Expert Speak Raisina Debates
Published on Mar 01, 2025 Updated 0 Hours ago

राष्ट्रपति के तौर पर एक महीने में डॉनल्ड ट्रंप ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों में निश्चितता को मटियामेट कर दिया है. भू-राजनीति की सीमाओं को बदल डाला है और उन्होंने अमेरिका की हार्ड पावर को स्याह सायों की क़ैद से बाहर निकाल लिया है

"अमेरिका फर्स्ट" या "वैश्विक शक्ति संतुलन"? ट्रंप की नीति का विश्लेषण

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एक नया भू-आर्थिक असंतुलन एक नए भू-राजनीतिक समीकरण का इंतज़ार कर रहा है. अमेरिका की 30 ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था का इस्तेमाल करते हुए राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप, अपने कार्यकाल के पहले महीने में ही अंतरराष्ट्रीय संबंधों के नए मानक गढ़ रहे हैं. इसके पीछे एक हाथ ले तो दूसरे हाथ दे का नुस्खा है. एक सुनहरे अतीत की ओर लौटने का ख़्वाब है और सीधे सपाट लहजे में बात करना इसका ऊपरी स्वरूप है. लेन-देन के मामले में टैरिफ ही ट्रंप का हथियार हैं. वो जिस सुनहरे दौर की ओर लौटने की बात करते हैं, वो ठीक वैसा ही है, जिसकी बात शी जिनपिंग चीन में और व्लादिमीर पुतिन रूस में पहले से कर रहे हैं. फ़र्क़ सिर्फ़ ये है कि ट्रंप केवल अपने घरेलू समर्थकों से दो टूक बातें कर रहे हैं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय से संवाद में भी उनका यही लहजा है.

 वो जिस सुनहरे दौर की ओर लौटने की बात करते हैं, वो ठीक वैसा ही है, जिसकी बात शी जिनपिंग चीन में और व्लादिमीर पुतिन रूस में पहले से कर रहे हैं. फ़र्क़ सिर्फ़ ये है कि ट्रंप न केवल अपने घरेलू समर्थकों से दो टूक बातें कर रहे हैं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय से संवाद में भी उनका यही लहजा है.

हक़ीक़त तो ये है कि ट्रंप अमेरिकी अर्थव्यवस्था की ताक़त का इस्तेमाल करके बाक़ी दुनिया पर इस बात का दबाव बना रहे हैं कि वो सब अमेरिका के हितों की पूर्ति करें. अगर हम ये कहें कि इसमें कुछ भी नया नहीं है, तो ग़लत नहीं होगा. हां, जो बात पहले अमेरिका दबे ढके लहजे में करता था, वही अब ट्रंप खुलकर कह रहे हैं. अमेरिका की व्यापक रणनीति हमेशा ही आर्थिक, कूटनीतिक, सामरिक, सैन्य और सूचना की ताक़त का इस्तेमाल करके अपने घरेलू हित साधने और दुनिया का एजेंडा तय करने की रही है. सुरक्षा के मामले में अगर अमेरिका संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन का इस्तेमाल करता रहा है. तो, वैश्विक स्तर पर सार्वजनिक हित के लिए वो विश्व स्वास्थ्य संगठन (WTO), विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) को अपना मोहरा बनाता रहा है, जिनके ज़रिए वो अपने राष्ट्रीय हित साधने के साथ साथ दुनिया की घटनाओं को आकार देता आया है.

 

ऐसा लगता है कि 2025 में ट्रंप की कमान में ये सब कुछ बदल रहा है. जब तीन दशक पहले 1 जनवरी 1995 को विश्व व्यापार संगठन का गठन किया गया था, तो तमाम देशों ने टैरिफ को लेकर वादे किए और व्यापार के वर्गीकरण को लेकर अपनी प्रतिबद्धताएं जताई थीं. जहां तक भारत की बात है तो आज भी वो ऐसे किसी भी सामान पर वादे से ज़्यादा कोई टैरिफ नहीं लगा रहा है. इन तीन दशकों के दौरान, भारत का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) 360 अरब डॉलर से उछलकर 4 ट्रिलियन डॉलर जा पहुंचा है. भयंकर ग़रीबी ख़त्म हो गई है और भारत ने 2047 तक प्रति व्यक्ति आय 20 हज़ार डॉलर पहुंचाने का लक्ष्य रखा है. इसी तरह चीन की बात करें तो पिछले तीन दशकों में उसकी GDP 734 अरब डॉलर से बढ़कर 19 ट्रिलियन डॉलर पहुंच चुकी है. मेक्सिको की 380 अरब डॉलर से बढ़कर 1.8 ट्रिलियन डॉलर हो चुकी है और पिछले तीन दशकों में कनाडा की GDP 605 बिलियन डॉलर से बढ़कर 2.2 ट्रिलियन डॉलर को छू रही है. शायद ट्रंप को ये लगता है कि 1995 में किए गए वादे आज 2025 में अप्रासंगिक हो चुके हैं और इसीलिए वो इस हाथ दे, तो उस हाथ ले की वकालत कर रहे हैं

 

लेकिन, पिछले तीन दशक में सिर्फ़ व्यापार और GDP में ही तब्दीली नहीं आई है. मैन्युफैक्चरिंग के गढ़ के तौर पर चीन के उभार ने व्यापार की दिशा पर असर डाला है. आज केवल चीन दुनिया के 120 से ज़्यादा देशों का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है. बल्कि, बदलाव की ये फ़्तार 2001 से 2018 के बीच बहुत तेज़ रही है. अगर शी जिनपिंग, ख़ास तौर से हुआवेई और ZTE के ज़रिए 5G के मूलभूत ढांचे के विस्तार में तकनीकी घुसपैठ को लेकर आक्रामकता नहीं दिखाते और दक्षिणी चीन सागर में छोटे देशों को नहीं डराते धमकाते तो शायद तब्दीली या ये सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी रहता. चीन की क़र्ज़ के जाल में फांसने की कूटनीति और आक्रामक कूटनीति भी बहुत उपयोगी नहीं रही है. सच तो ये है कि शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन, आज उस सारी सद्भावना से हाथ धो बैठा है, जो व्यापार और निवेश के संबंधों के लिए ज़रूरी होती है. ऑस्ट्रेलिया से अमेरिका तक, और यूरोपीय संघ से लेकर भारत तक आज तमाम परिचर्चाएं चीन से दूरी बनाने या फिर उसके साथ व्यापार का जोखिम कम करने के इर्द गिर्द ही घूमती हैं. अगर ट्रंप, टैरिफ युद्ध के ज़रिए व्यापार के ख़िलाफ़ कड़ा रुख दिखाते हैं और जिनपिंग ऐसा नहीं करते, तो व्यापार का पलड़ा चीन की तरफ़ और भी झुक जाएगा.

 अगर ट्रंप, टैरिफ युद्ध के ज़रिए व्यापार के ख़िलाफ़ कड़ा रुख दिखाते हैं और जिनपिंग ऐसा नहीं करते, तो व्यापार का पलड़ा चीन की तरफ़ और भी झुक जाएगा.

जहां तक रक्षा मामलों का संबंध है, तो ट्रंप यूरोप को अपनी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उठाने का जो हुक्म दे रहे हैं वो असल में दूसरों को सीख देने के राजनीतिक दुर्गुण के जाल में फंसे यूरोपीय महाद्वीप के आख़िरी गढ़ को कुचलने जैसा ही है. चूंकि रूस आज भी यूरोप को गैस का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक देश है और जिसमें 2024 के पहले हिस्से में 11 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी भी हुई है. इस दौरान यूरोप ने सम्मेलनों में दूसरों को ख़ारिज करने और अपनी तारीफ़ में क़सीदे पढ़ने वाली रिपोर्ट तैयार करने का ही काम किया है. रूस से गैस आपूर्ति पर निर्भरता ख़त्म करने के मामले में यूरोप ने कोई प्रगति नहीं की है. यूरोप इस मामले में या तो अपनी कथनी और करनी का फ़र्क़ मिटाना नहीं चाहता, या फिर ऐसा कर पाने की हैसियत में ही नहीं है. दूसरों पर उंगली उठाने और नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाला यूरोप एक ऐसे महाद्वीप के तौर पर दुनिया के सामने बेपर्दा हो गया है, जो मूल्यों का सबक़ दूसरों को देता है, मगर ख़ुद को वैसा ही कहलाने से ख़ौफ़ खाता है. जो अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंटता है, बर्बर अप्रवासियों के आगे झुक जाता है, मगर अपने अमन पसंद नागरिकों को धमकाता है और अपने हितों के लिए भी काम नहीं करता है.

 

ट्रंप की आमद

ट्रंप ये कह रहे हैं कि, अमेरिका की तरक़्क़ी और उसके दान से पूरी दुनिया को फ़ायदा हुआ है और अब वक़्त गया है कि अमेरिका अपनी दरियादिली का इस्तेमाल भरपूर लाभ उठाने के लिए करे. दूसरे शब्दों में कहें तो सुरक्षा, व्यापार और निवेश के पुराने संबंधों को संरक्षण, टैरिफ और रिटर्न की नई सौदेबाज़ियों मेंढाला जाए. जटिल सौदेबाज़ी के ज़रिए लेन-देन अब दुनिया भर में संबंधों की धुरी बनता जा रहा है. इसमें सबसे ज़्यादा ज़ोर यूरोप को सुरक्षा प्रदान करने की आर्थिक क़ीमत पर है, और इसी बात पर यूरोप को सबसे ज़्यादा खीझ और रोना रहा है. आदत के मुताबिक़, यूरोप के नेता इसी का ढोल पीट रहे हैं. ट्रंप ने मेक्सिको, कनाडा और चीन से होने वाले आयात पर टैरिफ बढ़ा दिया है; उन्होंने भारत को दो टूक लफ़्ज़ों में बता दिया है कि वो अन्यायोचित व्यापारिक बर्ताव को बर्दाश्त नहीं करेंगे. अपनी सरहद के भीतर ट्रंप बार बार सरकार की कुशलता बढ़ाने के विभाग (DOGE) के ज़रिए जवाबदेही सुनिश्चित करने पर ज़ोर दे रहे हैं. जिसकी एक मिसाल अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय विकास के लिए एजेंसी (USAID) है. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों ही मोर्चों पर वो एक साथ काम कर रहे हैं.

बचकानी सोच वालों को इससे ज़रूर सदमा लगेगा. लेकिन, इस बदलाव के संकेत तो ट्रंप के राष्ट्रपति चुनाव जीतने से और 20 जनवरी 2025 को अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति के तौर पर कार्यभार संभालने से पहले से दिखने लगे थे. ट्रंप ने बस इतना किया है कि ख़ुद को पीड़ित बताकर रोने धोने के उलट, इसको अमेरिका के सहयोगियों और दुश्मनों के ख़िलाफ़ बराबर से हथियार बना लिया है. ट्रंप के कारनामाों ने दोस्तों और दुश्मनों के फ़र्क़ को मिटा दिया है. हर चीज़ और हर शख़्स बस उस एक सौदे से दूर खड़ा है, जिसे ट्रंप अमेरिका के हित की बात मानते हैं. इस मामले में उन्होंने यूरोपीय संघ और चीन दोनों के साथ अमेरिका के रिश्तों को एक ही पायदान पर ला खड़ा किया है; वहीं, यूक्रेन, इज़राइल, हमास को एक समतल पर ला दिया है; वहीं कनाडा, मेक्सिको और भारत को लेन-देन के बराबरी वाले मकाम पर खड़ा कर दिया है. वो पनामा और ग्रीनलैंड में भी अमेरिकी दबदबा प्रदर्शित करने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि वहां चीन और रूस की उपस्थिति का मुक़ाबला कर सकें.

रणनीति पुरानी, बस अब शोर ज़्यादा है

राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप वही कर रहे हैं, जो उनके पूर्ववर्ती अमेरिकी राष्ट्रपति करते आए थे, ताक़त का प्रदर्शन. बस एक फ़र्क़ है: सर्वसंपन्न लोगों का संरक्षण करने या फिर मुर्दालोगों को सामाजिक सुरक्षा से मदद करने के बजाय वो अमेरिका में रोज़गार बढ़ाने और निवेश आकर्षित करने पर ज़ोर दे रहे हैं. ट्रंप अपनी रणनीति को खुलकर बोल रहे हैं. पहले जैसा नहीं जब अमेरिका का डीप स्टेट पर्दे के पीछे यही सब करता था; आपको पसंद आए या नहीं, पर अब सब कुछ आपकी नज़रों के सामने हो रहा है. पहले वो खुले तौर पर अमेरिका के राष्ट्रीय हितों को परिभाषित करते हैं और उसके बाद उन्हीं मक़सदों को पूरा करने के लिए काम करते हैं.

वो पनामा और ग्रीनलैंड में भी अमेरिकी दबदबा प्रदर्शित करने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि वहां चीन और रूस की उपस्थिति का मुक़ाबला कर सकें.

रूस या चीन के साथ टकराव की बड़ी रणनीति में फर्क़ ट्रंप के उसको लागू करने के तौर तरीक़े में है. वो दुनिया में अपने क़दमों के लिए पहले स्वदेश में समर्थन जुटाते हैं. अमेरिका हो या फिर रूस और चीन कोई भी ये दावा नहीं कर सकता कि उसने अंतरराष्ट्रीय नियमों को नहीं तोड़ा है. चीन, व्यापार के नियमों और बंद बाज़ारों के नियमों का उल्लंघन पहले भी करता आया था और आज भी कर रहा है; दूसरे देशों के चुनाव में रूस की दख़लंदाज़ी; और अमेरिका द्वारा दुनिया के तमाम देशों में सत्ता परिवर्तन के अभियान, सब इसकी मिसालें हैं. 2025 तक इनको लेकर सिर्फ़ आरोप लगते थे. संकेतों में बात होती थी और ये अभियान छुपकर चलाए जाते थे. ट्रंप उनको घसीटकर सामने ले आए हैं. क्योंकि पर्दे के पीछे ये अभियान बिना किसी जवाबदेही के चल रहे थे. अब ट्रंप ने उन्हें दुनिया के सामने पूरी बेशर्मी से खोलकर रख दिया है और उठा-पटक मचा दी है. और ये सब तो ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के पहले ही महीने में हो गया है. इसके ज़रिए ट्रंप ने अगले 47 महीनों के अपने कार्यकाल में होने वाली गतिविधियों की बुनियाद रख दी है.

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