जम्मू-कश्मीर के घाटी क्षेत्र में भारतीय सुरक्षाबलों और आतंकवादियों के बीच लंबे समय से चल रहे संघर्ष के कारण राज्य में रह रहे लोगों में मानसिक स्वास्थ्य का संकट खड़ा हो गया है. मेडिसिंस सैन्स फ्रंटियर्स (एमएसएफ) इंडिया, कश्मीर यूनिवर्सिटी और इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज (इमहांस) के कश्मीर मेंटल हेल्थ सर्वे 2015 के मुताबिक, राज्य में 18 लाख कश्मीरियों में मानसिक दबाव के लक्षण दिखे थे. सर्वे से यह भी पता चला कि राज्य में 4.15 लाख लोग गंभीर मानसिक तनाव से ग्रस्त थे. इसलिए घाटी में मानसिक स्वास्थ्य में सुधार की पहल को सभी संबंधित पक्षों से जोड़कर देखा जाना चाहिए. इस संकट के कारण राज्य में प्रेस्क्रिप्शन दवाओं का इस्तेमाल भी बढ़ रहा है. कश्मीर में अवैध दवाओं की बढ़ती खपत को जहां बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी, प्रशासन की उपेक्षा और घाटी में भ्रष्टाचार से जोड़कर देखा जाता रहा है, वहीं बेंजोडियाजेपाइंस (benzodiazepines) नाम की दवाई की बिक्री और मांग में बढ़ोतरी ख़ासतौर से परेशानी की बात है. यह समस्या संघर्ष प्रभावित क्षेत्र में रहने से पैदा हुई है. यहां आम नागरिकों का राजनीतिक और सैन्य संघर्ष पर नियंत्रण नहीं है. भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर लंबे समय से विवाद चल रहा है और आतंकवाद की समस्या के कारण राज्य के रिहायशी इलाकों में भी सेना की मौजूदगी है. इन मामलों में आम लोग कुछ नहीं कर सकते, लेकिन, रोज़-ब-रोज़ की ज़िंदगी में कश्मीरियों को किस तरह के दबाव का सामना करना पड़ता है और वे किस तरह से हालात के साथ तालमेल बिठाते हैं, इसकी पड़ताल ज़रुर की जा सकती है.
पिछले साल सितंबर-अक्टूबर में इस लेखक ने पोस्ट- ग्रैजुएट रिसर्च के तौर पर 18-25 साल के कश्मीरी और ग़ैर-कश्मीरी छात्रों पर स्टडी की. इसमें पता लगाया गया कि उन्हें रोज़मर्रा की जिंदगी में जिन दबावों से गुजरना पड़ता है, उनका सामना वे किस तरह से करते हैं. स्टडी में 60 अंडर-ग्रेजुएट छात्रों को शामिल किया गया. इनमें से 30 कश्मीर और इतने ही दिल्ली के छात्र थे. स्टडी में 20 कश्मीरी छात्रों के इंटरव्यू को भी शामिल किया गया. इस स्टडी के लिए सवाल ‘सीओपीई इनवेंटरी’ के आधार पर तैयार किए गए, जिसका इस्तेमाल काफी समय से साइकोलॉजी रिसर्च में ऐसी स्थिति में निपटने के तौर-तरीकों की पता लगाने के लिए किया जाता रहा है. स्टडी में परीक्षा और आत्मीय रिश्तों के पैदा होने वाले तनाव की भी पड़ताल की गई. संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों पर ऐसी स्टडी शायद ही की गई है. इससे हमें तनाव, पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिस्ऑर्डर (पीटीएसडी) और बेचैनी के अलावा दूसरी वजहों से भी मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर का पता लगाने में मदद मिली. इंटरव्यू के दौरान कश्मीरी छात्रों ने ‘व्यवस्थित पाठ्यक्रम की कमी’ और बार-बार होने वाली हड़ताल से अटेंडेंस (हाज़िरी) संबंधी अनिश्चितताओं का ज़िक्र किया. एक छात्र ने बताया, ‘आमतौर पर साल में 250 दिन स्कूल खुले रहते हैं. इनमें से 150 दिन तो हड़ताल की भेंट चढ़ जाते हैं. हमारी स्कूली जिंदगी ऐसी ही है.’ दरअसल, कश्मीर में संघर्ष के कारण स्कूल नियमित तौर पर नहीं चल पाते. इससे छात्रों का आपस में घुलना-मिलना नहीं हो पाता. मिसाल के लिए, एक स्टूडेंट ने बताया कि जब उन्हें स्कूल में होना चाहिए था, तब वे घर में बैठकर टीवी देखकर टाइम काटने को मजबूर हैं. उन्होंने कहा, ‘हम कर्फ्यू के कारण घर से बाहर नहीं निकल सकते. ट्यूशन की व्यवस्था भी नहीं है. इसलिए घर पर पड़े-पड़े हम आलसी हो गए हैं.’ नियमित तौर पर स्कूल नहीं चलने के कारण छात्रों ने यह भी बताया कि ‘सामाजिक संरचना के कारण भी तनाव बढ़ता है.’ कश्मीरी समाज में सामूहिक हितों पर ज़ोर दिया जाता है. इससे किसी छात्र या इंसान की निजी पसंद का कोई मतलब नहीं रह जाता.
स्टडी में परीक्षा और आत्मीय रिश्तों के पैदा होने वाले तनाव की भी पड़ताल की गई. संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों पर ऐसी स्टडी शायद ही की गई है. इससे हमें तनाव, पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिस्ऑर्डर (पीटीएसडी) और बेचैनी के अलावा दूसरी वजहों से भी मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर का पता लगाने में मदद मिली.
कश्मीर में अगर किसी की मौत होती है तो मौजूदा सामाजिक ताने-बाने की वजह से वह बात हर किसी तक पहुँचती है. यह छात्रों में तनाव की बड़ी वजह बन जाता है. राजनीतिक संघर्ष और सामूहिक हितों से संबंधित सोच के बारे में छात्रों ने बताया कि उनके लिए इसकी काफी अहमियत है. राज्य में चल रहे संघर्ष और सुरक्षाबलों की व्यापक मौजूदगी के कारण युवाओं को एक दूसरे से घुलने-मिलने और नियमित तौर पर स्कूल जाने का मौका नहीं मिल पाता. इसलिए परिवार पर उनकी निर्भरता बढ़ती है. उनकी ज्यादातर बातचीत परिवार के सदस्यों से होती है. परिवार की इस भूमिका के चलते छात्र सामूहिक हितों को लेकर सजग रहते हैं और इससे कश्मीरियों में परीक्षा को लेकर तनाव भी बढ़ता है. एक छात्र ने बताया कि जब वह इम्तेहान दे रहे होते हैं तो उनका परिवार स्कूल से बाहर खड़ा रहता है. वह जैसे ही बाहर आते हैं, उनसे पूछा जाता है कि परीक्षा कैसी रही?
कश्मीर में तनाव से कैसे निपट रहे हैं लोग
छात्रों से बातचीत से पता चला कि सीओपीई इनवेंटरी में तनाव से निपटने के जो 13 तौर-तरीके दिए गए हैं, उनमें से वे चार यानी धर्म की तरफ झुकाव, स्वीकार्यता, सामाजिक समर्थन की तलाश और एवॉयडेंस (अलग-थलग रहने) – का इस्तेमाल कर रहे हैं. नीचे दिए गए चार्ट से पता चलता है कि ज्यादातर छात्रों से तनाव कम करने के लिए धर्म की तरफ झुकाव बढ़ने की बात कही है. इसके बाद दूसरा महत्वपूर्ण तरीका स्वीकार्यता बढ़ना है.
हमने छात्रों के जो इंटरव्यू किए, उससे भी बढ़ती धार्मिकता की बात सामने आई. ऐसे ही एक इंटरव्यू में जवाब मिला, ‘अगर आप अपने ख़ुदा से जुड़े होते हैं तो दिल को सुकून मिलता है. जब भी मैं कुरान पढ़ता हूं, मुझे शांति मिलती है. ख़ुदा के आगे सिर झुकाने से आप अपनी आत्मा तक पहुंच सकते हैं.’ इससे पता चलता है कि राजनीतिक संघर्ष और हिंसा से ग्रस्त समाज में धर्म की अहमियत किस कदर बढ़ती है. धर्म के साथ तनाव से निपटने के उपायों में ‘स्वीकार्यता’ का भी बार-बार जिक्र आया. इस तरीके में लोग तनावपूर्ण अंजाम की वास्तविकता को स्वीकार करते हैं, लेकिन वे उसे बदलने की कोशिश नहीं करते. छात्रों के इंटरव्यू से मिले जवाब के विश्लेषण से हमें इस मामले में ‘स्वीकार्यता’ की भूमिका का पता चला. ‘मेंटल डिसएंगेजमेंट’ यानी खुद को तनाव बढ़ाने वाली बातों से अलग-थलग कर लेने की रणनीति का इस्तेमाल भी छात्र करते हैं. इसमें जो बात परेशान कर रही हो और तनाव पैदा कर रही हो, उससे ध्यान हटाने के लिए किसी और बात या एक्टिविटी पर ध्यान दिया जाता है. फिल्म देखना इसकी मिसाल हो सकता है. कश्मीरी सैंपल से इस रणनीति के इस्तेमाल की भी जानकारी मिली. इससे पता चलता है कि कश्मीर के धार्मिक-सामाजिक संदर्भों का एक आम कश्मीरी के तनाव से क्या नाता है.
राजनीतिक संघर्ष और सामूहिक हितों से संबंधित सोच के बारे में छात्रों ने बताया कि उनके लिए इसकी काफी अहमियत है. राज्य में चल रहे संघर्ष और सुरक्षाबलों की व्यापक मौजूदगी के कारण युवाओं को एक दूसरे से घुलने-मिलने और नियमित तौर पर स्कूल जाने का मौका नहीं मिल पाता.
स्टडी के नतीजों के मायने
स्टडी के नतीजों से पता चला कि कश्मीरी छात्र किस तरह से बाहर नियंत्रण की तलाश करते हैं. राज्य में हड़ताल और कर्फ्य़ू के कारण आम इंसान की आज़ादी पर अंकुश लगता है. इससे यह भी तय होता है कि वह क्या कर सकता है और क्या नहीं. तनाव से निपटने के तरीकों की पड़ताल से भी पता चला कि लोग किसी बाहरी संस्था की मदद से तनाव कम करने की कोशिश करते हैं. जिन बातों से छात्रों में तनाव बढ़ता है, उनसे बचने के लिए वे जिन उपायों का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें देखकर यह भी लगता है कि इसके लिए छात्रों के पास सीमित विकल्प हैं. मसलन, घाटी में सिनेमा हॉल बंद हैं. आमतौर पर शहरों में मॉल्स लोगों के घूमने-फिरने और मौज़ -मस्ती का ठिकाना होता है, लेकिन कश्मीर में यह विकल्प भी मौजूद नहीं है. इंटरनेट भी ऐसा एक ज़रिया हो सकता है, लेकिन कश्मीर में कभी भी इंटरनेट कनेक्टिविटी बंद हो जाती है.
निष्कर्ष
राजनीतिक संघर्ष से पीड़ित किसी शख्स़ के पुनर्वास के लिए सिर्फ शारीरिक हिंसा से बचाव ही काफी नहीं होता, लेकिन इसके लिए यह बेशक जरूरी शर्त है. इस प्रक्रिया को ‘नकारात्मक शांति’ कहते हैं. केंद्र और राज्य सरकार को ऐसी शांति के बारे में सोचना होगा, जो ‘नकारात्मक शांति’ से आगे की चीज हो. कश्मीर में शांति कायम करने की पहल में उन्हें इस बात का ख्याल रखना होगा. कश्मीर संघर्ष का लोगों पर क्या मनोवैज्ञानिक असर हुआ है, इस पर भी गौर करना होगा. इससे राज्य में मानसिक स्वास्थ्य संकट को हल करने के लिए बेहतर प्रोग्राम बनाने में मदद मिलेगी. भले ही कश्मीर के राजनीतिक संकट का तुरंत समाधान निकलने की संभावना नहीं है, लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक और सामाजिक-धार्मिक पहलुओं को समझने से राज्य के लोगों के मानसिक स्वास्थ्य को सुधारने में काफी मदद मिलेगी. शांति पहल में अगर मानसिक स्वास्थ्य के पहलू को शामिल किया जाता है तो उससे पुनर्वास और घाटी में शांति बहाली की संभावना बेहतर होगी.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.