Author : Harsh V. Pant

Published on Sep 01, 2021 Updated 0 Hours ago

अफ़ग़ानिस्तान के पतन के लिए बाइडेन ही जिम्मेदार हैं. अक्षमता और अदूरदर्शिता के कारण खतरे को भांप नहीं पाए. अमेरिका ने दक्षिण एशिया को जिस आतंकी की भट्टी के मुहाने पर बिठा दिया है उसके बाद वाशिंगटन को विश्व स्तर पर सक्रियता के लिए कुछ नए तौर-तरीके ईजाद करने होंगे.

दक्षिण एशिया में आज जिस आतंकवाद के मुहाने पर खड़ा है, उसके लिए अमेरिका को नई-नई रणनीति पर रोक लगानी होगी

मेजर जनरल क्रिस डोनाहुए अमेरिकी इतिहास में हमेशा याद किए जाएंगे. सोमवार देर रात जब अमेरिका अपने इतिहास की सबसे लंबी लड़ाई के बाद काबुल एयरपोर्ट से सैन्य वापसी के अध्याय का समापन कर रहा था तो डोनाहुए विमान में सवार होने वाले अंतिम अमेरिकी सैनिक थे. इसके साथ ही अफ़ग़ानिस्तान में दो दशक तक चले अमेरिकी अभियान पर भी पूर्ण विराम लग गया. अमेरिका के लिए इस जंग का नतीजा यही निकला कि उसे न तो निर्णायक विजय प्राप्त हो पाई और न ही उसके नसीब में सम्मानजनक विदाई आई. अफ़ग़ानिस्तान से पलायन के अंतिम दिनों में काबुल एयरपोर्ट सहित अफ़ग़ानिस्तान के तमाम इलाकों में जो मंजर सामने आया वह अमेरिका के महाशक्ति वाले दर्जे की धज्जियां उड़ाने वाला साबित हुआ.f

वाशिंगटन की अक्षमता

गत सप्ताह काबुल एयरपोर्ट पर हुए आतंकी हमले के बाद प्रेस कांफ्रेंस में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के झुके हुए कंधे जता रहे थे कि उनके लिए यह कितनी शर्मिंदगी का सबब बन गया है. नेताओं के जीवन में कई क्षण ऐसे आते हैं जो उनकी छवि के लिए निर्णायक बन जाते हैं. बाइडेन के लिए अफ़ग़ानिस्तान से विदाई इसका पड़ाव बनी. उनकी अफ़ग़ान नीति दुविधा और अक्षमता का पर्याय बन गई. इसके संकेत मिलने भी लगे हैं. करीब 90 से अधिक सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों ने अफ़ग़ान के हालात को लेकर रक्षा मंत्री और शीर्ष सैन्य अधिकारियों के इस्तीफे की मांग की है. अमेरिका के इतिहास में यह अप्रत्याशित है. इससे बाइडेन प्रशासन पर दबाव पड़ना स्वाभाविक है. बाइडेन विमर्श पर भी अपनी पकड़ खोते गए. उनकी टीम को समझ नहीं आया कि आख़िर क्या किया जाए. अफ़ग़ानिस्तान से गरिमा के साथ विदाई सुनिश्चित कराने में वाशिंगटन की अक्षमता भविष्य की वैश्विक राजनीति में अमेरिकी किरदार को बहुत गहराई से प्रभावित करेगी.

अमेरिका के लिए इस जंग का नतीजा यही निकला कि उसे न तो निर्णायक विजय प्राप्त हो पाई और न ही उसके नसीब में सम्मानजनक विदाई आई. अफ़ग़ानिस्तान से पलायन के अंतिम दिनों में काबुल एयरपोर्ट सहित अफ़ग़ानिस्तान के तमाम इलाकों में जो मंजर सामने आया वह अमेरिका के महाशक्ति वाले दर्जे की धज्जियां उड़ाने वाला साबित हुआ.

यह सही है कि काबुल एयरपोर्ट पर हुए आतंकी हमले के दोषियों को दंडित करने के लिए अमेरिका ने उसकी जिम्मेदारी लेने वाले आईएस-खुरासान के ठिकानों पर हमले किए, मगर इसमें तालिबान के प्रति हमदर्दी और पैरवी किसी विडंबना से कम नहीं थी. वह भी तब जब धमाकों की शैली वैसी ही थी जैसी अतीत में तालिबान और हक्कानी नेटवर्क आजमाते आए हैं. दरअसल अफ़ग़ानिस्तान में आतंकियों को सत्ता सौंपने के बाद अमेरिका के लिए बस ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ आतंकी का विभेद करना शेष रह गया है. अब उसे तालिबान उदार लगता है, जो उसके अनुसार हिंसक गतिविधियों से माहौल बिगाड़ने में लगे आइएस-खुरासान जैसे धड़ों के खिलाफ संघर्षरत है. आइएस-खुरासान का अल बगदादी से कोई वास्ता नहीं. वह तो तालिबान और उन अन्य कट्टरपंथी समूहों का ही एक असंतुष्ट धड़ा है, जिन्हें पाकिस्तानी खुफ़ियाएजेंसी ने पाला-पोसा. पूरी दुनिया यह जानती है, मगर अमेरिका ने अर्से से तथ्यों को अनदेखा कर शुतुरमुर्गी रवैया अपनाने की आदत डाल ली है.

तालिबान की सभी मांगों के समक्ष वाशिंगटन का झुकना

काबुल एयरपोर्ट पर हुए आतंकी हमले की कालावधि गौर करना भी जरूरी है. यह अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए के मुखिया के गुप्त काबुल दौरे के बाद हुए. उस दौरे में सीआइए मुखिया ने तालिबान से अमेरिकियों की सुरक्षित वापसी की कार्ययोजना और ‘आतंक विरोधी’ अभियान में तालिबान के साथ मिलकर काम करने की बाइडेन प्रशासन की तत्परता पर चर्चा की. अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने बाकायदा कहा कि ऐसे संगठन के साथ अमेरिकी सरकार काम कर सकती है. यह बात अलग है कि तालिबान जैसा संगठन आतंकित करके ही शासन चला सकता है. उनके पास शासन-प्रशासन का कोई एजेंडा नहीं है. उनके पक्ष में जबरदस्त माहौल बनाने की कवायद के बावजूद उनकी करतूतें पहले से ही दिखने लगी हैं. तालिबान की सभी मांगों के समक्ष वाशिंगटन का झुकना और इस आतंकी समूह को एक तरह की क्लीन चिट देना बाइडेन प्रशासन की बेताबी को ही दर्शाता है जो स्वयं द्वारा फैलाई गई गंध को समेटने के लिए संघर्ष करता दिख रहा है.

अफ़ग़ानिस्तान से गरिमा के साथ विदाई सुनिश्चित कराने में वाशिंगटन की अक्षमता भविष्य की वैश्विक राजनीति में अमेरिकी किरदार को बहुत गहराई से प्रभावित करेगी.

अमेरिका ने न केवल एक आतंकी समूह को अफ़ग़ानिस्तान की वैध सरकार के रूप में स्थापित कर दिया, बल्कि उन्हें 21.2 करोड़ डालर के सैन्य विमान, वाहन और हथियार भी उपहार में दे दिए. बाइडेन ने सत्ता में आने से पूर्व संकेत दिए थे कि वह बहुपक्षीयता के मुद्दे पर काम करेंगे, परंतु उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान से वापसी का फैसला एकतरफा किया. इससे अमेरिका के सहयोगी ठगे से रह गए. वापसी की प्रक्रिया के दौरान भी अमेरिका के 13 सैनिक मारे गए. इतना ही नहीं उसने आम अफ़ग़ान नागरिकों को आतंक के साये में रहकर नारकीय जीवन जीने के लिए छोड़ दिया है. दो दशकों के इस संघर्ष के दौरान अमेरिका ने पाकिस्तान के दोहरे रवैये पर वार करने में हिचक दिखाई, जबकि पाकिस्तान ही अफ़ग़ानिस्तान में अलगाववाद की हवा को आग देता रहा.

दक्षिण एशिया में आतंक और हिंसा की उबाल

वही अब यह माहौल बनाने में लगा है कि तालिबान का रवैया बदला है. अपने पिट्ठू तालिबान के जरिये पाकिस्तान ने अमेरिका का सामना एक शर्मनाक पराजय से कराया. इस पाकिस्तानी दांव से दक्षिण एशिया में आतंक और हिंसा की हांडी में भी लगातार उबाल आता रहेगा. वैसे भी तालिबान जैसा अतिवाद और आतंक कुछ सीमाओं में नहीं बंधा रह सकता. कुछ ही दिनों में तालिबान ने पहले जैसे तेवर दिखाने शुरू भी कर दिए हैं. तालिबान एक आतंकी संगठन ही है जो अपने वैचारिक विस्तार में जुटा है. ऐसे में उससे अन्य आतंकी समूहों पर अंकुश की अपेक्षा रखकर अमेरिकी नीति-नियंताओं ने अपनी जनता के साथ सबसे बड़ा मजाक किया है. जहां तक आम अफ़ग़ानों का प्रश्न है तो उनके देश में आज जो कुछ हो रहा है वह पाकिस्तानी घुसपैठ का ही एक और प्रयास है जिसमें तालिबान उसका मोहरा है.

तालिबान की सभी मांगों के समक्ष वाशिंगटन का झुकना और इस आतंकी समूह को एक तरह की क्लीन चिट देना बाइडेन प्रशासन की बेताबी को ही दर्शाता है जो स्वयं द्वारा फैलाई गई गंध को समेटने के लिए संघर्ष करता दिख रहा है.

अफ़ग़ानिस्तान का पतन अमेरिकी विदेश नीति का महत्वपूर्ण संकट है और इसके लिए बाइडेन ही पूरी तरह जिम्मेदार हैं. जिस देश को 9-11 के आतंकी हमले के बाद घरेलू और बाहरी स्तर पर अप्रत्याशित समर्थन मिला था उसके दो दशक बाद वहां जबरदस्त विभाजन देखने को मिल रहा है. इस विभाजन का कारण उसका नेतृत्व ही है जो अपनी अक्षमता और अदूरदर्शिता के कारण खतरे को भांप नहीं पाया. संभव है कि काबुल में अमेरिकी पैठ पूरी तरह समाप्त न हो, परंतु अमेरिका ने दक्षिण एशिया को जिस आतंकी की भट्टी के मुहाने पर बिठा दिया है उसके बाद वाशिंगटन को विश्व स्तर पर सक्रियता के लिए कुछ नए तौर-तरीके ईजाद करने होंगे.


यह लेख दैनिक जागरण में प्रकाशित हो चुका है.

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