Published on Dec 20, 2021 Updated 0 Hours ago

सरकार को कारोबार बंद करने और सस्ते ऋण के जरिए मध्यम अवधि के विकास को पोषित करने और मुद्रास्फीति जारी रहने पर राजनीतिक शोरशराबे के बीच समझौता करने की ज़रूरत है.

कोविड 19 के बाद: ज़ख़्म से उबरने की कोशिश में भारत; विकास की रफ़्तार में धीमापन बरकरार

Source Image: Getty

जीडीपी में बढ़ोतरी जनकल्याण का संकेतक होता है और इसकी सीमा होती है जब तक कि यह आंकड़ा ना पता चले कि विकास कहां हुआ, इससे किसे फायदा हुआ और कितने दूसरे लोगों को नुकसान हुआ. इन सांख्यिकीय ऐड-ऑन से दूर, जीडीपी विकास डेटा केवल राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को व्यापक स्तर पर मार्गदर्शन प्रदान कर सकता है, और वह भी, प्राकृतिक संसाधनों के लगातार कम होने से नकारात्मक विकास के लेखांकन के बिना.

हालांकि, यह सरकारों के लिए विशेष रुचि के विषय होते हैं क्योंकि राजस्व संग्रह में बढ़ोतरी विकास और वित्तीय स्थिरता के मानकों से जुड़ी होती है – राजकोषीय घाटा या सार्वजनिक ऋण बकाया – में सुधार होता है, क्योंकि दोनों ही मानक जीडीपी के अनुपात में घटते और बढ़ते हैं. इसके अलावा, कम अवधि की मुद्रास्फीति राजस्व में वृद्धि करके सरकार के रिपोर्ट कार्ड को बेहतर बनाती है, क्योंकि कर, ज्य़ादातर, हालांकि सभी नहीं, बिक्री या उत्पादन मूल्य के प्रतिशत के रूप में अच्छी/सेवा या आय स्तरों पर इकट्ठा किया जाता है. अक्टूबर 2021 तक केंद्र सरकार के कर राजस्व में शानदार 37 प्रतिशत की वृद्धि आंशिक रूप से हाल तक वस्तुओं/सेवाओं की उच्च कीमतों और पेट्रोलियम उत्पादों पर उच्च करों के कारण हुई.

मुद्रास्फीति, अगर भारत और लक्षित विदेशी मुद्रा के बीच आरबीआई द्वारा मुद्रास्फीति के अंतर को समायोजित करने के लिए विनिमय दर के मूल्यह्रास के साथ, निर्यात को प्रतिस्पर्द्धी और आयात को अधिक महंगा बना सकती है. 

मुद्रास्फीति, अगर भारत और लक्षित विदेशी मुद्रा के बीच आरबीआई द्वारा मुद्रास्फीति के अंतर को समायोजित करने के लिए विनिमय दर के मूल्यह्रास के साथ, निर्यात को प्रतिस्पर्द्धी और आयात को अधिक महंगा बना सकती है. इससे उच्च घरेलू मूल्य-वर्धित उद्योग को आयात की प्रतिस्पर्द्धा से बचाया जा सकता है, जो आत्मनिर्भर भारत के मक़सद के साथ शामिल होता है. लेकिन उच्च मुद्रास्फीति की लंबी अवधि ग़रीबों पर कहर बन कर आ सकती है, ख़ास कर उनके लिए जिनकी आय मुद्रास्फीति के लिए अनुक्रमित नहीं होती है, जैसे कि सरकारी कर्मचारियों, जो 100 प्रतिशत अनुक्रमित होते हैं और अत्यधिक कुशल पेशेवर या फिर व्यवसाय, जो मुद्रास्फीति को अपने ग्राहकों तक आगे बढ़ा सकते हैं. हालांकि भारत जैसे मूल्य संवेदनशील बाज़ार में घटी हुई मांग की लागत को देखते हुए यह आ सकता है. किसानों को भी अपनी उपज के लिए बेलोचदार मांग का सामना करना पड़ता है और या तो मूल्य वृद्धि को रोक सकते हैं या केवल उतना ही देते हैं जितना बाज़ार वहन कर सकता है.

टीकाकरण से विकास को गति

सरकारी कार्यक्रम भी मुद्रास्फीति के असर से प्रभावित होते हैं. सभी पूंजीगत निवेश और लगभग एक चौथाई राजस्व व्यय ऋण से फंडेड होता है. उच्च पुनर्भुगतान और ब्याज लागत के  बोझ के साथ-साथ उच्च लागत के लिए जो ऋण लिए गए हैं उनके बोझ को  कम करने की ज़रूरत है. बिना उत्पादन में बढ़ोतरी किए भी मुद्रास्फीति बज़ट के ख़र्च को दो तरीकों से बढ़ा देती है –  मजदूरी को लेकर विसंगतियां और एकाधिकार (जैसा कि कृषि उत्पादों के विपणन में, अब निरस्त हो चुके, कृषि कानूनों द्वारा समाप्त करने की मांग की गई थी ) के साथ  अर्थव्यवस्था में वास्तविक प्रतिस्पर्धा के निम्न स्तर का दबाव इसे बढ़ाने में मदद करता है.

भविष्य में पेट्रोलियम उत्पादों पर कर के युक्तिकरण से कीमतों के दबाव पर लगाम लग सकती है लेकिन बहुत कुछ वैश्विक और घरेलू अर्थव्यवस्था की गतिशीलता और सामान्यीकरण पर निर्भर करेगा – एक कारक जो इस बात पर निर्भर करता है  वह यह है कि कोरोना वेरिएंट के संबंध में महामारी कितनी तेज़ी से फैलता है – जैसे पहले डेल्टा और अब ओमिक्रॉन वेरिएंट ने हाहाकार मचा रखा है.

मुद्रास्फीति (उपभोक्ता मूल्य सामान्य सूचकांक) 4 प्रतिशत के मानक से अधिक है – जैसा कि हम अक्टूबर 2019 से देख रहे हैं – अक्टूबर 2020 में महामारी के सबसे ख़राब चरण के दौरान यह 7.6 प्रतिशत पर पहुंच गया लेकिन इस साल तब से अक्टूबर में इसमें 4.3 प्रतिशत तक की कमी आई है. भविष्य में पेट्रोलियम उत्पादों पर कर के युक्तिकरण से कीमतों के दबाव पर लगाम लग सकती है लेकिन बहुत कुछ वैश्विक और घरेलू अर्थव्यवस्था की गतिशीलता और सामान्यीकरण पर निर्भर करेगा – एक कारक जो इस बात पर निर्भर करता है  वह यह है कि कोरोना वेरिएंट के संबंध में महामारी कितनी तेज़ी से फैलता है – जैसे पहले डेल्टा और अब ओमिक्रॉन वेरिएंट ने हाहाकार मचा रखा है.

इसमें दो राय नहीं है कि विकास ने गति पकड़ी है क्योंकि महामारी की ताकत बड़े पैमाने पर सार्वजनिक टीकाकरण कार्यक्रम के कारण कम हुई है – इससे पहले सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच घनिष्ठ सहयोग के जरिए ऐसी उपलब्धि नहीं प्राप्त की गई. साल 2021-22 (अप्रैल से सितंबर) की पहली छमाही में जीडीपी (स्थिर शर्तें) पिछले वर्ष (2020-21) की इसी अवधि के मुकाबले में अधिक रही, जब जीडीपी कोरोना महामारी के पहले वर्ष 2019-20 की तुलना में 16 प्रतिशत कम फैली हुई थी. हालांकि, यह आंकड़ा 2019-20 की पहली छमाही के उत्पादन से 4 फ़ीसदी कम है. सवाल है कि क्या इस साल की दूसरी छमाही में महामारी के दौरान उत्पादन में कमी को किसी तरीके से बढ़ाया जा सकता है और हमें 2019-20 के साल के अंत में जो जीडीपी का स्तर था उस पर वापस लाया जा सकता है ?

आरबीआई को उम्मीद है कि भारत इस साल 9.5 प्रतिशत की दर से वृद्धि करेगा जैसा कि 2021 के लिए आईएमएफ ने अनुमान लगाया है. हालांकि बाद वाली संस्था वैश्विक विकास को कमतर कर सकती है, पहले 2021 के लिए 5.2 प्रतिशत और 2022 के लिए 4.9 प्रतिशत के विकास दर का अनुमान लगाया गया था, जो कोरोना महामारी से उपजे तरह-तरह के व्यवधानों पर निर्भर करता है. विकास की उम्मीदों के मुताबिक, मार्च 2022 के अंत तक सकल घरेलू उत्पाद 148 ट्रिलियन रुपये हो सकता है जो कि 2019-20 में 145.7 ट्रिलियन रुपये के सकल घरेलू उत्पाद से लगभग 1.6 प्रतिशत अधिक अनुमानित है. भारत पहले ही 2019-20 के स्तर पर पहुंच गया था, पिछले साल की दूसरी छमाही में, सकल घरेलू उत्पाद लगभग 1 प्रतिशत अधिक था. दो राय नहीं कि  यह अच्छी ख़बर है लेकिन इसका मतलब यह भी है कि विकास दर अब चालू वर्ष की आने वाली दो तिमाहियों क्वार्टर 3 और क्वार्टर 04 में 3.5 से 4.5 फ़ीसदी के बीच कम हो जाएगी. सवाल है कि ऐसा क्यों ?

जीडीपी में कमी को फिर से वापस उसी स्तर पर पाना एक खोदे हुए गड्ढे को भरने जैसा है जिसमें काफी वक़्त और मेहनत लगती है लेकिन जीडीपी को पुराने स्तर पर ले जाने के लिए इससे पहले कभी इतनी कोशिश नहीं की गई, जो एक बेतरतीब तरीके से फैले पहाड़ पर चढ़ने जैसा है. 

जीडीपी में कमी को फिर से वापस उसी स्तर पर पाना एक खोदे हुए गड्ढे को भरने जैसा है जिसमें काफी वक़्त और मेहनत लगती है लेकिन जीडीपी को पुराने स्तर पर ले जाने के लिए इससे पहले कभी इतनी कोशिश नहीं की गई, जो एक बेतरतीब तरीके से फैले पहाड़ पर चढ़ने जैसा है. कोरोना महामारी के दौरान 2019-20 में 4 प्रतिशत के आंकड़े से इस आंकड़े को आगे लेकर जाना है, जो उच्च, एकल अंकों की वृद्धि से अभी काफी दूर है, ख़ासकर जब साल 2021 में वैश्विक अर्थव्यवस्था भी लगभग 5 फ़ीसदी की दर से बढ़ने के लिए तैयार नज़र आती है.

यह सुनिश्चित करने के लिए कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से और भारत, विशेष रूप से “हाई कॉन्टैक्ट” सर्विस सेक्टर में कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. बेहतर आर्थिक परिस्थितियों की जनता की उम्मीदें सबसे अच्छी हैं. हालांकि बेमौसम बारिश ने खरीफ फसल को नुकसान पहुंचाया है जिससे ग्रामीण आय संभावित रूप से कम हो रही है.  कोरोना वेरिएंट ओमिक्रॉन लगातार आर्थिक गतिविधियों में रूकावट पैदा करने की चेतावनी दे रहा है. यह चौथे दौर के टीकाकरण के प्रशासनिक बोझ की ओर इशार कर रहा है, जब केवल 33 प्रतिशत भारतीयों को पूरी तरह से टीकाकरण (2 खुराक) किया गया है, जबकि वैश्विक स्तर पर यह 44 प्रतिशत है और बूस्टर खुराक का तीसरा दौर अभी तक आधिकारिक रूप से शुरू नहीं हुआ है. यह तब है जबकि 3 दिसंबर 2021 तक भारत में 1.26 बिलियन डोज लगाए जा चुके हैं. प्रतिदिन 7 मिलियन वैक्सीनेशन की दर से लोगों का वैक्सीनेशन हुआ है.

मुद्रास्फीती पर लगाम लगाना कठिन

यह आर्थिक मोर्चे पर या तो घरेलू स्तर पर या वैश्विक अर्थव्यवस्था के संबंध में आसान नहीं होता है. वैश्विक स्तर पर महामारी को रोकने के लिए किए गए समर्थन का नतीजा है कि वैश्विक मुद्रास्फीति में वृद्धि के साथ मनी सर्कुलेशन में भी बढ़ोतरी हुई है. भारत, इसके विपरीत, वित्तीय रूप से बहुत विवेकपूर्ण रहा और इस वर्ष बज़टीय राजकोषीय घाटे (एफडी) को नाममात्र के संदर्भ में, पिछले वर्ष के भारतीय रूपए 18.5 ट्रिलियन या सकल घरेलू उत्पाद के 9.5 प्रतिशत से घटाकर भारतीय रूपए 15.1 ट्रिलियन या इस वित्तीय वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद का 6.8 प्रतिशत कर दिया. अक्टूबर तक, व्यय बज़ट निष्पादन के 52.4 फ़ीसदी के मुकाबले एफडी इनवेलप का केवल 36 प्रतिशत ही उपयोग किया गया था.

सरकार को कारोबार बंद करने और सस्ते ऋण के जरिए मध्यम अवधि के विकास को पोषित करने और मुद्रास्फीति जारी रहने पर राजनीतिक शोरशराबे के बीच समझौता करने की ज़रूरत है. राजनीतिक उद्देश्य सभी लोकतंत्रों में आर्थिक विवेक को पीछे छोड़ देते हैं और भारत इस लिहाज़ से कोई अपवाद नहीं है.

कम बज़ट की बाधाओं के साथ मुद्रास्फीति पर लगाम लगाने में राजनीतिक कठिनाई की बाध्यता को अच्छी तरह से समझा जा सकता है, क्योंकि सात राज्यों में महत्वपूर्ण चुनाव होने वाले हैं. लेकिन आख़िरी चीज जो कोई भी सरकार चाहेगी वह है महंगाई की मार से मतदाताओं को बचाना. सरकार को कारोबार बंद करने और सस्ते ऋण के जरिए मध्यम अवधि के विकास को पोषित करने और मुद्रास्फीति जारी रहने पर राजनीतिक शोरशराबे के बीच समझौता करने की ज़रूरत है. राजनीतिक उद्देश्य सभी लोकतंत्रों में आर्थिक विवेक को पीछे छोड़ देते हैं और भारत इस लिहाज़ से कोई अपवाद नहीं है.

यदि राजस्व संग्रह में वृद्धि (अक्टूबर तक बज़टीय राशि का 71 प्रतिशत) कायम नहीं रहता है तो एफडी की सीमा का उल्लंघन भी हो सकता है. अक्टूबर तक इस साल की राजस्व प्राप्तियां – कम विनिवेश आय के बावजूद – 12.6 ट्रिलियन रूपए हैं, जो पिछले वर्ष की इसी अवधि के मुकाबले लगभग एक तिहाई अधिक है. सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश से लाभांश और लाभ के लिए बज़ट के लक्ष्य अक्टूबर के अंत तक 114 प्रतिशत पर हासिल किया गया था, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) द्वारा पिछले वर्ष की तुलना में 0.9 ट्रिलियन, पिछले वर्ष से 73 प्रतिशत अधिक, मौद्रिक योगदान की वजह से यह मुमकिन हो पाया. पेट्रोलियम उत्पादों पर आक्रामक कर नीति ने भी इसमें मदद की, हालांकि अब इसे कमजोर कर दिया गया है. राजस्व संग्रह में यह प्रवृत्ति अच्छी तरह से इस बात का संकेत देती है कि जब तक कोरोना के नए-नए वेरिएंट को रोकने का प्रबंधन ठीक से नहीं होगा यह विकास की गति को धीमा करेगा.

जैसी स्थितियां बनती जा रही हैं, सरकार साफ़-तौर पर सभी समस्याओं को हटा रही है और इसे लेकर लगातार नए-नए कदम उठा रही है. समस्या केवल विकास के लिए धन की मौजूदगी से परे भी है.  आरबीआई ने पहले ही विदेशी निवेशकों की निर्दिष्ट सरकारी प्रतिभूतियों तक पहुंच को आसान बना दिया है, जो कि कुल बकाया सरकारी बॉन्ड के 6.5 प्रतिशत तक सीमित हैं, जिससे भविष्य में अंतर्राष्ट्रीय बॉन्ड इंडेक्स में इसके शामिल होने की उम्मीद बढ़ जाती है.  मौजूदा विदेशी होल्डिंग सिर्फ 2 फ़ीसदी से ऊपर है जबकि चीन के पास अपने 9 प्रतिशत सरकारी बॉन्ड विदेशी निवेशकों के पास हैं लेकिन यह एक ट्रेड सरप्लस की स्थिति में भी है, जैसे भारत में चालू खाता घाटा (वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात और आयात और प्रौद्योगिकी भुगतान के बीच का अंतर) नकारात्मक है,  जो सकल घरेलू उत्पाद के 1 से 2 प्रतिशत के बीच है.

जैसी स्थितियां बनती जा रही हैं, सरकार साफ़-तौर पर सभी समस्याओं को हटा रही है और इसे लेकर लगातार नए-नए कदम उठा रही है. समस्या केवल विकास के लिए धन की मौजूदगी से परे भी है.  

इस स्थिति में सुधार लाने के लिए तीन नीतिगत कार्रवाइयां मदद कर सकती हैं. सबसे पहले, विकास की गति को पटरी पर लाने के लिए राजस्व व्यय पर पूंजी निवेश को प्राथमिकता देने की ज़रूरत है लेकिन अफ़सोस की बात है कि अक्टूबर के अंत तक पूंजीगत व्यय में 46 प्रतिशत बनाम राजस्व व्यय में 54 प्रतिशत का बज़ट निष्पादन इस लक्ष्य के मुताबिक नहीं है. दूसरा, स्वीकृत सार्वजनिक निवेश परियोजनाओं की विकास क्षमताओं की पहचान ज़रूरी है. परियोजना प्रस्तावों में एक अनिवार्य विकास के लिए फ़िल्टर जोड़ना, जिसके नतीजे स्वतंत्र विश्लेषण के लिए सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हों, “राजनीतिक नुक्ताचीनी ” को ख़त्म किया जाए और सबसे अधिक आर्थिक रूप से पुरस्कृत परियोजनाओं के लिए धन को संरक्षित करना जैसे कदम इस लक्ष्य प्राप्ति में मदद कर सकते हैं.

और तीसरा, झटकों को नज़रअंदाज़ करना होगा और आंकड़े संचालित, आपूर्ति श्रृंखला की बाधाओं से प्रेरित लगातार कीमतों के दवाब से पैदा होने वाली प्रतिक्रिया से बचने की ज़रूरत है. मौद्रिक नीति में “समायोजन” रवैया जारी रखने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं है, जब तक कि हम कोरोना महामारी से विरासत में मिली जीडीपी की कमी को पूरा नहीं कर लेते हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.