Published on Oct 27, 2022 Updated 24 Days ago

नेतृत्व जारी रखने के लिए भारत को सुधारों पर और जोर देना चाहिए और दुनिया में जारी आर्थिक विश्व युद्ध में छोटी जीत का जश्न मनाना चाहिए.

भू-राजनीतिक मुश्किलों और आर्थिक मंदी के बीच, वैश्विक विकास के क्षेत्र में अग्रणी बना भारत!

चूंकि 2022 तथ्यों के बजाय नैरेटिव (आख्यानों) का वर्ष बन गया है और सबसे बेहतरीन सोच रखने वालों को हम शक्ति की राजनीति की धुन पर झूमते देख रहे हैं, लिहाज़ा आंकड़ों में छिपी किसी भी कहानी को जानने के लिए हमें तटस्थ डेटा मुहैया कराने वाली संस्था, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) पर निर्भर रहना पड़ेगा. अपने 12 अक्टूबर 2022 वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक में, आईएमएफ का कहना है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए संभावनाएं कम होती जा रही हैं. साल 2021 में 6.0 प्रतिशत से,वैश्विक जीडीपी विकास अनुमान साल 2022 के लिए 3.2 प्रतिशत और साल 2023 के लिए 2.7 प्रतिशत तक गिर गया. यह ऐसे समय में है जब अंतरराष्ट्रीय आर्थिक गतिविधियां कई आशंकाओं के साथ आगे बढ़ रही हैं – जिसमें रूस-यूक्रेन संघर्ष, ऊर्जा में व्यवधान, खाद्य आपूर्ति श्रृंखला की कमी पैदा करना, चीन निर्मित कोरोना – का असर अभी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ है.

वैश्विक मुद्रास्फीति – जिसका साल 2021 में 4.7 प्रतिशत से बढ़कर 2022 में 8.8 प्रतिशत होने की उम्मीद है, फिर 2023 में गिरकर 6.5 प्रतिशत और 2024 तक 4.1 प्रतिशत पर वापस आने की उम्मीद है – अर्थव्यवस्थाओं पर कहर बरपाने जा रही है, जो या तो धीमी हो जाएगी या मंदी के दौर में दाखिल हो जाएगी. इसके अलावा दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं के पास कोई तीसरा विकल्प नहीं है. साल दर साल प्रतिशत के आंकड़ों के ज़रिए मुद्रास्फीति की दर को देखना अर्थशास्त्रियों का काम है लेकिन चक्रवृद्धि दर पर इसका ख़ामियाज़ा आम लोगों को भुगतना पड़ता है. अगर ऊपर दिए गए आंकड़े सही साबित होते हैं तो मौज़ूदा वक़्त में एक परिवार जो प्रति माह 100 रूपए ख़र्च करता है, उन्हें अगले चार वर्षों में 26 प्रतिशत ज़्यादा ख़र्च करने पड़ेंगे और महंगाई की यही असली क़ीमत है.

साल 2021 में 6.0 प्रतिशत से,वैश्विक जीडीपी विकास अनुमान साल 2022 के लिए 3.2 प्रतिशत और साल 2023 के लिए 2.7 प्रतिशत तक गिर गया. यह ऐसे समय में है जब अंतरराष्ट्रीय आर्थिक गतिविधियां कई आशंकाओं के साथ आगे बढ़ रही हैं.

इस लागत में एक ऐसा दर्द छिपा है जिसे पश्चिमी देशों ने लंबे समय से नहीं भुगता है. और आंकड़े जिस ओर इशारा करते हैं उससे यह दर्द अलग-अलग देशों में अलग-अलग होगा. उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रास्फीति की दर साल 2004 और 2013 के बीच औसतन 2 प्रतिशत थी और 2020  तक 2 प्रतिशत से नीचे रही लेकिन यह 2021 में बढ़कर 3.1 प्रतिशत हो गई और 2022 में तीन गुना से अधिक बढ़कर 7.2 प्रतिशत हो जाने की उम्मीद है. साल 2022 में छह देशों में मुद्रास्फीति की दर दो अंकों तक पहुंच जाने की सबसे ज़्यादा आशंका है – एस्टोनिया (21.0 प्रतिशत), लिथुआनिया (17.6 प्रतिशत), लातविया (16.5 प्रतिशत), चेक गणराज्य (16.3 प्रतिशत), नीदरलैंड (12.0 प्रतिशत) और स्लोवाक गणराज्य (11.9 प्रतिशत). दो अंकों वाली मुद्रास्फीति दर के इस क्लब में और राष्ट्रों के शामिल होने की आशंका बनी हुई है. ऐसे में यह केवल समय की बात होगी जब ऊर्जा अस्थिरता आर्थिक अस्थिरता में बदल जाएगी जो एक दूसरे की वज़ह से होती है.

मुद्रास्फीति ना तो छोटी और ना ही बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को बख्शने जा रही है. अमेरिका में मुद्रास्फीति की दर 8.1 प्रतिशत, जर्मनी में 8.5 प्रतिशत, भारत में 6.9 प्रतिशत और ब्रिटेन में 9.1 प्रतिशत के क़रीब होगी. चीन (2.2 फीसदी) और जापान (2.0 फीसदी) बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं जो इस प्रवृत्ति को कम करेंगी. दूसरी ओर, 73.1 प्रतिशत, 72.4 प्रतिशत, 48.2 प्रतिशत और 20.6 प्रतिशत के साथ मुद्रास्फीति क्रमशः तुर्की, अर्जेंटीना, श्रीलंका और यूक्रेन पर क्रूर हमला करने जा रही है.

मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए सभी लोकतांत्रिक देशों के केंद्रीय बैंक ब्याज़ दरों में वृद्धि करेंगे, जिसकी प्रवृत्ति अभी से शुरू हो गई है. चीन, जापान, इंडोनेशिया, रूस और तुर्की को छोड़कर, सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं ने सितंबर 2022 में ब्याज़ दरों में बढ़ोतरी की है – अमेरिका और यूरोप ने 75 बेसिस प्वाइंट की, भारत और ब्रिटेन ने 50 बेसिस प्वाइंट की. ब्राजील में पॉलिसी रेट 13.75  प्रतिशत, हंगरी में 13.0 प्रतिशत और चिली में 10.75 प्रतिशत है. ऐसे में ब्याज़ दरें बढ़ाना मुद्रास्फीति को नियंत्रित कर भी सकता है और नहीं भी, क्योंकि असली मुद्दा आपूर्ति की कमी और खाद्य पदार्थों और ईंधन की उच्च क़ीमतों का है, जिसे मौद्रिक नीति नियंत्रित नहीं कर सकती है. हां इतना ज़रूर होगा कि इससे निश्चित तौर पर गैर-ज़रूरी ख़पत पर लगाम लगेगी लेकिन यह विकास की रफ्तार को धीमी कर देगा. इसका मतलब यह होगा कि कंपनियां अपनी निवेश योजनाओं को रोक देंगी, शायद श्रमिकों की भी छंटनी करेंगी, या एक विकल्प श्रम को सस्ते बाज़ारों में आउटसोर्स करने का भी है.

असली मुद्दा आपूर्ति की कमी और खाद्य पदार्थों और ईंधन की उच्च क़ीमतों का है, जिसे मौद्रिक नीति नियंत्रित नहीं कर सकती है. हां इतना ज़रूर होगा कि इससे निश्चित तौर पर गैर-ज़रूरी ख़पत पर लगाम लगेगी लेकिन यह विकास की रफ्तार को धीमी कर देगा.

इसलिए घरेलू स्तर पर हमारे सामने जीवन यापन की बढ़ती लागत (भोजन और ईंधन की बढ़ती बिलों के कारण मुद्रास्फीति जो अन्य क्षेत्रों में तेजी से फैलती है) की दोहरी मार है और संभावित नौकरी और आय में कमी जैसे प्रभाव हैं. उच्च मुद्रास्फीति और कम विकास की राजनीति लोकतांत्रिक राष्ट्रों पर शासन करने वालों के लिए घातक हो सकती है – उच्च क़ीमतों के मुक़ाबले सत्ता के लिए कोई बड़ा सच नहीं है. बढ़ती क़ीमतों के चलते किसी देश को छूट नहीं दी जा सकती है, लोकतंत्र के किसी भी नेता को माफ नहीं किया जा सकता है.

अर्थव्यवस्था में गिरावट के ऐसे अनुमानित आंकड़े महज हवा हवाई नहीं हैं. साल 2022–23 में पांच में से दो या उससे अधिक या 43 प्रतिशत अर्थव्यवस्थाएं (72 में से 31) अपने वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद में कमी महसूस करेंगे. और इसे ही अर्थशास्त्री मंदी कहते हैं, भले ही अमेरिका इस शब्द से असहज हो  और अमेरिका के राय निर्माता इस शब्द का बचाव करने के लिए नए-नए नैरेटिव गढ़ें, और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन तथ्यों को हल्का करने की कोशिश में जुट जाएं.

1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक के सकल घरेलू उत्पाद वाले तीन देश इससे सबसे बुरी तरह प्रभावित होंगे — दुनियां की चौथी सबसे बड़ी और यूरोपीय संघ की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, जर्मनी, की जीडीपी, साल 2023 में 0.3 प्रतिशत तक घटने का अनुमान लगाया गया है; दुनियां की आठवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था इटली, जिसमें 0.2 प्रतिशत की कमी आने की आशंका जताई गई है; और रूस, दुनियां की ग्यारहवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जो प्रतिबंधों और अनुबंधों का सामना कर रहा है उसमें 2.3 प्रतिशत तक कमी आएगी.

इन तीनों में से जर्मन चांसलर ओलाफ स्कोल्ज़, इटली के प्रधानमंत्री मारियो ड्रैगी के साथ रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन देश की राष्ट्रवादी जुनून के मुहाने पर खड़े हैं, ऐसे में उनके लिए अर्थव्यवस्था की मौज़ूदा रफ़्तार के बावज़ूद सैन्य ताक़त में कमतर दिखना बेहद मुश्किल है. इसका मतलब यह हुआ कि एनर्जी सप्लाई चेन का जियो-पॉलिटिकल रिएलाइनमेंट स्थायी होगा. भले आज रूसी अर्थव्यव्स्था अप्रभावित दिखता है लेकिन मध्यम अवधि में रूसी अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर ब्रेक लगेगी – क्योंकि जब सबकुछ एक हथियार होता है तो कोई भी इसका शिकार हो सकता है.

यह पश्चिमी मीडिया के उस नैरेटिव के विपरीत है जो रूस से तेल ख़रीद को लेकर भारत और चीन को बदनाम करने में व्यस्त है. फाइनेंशियल टाइम्स  की रिपोर्ट में कहा गया कि “भारत और चीन ने रूस के तेल प्रतिबंधों के दर्द को कम कर दिया”. निक्की की रिपोर्ट में कहा गया कि, “भारत के रूसी तेल के आयात में पांच गुना उछाल आया है.

अमेरिका के ग्रोथ प्रोजेक्शन को लेकर कहा जा रहा है कि 5.7 प्रतिशत से इसमें 1.0 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है जो काफी है, ऐसे में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन को पता है कि उन्हें इसके लिए क्या करना है, जबकि चीन अमेरिका के आर्थिक वर्चस्व को तोड़ने के लिए तैयार खड़ा है लेकिन ऊर्जा की ऊंची क़ीमतों के कारण, यूरो क्षेत्र से संबंधित देशों में 5.2 प्रतिशत से 0.5 प्रतिशत तक की गिरावट बेहद तेज है. ऐसे में 0.3 प्रतिशत की गिरावट के साथ ब्रिटेन के लिए भी इसके प्रभाव से बचना मुश्किल होगा लेकिन यहां ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को सख़्त फैसले लेने होंगे जिसमें भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौते का विरोध करने वाले घटकों के असर को समाप्त करना अहम है. उदाहरण के लिए, आने वाली मंदी से निपटने के बजाय – तमाम नैरेटिव के बावज़ूद, यह भारत ब्रिटेन के मुक्त व्यापार समझौते के लिए आसान नहीं रहने वाला है.

सऊदी अरब, ओपेक (पेट्रोलियम निर्यातक देशों का संगठन) का नेतृत्व करने वाले और एक सदस्य देश के तौर पर एक कार्टेल जैसा क्लब है जो तेल की क़ीमतों का प्रबंधन करता है. वह कम आपूर्ति के माध्यम से तेल की बढ़ती क़ीमतों से लाभ कमाएगा लेकिन रूस की तरह ही यह थोड़े समय के लिए हो सकता है. आईएमएफ आउटलुक एक ग्रोथ स्विंग का संकेत देता है जो कमोडिटी मार्केट को उसकी अस्थिरता के लिए चुनौती देगा – तेल समृद्ध राष्ट्र 2021 के 3.2 फ़ीसदी के आंकड़े के मुक़ाबले 2022 में अपनी विकास दर को दोगुना से अधिक यानी 7.6 प्रतिशत तक देखेंगे जबकि साल 2023 में इसके फिर से 3.7 प्रतिशत तक गिरने की उम्मीद है. यह रूस से तेल सप्लाई चेन के बंद होने की क़ीमत पर अल्पकालिक लाभ कमाने का मौक़ा तो देगा लेकिन इसका मतलब यह होगा कि जब ऐसी लागतों से दुनिया की अर्थव्यवस्था धीमी हो जाएगी और एनर्जी मार्केट नीचे गिर जाएगी. लेकिन यह डाउनटाइम प्रधान मंत्री मोहम्मद बिन सलमान अल सऊद के लिए अपने विज़न 2030 के ज़रिए तेल उत्पादक राष्ट्रों के आर्थिक विविधीकरण की ओर ले जाने का एक अच्छा मौक़ा होगा.

वास्तव में रूस-यूक्रेन संघर्ष के बाद रणनीतिक हितों से प्रेरित ऊर्जा की कमी, अर्थव्यवस्थाओं को एक से अधिक तरीक़ों से प्रभावित कर रही है. रूस के तेल निर्यात के आंकड़ों का अध्ययन करने और सभी गुण के बावज़ूद, यूरो ज़ोन इसका सबसे बड़ा गंतव्य बना हुआ है. मार्च 2022 और अगस्त 2022 के बीच, यूरो ज़ोन क्षेत्र में रूसी तेल निर्यात का आंकड़ा नीचे गिर गया लेकिन यह मात्रा चीन और भारत को निर्यात किए गए तेल से अधिक बना हुआ है.

यह पश्चिमी मीडिया के उस नैरेटिव के विपरीत है जो रूस से तेल ख़रीद को लेकर भारत और चीन को बदनाम करने में व्यस्त है. फाइनेंशियल टाइम्स  की रिपोर्ट में कहा गया कि “भारत और चीन ने रूस के तेल प्रतिबंधों के दर्द को कम कर दिया”. निक्की की रिपोर्ट में कहा गया कि, “भारत के रूसी तेल के आयात में पांच गुना उछाल आया है, जिससे रूस के युद्ध के प्रयासों में मदद मिली है.” भारत विरोधी ऐसे नैरेटिव तब भी सुर्ख़ियों में बने हुए हैं जबकि यूरोपीय संघ के देश रूस की ऊर्जा ख़रीद रहे हैं. साफ है कि ये दोहरे मापदंड अपने पीछे कई सवालों को पैदा कर रहे हैं.

अगर रूसी ऊर्जा ख़रीदना यूक्रेन पर रूस के हमले की फंडिंग जैसा है, जैसा कि पश्चिमी मीडिया आउटलेट्स द्वारा ‘रिपोर्ट’ किया गया है, और रूस का बहिष्कार करना यूक्रेनी लोगों की रक्षा का जवाब है तो यूरोपीय संघ को रूसी तेल निर्यात में 35 प्रतिशत की गिरावट ना तो यहां और ना ही वहां है. यूरोप को खड़े होने और इस सवाल का जवाब देने की ज़रूरत है कि: रूसी तेल अच्छा है या बुरा? अगर यह बुरा है, तो इसे आयात करना बंद करना चाहिए. अगर अच्छा है, तो ऐसे नैरेटिव बनाना बंद करना चाहिए जो अन्य देशों को रूसी तेल ख़रीदने के लिए नैतिक रूप से शर्मिंदा करते हैं. ऊर्जा-मुद्रास्फीति संकट को लेकर जो नैरेटिव चल रहा है, वो एक बार फिर हमें पश्चिमी प्रेस की हर समाचार रिपोर्ट, विश्लेषण और राय पर सवाल उठाने के लिए मज़बूर कर रहे हैं.

भारत के वैश्विक अनुपालन को युक्तिसंगत बनाने की ज़रूरत है और उस दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं. हमें अक्सर-अप्रासंगिक 19वीं सदी की रेग्यूलेटरी सिस्टम को कम करने की आवश्यकता है जो संदेह के सिद्धांत पर टिकी है

हमारा निष्कर्ष: पश्चिमी मीडिया अब तथ्यों की रिपोर्ट नहीं कर रहा है और चीन के स्वामित्व वाले मीडिया से कहीं अलग नहीं नज़र आ रहा है. जब तक पश्चिमी मीडिया तथ्यों की रिपोर्टिंग करने और स्वतंत्र राय देने की बात नहीं करता है, तब तक हमें उन्हें गंभीरता से लेने की आवश्यकता भी नहीं है – उन्हें भारत की नीतियों में दख़ल नहीं देना चाहिए या उन्हें प्रभावित करने की कोशिश नहीं करना चाहिए. उनके अर्थशास्त्र से जुड़े रिपोर्ट दरअसल उनके भारत विरोधी राजनीतिक रुख़ का ही विस्तार है.

नैरेटिव से इतर तथ्य इस प्रकार हैं. वैश्विक विकास के दांव में, भारत सबसे कम प्रभावित क्षेत्र बना हुआ है. इसका मतलब यह नहीं है कि भारत इससे अप्रभावित रहेगा. एक अनुबंध या स्थिर यूरोपीय संघ या अमेरिका भारत के निर्यात को प्रभावित करेगा. तेल की क़ीमतों में बढ़ोतरी का नतीजा होगा कि ईंधन की क़ीमतें ऊंची होंगी. दुनिया भर में खाने पीने के सामानों की कमी भारत सहित हर जगह क़ीमतों में बढ़ोतरी करेगी. इसका नतीजा यह होगा कि हर जगह मुद्रास्फीति में तेजी आएगी. मुद्रा-मुद्रास्फीति समीकरण को प्रबंधित करने के लिए, भारतीय रिज़र्व बैंक ब्याज़ दरें बढ़ाएगा.

लेकिन खाद्य सुरक्षा और ग़रीबों को इसका वितरण प्रभावित नहीं होगा. हां, गैर उपभोक्ता उत्साह कम हो सकता है. कंपनियां निवेश को रोक सकती हैं लेकिन, अभी के लिए, भारत को बाहर से देखते हुए, चीन से बाहर जाने वाली कंपनियों को किसी गंतव्य की आवश्यकता होगी. और यह मंजिल धीरे-धीरे भारत बन रहा है; कुल मिलाकर अब तक अर्थव्यवस्था का वित्तीय प्रबंधन कुशल रहा है और निकट भविष्य में भी ऐसा बना रहेगा.

बेशक,संरचनात्मक समस्याएं हैं जिन्हें ठीक करने की आवश्यकता भी है. भारत के वैश्विक अनुपालन को युक्तिसंगत बनाने की ज़रूरत है और उस दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं. हमें अक्सर-अप्रासंगिक 19वीं सदी की रेग्यूलेटरी सिस्टम को कम करने की आवश्यकता है जो संदेह के सिद्धांत पर टिकी है और इसे 21वीं सदी के मुताबिक़ एक दूरदृष्टि ढ़ांचे के साथ बदलने की आवश्यकता है जो बड़े उद्यमों, नौकरियों, मूल्य और धन के निर्माण को सक्षम और प्रोत्साहित करता है. ऊर्जा की उच्च लागत को भी ठीक करने की ज़रूरत है. श्रम की उत्पादकता बढ़ाने की ज़रूरत है. इनक्रिमेंटल कैपिटल आउटपुट रेशियो में कमी लाने की ज़रूरत है – 3.7 से 4.8 के पिछले रुझानों को प्रतिबंधित करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि तकनीक़ प्रोडक्टिविटी हाइपरजंप को सक्षम कर सकती है.

भू-राजनीति तेजी से घरेलू अर्थव्यवस्थाओं में अपनी जड़ें जमा रहा है और अन्य सभी देशों की तरह ही, भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था द्वारा उत्पन्न बाधाओं और अवसरों के भीतर सुधारों पर जोर देना जारी रखना चाहिए. यह अतीत की चीजों पर गुमान कर आराम करने का समय नहीं है. यह वैश्विक रुझानों को समझने और चुपचाप बदलाव लाने का समय है. और हां मौज़ूदा आर्थिक वैश्विक जंग में छोटी जीत पर जश्न मनाने का भी यह वक़्त है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.