Published on Jun 26, 2020 Updated 0 Hours ago

भारत के कोरोना वायरस के प्रकोप से निपटने के तौर तरीक़ों का पश्चिमी मीडिया ने जिस तरह से कवरेज किया है, वो पश्चिमी देशों द्वारा पूर्वी सभ्यताओं को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति की एक और मिसाल है.

कोविड-19 का पश्चिमी मीडिया में कवरेज: पूरब के देश भारत की छवि बिगाड़ने की कोशिश

पूर्वी देशों के उदय के साथ ही वैश्विक व्यवस्था और शक्ति संतुलन में बदलाव आ रहा है. इस परिवर्तन ने पश्चिमी देशों की परिकल्पनाओं, व्याख्यानों और स्वयं की पहचान बनाए रखने की प्रक्रियाओं को भी बदलना शुरू कर दिया है. इसमें से एक बात जो प्रत्यक्ष रूप से स्पष्ट है, वो ये है कि दुनिया के राजनीतिक परिदृश्य में हो रहे इस परिवर्तन के कारण पश्चिमी मीडिया ने पूर्वी सभ्यताओं को हेय दृष्टि से देखने की अपनी प्रवृत्ति का बार- बार इस्तेमाल करना आरंभ कर दिया है. ये उपनिवेशवादी दिनों की याद दिलाता है, जब पश्चिमी देश ख़ुद को सभ्य और पूर्वी देशों को असभ्य और ज़ाहिल कहते थे. और उनका दावा था कि वो इन ‘राक्षसी सभ्यताओं को सुधारने का बोझ’ उठा रहे हैं.

पश्चिमी देशों द्वारा पूर्वी सभ्यता को नीचा दिखाने की इस आदत को एक ख़ास तरीक़े से पेश किया जा रहा है. ताकि पूर्व निर्धारित आर्थिक और राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक संवाद को ये देश अपने हाथों में रख सकें. और, स्वयं को पूर्वी देशों से श्रेष्ठ साबित कर सकें.

पश्चिमी देशों में पूर्वी सभ्यताओं को कम करने आंकने, उन्हें नीचा दिखाने और बदनाम करने की आदत बेहद आम हो गई है. और शायद ये पश्चिमी देशों की ऐसी कोशिश है, जिसमें वो इस मुश्किल समय में ख़ुद को दूसरों से भिन्न दिखाने का पुरज़ोर प्रयास कर रहे हैं. और इससे भी घातक बात ये है कि पश्चिमी देशों द्वारा पूर्वी सभ्यता को नीचा दिखाने की इस आदत को एक ख़ास तरीक़े से पेश किया जा रहा है. ताकि पूर्व निर्धारित आर्थिक और राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक संवाद को ये देश अपने हाथों में रख सकें. और, स्वयं को पूर्वी देशों से श्रेष्ठ साबित कर सकें. सरल शब्दों में कहें, तो पश्चिमी देश पूर्वी सभ्यताओं को पतन की राह पर अग्रसर बताकर ख़ुद को उनसे बेहतर दिखाने का प्रयास कर रहे हैं.

अपने बढ़ते आर्थिक प्रभाव (महामारी के बावजूद), वैश्विक मामलों में अधिक भागीदारी और एक उभरती हुए राष्ट्र की मज़बूत पहचान (जिसके कट्टर समर्थक भी हैं और तीखे विरोधी भी हैं) के साथ भारत की गतिविधियां और नीतियों की अक्सर अटलांटिक सिस्टम के उदारवादी मीडिया द्वारा बारीक़ी से और अक्सर आलोचनात्मक समीक्षा होती है. अपने आप में ये बात बिल्कुल व्यवहारिक भी है और इसमें चौंकाने वाला भी कोई पहलू नहीं है.

लेकिन, इसमें परेशान करने वाली एक बात है. लगभग हर पश्चिमी देश का मीडिया एक सुर से भारत की नकारात्मक और विद्वेषपूर्ण छवि बनाने की कोशिश में जुटा हुआ है. पश्चिम का मीडिया एक ऐसे देश की नकारात्मक छवि बना रहा है, जो अपनी लोकतांत्रिक राजनीति पर गर्व करता है (जैसा कि कई अन्य देश करते हैं.) जिस देश में एक मज़बूत, असरदार और आक्रामक मीडिया है. और जिस देश में कई बार समुदायों ने ऐसे आंदोलन खड़े किए हैं, जिन्होंने सरकारों को बदल दिया है. साथ ही साथ इस देश में ऐसे भी आंदोलन हुए हैं, जिनके कई बार बेहद ख़राब नतीजे भी निकले हैं. निश्चित रूप से भारत एक परिपूर्ण राष्ट्र नहीं है. ये मोटे तौर पर कम आमदनी वाला देश है. इसकी कमज़ोरियों की अपने ही भीतर खुल कर चर्चा होती है. और वैश्विक मंचों पर भी भारत का बार बार आकलन किया जाता है. पश्चिम के उदारवादी मीडिया की भारत के प्रति नग्न आक्रामता के बारे में जो बात सबसे अधिक चौंकाती है, वो ये है कि पश्चिम का मीडिया अपनी घरेलू परिचर्चाओं और अन्य देशों के घरेलू विवादों को बिल्कुल अलग अलग तरीक़े से आंकने का काम करता है. पश्चिमी मीडिया, भारत व अन्य पूर्वी देशों के बारे में समीक्षा करने के दौरान ये अफ़सोस जताता दिखता है कि एक दौर में वो किस उच्च स्तर पर थे. और इसी के साथ वो अपनी शिकायतों का ठीकरा बाहरी ताक़तों पर फोड़ देते हैं. साथ ही साथ वो अन्य देशों के अंदरूनी मतभेदों को ठीक उसी तरह के हथिययारबंद संघर्ष के तौर पर पेश करते हैं, जिस तरह के संघर्ष की ख़ुद उनके दक्षिणपंथी आकांक्षा रखते हैं.

कई बार, भारत की छवि को इस तरह नीचा दिखा कर पेश करने ये कोशिश पत्रकारों की या फिर संपादकीय लापरवाही का नतीजा भी हो सकती है. जब भी ऐसा हो तो, तो इसकी खुल कर आलोचना होनी चाहिए. और अब ऐसी प्रवृत्ति का खुल कर सामना करने का सही समय आ गया है. भारत के बारे में घटिया जुमले गढ़ना, और उसके अंधकार भरे भविष्य की तस्वीर पेश करना, पश्चिमी मीडिया की आदत बन चुकी है. लेकिन, भारत की कमियों को उजागर करने के बजाय ये पक्षपात भरा कवरेज असल में पश्चिमी मीडिया संगठनों की अपनी बीमारियों को उजागर करता है. ख़ास तौर से तब और जब पश्चिमी मीडिया संपादकीय और मालिकाना संरचना से परे आज के दौर में डिजिटल और विकेंद्रीकृत दुनिया की हक़ीक़तों का सामना करने की ओर बढ़ रहे हैं. पश्चिम के मीडिया ने भारत के कोविड-19 की चुनौती का सामना करने की जिस तरह से कवरेज की है, उसने पश्चिमी मीडिया के एक तबक़े के दिल में भारत के प्रति छुपी नफ़रत और ज़हरीली सोच को खुल कर सामने ला दिया है.

पिछले दो महीनों में बीबीसी, द अटलांटिक, द वॉशिंगटन पोस्ट और द न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे पश्चिमी मीडिया ने कोविड-19 की महामारी से निपटने की क्षमताओं और तैयारियों को लेकर लगातार भारत को कम करने आंकते हुए पेश किया है. अगर हम ईमानदारी से कहें, तो पश्चिम का मीडिया भारत प्रति पक्षपात भरा और उकताया हुआ दिख रहा है

पिछले दो महीनों में बीबीसी, द अटलांटिक, द वॉशिंगटन पोस्ट और द न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे पश्चिमी मीडिया ने कोविड-19 की महामारी से निपटने की क्षमताओं और तैयारियों को लेकर लगातार भारत को कम करने आंकते हुए पेश किया है. अगर हम ईमानदारी से कहें, तो पश्चिम का मीडिया भारत प्रति पक्षपात भरा और उकताया हुआ दिख रहा है. भारत के बारे में भयावाह तस्वीर पेश करने वाले लेख (एक लेख में परिकल्पना की गई थी कि भारत की आधी आबादी कोरोना वायरस से संक्रमित हो जाएगी) से लेकर, भारत सरकार की शक्ति और क्षमताओं का मज़ाक़ उड़ाने तक, पश्चिम के मीडिया ने भारत की जानी मानी सामाजिक असमानताओं को उजागर करते हुए, उसकी मुश्किलों से लुत्फ़ लेने की लगातार कोशिश की. इस दौरान पश्चिम के उदारवादी मीडिया का ज़ोर लगातार, इस महामारी से लड़ने में भारत की कमियों और कमज़ोरियों को ही उजागर करने पर ही रहा. और भारत को नीचा दिखाने वाली ऐसी कवरेज को और सजाने धजाने के लिए पश्चिम के मीडिया ने बड़ी चालाकी से कुछ ख़ास घटनाओं और तथ्यों को अपने हित में इस्तेमाल किया. इस दौरान उन्होंने बार बार भारत की ग़रीबी, अक्षमता और वंचितों की तस्वीरों को सजा कर पेश किया. और, भारत को बार बार नसीहत देने की कोशिश की.

भारतीय समाज के हाशिये पर पड़े तबक़ों और आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शक्ति से वंचित प्रवासी कामगारों की तस्वीरों को बार बार दिखाया गया. इसके साथ पश्चिमी मीडिया ने अपने समाज में समानता, सौहार्द और सभी नागरिकों के सम्मान के मूल्यों को भारत के बरक्स खड़ा किया. जो उनके हिसाब से सभ्य समाज के आधार हैं. पश्चिम के मीडिया द्वारा गढ़ी गई इस छवि से जान बूझ कर उस सार्वभौम सहमति की अनदेखी करने का प्रयास किया गया, जिसका मक़सद दुनिया के सभी नागरिकों को समान अधिकार और समान अवसर देना था. इसके उलट, पश्चिम के मीडिया ने भारत के बारे में ये तस्वीर बनाकर बेवजह ही अधिकार प्राप्त तबक़े और वंचित तबक़े के बीच दरार डालने का काम किया. जबकि, उसे करना तो ये चाहिए था कि वो भूमंडलीकरण और विकास के प्रचलित आर्थिक मॉडल की नाकामियों बारे में लाभकारी परिचर्चा छेड़ता. जबकि, इस महामारी ने दुनिया में असमानता को खुल कर उजागर कर दिया है.

भारत के बारे में पश्चिमी मीडिया की ऐसी छवि गढ़ने के पीछे का मक़सद, भारत के भीतर तमाम सामाजिक वर्गों की असमानताओं को उजागर करना भर नहीं है. क्योंकि, असमानता तो पूरी दुनिया में देखने को मिल रही है. और ख़ास तौर से पश्चिमी देशों में तो ये हाल में और उजागर हो गई है. पश्चिम के मीडिया का भारत की ख़राब छवि गढ़ने का ये प्रयास असल में ख़ुद को सभ्य देश के तौर पर पेश करके उससे दूरी बनाने का है. इसका मक़सद पश्चिम के संपादकों, प्रकाशकों और संवाददाताओं को नैतिक रूप से भारत से श्रेष्ठ साबित करने का है. भारत और उसकी बड़ी आबादी की छवि को पश्चिम से बिल्कुल अलग करके पेश किया जा रहा है. जबकि ठीक उसी समय पश्चिमी सभ्यता के गढ़ कहे जाने वाले न्यूयॉर्क में ये महामारी क़हर बरपा रही है.

भारत की ख़राब छवि पेश करने वाली ज़्यादातर ख़बरें भारतीय मूल के लेखकों ने लिखी हैं. ये पश्चिमी मीडिया का पुराना नुस्खा है. पूर्वी सभ्यता से संबंध रखने वाले लेखकों से उन्हीं देशों की छवि धूमिल करने वाले लेख लिखवाओ

इत्तिफ़ाक़ से और उम्मीद के मुताबिक़, भारत की ख़राब छवि पेश करने वाली ज़्यादातर ख़बरें भारतीय मूल के लेखकों ने लिखी हैं. ये पश्चिमी मीडिया का पुराना नुस्खा है. पूर्वी सभ्यता से संबंध रखने वाले लेखकों से उन्हीं देशों की छवि धूमिल करने वाले लेख लिखवाओ. और, जब किसी मीडिया या प्रकाशक पर नस्लवाद या गोले काले का भेद लगता है, तो वो आराम से इससे पल्ला झाड़ लेते हैं. जबकि ऐसे लेखों में नस्लवादी बातें भरी पड़ी रहती हैं. नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन और मशहूर अफ्रीकी राजनीतिक विचारक फ्रैंज फैनन ने कई बार ये तर्क दिया है कि कई सदियों की साम्राज्यवादी गुलामी और सांस्कृतिक सबक़ पढ़ने के कारण, पूर्व उपनिवेशों के लोगों की ख़ुद की छवि पर गहरा प्रभाव पड़ा है. इसीलिए, इन देशों के निवासी अक्सर ख़ुद को अपनी संस्कृति को उपनिवेशवादियों की पूर्वाग्रह भरी नज़रों से देखते हैं. ये प्रक्रिया उपनिवेशवाद के सबसे दुखद अमानवीय उत्पादों में से एक है. और अब ये महामारी की ही तरह एक बड़ी संक्रामक बीमारी बन गई है.

भारत के मशहूर साहित्यिक आलोचक डॉक्टर नामवर सिंह ने अपने लेखक ‘भारतीय मानस को उपनिवेशवाद से मुक्त कराना’ (Decolonising the Indian Mind) में भारतीय लेखकों की इस प्रवृत्ति की ओर इशारा किया है. डॉक्टर नामवर सिंह के अनुसार भारतीय भाषाओं के लेखक, अक्सर अपनी पहचान बनाने के लिए पश्चिमी पाठकों और विद्वानों के आसरे रहते हैं. उन्हें लगता है कि अगर पश्चिमी देशों ने उन्हें स्वीकार कर लिया, तो उनके अपने देश में उनका मान सम्मान बढ़ेगा. ऐसे में पश्चिमी मीडिया में भारत विरोधी इन लेखों का बेतुकापन और भी चौंका देने वाला है. भारत की छवि धूमिल करने वाले ये लेख कितने बेवक़ूफ़ी भरे हैं, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन लेखों में बार-बार ये तर्क दिया जाता है कि क़रीब दो हज़ार डॉलर प्रति व्यक्ति आमदनी वाले भारत से ये उम्मीद की जाती है कि उसका प्रशासनिक ढांचा और उसकी ख़ूबियां ठीक वैसी ही हों, जैसी उससे कई गुना अधिक अमीर और संसाधन युक्त देशों के हैं. भारत के बारे में पश्चिमी मीडिया में जो कुछ भी छपता है, उसमें ये बात बार बार दोहराई जाती है. लेकिन, ऐसा तर्क देते वक़्त लेखकों का ये वर्ग अक्सर इस बात को भुला देता है कि जिस ‘एक वैश्विक गांव’ का हवाला देते हुए हर देश में एक जैसी व्यवस्था की उम्मीद की जाती है, वैसा एक गांव तो कभी अस्तित्व में ही नहीं था. और आगे भी कभी नहीं होगा. कोविड-19 की ये महामारी दुनिया के दसियों लाख गांवों की है, जो अपने अपने तरीक़े से इस महामारी से मुक्ति पाने का प्रयास कर रहे हैं. क्योंकि उदारवादी मीडिया जिस वैश्विक आदर्श की बात करता रहा है, वो इस महामारी का पहला शिकार बना है. बल्कि ये कहें कि वो इस महामारी के जन्म लेने और इसके इतना भयंकर रूप धारण करने की प्रमुख वजह है.

एक महाद्वीप के आकार वाले भारत जैसे देश में कई मूलभूत चुनौतियां विद्यमान हैं. इस लिहाज़ से देखें, तो कोविड-19 महामारी से निपटने का भारत का तौर तरीक़ा मज़बूत भी रहा है और साथ-साथ बेहद कमज़ोर भी साबित हुआ है. ठीक उसी तरह जैसे ये महामारी दुनिया में सार्वभौम भी है और हर देश में इसका अलग अलग रूप भी देखने को मिला है. एक तरफ़ तो केरल और कुछ अन्य राज्य इस महामारी पर क़ाबू पाने और इस संकट से निपटने में सफल दिख रहे हैं. वहीं, अन्य राज्य जहां की राजनीति पेचीदा और उलझी हुई है, वो इस वायरस के प्रकोप को नियंत्रित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. महामारी से निपटने में भारत की कमियां स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रही हैं. लेकिन, सबसे अहम बात ये है कि पूरे भारतीय समाज और राजनीतिक क्षेत्र में इस बात का मज़बूत इरादा दिखता है कि वो इस महामारी से निपट लेंगे. हर राज्य अपने हिसाब से इस महामारी से निपटने का अलग मॉडल अपना रहा है. जो उनकी अपनी विशेष परिस्थिति पर आधारित है. इसके लिए हर राज्य अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक रिवाजों, भौगोलिक विस्तार, सूचना तंत्र और तकनीक के साथ साथ सरकारी व्यवस्था का सहारा ले रहा है.

एक महाद्वीप के आकार वाले भारत जैसे देश में कई मूलभूत चुनौतियां विद्यमान हैं. इस लिहाज़ से देखें, तो कोविड-19 महामारी से निपटने का भारत का तौर तरीक़ा मज़बूत भी रहा है और साथ-साथ बेहद कमज़ोर भी साबित हुआ है

इसमें कोई दो राय नहीं है कि कोविड-19 महामारी से निपटने में कई भारतीय राज्यों ने कई विकसित देशों से अच्छा काम किया है. अगर कोई निष्पक्ष और संतुलित रिपोर्टिंग की जाती, तो नए कोरोना वायरस से निपटने के भारत के इस विविधता भरे अनुभव को प्रस्तुत किया जाता. न कि भारत की वही पुरानी पूर्वाग्रह से भरी घिसे-पिटे तस्वीरों को पेश किया जाता है. सच तो ये है कि कोरोना वायरस से निपटने के भारत के संघर्ष को जिस तरह से पेश किया गया है, उसमें सबसे सकारात्मक कहानी ये है कि अराजकता और उथल-पुथल को  भारत का स्थायी भाव बनाकर प्रस्तुत किया गया है. इसमें पश्चिमी देशों वाली सोच से ही भारत को देखने की कोशिश की गई है, जो सांपों और संपेरो का देश है. जहां पर बाज़ार में जादू दिखाने वाले घूमते रहते हैं. जहां बंदर और बंदर का नाच चल रहा है. पश्चिम के उदारवादी मीडिया के लेखों में यही शब्द और वाक्यों के ज़रिए यही तस्वीर बनाने की लगातार कोशिश की गई. ये उन्नीसवीं सदी में ब्रिटेन में होने वाली परिचर्चाओं की याद दिलाता है, जहां भारत में की कुछ विशिष्टताओं की तारीफ़ की जाती थी. पर, साथ ही ये भी कहा जाता था कि पश्चिमी सभ्यता को मज़बूती से पूरब की अराजकता को क़ाबू में लाना होगा.

जाने माने राजनीतिक विचारक एडवर्ड सईद ने पश्चिमी देशों द्वारा ग़ैर पश्चिमी देशों पर औपनिवेशिक प्रभुत्व स्थापित करने की इस लालसा को, पश्चिम के ख़ुद के श्रेष्ठ होने की धारणा के साथ जोड़ा था. और कहा था कि स्वयं की श्रेष्ठता के इसी मुग़ालते से पश्चिमी देशों में पूरब को उपनिवेश बनाने का भाव जागा. एडवर्ड सईद का तर्क था कि पश्चिमी देशों ने ग़ैर पश्चिमी देशों को इस बात के लिए समझा पाने में न केवल सफलता पाई, बल्कि बड़ी कुशलता से ये स्थायी भाव उनके ज़हन में बैठा दिया कि ग़ैर पश्चिमी सभ्यताओं के विपरीत, पश्चिमी देश ही तरक़्क़ीपसंद, तार्किक, सभ्य और मानवीय पहलू वाले हैं. ग़ैर पश्चिमी देशों को छोटा साबित करने की ये सोच बामक़सद थी. इसे जान बूझकर इसलिए तैयार किया गया था कि उपनिवेशवादी व्यवस्था को नैतिक रूप से सही ठहराया जा सके. उसे, ग़ैर पश्चिमी देशों को सभ्य बनाने की एक वैध व्यवस्था साबित करने का प्रयास किया गया. इसे ही, रुडयार्ड किपलिंग ने अपनी कविता में ‘व्हाइट मैन्स बर्डेन (White Man’s Burden)’ या गोरी नस्ल की ज़िम्मेदारी बताया था.

ग़ैर पश्चिमी देशों को सभ्य बनाने के इस मक़सद को साहित्य, कला, राजनीति और लोकप्रिय संस्कृति के माध्यम से क़रीब दो सदी तक इस तरह प्रचारित किया जाता रहा कि इस विचार ने न केवल साम्राज्यवादी राजनीति की दशा दिशा तय की, बल्कि पश्चिम की जनप्रिय परिकल्पनाओं पर गहरा असर डाला. आज ये अटल सत्य के तौर पर इस तरह से स्थापित किया जा चुका है कि पश्चिमी देश हमेशा ही पूर्वी सभ्यता को इसी दृष्टिकोण से देखते हैं.

प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन लिखते हैं कि जेम्स मिल की प्रभावशाली किताब हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया (1817)से शुरू होकर कैथरीन मेयो की मदर इंडिया (1927) तक, देसी लोगों के व्यक्तित्व को कम करके पेश करने के कारण, पश्चिम के बौद्धिक वर्ग और राजनीति के कुलीन वर्ग तक हर तबक़े ने पूर्वी देशों को इसी नज़रिए से देखा है. फिर चाहे अलेक्ज़ेंडर डफ हों या अमेरिकी राष्ट्रपति थियोडोर रूज़वेल्ट या फिर कोई और. पश्चिमी विचारक उपनिवेशवादी परिचर्चा को इसी एक ख़ास जातीयता पर कृपा करने वाली व्यवस्था के तौर पर पेश करते रहे. इस बात की सबसे अच्छी मिसाल रुडयार्ड किपलिंग की कविता व्हाइट मैन्स बर्डेन (White Man’s Burden) जैसी रचनाएं हैं. रुडयार्ड किपलिंग को जॉर्ज ऑरवेल ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद का पैग़म्बर कहा था.

बीसवीं सदी के फ्रांसीसी यहूदी विचारक इमैन्युअल लेविनास, पश्चिम के इस दार्शनिक आचरण की जड़ उसके स्वकेंद्रित होने के कठोर तर्क में पाते हैं. पश्चिमी देश इतने स्वकेंद्रित हैं कि वो स्वयं को अन्य देशों की तुलना में अलग होने की सोच भी बर्दाश्त नहीं कर पाते. उनकी इस पूर्वाग्रह भरी सोच के कारण ही ग़ैर पश्चिमी अनुभवों को ग़लत नज़रिए से पेश किया जाता है. यही सदियों पुरानी पहचान पर आधारित परिचर्चा की जड़ है, जिसने कई सदियों से मानवीय संवाद को परिभाषित भी किया है और उस पर बुरा असर डाला है. कोविड-19 को लेकर हो रही रिपोर्टिंग में भी पश्चिमी मीडिया की ‘हम बनाम वो’ की सोच या ख़ुद के औरों से बेहतर होने का दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है. न्यूयॉर्क टाइम्स के लेखों में हमदर्दी की कमी के माध्यम से पहचान को लेकर दूरी बनाई जाती है. इसी तरह द अटलांटिक व्यक्तित्व की कमी को इस तरह पेश करता है जैसे ये गुण विद्यमान ही न हो. और बीबीसी व वॉशिंगटन पोस्ट के कवरेज में सामाजिक असमानता को ही बार-बार उभार कर पेश किया जाता है. पर दुर्भाग्य से, इस महामारी के पास कहने के लिए पश्चिम की सोच से बिल्कुल अलग कहानी है.

न्यूयॉर्क में कोविड-19 के संक्रमण का बारीक़ी से अध्ययन करें, तो कुलीन वर्ग की लूट मार की तस्वीर साफ़ उजागर हो जाती है. अमेरिका के अश्वेत और सामाजिक रूप से हाशिए पर पड़े समुदाय, इस महामारी से अन्य समुदायों के मुक़ाबले अधिक प्रबावित हुए हैं. एक रिपोर्ट में तो ये आकलन किया गया है कि नए कोरोना वायरस के इन्फ़ेक्शन से गोरे अमेरिकी नागरिकों के मुक़ाबले अश्वेत नागरिकों की मौत की आशंका तीन गुना अधिक है. इसमें कोई शक की गुंजाइश नहीं बची है कि नए कोरोना वायरस से अमेरिका के सशक्त वर्ग और वंचितों के बीच की खाई को स्पष्ट रूप से उजागर कर दिया है. जहां पर लोगों की देख रेख करने वालों, जो कि ज़्यादातर अफ्रीकी अमेरिकी या लैटिन अमेरिकी हैं, के बीच संक्रमण और मौत का आंकड़ा, अपने गोरे देशवासियों के मुक़ाबले काफ़ी अधिक है. अमेरिका की ये स्थिति, भारत के अपने अनुभव से अलग नहीं है. भारत में भी ग़रीब तबक़े और समाज के वंचित वर्ग के लोगों पर ही इस महामारी का सबसे अधिक बुरा असर देखने को मिल रहा है.

पूरी दुनिया में निर्विवाद रूप से तबाही मचाने वाली घटनाएं जैसे कि भयंकर महामारी अक्सर आर्थिक और सामाजिक रूप से कमज़ोर वर्ग पर सबसे बुरा असर डालती हैं. भारत में इस महामारी की रोकथाम के लिए लगाए गए लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मज़दूर अपने गांवों को लौटने का संघर्ष करते दिखे. वहीं, अमेरिका में अमीर और शक्तिशाली लोग, महामारी फैलने पर अपने हैम्पटन जैसे रईसों की बस्ती की ओर भागते दिखे. ये व्यक्तिगत पहचान की एक अलग ही परिचर्चा है, जो संपूर्ण मानवता के सामने एक ही तरह का प्रश्न उठाती है. और हमारे आर्थिक एजेंडे और प्राथमिकताओं को सवालों के घेरे में ले आती है.

उपनिवेशवादी पूर्वाग्रह और घिसी पिटी सोच, पश्चिमी सभ्यता के अवचेतन का अटूट अंग हैं. लेकिन, इसके प्रस्तुतिकरण को भी व्यापक दृष्टिकोण से ही देखा जाना चाहिए. पश्चिमी सभ्यता द्वारा पूर्वी सभ्यता को नीचा दिखाने की इस प्रवृत्ति से सत्ता से बेदखल किए गए, भारत के एक विशेष बौद्धिक वर्ग को भी अवसर मिल गया है. ताकि, वो पश्चिमी दृष्टिकोण का लाभ लेकर, भारत के राजनीति और आर्थिक संवाद को दिशा देने वाली नई राष्ट्रवादी धारा को निशाना बना सकें.

कोविड-19 से निपटने के भारतीय प्रयासों को पश्चिमी मीडिया ने जिस तरह से पेश किया है, वो भारत के इस महामारी से निपटने में सफलताओं और असफलताओं का आकलन नहीं है. ये असल में उस दुराग्रही राजनीति का व्याख्यान है, जहां पर लगातार ख़तरा महसूस कर रहे कुलीन वर्ग के विचारकों, उपनिवेशवाद की समाप्ति के बाद सद्गुणों के स्वयंभू संरक्षकों की अभिव्यक्ति है. जो अपने मीडिया के माध्यम से उन लोगों के प्रति अपने तिरस्कार की अभिव्यक्ति कर रहे हैं, जो उनके बताए रास्ते को दैवीय या पहले से आदेशित मान कर स्वीकार नहीं करते. ये भारत का राजनीतिक कवरेज है. इस महामारी से निपटने के भारत के प्रयासों का नहीं. और इसे बहिष्कार व तिरस्कार की स्याही से लिखा गया है.

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Authors

Samir Saran

Samir Saran

Samir Saran is the President of the Observer Research Foundation (ORF), India’s premier think tank, headquartered in New Delhi with affiliates in North America and ...

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Jaibal Naduvath

Jaibal Naduvath

Jaibal is Vice President and Senior Fellow of the Observer Research Foundation (ORF), India’s premier think tank. His research focuses on issues of cross cultural ...

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