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अमेरिका-चीन में जारी सत्ता संघर्ष के बीच आतंक-निरोधी क़वायदों में वैश्विक सहयोग को और मज़बूत करना ज़रूरी है.
इत्तेफ़ाक़ की बात है कि भारत की आज़ादी के दिन यानी 15 अगस्त को ही काबुल में तालिबानी क़ब्ज़े की पहली बरसी भी है. इस बीच अमेरिकी नज़रिए से अंतरराष्ट्रीय संबंधों में आमूलचूल बदलाव दिखाई देने लगे हैं. 9/11 के बाद अमेरिका ने ‘आतंक के ख़िलाफ़ जंग’ का आग़ाज़ किया था. उस युग के बाद पहली बार इस तरह के परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं. हाल ही में काबुल के एक पॉश इलाक़े में हुए अमेरिकी ड्रोन हमले में अल-क़ायदा का मुखिया अयमान अल ज़वाहिरी मारा गया. उसके सफ़ाए के साथ ही 20 सालों से आतंक के ख़िलाफ़ जारी अमेरिकी क़वायदों का भी एक तरह से अंत हो गया. हालांकि इससे भविष्य में वैश्विक सुरक्षा ढांचे को लेकर सवाल खड़े हो गए हैं.
काबुल के एक पॉश इलाक़े में हुए अमेरिकी ड्रोन हमले में अल-क़ायदा का मुखिया अयमान अल ज़वाहिरी मारा गया. उसके सफ़ाए के साथ ही 20 सालों से आतंक के ख़िलाफ़ जारी अमेरिकी क़वायदों का भी एक तरह से अंत हो गया. हालांकि इससे भविष्य में वैश्विक सुरक्षा ढांचे को लेकर सवाल खड़े हो गए हैं.
यूनाइटेड किंगडम की प्रधान सीक्रेट इंटेलिजेंस सर्विस (जिसे MI6 के नाम से भी जाना जाता था) के मुखिया रिचर्ड मूर ने हाल ही में सार्वजनिक तौर पर बड़ा बयान दिया. मूर के मुताबिक चीन की ओर से पेश ख़तरा आज ख़ुफ़िया एजेंसियों की प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर (आतंक-निरोधी अभियानों से भी ऊपर) आ गया है. रिचर्ड मूर की ये टिप्पणी कोई अपवाद नहीं है. यूक्रेन के ख़िलाफ़ रूसी जंग के बीच उनके नज़रिए की गूंज तमाम पश्चिमी देशों की राजधानियों में भी सुनाई पड़ रही है. दरअसल ऐसी आशंकाएं हैं कि आने वाले दिनों में रूस अपनी आर्थिक सेहत के लिए चीन पर और ज़्यादा निर्भर हो जाएगा. CIA के मुखिया विलियम जे. बर्न्स ने भी आने वाले वर्षों में चीन को वैश्विक सुरक्षा का एक संक्रमण बिंदु क़रार दिया है. भले ही 2022 के नेटो सामरिक परिकल्पना दस्तावेज़ में आतंकवाद को सुरक्षा के मोर्चे पर सबसे “प्रत्यक्ष विषम ख़तरा” बताया गया है, लेकिन इसमें अफ़ग़ानिस्तान का ज़िक्र केवल एक बार किया गया है. हालांकि संयुक्त राष्ट्र की हालिया रिपोर्ट में तस्दीक़ की गई है कि तालिबानी राज में अल-क़ायदा जैसे संगठनों को एक बार फिर आसानी से पनाह मिलने लगी है.
अमेरिकी हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स की स्पीकर नैंसी पेलोसी के हालिया ताइवान दौरे से अमेरिका और चीन में तनाव का माहौल है. इस बार दोनों महाशक्तियों के बीच ज़ुबानी जंग से कहीं ज़्यादा गरमागरमी देखी गई. ताइवान के इर्द-गिर्द समुद्री इलाक़ों में युद्धाभ्यास, फ़ौजी तैनातियों और आक्रामक रुख़ का दौर रहा. इसका सियासी नतीजा भी दिखाई दिया. चीन ने अंतरराष्ट्रीय कूटनीति, सैन्य मामलों, जलवायु परिवर्तन समेत तमाम मसलों पर अमेरिका के साथ बातचीत की प्रक्रिया को रोकने का एलान कर दिया. ख़बरों के मुताबिक अमेरिकी कांग्रेस की ओर से भी अमेरिकी सुरक्षा क्षमताओं के मसलों पर चीन को सबसे आगे रखने की क़वायद लगातार जारी है. पेलोसी की यात्रा के दौरान चीनी आक्रामकता का जवाब देने के लिए अमेरिकी फ़ौजी तैनातियों से ऐसे इरादों की साफ़ झलक मिली.
पश्चिम में ‘आतंक के ख़िलाफ़ जंग’ की नीति को पृष्ठभूमि में धकेलने की क़वायद से भारत जैसे देश के लिए कई पेचीदा सवाल उभरते हैं. अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की वापसी की पूरी प्रक्रिया (दोहा में अमेरिका-तालिबान क़रार से लेकर हक़ीक़त में वापसी तक) ख़ामियों से भरी हुई थी. भारत और चीन समेत कई अन्य देशों ने अमेरिकी सुरक्षा घेरेबंदी का लाभ उठाकर अपने सामरिक मक़सद पूरे करने के लिए क्षमता निर्माण किया, नए रिश्ते और संस्थाएं तैयार कीं. बहरहाल चीन की ओर हुआ ये बदलाव निश्चित रूप से आज की भूराजनीतिक हक़ीक़तों से जुड़ता है. इसके लिए एशिया की ओर बुनियादी क्षमता के नए सिरे से जुड़ाव की दरकार है. इससे निश्चित रूप से वैश्विक स्तर पर आतंकवाद निरोधी क्षमताओं में एक बड़ा अंतर आ जाता है. सामरिक और गतिशील- दोनों रूपों में ये ख़ामी नज़र आती है. दरअसल आतंकवाद और वैचारिक चरमपंथ के ख़तरों में कमी आने की बजाए उनका और विस्तार ही हुआ है.
हाल ही में आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट (या ISIS) ने अपने सबसे सक्रिय दुष्प्रचार तंत्र अल-नाबा के ज़रिए दुनिया भर के जिहादियों से अफ़्रीका में हिजराह (जिहादी सफ़र) पर चलने की अपील की. इसके तहत जिहादियों से अफ़्रीका महादेश के पूर्वी हिस्से यानी मोज़ाम्बिक से माली, बुर्किना फ़ासो और मग़रिब के तमाम दूसरे इलाक़ों की ओर रुख़ करने को कहा गया. अफ़्रीका में इस्लामिक आतंकवाद स्थानीय जिहादी गुटों का घालमेल बनकर उभरा है. ISIS और अल-क़ायदा जैसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय संगठन इन्हें अपने पाले में करने की जद्दोजहद करते रहते हैं. आतंकी गुटों का स्थानीय तंत्र अपनी गतिविधियों के विस्तार के लिए दोनों के साथ तालमेल का दावा करता रहता है. इस तरह इन छोटे-छोटे गुटों को बाक़ी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचने और फ़ंड इकट्ठा करने के विस्तृत नेटवर्कों से वित्तीय तौर पर फ़ायदे बटोरने का मौक़ा मिल जाता है. फ़्रांस 9 सालों तक अफ़्रीका के साहेल इलाक़े में (ख़ासतौर से माली में) आतंक-निरोधी गतिविधियों से जुड़ा रहा. फ़ौज की अगुवाई वाली ये पूरी क़वायद चरमपंथियों के सफ़ाए में नाकाम साबित हुई. यही वजह है कि इस साल की शुरुआत में फ़्रांस ने वहां से रुख़सती का फ़ैसला ले लिया. फ़्रांस को डर था कि अफ़्रीका में उसकी गतिविधियों का सियासी तौर पर वही हश्र हो सकता है जो अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी क़वायदों का हुआ.
पिछले कुछ सालों में धुर दक्षिणपंथी आतंकवाद और चरमपंथ में बढ़ोतरी जैसे कुछ दूसरे रुझान दिखाई दिए हैं. इसके बावजूद इस्लामिक आतंकवाद दुनिया के सामने सबसे बड़ा और विकराल ख़तरा बना हुआ है. इस बीच आतंकवाद की रोकथाम से जुड़ी नई नीतियों और संरचनाओं ने आतंक-निरोधी क़वायद के भविष्य को लेकर एक विवादित मिसाल पेश कर दी है. इनमें फ़रवरी 2020 में अमेरिका और तालिबान के बीच क़तर में हुआ बहुचर्चित क़रार शामिल है. पाकिस्तान सालों तक अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का समर्थन करता रहा है. हालांकि आज वो भी तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) के साथ वार्ता प्रक्रियाओं में जुटा है. पाकिस्तान चाहता है कि TTP पाकिस्तानी राज्यसत्ता के ख़िलाफ़ अपनी आतंकी हरकतें बंद कर दे. अजीब विडंबना है कि सालों तक पाकिस्तानी सरपरस्ती में फलने-फूलने वाला अफ़ग़ान तालिबान इस वार्ता प्रक्रिया में मददगार बना हुआ है. मज़बूत हालत में रहते हुए सौदेबाज़ी के अपने पिछले तजुर्बे से सबक़ लेते हुए वो इस क़वायद को अंजाम दे रहा है. अफ़ग़ान तालिबान ने TTP के ख़िलाफ़ कार्रवाई के पाकिस्तानी फ़रमानों को मानने से इनकार कर दिया है. TTP के अतीत से जुड़ी हक़ीक़तों के बावजूद उसने ये क़दम उठाया है.
अमेरिका ना सही, पर चीन यहां के गुटों पर अपने रसूख़ का इस्तेमाल कर अपने हितों को आगे बढ़ा सकता है. इसके अलावा वो कुछ भौगोलिक क्षेत्रों में उलटफ़ेर करवाने का भी माद्दा रखता है. ऐसी हरकत वैश्विक स्तर पर आतंकवाद के ख़िलाफ़ बहुपक्षीय और द्विपक्षीय उपायों के लिए बड़ा झटका साबित हो सकती है.
इतना ही नहीं, सीरिया जैसे दूरदराज़ के इलाक़ों में भी ऐसी ही मिसालें सामने आ रही हैं. सीरिया में सक्रिय हयात तहरीर अल-शाम (HTS) और उसके सरगना अबु मोहम्मद अल-जोलानी भी अमेरिका के साथ सौदबाज़ी की कोशिशें कर चुका है. उसने अमेरिका के सामने HTS को विदेशी आतंकवादी संगठनों (FTOs) की सूची से बाहर करने की मांग रखी थी. ISIS के आका बग़दादी के ख़ात्मे के बाद अल-जोलानी के कई उत्तराधिकारियों का उत्तर पश्चिमी सीरिया के छोटे से भौगोलिक इलाक़े में सफ़ाया हो चुका है. ग़ौरतलब है कि इनमें से कुछ इलाक़े HTS की अर्द्ध-राज्यसत्ता के नियंत्रण में हैं. अमेरिका की अगुवाई वाले ISIS-विरोधी गठजोड़ द्वारा ISIS के इन आला लड़ाकों के ख़ात्मे के बीच अटकलों का दौर जारी है. क़यास लगाए जा रहे हैं कि क्या HTS ने ही ज़मीनी तौर पर इनके ख़िलाफ़ ख़ुफ़िया जानकारियां मुहैया कराई थीं! ज़वाहिरी के मारे जाने को लेकर भी विश्लेषक इसी तरह के आकलनों पर विचार कर रहे हैं: क्या ज़वाहिरी को तालिबान के भीतर से ही किसी ने धोखा दिया या अमेरिका से रियायत हासिल करने के लिए पाकिस्तानी फ़ौज ने उसका भांडा फोड़ दिया! अमेरिका ना सही, पर चीन यहां के गुटों पर अपने रसूख़ का इस्तेमाल कर अपने हितों को आगे बढ़ा सकता है. इसके अलावा वो कुछ भौगोलिक क्षेत्रों में उलटफ़ेर करवाने का भी माद्दा रखता है. ऐसी हरकत वैश्विक स्तर पर आतंकवाद के ख़िलाफ़ बहुपक्षीय और द्विपक्षीय उपायों के लिए बड़ा झटका साबित हो सकती है. निश्चित रूप से आतंकवाद के ख़िलाफ़ चलाई गई अब तक की मुहिमों ने बड़ी ख़ामियों के बावजूद कई उपयोगी परिणाम दिए हैं.
यूक्रेन युद्ध और ताइवान को लेकर जारी तनाव के चलते अमेरिका और चीन के बीच महाशक्ति बनने की प्रतिस्पर्धा के बारे में कुछ भी अनुमान लगा पाना पहले से ज़्यादा पेचीदा हो गया है. इस पूरी क़वायद में क्षमताओं और सियासी प्रतिबद्धताओं का ज़बरदस्त इम्तेहान होने वाला है. इस कड़ी में चीन साफ़ तौर से आतंक-निरोधी अभियान को भूराजनीतिक औज़ार के तौर पर देखता है. चीन ने 2020 में पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामिक आंदोलन (ETIM) को आतंकी सूची से बाहर करने के अमेरिकी फ़ैसले की आलोचना की थी. चीन का ये रुख़ शायद जायज़ भी था. हालांकि चीन ने भी इस साल संयुक्त राष्ट्र में आतंकवादी अब्दुल रहमान मक्की के ख़िलाफ़ भारत और अमेरिका के साझा प्रस्ताव में अड़ंगा लगा दिया. मक्की लश्कर-ए-तैयबा के आका और 26/11 आतंकी हमलों के मास्टरमाइंड हाफ़िज़ सईद का रिश्तेदार है. चीन और अमेरिका के बीच सामरिक हितों पर होने वाले टकरावों का आतंक-निरोधी भूराजनीति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा.
अफ़ग़ानिस्तान में भारी झटकों के बावजूद आतंक-निरोधी क़वायदों (मसलन ISIS के ख़िलाफ़) के सकारात्मक नतीजे सामने आए हैं. इस सिलसिले में परंपरागत सैनिक कार्रवाइयों के साथ-साथ अनेक मोर्चों पर तकनीक आधारित युद्ध के ग़ैर-परंपरागत तौर-तरीक़े भी इस्तेमाल में लाए गए हैं. अमेरिका और चीन के बीच महाशक्ति बनकर उभरने की तमाम रस्साकशियों के बीच वैश्विक स्तर पर आतंक-निरोधी उपायों में सहयोग बनाना लाज़िमी हो जाता है. हिंसक उग्रवाद के ख़िलाफ़ बुनियादी क़वायदों को और मज़बूत करना निहायत ज़रूरी है. अल्पकालिक फ़ायदों के लिए इन प्रयासों को सियासी रंग देकर बेअसर बनाना कतई मुनासिब नहीं होगा.
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Kabir Taneja is a Deputy Director and Fellow, Middle East, with the Strategic Studies programme. His research focuses on India’s relations with the Middle East ...
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