप्रैल 2021 में चाड के सैन्य अधिग्रहण का समर्थन किया, जबकि माली और गिनी में सैन्य तख़्तापलट की निंदा की थी.

राष्ट्रपित मैक्रों के भाषण की आख़िरी और शायद सबसे अहम बात यह थी कि पेरिस अफ्रीका महाद्वीप में फ्रांसीसी हस्तक्षेप को अब गुजरे जमाने की बात बनाने का इरादा रखता है. यानी कि फ्रांस अब अफ्रीकी देशों की घरेलू राजनीति में हस्तक्षेप करने के बजाए एक तटस्थ वार्ताकार के तौर पर कार्य करना चाहता है. पेरिस ने अफ्रीकी देशों के साथ एक नई सुरक्षा साझेदारी में शामिल होने के अपने इरादे का भी ऐलान किया है. ज़ाहिर है कि फ्रांस की इस घोषणा से पूरे अफ्रीका महाद्वीप में स्थित सैन्य ठिकानों में फ्रांसीसी सैनिकों और कर्मचारियों की बड़े स्तर पर कमी आएगी और साथ ही साथ वहां अफ्रीकी सैनिकों और कर्मियों की मौज़ूदगी में बढ़ोतरी होगी. दरअसल, फ्रांस की मंशा अफ्रीका में फ्रांसीसी सैन्य ठिकानों को पूरी तरह से बंद करने की नहीं है, बल्कि अफ्रीकी भागीदारों द्वारा बताई गईं ज़रूरतों के मुताबिक़ उनमें बदलाव लाने की है.

हालांकि, यह भी विशेष रूप से ध्यान देने वाली बात है कि अफ्रीका में फ्रांसीसी सैनिकों की संख्या में कमी के संबंध में न तो यह बताया गया है कि कितने सैनिक कम किए जाएंगे और न ही यह बताया गया है कि इस प्रक्रिया को पूरा करने की समय-सीमा क्या है. इसके साथ ही अभी तक ऐसा कुछ दिखाई भी नहीं दे रहा है कि इस प्रक्रिया को किस प्रकार से अमल में लाया जा रहा है.

सैन्य हस्तक्षेपवाद की गतिविधियों के फंदे में फंसना

देखा जाए, तो पिछले पांच वर्षों में अफ्रीका में, वो भी ख़ास तौर पर सहेल इलाक़े में फ्रांस की सैन्य और सुरक्षा से जुड़ी भूमिका की न सिर्फ़ आलोचना की गई है, बल्कि इसे सार्वजनिक समीक्षा के दायरे में रखा गया है. माली, बुर्किना फासो, चाड और मध्य अफ्रीकी गणराज्य जैसे देशों में भारी सैन्य कार्रवाई के उदाहरणों पर नज़र डालें, तो स्पष्ट प्रतीत होगा कि पेरिस का सुरक्षा-संचालित नज़रिया अभी भी बरक़रार है. अधिकांश समय के लिए फ्रांस ने अफ्रीका में एक सुरक्षा मुहैया करना वाले के रूप में अपनी भूमिका तय की और जिसके केंद्र में मुख्य तौर पर आतंकवाद से मुक़ाबला करना रहा है. फ्रांस का यह दृष्टिकोण वर्ष 2013 में माली में ऑपरेशन सर्वल (Operation Serval) की शुरुआत के साथ दिखाई दिया था, जिसे वर्ष 2014 में ऑपरेशन बरखाने (Operation Barkhane) का नाम दिया गया था. फ्रांस द्वारा संचालित यह ऑपरेशन माली में बढ़ती सुरक्षा और शासन संबंधी चिंताओं पर काबू पाने में असमर्थ थे और नतीज़तन 9 नवंबर 2022 को फ्रांसीसी सैनिकों और सैन्य संसाधनों की वापसी के साथ औपचारिक रूप से समाप्त हो गए. माली के सैन्य तख़्तापलट और माली में फ्रांसीसी राजदूत के निर्वासन जैसी एक के बाद एक सामने आई घटनाओं ने फ्रांसीसी नीति निर्माताओं को निश्चित रूप से पीछे हटने का उचित मौक़ा उपलब्ध कराया. फ्रांसीसी सैनिकों की वापसी ने अख़िरकार सहेल रीजन के देशों को अपने क्षेत्र में पैदा हुए सुरक्षा के इस खालीपन को भरने के लिए वैगनर ग्रुप जैसे रूस के निजी सैन्य ठेकेदारों की ओर मुड़ने के लिए मज़बूर कर दिया.

अफ्रीकी देशों के साथ साझेदारी के लिए फ्रांस की नई रणनीति से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि पेरिस अतीत की ग़लतियों से सबक लेकर, उन्हें दूर करना चाहता है और अफ्रीका के लिए अपनी राजनयिक पहुंच को नए सिरे से स्थापित करना चाहता है.

वर्तमान समय की बात करें, तो फ्रांस की अफ्रीका पॉलिसी में सुरक्षा से जुड़े विभिन्न मुद्दों का बोलबाला है. ज़ाहिर है कि इस क्षेत्र में अपनी सैन्य मौज़ूदगी को बनाए रखना पेरिस के हित में है. यह न केवल अफ्रीका महाद्वीप में रूसी प्रभाव को सीमित करने के लिए ज़रूरी है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि अगर अफ्रीका में किसी भी तरह की अस्थिरता पैदा होती है, तो उससे यूरोप की सुरक्षा सीधे तौर पर प्रभावित होगी, क्योंकि भौगोलिक रूप से अप्रीकी देशों की यूरोपी से निकटता है.

साम्राज्यवादी मौद्रिक नीति को जारी रखना?

इसके अतिरिक्त, फ्रांस-अफ्रीका के बीच जिस प्रकार के आर्थिक संबंध है, उनकी भी अक्सर आलोचना होती रहती है. अफ्रीकी वित्तीय समुदाय यानी Communauté Financière Africaine franc, जिसे लोकप्रिय रूप से CFA फ्रैंक के रूप में जाना जाता है और जो वर्ष 1945 से है. CFA अभी भी दो मौद्रिक ज़ोन्स, यानी वेस्ट अप्रीकन इकोनॉमिक एंड मॉनेटरी यूनियन (WAEMU) और इकोनॉमिक एंड मॉनेटरी कम्युनिटी ऑफ सेंट्रल अफ्रीकन स्टेट्स में इस्तेमाल किया जाता है. दरअसल, सच्चाई यह है कि व्यवस्था के हिस्से के रूप में फ्रांस के पूर्व उपनिवेशों को अपने विदेशी मुद्रा भंडार का 50 प्रतिशत फ्रांस के कोषागार में जमा करने के लिए मज़बूर किया गया था. CFA के माध्यम से पैदा किए गए इस आर्थिक असंतुलन ने राजनीतिक आलोचना को बढ़ाने का काम किया, जिसकी वजह से आगे चलकर मेडागास्कर और मॉरिटानिया जैसे देशों को अपनी स्वयं की मुद्राओं को अपनाने के लिए CFA फ्रैंक को छोड़ दिया.

अफ्रीकी देशों के साथ साझेदारी के लिए फ्रांस की नई रणनीति से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि पेरिस अतीत की ग़लतियों से सबक लेकर, उन्हें दूर करना चाहता है और अफ्रीका के लिए अपनी राजनयिक पहुंच को नए सिरे से स्थापित करना चाहता है. इसने फ्रांस को अफ्रीकी महाद्वीप में अपनी खोई हुई लोकप्रियता को फिर से हासिल करने और उस क्षेत्र में सुरक्षा की प्रथामिकता वाले अपने दृष्टिकोण का फिर से मूल्यांकन करने का अवसर प्रदान किया है. ऐसी परिस्थितियों में, जबकि अफ्रीका में सैन्य हस्तक्षेपों का अब पहले की भांति वांछित असर नहीं रह गया है, इसके बारे में फिलहाल अनुमान लगाना मुश्किल है कि क्या फ्रांस की नई रणनीति वास्तविकता में अफ्रीका को लेकर उसके पिछले नज़रिए को बदलने क़ामयाब साबित होगी, या फिर इसमें अभी कुछ वक़्त और लगेगा.

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