सर्दियों में गर्माहट और गर्मियों में ठंड को बरक़रार रखना न केवल आराम से जुड़ी चीज़ है बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी ज़रूरी है. भारत में सालाना कम से कम 2000 लोगों की गर्मी की वजह से मौत होती है. देश में जनसंख्या वृद्धि, बढ़ते शहरीकरण, बढ़ती आय, औसत तापमान में बढ़ोतरी और इसके अलावा सस्ते दामों में एसी की बिक्री वे कारक हैं, जिनके कारण भारत में एयर कंडीशनर (एसी) का उपयोग बढ़ता जा रहा है. निश्चित रूप से इसके कारण गर्मी होने से वाली मौतों में भी कमी आई है. हालांकि, एसी से बड़ी मात्रा में बिजली की खपत होती है, और यह हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (HFCs) का उपयोग करती है जिनसे ग्रीन हाउस गैसों (GHGs) का उत्सर्जन होता है, जो जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण हैं. इस विरोधाभास से जलवायु परिवर्तन से जुड़ी सबसे बड़ी और मुश्किल चुनौती उजागर होती है: क्या गरीब जनता में स्पेस कूलिंग एवं अन्य ऊर्जा सेवाओं की खपत बढ़ने से उन्हें दिन प्रतिदिन गर्म होती दुनिया के साथ सामंजस्य बैठाने में मदद मिलेगी या फिर इससे दुनिया और गर्म होती जा रही है? जलवायु पर उपलब्ध घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय शोध अध्ययनों से पता चलता है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को बढ़ावा दिए बगैर एयर कंडीशनर के उपयोग को बढ़ावा दिया जा सकता है बशर्ते वे बेहतर कूलिंग तकनीक पर आधारित हों.
जलवायु पर उपलब्ध घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय शोध अध्ययनों से पता चलता है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को बढ़ावा दिए बगैर एयर कंडीशनर के उपयोग को बढ़ावा दिया जा सकता है बशर्ते वे बेहतर कूलिंग तकनीक पर आधारित हों.
महत्वपूर्ण तथ्य
2021 में दुनिया भर में घरों में उपयोग होने वाले एसी उपकरणों की अनुमानित संख्या 2.2 अरब यूनिट थी. दुनिया भर में, जहां 2010 में एसी वाले घरों की संख्या 25 प्रतिशत थी, वहीं 2021 में यह संख्या बढ़कर 35 प्रतिशत हो गई है. वैश्विक स्तर पर एसी उपकरणों के उपयोग में घरों की हिस्सेदारी 68 प्रतिशत है. 2020-21 में स्पेस कूलिंग में होने वाली ऊर्जा खपत (एसी, पंखे, कूलर के इस्तेमाल में होने वाली ऊर्जा खपत सहित) में 6 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई, जो इमारतों में अन्य कारणों से होने वाली ऊर्जा खपत से कहीं अधिक है. इमारतों को ठंडा रखने में होने वाली ऊर्जा की खपत 1990 के बाद से तीन गुना और 2000 के बाद से दोगुनी हो गई है.
दुनिया भर में, सिर्फ़ एसी के इस्तेमाल में 2000 TWh (टेरावॉट–आवर्स) बिजली की सालाना खपत होती है, जो 2021 में भारत के कुल बिजली उत्पादन से अधिक है और वैश्विक बिजली उत्पादन का लगभग 7 प्रतिशत है. स्पेस कूलिंग से होने वाला कार्बन–डाइऑक्साइड उत्सर्जन 1990 के बाद से तीन गुना बढ़कर 1 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन (1 GtCO2) के हो गया है, जो जापान के कुल CO2 उत्सर्जन के बराबर है. अनुमान के मुताबिक, भविष्य में वैश्विक औसत तापमान में 1° C की वृद्धि होने पर स्पेस कूलिंग के लिए बिजली की खपत में 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी.
दुनिया भर में लगभग 70 प्रतिशत रूम एसी का उत्पादन चीन ने किया है, और दुनिया की कुल स्थापित कूलिंग क्षमता में चीन की हिस्सेदारी लगभग 22 प्रतिशत है. सन् 2000 के बाद से एसी की बिक्री पांच गुना बढ़ गई है, जो वैश्विक बिक्री का लगभग 40 प्रतिशत है. पिछले दो दशकों में पूरी दुनिया में स्पेस कूलिंग के लिए ऊर्जा की सबसे ज्यादा मांग चीन में देखी गई है, जहां 2000 के बाद से ऊर्जा की खपत में प्रतिवर्ष 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई और कोरोना महामारी से पहले चीन में बिजली की खपत लगभग 400 TWh के स्तर तक पहुंच गई थी. हालांकि चीन में पिछले एक दशक में 50 करोड़ से ज्यादा एयर कंडीशनर की बिक्री हुई, लेकिन तुलनात्मक रूप से भारत और इंडोनेशिया में एसी की मांग में कहीं अधिक वृद्धि हुई है, जहां भारत और इंडोनेशिया में एसी की बिक्री दर में हर साल क्रमशः 15 प्रतिशत और 13 प्रतिशत से भी ज्यादा बढ़ोतरी हो रही है. 2050 तक स्पेस कूलिंग के लिए ऊर्जा की मांग में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी भारत, चीन और इंडोनेशिया में होगी. हालांकि, गर्मी के दुष्प्रभावों से लोगों को बचाने के मामले में भारत अभी भी चीन से बहुत पीछे है. पॉपुलेशन–वेटेड हीट स्ट्रेस एक्सपोजर भारत के लिए 100 प्रतिशत है, वहीं चीन के लिए यह 20 प्रतिशत से कम है.
भारत और इंडोनेशिया में एसी की बिक्री दर में हर साल क्रमशः 15 प्रतिशत और 13 प्रतिशत से भी ज्यादा बढ़ोतरी हो रही है. 2050 तक स्पेस कूलिंग के लिए ऊर्जा की मांग में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी भारत, चीन और इंडोनेशिया में होगी.
शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला है कि अब से लेकर 2050 तक केवल रूम एसी ही 130 गीगाटन से ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार होंगे. यह दुनिया के पास बचे हुए “कार्बन बजट” (वैश्विक औसत तापमान में वृद्धि को पूर्व–औद्योगिक स्तर से 2°C नीचे बनाए रखते हुए हम कितना CO2 उत्सर्जन कर सकते हैं) का 20-40 प्रतिशत होगा. पिछले कुछ सालों में, दुनिया के कई हिस्सों में रिकॉर्ड तापमान दर्ज किया गया, और 2020 में CDD (CDD यानी कूलिंग डिग्री डेज. इसका मतलब है कि एक दिन का औसत तापमान 18°C से अधिक होने पर डिग्री संख्या) की औसत संख्या 2000 की तुलना में 15 प्रतिशत अधिक थी.
स्रोत: पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, 2018. इंडिया कूलिंग एक्शन प्लान (मसौदा)
स्पेस कूलिंग में असमानताएं
दुनिया भर में स्पेस कूलिंग सुविधाओं के वितरण में भारी असमानताएं हैं, जहां उष्णकटिबंधीय भागों में स्थित सबसे गरीब देशों में स्पेस कूलिंग तकनीकों का उपयोग सबसे कम है. दुनिया की 35 प्रतिशत आबादी उन देशों में रहती है जहां औसत दैनिक तापमान 25 डिग्री सेल्सियस से अधिक है लेकिन उनमें से केवल 10 प्रतिशत आबादी के पास एसी सुविधाएं हैं. भारत, जिसके CDD का मान 3000 से ज्यादा है, वह स्पेस कूलिंग के लिए महज़ 70 kWh ( किलोवाट–आवर) बिजली का उपभोग करता है. वहीं दक्षिण कोरिया स्पेस कूलिंग के लिए 800 kWh बिजली की खपत करता है जबकि उसके CDD का मान भारत की तुलना में बेहद कम (750) है. इस असमानता की मुख्य वजह ये है कि भारत में एसी उपयोग की लागत ज्यादातर लोगों की पहुंच से बाहर है. वर्तमान में, 10 प्रतिशत से भी कम भारतीय घरों में एसी लगे हुए हैं लेकिन इसकी मांग तेजी से बढ़ती जा रही है. अध्ययनों से पता चलता है कि जलवायु की तुलना में आर्थिक सामर्थ्य और एसी उपयोग के बीच का संबंध कहीं अधिक मज़बूत है.
स्रोत: द फ्यूचर ऑफ एयर–कंडीशनिंग, एक्जीक्यूटिव ब्रीफिंग, Enerdata, 2019
दक्षता
जैसे–जैसे वैश्विक औसत तापमान बढ़ रहा है, भारत और अन्य देशों में एसी के विलासिता की बजाय ज़रूरत की वस्तु बन जाने की संभावना अधिक है. स्पेस कूलिंग ज़रूरतों को लेकर विस्तृत अध्ययन करने पर ज्यादातर का निष्कर्ष यही है कि एसी उपयोग में बिजली की खपत और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए इन उपकरणों की दक्षता में सुधार करना होगा, जो सिर्फ़ तकनीकी सुधार के जरिए संभव है. भारत में एसी की औसत दक्षता अपेक्षाकृत कम है क्योंकि भारतीय बाजार लागत के लिहाज़ से काफ़ी संवेदनशील हैं यानी उपकरणों की बिक्री उसकी दक्षता की बजाय उसकी लागत पर निर्भर है. विशेषज्ञ संस्थानों के ज्यादातर सुझावों के मुताबिक एसी के लिए कड़े दक्षता मानकों को तय किया जाना चाहिए और ऐसे उच्च गुणवत्ता वाले उपकरणों की खरीद पर छूट देनी चाहिए. इमारतों की डिजाइन को बेहतर करना, ज्यादा से ज्यादा इमारतों को नवीकरणीय ऊर्जा से लैस करना और स्मार्ट कंट्रोल कुछ ऐसे अन्य उपाय हैं, जिनकी मदद से स्पेस कूलिंग में होने वाली ऊर्जा की खपत और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को घटाने के अलावा बिजली की मांग चरम पर पहुंचने पर अतिरिक्त ऊर्जा दक्षता की आवश्यकता में कमी लाई जा सकती है.
अन्य जिन समाधानों का अक्सर सुझाव दिया जाता है, उनमें एक समाधान ये है कि न्यूनतम ऊर्जा प्रदर्शन मानक को सबसे अच्छी गुणवत्ता वाले एयर–कंडीशनर के क़रीब रखा जाए, जो आम तौर पर बाज़ार मानकों की तुलना में दोगुना कुशल होते हैं. एक व्यावहारिक समाधान यह है कि सरकारी एजेंसियां और बड़े निजी क्षेत्र के खरीदार (जैसे रियल एस्टेट डेवलपर) उच्च–दक्षता वाले एसी को थोक में खरीद कर और बाज़ार समझौतों के ज़रिए अपनी खरीद क्षमता का लाभ उठाएं. आसान वित्तीय समाधान लोगों को उच्च–दक्षता वाले एसी की खरीद के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं. वितरण कंपनियां (डिस्कॉम) दूरदर्शिता का परिचय देते हुए ‘ऑन बिल‘ फाइनेंसिंग यानी चालू बिल पर भुगतान की सुविधा दे सकती हैं, जहां उपभोक्ता बिजली के बिल के माध्यम से ऊर्जा–कुशल उपकरणों के लिए किस्तों पर भुगतान कर सकते हैं, जो उन्हें शुरू से ही प्रभावी ढंग से नकदी बचत की सुविधा देता है.
यह जलवायु परिवर्तन जैसी व्यापक समस्या की ज़मीनी परिणाम है: अमीर ऊर्जा की ज्यादा खपत और अधिक कार्बन उत्सर्जन करते हैं और गरीब असुविधा में रहते हैं और नकारात्मक परिणाम झेलते हैं.
तकनीकी विशेषज्ञों का कहना है कि कंप्रेसर तकनीक पर आधारित ज्यादातर एसी उपकरण बमुश्किल अपनी सैद्धांतिक दक्षता के 14 प्रतिशत तक पहुंच पाए हैं (जहां ज्यादातर एसी यूनिट की दक्षता 6-8 प्रतिशत के बीच है). यह उन सोलर पैनलों और LED (लाइट एमिटिंग डायोड) उपकरणों की तुलना में बेहद कम है जो अपनी सैद्धांतिक क्षमता के क्रमशः 40 प्रतिशत और 70 प्रतिशत स्तर तक पहुंच गए हैं. क्योंकि उपभोक्ता किसी भी अन्य चीज़ की तुलना में एसी की क़ीमत, उसके ब्रांड और उसके बाहरी रूप की कहीं ज्यादा परवाह करते हैं, और नियामक एजेंसियां दक्षता मानकों को बनाए रखने का दबाव डालने में असफल रहती हैं, ऐसे में आमतौर पर एसी निर्माता अनुसंधान और विकास की बजाय विज्ञान और बाहरी रूप सज्जा पर ज्यादा खर्च करते हैं.
समस्याएं
अगर सैद्धांतिक दक्षता को हासिल कर लिया जाए, तो भी एसी का उपयोग विशेष रूप से उच्च एवं मध्य वर्ग तक ही सीमित रहेगा. भारत में, आबादी के सबसे निचले 50 फीसदी वर्ग के लिए प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 0.9 टन CO2 उत्सर्जन के बराबर (tCO2eq) है और मध्य वर्ग में आने वाले 40 फीसदी लोगों के लिए यह 1.2 tCO2eq है, जबकि शीर्ष 10 प्रतिशत आबादी 9.6 टन tCO2eq का उत्सर्जन करती है. भारत में उच्च वर्ग के किसी आम परिवार में अन्य विद्युत उपकरणों की तुलना में एयर कंडीशनर के उपयोग में अधिक बिजली खर्च होती है, जो आबादी के शीर्ष 10 प्रतिशत द्वारा किए जाने वाले कार्बन उत्सर्जन के एक बड़े हिस्से के लिए ज़िम्मेदार है. इसका मतलब यह है कि गरीब और मध्यम वर्ग के लोग जो कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन (एसी और अत्यधिक ऊर्जा की खपत वाले अन्य उपकरणों के माध्यम से) में नगण्य योगदान देते हैं, उन्हें बढ़ते तापमान का सबसे ज्यादा ख़तरा उठाना पड़ता है. यह जलवायु परिवर्तन जैसी व्यापक समस्या की ज़मीनी परिणाम है: अमीर ऊर्जा की ज्यादा खपत और अधिक कार्बन उत्सर्जन करते हैं और गरीब असुविधा में रहते हैं और नकारात्मक परिणाम झेलते हैं.
जैसा कि होमर सिम्पसन ने अल्कोहल की खपत के संदर्भ (जीवन की कठिनाईयों के कारण और समाधान दोनों के रूप में) में कहते हैं कि एसी का उपयोग गर्म होती दुनिया का कारण भी है और समाधान भी. लेकिन अमीर समस्या को बढ़ाते रहेंगे और इसका समाधान भी ढूंढ़ेंगे, और उसका उपयोग भी करेंगे.
स्रोत: द फ्यूचर ऑफ एयर–कंडीशनिंग, एक्जीक्यूटिव ब्रीफिंग, Enerdata, 2019
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