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कैंप डेविड हो, निक्सन का चीन दौरा हो या फिर रीगन और गोर्बाचेव की मुलाक़ातें, इन ऐतिहासिक सफलताओं के पीछे कूटनीतिज्ञों की उन टीमों की पर्दे के पीछे ख़ामोशी से की गई कड़ी मेहनत थी, जिन्होंने शीर्ष नेताओं की मुलाक़ात से पहले महीनों की कड़ी मेहनत से समझौते का आधार तैयार कर दिया था.
Image Source: Getty
तानाशाही नेताओं के लिए अंतरराष्ट्रीय राजनीति कई बार दिमाग़ चकराने वाली हो सकती है. घरेलू सियासत ऐसे नेताओं की छवि एक कद्दावर नेता के तौर पर चमकाती है. अपनी इस छवि के ज़रिए वो अपने इर्द गिर्द प्रभाव दिखाते हैं, दबदबा क़ायम करते हैं और अक्सर बस एक इशारे पर बदलाव कर डालते हैं. हालांकि, इससे अंतरराष्ट्रीय मंच पर उन्हें सुरक्षा का एक झूठा बोध होता है और ऐसे नेताओं को ये लगता है कि उनका व्यक्तित्व और करिश्मा ही नतीजे हासिल करने के लिए पर्याप्त है. पर हक़ीक़त ये है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में संरचनात्मक वास्तविकताएं और शक्ति का संतुलन ही परिणाम देता है. पिछले महीने अलास्का में हुए शिखर सम्मेलन के दौरान ट्रंप को इस सच्चाई का बख़ूबी एहसास हुआ होगा.
किसी भी संघर्ष में पहला शिकार संवाद ही होता है. इसीलिए, दुश्मन के साथ एक ही कमरे में मौजूद होने से दोनों पक्षों को अपना रुख़ साफ़ करने और समझौते की गुंजाइश निकालने में मदद मिलती है. लेकिन, ऐसा एक हद तक ही हो पाता है. अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन इसी उम्मीद से 15 अगस्त को अलास्का के एंकरेज शहर में एल्मेनडॉर्फ- रिचर्डसन संयुक्त सैनिक अड्डे पर मिले थे. ट्रंप ने पुतिन का भव्य स्वागत किया था किया था. पुतिन के सम्मान में अमेरिकी विमानों ने उड़ान भरी. ट्रंप ने पुतिन को अपनी ख़ास गाड़ी ‘द बीस्ट’ में बैठने का मौक़ा दिया. इसके अलावा, रूस के राष्ट्रपति के सम्मान में कई और औपचारिक समारोह हुए, जो बड़ी सावधानी से तैयार किए गए कूटनीतिक तमाशे का संकेत दे रहे थे. ट्रंप के साथ उनके अहम सहयोगी, विदेश मंत्री मार्को रूबियो और रियल एस्टेट कारोबारी स्टीव विटकॉफ थे, जो ट्रंप के विशेष दूत भी हैं. वहीं, पुतिन के साथ उनके तजुर्बेकार विदेश मंत्री सर्जेई लावरोव और दूसरे बड़े अधिकारी थे.
अलास्का का ये दौरा पुतिन के लिए एक प्रतीकात्मक लम्हा था. अमेरिका के एक नौसैनिक अड्डे पर उनका पूरे राजकीय सम्मान के साथ स्वागत किया गया. जबकि अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय से उनके ख़िलाफ़ गिरफ़्तारी का वारंट निकला हुआ है. यही नहीं, अलास्का के सम्मेलन से यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदोमीर ज़ेलेंस्की को दूर रखा गया था, जिससे पुतिन के उस नैरेटिव को ही बल मिला कि यूरोप की सुरक्षा का फ़ैसला करने की असल ताक़त अमेरिका और रूस के ही पास है. ये बात यूरोप की लंबे समय से चली आ रही उस नीति के भी ख़िलाफ़ है कि यूक्रेन संघर्ष को लेकर कोई बातचीत बिना यूक्रेन की भागीदारी के नहीं की जानी चाहिए. अमेरिका के यूरोपीय सहयोगी देश भी ट्रंप के इस रुख़ के समर्थन में नहीं खड़े थे और उन्हें खुलकर ख़ुद को इस शिखर वार्ता से अलग कर लिया था. इन हालात में अलास्का का शिखर सम्मेलन ट्रंप के लिए एक बड़ा कूटनीतिक दांव था. इसके बावजूद, सम्मेलन से यूक्रेन और रूस का युद्ध ख़त्म करने की दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई और आख़िरकार ये सम्मेलन भी नाकाम साबित हुआ. पहले ट्रंप और पुतिन के एक साथ लंच करने का कार्यक्रम भी संयुक्त प्रेस वार्ता से ठीक पहले अचानक रद्द कर दिया गया, जिसके बाद ट्रंप तुरंत वॉशिंगटन लौट पड़े.
अलास्का के सम्मेलन से यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदोमीर ज़ेलेंस्की को दूर रखा गया था, जिससे पुतिन के उस नैरेटिव को ही बल मिला कि यूरोप की सुरक्षा का फ़ैसला करने की असल ताक़त अमेरिका और रूस के ही पास है.
नाकामियों की तमाम मिसालों के बावजूद डॉनल्ड ट्रंप शिखर कूटनीति के कट्टर समर्थक बने हुए हैं. अपने पहले कार्यकाल के दौरान ट्रंप ने उत्तर कोरिया के सर्वोच्च नेता किम जोंग उन के साथ- सिंगापुर (2018), हनोई (2019) और कोरिया के असैन्यीकृत क्षेत्र यानी DMZ (2019)- में कई शिखर वार्ताएं की थीं. हालांकि, ट्रंप ऐसा करने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति थे. लेकिन, इन मुलाक़ातों से कोई ठोस नतीजा निकाल पाने में ट्रंप नाकाम रहे थे. उत्तर कोरिया ने अपने परमाणु हथियार कार्यक्रम को बंद नहीं किया, न उसका विकास रोका. वहीं, अमेरिका ने भी उत्तर कोरिया पर लगे प्रतिबंध नहीं हटाए. 2020 के आते-आते कूटनीति पूरी तरह से थम गई और उत्तर कोरिया ने हथियारों का परीक्षण फिर से शुरू कर दिया था. इसी तरह, ट्रंप ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से भी पहले फ्लोरिडा में अपने रिजॉर्ट मार-ए-लागो में मुलाक़ात की (2017), और फिर वो बीजिंग में (2017) भी शी जिनपिंग से मिले. इसके बावजूद, 2018 के आते आते अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध बढ़ गया था. टैरिफ में बढ़ोत्तरी हो रही थी और दोनों देशों के रिश्ते बिगड़ गए थे.
सच्चाई तो ये है कि ट्रंप की पुतिन के साथ भी पहले, हेलसिंकी (2018) में एक शिखर वार्ता नाकाम हो चुकी थी. वहां ट्रंप से अपेक्षा थी कि वो पुतिन के साथ न्यू START संधि के भविष्य और परमाणु हथियारों की संख्या सीमित करने, अमेरिका द्वारा सीरिया से अपने सैनिक वापस बुलाने के बाद रूस के साथ तालमेल, क्राइमिया और 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में रूस की दख़लंदाज़ी जैसे तमाम मुद्दों पर बातचीत करेंगे. हेलसिंकी शिखर वार्ता अमेरिका और रूस के रिश्ते सुधारने के व्यापक प्रयास का हिस्सा थी. रूस के साथ संबंध को लेकर ट्रंप अक्सर ये दावा करते रहे हैं कि ‘रूस की दख़लंदाज़ी’ की अमेरिका में जांच होने की वजह से दोनों देशों के रिश्ते बिगड़े हैं. हेलसिंकी में ट्रंप के लिए एक मौक़ा ये भी था कि वो इसको सफल बनाकर ये दावा कर सकें कि जिन मसलों पर पहले के अमेरिकी राष्ट्रपति नाकाम रहे थे, उनमें उन्होंने सफलता हासिल की है. 2018 में ट्रंप और पुतिन क़रीब दो घंटे तक एक दूसरे से अकेले में बातें करते रहे थे. दोनों के साथ सिर्फ़ अनुवादक थे. दोनों नेताओं ने इस दौरान क्या बात की थी, इसका कोई आधिकारिक अमेरिकी रिकॉर्ड आज भी मौजूद नहीं है. फिर भी ट्रंप, पुतिन से कोई रियायत हासिल कर पाने में नाकाम रहे थे. इसके बजाय उन्होंने पुतिन द्वारा अमेरिका के चुनाव में दख़लंदाज़ी से इनकार का सार्वजनिक रूप से समर्थन किया. जबकि अमेरिकी एजेंसियों की जांच में इस सच्चाई पर मुहर लग चुकी थी.
कूटनीतिक इतिहास के पन्नों पर नज़र डालें तो ट्रंप बमुश्किल ही ऐसे अनूठे नेता के तौर पर नज़र आते हैं, जिन्हें दूसरों को मना लेने की अपनी असाधारण शक्तियों पर ज़रूरत से ज़्यादा यक़ीन हो. हालांकि, इस तरह के शिखर सम्मेलनों की अपनी सीमाएं होती हैं. कूटनीतिज्ञ अक्सर पर्दे के पीछे काम करते रहते हैं, ताकि जब देशों के शीर्ष नेता आधिकारिक तौर पर मिलें, तो एक औपचारिक समझौते की रूप-रेखा पहले से तैयार रहे. ये निराशा हाथ लगने और बेवजह की अपेक्षाएं पूरी न होने पर आपसी संबंध ख़राब होने के जोखिम से बचने का सही तरीक़ा होता है. सबसे कामयाब उपलब्धियां नेताओं के आपसी संबंधों के जादू का नतीजा नहीं होतीं; अक्सर ऐसी सफलताएं लंबे और थकाऊ कूटनीतिक प्रयासों का परिणाम होती हैं. इसके कुछ लोकप्रिय उदाहरणों में कैंप डेविड समझौता (1978), याल्टा शिखर सम्मेलन (1945), पेरिस शांति समझौता (1973) और हेलसिंकी समझौता (1975) शामिल है. वैसे शिखर सम्मेलनों के दौरान नेताओं की निजी केमिस्ट्री की वजह से मिली सफलताओं के उदाहरण भी देखने को मिलते हैं. इनके प्रमुख उदाहरणों में जेनेवा शिखर वार्ता (1985) और रेक्याविक शिखर सम्मेलन (1986) शामिल हैं, जिस दौरान अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और सोवियत संघ के राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव ने अमेरिका और सोवियत संघ के रिश्तों में सुधार लाने में काफ़ी सफलताएं प्राप्त की थीं.
सबसे कामयाब उपलब्धियां नेताओं के आपसी संबंधों के जादू का नतीजा नहीं होतीं; अक्सर ऐसी सफलताएं लंबे और थकाऊ कूटनीतिक प्रयासों का परिणाम होती हैं. इसके कुछ लोकप्रिय उदाहरणों में कैंप डेविड समझौता (1978), याल्टा शिखर सम्मेलन (1945), पेरिस शांति समझौता (1973) और हेलसिंकी समझौता (1975) शामिल है.
ट्रंप और पुतिन के रिश्तों में ऐसे समीकरण साफ़ तौर पर नज़र नहीं आते हैं. सोने पर सुहागा ये कि अमेरिका और रूस का ऐसा कोई कूटनीतिक कार्यकारी समूह अस्तित्व में नहीं है, जो यूक्रेन, प्रतिबंधों या फिर सुरक्षा गारंटी को लेकर रूप-रेखाओं का कोई ड्राफ्ट तैयार करता. हेलसिंकी समझौते (1975) जैसे सफल शिखर सम्मेलन के लिए जो बहुपक्षीय ज़मीनी तैयारी की गई थी, उसके उलट इस वार्ता में यूरोपीय सहयोगी देश और यूक्रेन को शामिल ही नहीं किया गया था. अलास्का में शिखर सम्मेलन से पहले कूटनीतिज्ञों ने ऐसे विकल्प भी तैयार नहीं किए थे, जिस पर दोनों नेता सहमति जता पाते. इसकी एक वजह शायद ट्रंप टीम की कूटनीतिक नातजुर्बेकारी थी. मिसाल के तौर पर ट्रंप के विशेष दूत स्टीव विटकॉफ रियल एस्टेट सेक्टर के अधिकारी हैं और उनकी कोई पारंपरिक कूटनीतिक पृष्ठभूमि नहीं है.
अलास्का का नाकाम शिखर सम्मेलन ये दिखाता है कि निजी कूटनीति केवल सफलता को रफ़्तार दे सकती है. लेकिन, ये असली कूटनीतिक मोलभाव की जगह नहीं ले सकती. कैंप डेविड हो, निक्सन का चीन दौरा हो या फिर रीगन और गोर्बाचेव की मुलाक़ातें, इन ऐतिहासिक सफलताओं के पीछे कूटनीतिज्ञों की उन टीमों की पर्दे के पीछे ख़ामोशी से की गई कड़ी मेहनत थी, जिन्होंने शीर्ष नेताओं की मुलाक़ात से पहले महीनों की कड़ी मेहनत से समझौते का आधार तैयार कर दिया था. जब दोनों शीर्ष नेता मिले, तो ज़्यादातर मुश्किल बातों पर पहले ही सहमति तैयार की जा चुकी थी. बस कुछ बेहद मुश्किल राजनीतिक विकल्पों पर सहमति बनाना बाक़ी रहा था, जिसका फ़ैसला शीर्ष नेताओं को करना था. जब ऐसी ज़मीनी तैयारी नहीं होती, तो शिखर सम्मेलन सिर्फ़ सुर्ख़ियां बटोरने में सफल होते हैं, मगर उनके कोई ठोस और स्थायी परिणाम नहीं निकलते. सिर्फ़ नेता ही शांति का मार्ग नहीं निकाल सकते; इसके लिए व्यवस्थित कूटनीतिक प्रयास आवश्यक हैं, और जब शिखर वार्ताएं नाकाम होती हैं, तो न केव एक अवसर हाथ से निकल जाता है, बल्कि इससे निराशा भी पैदा होती है और दोनों पक्षों के रिश्ते भी ख़राब हो जाते हैं. सबसे बुरी बात तो शायद ये हुई है कि अलास्का के शिखर सम्मेलन ने हमें यूक्रेन और रूस के संघर्ष के समाधान से और भी दूर कर दिया है.
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Ameya Pratap Singh is a DPhil (PhD) student at the University of Oxford and has published on Indias international affairs economy and politics for The ...
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