Author : Harsh V. Pant

Published on Sep 13, 2021 Updated 16 Days ago

आखिर में सारी बौद्धिक कसरत असली चीज़ को छुपा नहीं सकी. पुराने तालिबान की महत्वाकांक्षा के आगे तालिबान 2.0 की सोच ध्वस्त हो गई.

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के अनुमान को ग़लत साबित कर पुराना तालिबान एक फिर से खड़ा हो गया है…

मुल्ला मोहम्मद हसन अख़ुंद की अगुवाई में कट्टर अंतरिम सरकार का बनना, जिसमें अहम हिस्सेदारी तालिबान के प्रमुख सदस्यों की है, अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान के मामलों में लग रहे झटकों में सबसे ताज़ा है. 33 सदस्यों की अंतरिम सरकार में दुनिया भर के आतंकी नेतृत्व से जुड़े लोगों की भरमार है.

तालिबान ने कथित रूप से एक समावेशी सरकार का वादा किया था और कहा जाता है कि अमेरिका ने इस पर भरोसा भी कर लिया लेकिन अब जाकर उसे पता चला कि सरकार में महिलाओं और अल्पसंख्यकों को जगह देने के बदले अमेरिका के द्वारा घोषित विदेशी आतंकी संगठन हक़्क़ानी नेटवर्क के संस्थापक जलालुद्दीन हक़्क़ानी के बेटे सिराजुद्दीन हक़्क़ानी को कार्यवाहक गृह मंत्री नियुक्त किया गया है. अमेरिका का ये अपमान तब और भी बढ़ जाता है जब एक आतंकी सरकार 11 सितंबर 2001 के हमले की 20वीं बरसी के कुछ दिन पहले सत्ता संभालती है.

तालिबान की कारगुज़ारियों को लेकर कोई शक नहीं था लेकिन अमेरिकी नौकरशाही की भूल-भुलैया में उम्मीद कभी ख़त्म होने का नाम नहीं लेती. अमेरिकी अधिकारियों की सोच थी कि आईएसआईएस-के के ख़िलाफ़ अभियान में तालिबान का साथ मिलेगा और इस सोच को गंभीरता से लिया गया. जब ये पूछा गया कि क्या तालिबान दुश्मन है तो बाइडेन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने बताया कि “उस को किसी ख़ास श्रेणी में रखना मुश्किल है” क्योंकि अमेरिका को अभी तक “ये देखना बाक़ी है कि जब अफ़ग़ानिस्तान पर पूरी तरह से तालिबान का नियंत्रण है तो वो क्या करने जा रहा है.” साफ़ तौर पर तालिबान के ख़िलाफ़ पिछले दो दशकों की लड़ाई के बावजूद अमेरिका अभी तक ये नहीं समझ पाया है कि अफ़ग़ानिस्तान पर पूरा कब्ज़ा होने के बाद वो क्या करने वाला है.

तालिबान की कारगुज़ारियों को लेकर कोई शक नहीं था लेकिन अमेरिकी नौकरशाही की भूल-भुलैया में उम्मीद कभी ख़त्म होने का नाम नहीं लेती. अमेरिकी अधिकारियों की सोच थी कि आईएसआईएस-के के ख़िलाफ़ अभियान में तालिबान का साथ मिलेगा और इस सोच को गंभीरता से लिया गया. 

तालिबान उन हरकतों में व्यस्त है जिसके लिए वो जाना जाता है यानी अपने ही लोगों पर अत्याचार. अफ़ग़ानिस्तान में जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे हैं क्योंकि सामान्य अफ़ग़ान नागरिक तालिबान की क्रूरता का विरोध कर रहा है. हेरात से लेकर काबुल तक तालिबान को चुनौती के रूप में रैलियां आयोजित की जा रही हैं जिनमें ‘आज़ादी’ के नारे गूंज रहे हैं. महिलाएं भी बड़ी तादाद में बाहर निकल रही हैं ताकि वो ऐसी सत्ता में अपनी कमज़ोरी के बारे में बता सकें जहां समाज या राजनीति में उनके लिए कोई जगह नहीं है. तालिबान के सर्वोच्च नेता मावलावी हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा ने सरकार से शरिया क़ानून को कायम रखने को कहा है. तालिबान ने लोगों को प्रदर्शन को लेकर चेतावनी दी है “जब तक कि सभी सरकारी दफ़्तर खुल न जाएं और प्रदर्शन के क़ानून को लेकर स्थिति स्पष्ट न हो जाए.” इस तरह तालिबान ने साफ़ कर दिया है कि अपने शासन के ख़िलाफ़ किसी असंतोष को वो बर्दाश्त नहीं करेगा.

बाइडेन की चौतरफ़ा आलोचना

ख़राब अफ़ग़ानिस्तान नीति को लेकर बाइडेन प्रशासन को अमेरिका में आलोचना का सामना करना पड़ रहा है. ये नीति जो बाइडेन की राह में एक रोड़े की तरह बनी रहेगी. अफ़ग़ानिस्तान में इंतज़ार कर रहे चार्टर फ्लाइट में चढ़ने के लिए बेताब सैकड़ों शरणार्थियों को देखते हुए अमेरिका के सामने तात्कालिक चुनौती है. लेकिन तालिबान के द्वारा नई सरकार के ऐलान के बाद दीर्घकालीन चुनौतियां ज़्यादा बड़ी हैं. हक़्क़ानी नेटवर्क को उस वक़्त विदेशी आतंकी संगठन घोषित किया गया था जब बाइडेन उप राष्ट्रपति थे. हक़्क़ानी नेटवर्क ने अमेरिकी सेना पर कई बार हमले किए हैं और अभी भी अल क़ायदा के साथ मिल-जुलकर काम करता है. अब हक़्कानी नेटवर्क का सरगना अफ़ग़ानिस्तान का गृह मंत्री है. ख़ुद तालिबान भी अलक़ायदा और हक़्क़ानी नेटवर्क के साथ क़रीबी तौर पर मिलकर काम करता है. ऐसे में ये मान लेना कि चरमपंथी समूह व्यापक आधार वाली सरकार मुहैया कराएगा या वो शासन व्यवस्था चलाने में दिलचस्पी रखता है, इससे तालिबान से ज़्यादा ऐसा दावा करने वाले के बारे में पता चलता है.

हक़्क़ानी नेटवर्क ने अमेरिकी सेना पर कई बार हमले किए हैं और अभी भी अल क़ायदा के साथ मिल-जुलकर काम करता है. अब हक़्कानी नेटवर्क का सरगना अफ़ग़ानिस्तान का गृह मंत्री है. ख़ुद तालिबान भी अलक़ायदा और हक़्क़ानी नेटवर्क के साथ क़रीबी तौर पर मिलकर काम करता है. 

अमेरिका एक ऐसा बयान जारी करने को मजबूर हो गया है जो उसके सामने की दुविधा के बारे में बताता है. अमेरिका ने तालिबानी सरकार में शामिल “कुछ व्यक्तियों के संबंधों और ट्रैक रिकॉर्ड” को लेकर चिंता जताई है. अमेरिका ने ये भी जोड़ा है कि वो “तालिबान के शब्दों नहीं बल्कि उसके कार्यकलापों के आधार पर फ़ैसला लेगा.” लेकिन तालिबान ने अपने कार्यकलापों से साफ़ किया है कि उसने एक सैन्य जीत हासिल की है और जैसे-जैसे वो राजनीति की तरफ़ बढ़ रहा है, वो उसे भुना रहा है. कोई भी समाधान बातचीत के आधार पर नहीं होगा, बंदूक़ की नली ही राजनीतिक माहौल को तय करेगी. पंजशीर घाटी में विरोध का ध्वस्त होना इसे पूरी तरह साफ़ करता है.

अमेरिका अभी भी कुछ हद तक अपनी विश्वसनीयता बचा सकता है. लेकिन क्या उसके पास एक वैश्विक गठबंधन बनाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति है जो आतंकी सरकार को मान्यता देने से इनकार करे जिसे तालिबान अफ़ग़ानिस्तान पर थोपना चाहता है? अमेरिका को अभी भी उम्मीद है कि वो “तालिबान को अपने वादों पर कायम रखेगा” ताकि यात्रा दस्तावेज़ रखने वाले विदेशी नागरिकों और अफ़ग़ान लोगों को वो सुरक्षित बाहर निकलने दे जिनमें “वर्तमान में अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकलने के लिए तैयार विमानों को इजाज़त देना शामिल है.”

अमेरिका अभी भी कुछ हद तक अपनी विश्वसनीयता बचा सकता है. लेकिन क्या उसके पास एक वैश्विक गठबंधन बनाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति है जो आतंकी सरकार को मान्यता देने से इनकार करे जिसे तालिबान अफ़ग़ानिस्तान पर थोपना चाहता है? 

जिहादी विचारधारा की इस कथित जीत का नतीजा होगा कि दुनिया भर में हिंसक चरमपंथ में तेज़ी आएगी. चमक-दमक जो भी हो लेकिन ये किसी राष्ट्रवादी आंदोलन की जीत नहीं है. तालिबान नेतृत्व और उसके लड़ाकों की विचारधारा चरमपंथी बनी हुई है और जब तक दुनिया इस बुनियादी वास्तविकता को नहीं समझती है, तब तक उस चुनौती का एक पर्याप्त नीतिगत जवाब नहीं मिलेगा जो वक़्त के साथ और भी बढ़ने वाली है. अमेरिका की अज्ञानता के कारण मौजूदा अराजकता की स्थिति बनी है लेकिन इसका नतीजा दूर तक महसूस होगा.

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