डोनल्ड ट्रंप के लिए ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि अमेरिका में बहस करने वाला समाज या तो उनसे शी जिनपिंग से ज़्यादा नफ़रत करता है या फिर ट्रेड वॉर (व्यापार युद्ध) में शिनपिंग के समर्थन में खड़ा होकर उनका उत्साह बढ़ा रहा है.
पिछले हफ़्ते जब ट्रंप ने क़रीब 14 लाख करोड़ रुपये की क़ीमत के चीनी आयात पर टैरिफ़ (सीमा शुल्क) 10 से बढ़ाकर 15% कर दिया, तब नज़र ख़ासतौर से इस बात पर थी कि तुरंत ही इसकी क्या प्रतिक्रिया होने वाली है. जैसे स्टॉक मार्केट और सोयाबीन के किसानों पर होने वाला असर, लेकिन फ फोकस रणनीतिक वजहों पर नहीं था, सवाल है कि आख़िर ऐसा क्यों?
मुख्य़धारा की बातचीत में एकतरफ़ा नरेटिव (घटनाओं को बताने का एक चुनिंदा तरीका) ग़लत है, भले ही वो बात दिल को छू ले जाने वाली हो, लेकिन इसका एक बड़ा कारण ट्रंफ के ट प्रति लोगों की नापसंदगी भी है. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप और घरेलू नीतियों को नापसंद करने की कई वजहें हैं, लेकिन वो चीन के मामलों में सही साबित होते हैं.
इस बहस में आमतौर पर मुख़्य बिंदुओं को छोड़ दिया जा रहा है, फिलहाल अमेरिकी उपभोक्ताओं को इसकी जो क़ीमत अदा करनी पड़ रही है वो अस्थाई है, लेकिन अगर ये ज़्यादा भी हैतो चीन को और बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है और ये क़ीमत चीन के लिए स्थायी भी हो सकती है, क्योंकि दूसरे देश इससे पैदा हुए खालीपन को भर रहे हैं. लेकिन, चीन को सबूतों के बावजूद अमेरिकी शिक्षाविदों, पूर्व अधिकारियों, थिंक टैंक और मुख्य़धारा के पत्रकारों की हमदर्दी मिल रही है. ये आसाधारण है कि — शी जिनपिंग को कॉन्संट्रेशन कैंप (चीन के बेघर मुसलमानों को ऐसे कैंप में रखा जाता है) और क़र्ज़ के जाल में फंसाने वाली कूटनीति के बावजूद कुछ हद तक छूट मिल जाती है.
पूर्व अमेरिकी राजनयिक रिचर्ड हास जो अब काउंसिल ऑन फ़ॉरेन रिलेशन के अध्यक्ष हैं, ने ट्विटर पर कहा: “इस बात पर ज़ोर देना कि चीन सब्सिडी घटा ले, उसे ये कहने जैसा है कि वो अपनी अर्थव्यवस्था के मॉडल को बदल ले और बेरोज़गारी बढ़ने के ख़तरे को दावत दे, ये कामयाब नहीं होने वाला. ये इसलिए भी ढोंग है क्योंकि न अमेरिकी सरकार अपनी सब्सिडी ख़त्म करेगी न बोइंग से खरीददारी. व्यापारिक बातचीत के लिए गंभीर एजेंडा होना चाहिए जिस पर नेगोसिएशन यानि मोलभाव किया जा सके.”
यहां बात करने के लिए बहुत कुछ है लेकिन, ज़मीनी स्तर पर चीन का इकोनॉमिक मॉडल समस्या है और दूसरों को नुकसान पहुंचा रहा है, इसके आगे, एयरबस के जवाब में बोइंग के पार्ट को सब्सिडी देने और चीन जो हर चीज़ में छूट देता है, उसमें बड़ा फ़र्क़ है. चीन की नीति सब्सिडी यानि छूट की रही है, चाहे वो कच्चा माल हो या फिर तैयार माल, हाइटेक इंडस्ट्री से लेकर भविष्य के प्रोडक्ट तक सब कुछ. लेकिन, बहुत सारी बातचीत इस दिशा में भी है, जो चीन को या तो वास्तविक बाज़ार अर्थव्यवस्था या निष्पक्ष व्यापारी के रूप में मानती है.
जिस नेगोशिएबल यानि मोलभाव वाले एजेंडे की बात हास कर रहे हैं उसका मतलब होगा सरेंडर करना. इससे आख़िरकार ये होगा कि शी को घरेलू दबाव और भगवान न करे कि सियासी विरोध का सामना करना पड़ सकता है इसलिए शी जिनपिंग के लिए इसे मुश्किल न बनाएं. चीन के सेंचुरी ऑफ़ ह्यूमिलिएशन (पश्चिमी देशों और जापान के द्वारा किए गए अपमान का लंबा समय) का सम्मान करना चाहिए, उन्हें नाक कटवाने के लिए मज़बूर न करें क्योंकि ये अब उनका समय है.
ज़्यादातर विश्लेषण जो या तो पढ़ा जा रहा है या रेडियो और टेलीविज़न के ज़रिए सुने जा रहें हैं, उसका फोकस या तो व्यापार को लेकर किए गए ट्रंप के ट्वीट की तथ्यात्मक ग़लतियों पर है, या फिर उस दर्द पर है जो इस व्यापारिक मुक़ाबले के चलते अमेरिकी किसानों और व्यापारियों को सच में (अस्थाई रुप से) हो रहा है.
लेकिन बड़ी शक्तियों के बीच होने वाली कौन सी होड़ है जिसमें पेन यानी दर्द नहीं उठाना पड़ता? ट्रंप का दांव उन बहुसंख्यक अमेरिकियों पर है जो चीन को लेकर चिंतित हैं. 2018 के एक प्यू सर्वे से पता चलता है कि ये चिंता कितनी गहरी है — अमेरिका का चीन के साथ व्यापारिक घाटा (82%), चीन के द्वारा अमेरिका को दिया गया क़र्ज़ (89%), साइबर अटैक (87%), चीन की वजह से नौकरियों का नुकसान (83%) और उनकी मानवाधिकार नीतियां (79%). कई डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति उम्मीदवारों के पास चीन के लिए कहने को कुछ ज़्यादा नहीं है और ये विदेश नीति का ऐसा मुद्दा है जो उन्हें भारी पड़ सकता है. बर्नी सैंडर्स ने कम से कम ट्विटर पर कई बार चीन का ज़िक्र किया लेकिन बाकी लोग इस मुद्दे पर चुप ही रहे. कुल मिलाकर मुख्य़धारा में हो रही बहस को देखें तो कभी-कभार ही इस संदर्भ या इतिहास की पड़ताल की जाती है कि अमेरिका, चीन के रिश्ते इस टिपिंग प्वाइंट यानी उस स्तर पर क्यों पहुंच गए हैं, जहां से अब ऊपर नहीं जाया जा सकता. वो इस बात पर ज़ोर देते रहते हैं कि ट्रंप प्रशासन हाथ धोकर चीन के पीछे पड़ा है लेकिन इसकी वजह को वो आसानी से नहीं समझा पा रहे हैं. जबकि ये बात उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा के दस्तावेजों और रिपोर्ट्स में कई बार कही है.
अमेरिकी सरकार की वेबसाइट्स चाहे वो व्हाइट हाउस, यूएस ट्रेड रिप्रंजेंटेटिव, डिपार्टमेंट ऑफ़ डिफ़ेंस या कॉमर्स डिपार्टमेंट हों, सभी चीन के ख़िलाफ़ चलाए जा रहे अभियान से जुड़ी रिपोर्ट, सबूत, इतिहास से भरी पड़ी हैं.
अमेरिका और चीन के बीच हाल में हुई व्यापारिक भिड़ंत में ये हुआ — चीन ने समझौते के मसौदे में बदलाव किया, जिस पर दोनों पक्ष सहमत थे और दस्तख़त करके जश्न मनाने को तैयार थे लेकिन ज़ाहिर है कि इससे ताज़ा बातचीत टूट गई.
चीन के नेगोशिएटर यानि वार्ताकार ल्यू-हे ने पत्रकारों से बाद में कहा कि उन्हें लगा कि कि, अंतिम समझौते पर दस्तख़त करने से पहले मसौदे को बदलना दूसरे पक्ष को पूरी तरह से स्वीकार होगा. ये या तो बहुत गहरी चालाकी है या फिर बेवक़ूफ़ी — आप इनमें से अपने हिसाब से कुछ भी चुन सकते हैं, या फिर शायद शी की टीम वही पुरानी चीज़ दोहराने की कोशिश कर रही है, जो चीनी अधिकारी अमेरिकी प्रशासन और दूसरे देशों के साथ लंबे समय से करते आ रहे हैं.
उन्हें लगा कि अमेरिकी किसी भी सूरत में डील के लिए बेक़रार हैं क्योंकि सोयाबीन, किसानों को नुकसान हो रहा है, बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियां इस गतिरोध से हैरान-परेशान हैं, ऐसे में वही पुराना खेल खेलने में कोई नुकसान नहीं है वो ये नहीं समझते कि इस प्रशासन में ऐसे लोग हैं जो चीन को एक अलग ही स्तर का ख़तरा मानते हैं और ट्रंप अपने दोषपूर्ण, अनाड़ी और अक्सर परस्पर विरोधी तरीकों से आगे बढ़ने को तैयार हैं, चाहे कुछ भी हो जाए.
अमेरिका के विदेश मंत्रालय के अंतर्गत पॉलिसी प्लानिंग की डायरेक्टर किरॉन स्कीनर ने हाल ही में कहा कि ट्रंप प्रशासन गहराई से चीन के लिए एक रणनीति तैयार करने में लगा है, जिसकी पीछे सोच ये है कि ये अमेरिका के इतिहास में पहली बार एक अलग तरह के सिविलाइजेशन (सभ्यता) के ख़िलाफ़ लड़ाई है.
वो कहती हैं कि सोवियत संघ के ख़िलाफ़ शीत युद्ध “पश्चिमी परिवार” के बीच की लड़ाई थी जबकि, ये मुक़ाबला अलग है, मानवाधिकार के मामले में चीन उतना असुरक्षित नहीं लगता जिनता सोवियत संघ था, वो इस बात में सही हो सकती हैं.
चीन मानवाधिकार के मोर्चे पर इसे सिरे से ख़ारिज कर देगा लेकिन ये भी उतना ही सच है कि सऊदी अरब और पाकिस्तान जैसे मुस्लिम देश बेघर मुसलमानों के लिए बने कॉन्संट्रेशन कैंप की आलोचना न करके बीजिंग की नीतियों को वैधता प्रदान करते हैं, जैसे वो इस बारे में कुछ जानते ही नहीं हों. यहीं ट्रंप की नीति में ख़ामी है, उन्हें ऐसे देशों के साथ गठजोड़ करना चाहिए जो चीन के ख़िलाफ़ निर्णायक लडा़ई में उनके साथ खड़े होना चाहते हैं, बजाय इसके उन्होंने व्यापार को लेकर कनाडा, यूरोपीय यूनियन, जापान, दक्षिण कोरिया और भारत से लड़ाई मोल ली है.
ट्रंप के ट्रेड वॉर का चीन की अर्थव्यवस्था पर और बड़ा असर हो रहा है, चीन का निर्यात और औद्योगिक उत्पादन पहले ही बुरे दौर से गुज़र रहा है और उसका विकास मॉडल ख़तरे में है. ट्रंप की रणनीति है कि चीन के सुपरपपॉवर के तौर पर उभरने की रफ़्तार धीमी की जाए, क्योंकि आर्थिक ताक़त ही सैन्य ताक़त में तब्दील होती है और आखिरकार इससे ही सबसे ज़्यादा प्रभुत्व वाला दर्जा हासिल होता है. वो लोग जिन्हें चीन के बर्ताव में पैटर्न यानि एक ख़ास तरीका नहीं दिखता है वो या तो अनजान बनने की कोशिश कर रहे हैं या देख ही नहीं रहे हैं.
ट्रंप और उनकी टीम फिलहाल चीन को ये सुख देने के लिए तैयार नहीं हैं, पता नहीं कि ये दबाव बना रहेगा या नहीं लेकिन अभी तो वो इस पर मज़बूती से खड़े हैं.
हांलाकि, चीन अपने मॉडल पर बने रहने के लिए लंबे समय तक लड़ेगा, उसका मॉडल है — इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी यानि बौद्धिक संपदा की चोरी करना, निर्भरता पैदा करना, निर्दयता से अंतरराष्ट्रीय संस्थानों का इस्तेमाल करना, घरेलू बाज़ार और अर्थव्यवस्था के तौर तरीकों में बड़ा बदलाव नहीं करना और समय हासिल करने के लिए चीज़ों को देर तक टालते रहना.
लेकिन चीन के पास यथास्थिति को बनाए रखने के लिए सारे कार्ड नहीं हैं, इस ट्रेड वॉर की क़ीमत अमेरिकी किसानों को अकेले नहीं चुकानी पड़ेगी, चीनी भी एक हद तक इसकी क़ीमत चुकाएंगे और चीन का पेन (दर्द) दूसरों के लिए गेन (फ़ायदेमंद) साबित हो सकता है.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.