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अफ्रीका की जंग सिर्फ़ मोर्चों पर नहीं, टूटी ज़िंदगियों के बीच भी लड़ी जा रही है. AFRICOM बंदूकें तो थाम लेता है लेकिन भरोसा और बदलाव उसके दायरे से बाहर है. कूटनीति अगर साथ न चले तो जीत भी रेत की तरह हाथों से फिसल जाती है.
Image Source: Getty Images
2007 में अमेरिका ने अफ्रीका में अपनी सैन्य गतिविधियों को संभालने के लिए अमेरिका के अफ्रीका कमांड AFRICOM बनाया. इसका काम अफ्रीकी देशों की सेना को मज़बूत करना, आतंकवाद से लड़ना, अमेरिकी हितों की रक्षा करना और शांति के लिए मदद करना है. AFRICOM ने लंबे समय तक USAID और वॉइस ऑफ अमेरिका जैसी नागरिक एजेंसियों के साथ मिलकर काम किया और संयुक्त राष्ट्र, यूरोपियन यूनियन, अफ्रीकन यूनियन जैसे संगठनों के मिशनों को भी मदद दी. इस दौरान उसने अफ्रीकी सेनाओं को ट्रेनिंग दी, समुद्र की सुरक्षा में सहयोग किया, खुफिया जानकारी साझा की और ज़रूरत पड़ने पर मानवीय सहायता और राहत पहुँचाई ताकि अफ्रीका में हालात स्थिर रह सकें.
हालांकि राष्ट्रपति ट्रंप के दूसरे प्रशासन के तहत AFRICOM की भूमिका की महत्वपूर्ण समीक्षा की जा रही है. सितंबर 2025 में अफ्रीका में USAID के काम-काज को प्रभावी रूप से बंद कर दिया गया. इसकी वजह से विकास, मानवीय सहायता और सुशासन में मदद के मामले में एक बड़ा खालीपन आ गया जबकि इससे AFRICOM के सुरक्षा संबंधी काम-काज में मदद मिलती थी. USAID के 48 अरब डॉलर के बजट का ज़्यादातर हिस्सा या तो ख़त्म कर दिया गया है या विदेश विभाग को ट्रांसफर कर दिया गया है. हालांकि इसके कार्यान्वयन के तौर-तरीकों को लेकर बहुत कम स्पष्टता है. वैसे तो HIV/AIDS की पहल समेत कुछ वैश्विक स्वास्थ्य कार्यक्रमों को बहाल कर दिया गया है लेकिन इस बात को लेकर अनिश्चितता बनी हुई है कि ज़मीनी स्तर पर इनका कार्यान्वयन और निगरानी कौन करेगा. इसने अमेरिका के सॉफ्ट पावर को कम किया है, मानवीय एवं सतत विकास लक्ष्य (SDG) की पहल में अमेरिका के नेतृत्व को कमज़ोर किया है और AFRICOM जैसे सुरक्षा साधनों पर अधिक ज़ोर डाला है.
इसके साथ-साथ अफ्रीका में भू-राजनीतिक गतिशीलता में बहुत ज़्यादा बदलाव आया है. साहेल रीजन से फ्रांस की सेना हट गई है जबकि रूस ने अफ्रीका कोर के माध्यम से अपने प्रभाव का विस्तार किया है. अफ्रीका कोर एक सरकार के द्वारा नियंत्रित सैन्य समूह है जिसने वैगनर ग्रुप की जगह ली है. अब अफ्रीका कोर माली, बुर्किना फासो और नाइजर में सैन्य सरकारों का समर्थन कर रही है और उसके रणनीतिक संसाधनों को सुरक्षित रख रही है. इस तरह वो पश्चिमी देशों के प्रभाव को हटा रही है.
नागरिक-कूटनीतिक रणनीति के बिना AFRICOM अलग-थलग पड़ने का जोखिम.
इस माहौल को देखते हुए अफ्रीका में अमेरिका की भागीदारी के बचे हुए प्राथमिक साधन के रूप में AFRICOM का महत्व बढ़ सकता है. हालांकि एक समानांतर नागरिक, कूटनीतिक और विकास से जुड़ी रणनीति के बिना AFRICOM को अलग-थलग होकर काम करने का जोखिम उठाना पड़ सकता है जिससे नतीजों को तय करने या रूस एवं चीन जैसे प्रतिस्पर्धियों का मुकाबला करने की उसकी क्षमता सीमित हो जाएगी. मुख्य सवाल ये है कि क्या ट्रंप प्रशासन AFRICOM की ज़िम्मेदारी को फिर से परिभाषित करेगा या अमेरिका के रणनीतिक प्रभाव को और कम होने देगा.
AFRICOM की स्थापना अफ्रीका में बढ़ते आतंकवाद एवं अस्थिरता और चीन एवं रूस के प्रभाव का मुकाबला करने के लिये की गई थी. साथ ही AFRICOM ने इस महाद्वीप के संसाधनों, जनसांख्यिकी और आर्थिक क्षमता की वजह से इसके रणनीतिक महत्व को स्वीकार किया था. उसका काम पांच प्रमुख क्षेत्रों पर केंद्रित है: अल-शबाब एवं ISIS के सहयोगियों जैसे संगठनों के ख़िलाफ़ आतंकवाद विरोधी अभियान; सुरक्षा सहायता कार्यक्रमों के ज़रिए अफ्रीकी सेनाओं की ट्रेनिंग एवं उन्हें सुसज्जित करना; रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण सागरों में सुरक्षा मज़बूत करना; मानवीय राहत एवं आपदा प्रतिक्रिया के प्रयासों का समर्थन करना; और ड्रोन एवं निगरानी के अड्डों के नेटवर्क के माध्यम से खुफिया जानकारी जुटाना, निगरानी और टोह रखना. इन अभियानों का उद्देश्य क्षेत्रीय स्थिरता बढ़ाना, अमेरिका के हितों की रक्षा करना और अफ्रीकी सरकारों एवं संस्थानों के साथ दीर्घकालिक साझेदारी तैयार करना है.
AFRICOM ने पूरे अफ्रीका में आतंकवाद को रोकने और क्षमता निर्माण में उल्लेखनीय प्रगति दर्ज की है लेकिन राजनीतिक अस्थिरता और पश्चिमी देशों के ख़िलाफ़ बढ़ती भावना के कारण दीर्घकालिक सफलता पर अभी भी संदेह है.
AFRICOM ने पूरे अफ्रीका में आतंकवाद को रोकने और क्षमता निर्माण में उल्लेखनीय प्रगति दर्ज की है. जूनिपर शील्ड जैसे अभियानों ने नाइजर, चाड और माली जैसे देशों में सुरक्षा बलों को मज़बूत किया है. हालांकि ये देश (जहां अब सैन्य शासन है) रूस के समर्थन की वजह से पश्चिमी देशों के गठबंधन से दूर हो गए हैं. सोमालिया में AFRICOM के द्वारा समर्थित अभियानों ने लक्ष्य बनाकर किए गए हमलों और ATMIS (अफ्रीकन यूनियन ट्रांज़िशन मिशन इन सोमालिया) एवं सोमालिया की सेना के साथ खुफिया जानकारी साझा करके अल-शबाब को कमज़ोर कर दिया है. मानवीय अभियानों (जिनमें इबोला के प्रकोप के दौरान सहायता शामिल है) ने अमेरिका की विश्वसनीयता बढ़ाई है. समुद्री सहयोग के प्रयासों से तटीय सुरक्षा में सुधार आया और गिनी की खाड़ी में समुद्री डकैती कम हुई. लेकिन राजनीतिक अस्थिरता और पश्चिमी देशों के ख़िलाफ़ बढ़ती भावना के कारण दीर्घकालिक सफलता पर अभी भी संदेह बना हुआ है.
अपने योगदान के बावजूद AFRICOM को महत्वपूर्ण हदों का सामना करना पड़ रहा है जो उसके कुल प्रभाव को कमज़ोर करती हैं. एक प्रमुख आलोचना अफ्रीका में अमेरिकी नीति का बहुत ज़्यादा सैन्यीकरण है जिसके तहत विकास, सुशासन और कूटनीति की तुलना में अक्सर सुरक्षा उपकरणों को प्राथमिकता दी जाती है. इस दृष्टिकोण से रणनीतिक लाभ तो मिला है लेकिन टिकाऊ स्थिरता में नाकामी मिली है. अमेरिका की कई साझेदार सेनाएं भ्रष्टाचार, कमज़ोर संस्थानों और बहुत कम ज़िम्मेदारी से जूझ रही हैं. ये ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें सिर्फ ट्रेनिंग ठीक नहीं कर सकती है. माली में अमेरिका के द्वारा प्रशिक्षित अधिकारियों ने बाद में तख्तापलट का नेतृत्व किया. इसने राजनीतिक सुधार के बिना सैन्य सहायता का ख़तरा उजागर किया.
एक प्रमुख आलोचना अफ्रीका में अमेरिकी नीति का बहुत ज़्यादा सैन्यीकरण है. इससे रणनीतिक लाभ तो मिला है लेकिन टिकाऊ स्थिरता में नाकामी मिली है
सोमालिया और लीबिया में ड्रोन हमलों के ज़रिए AFRICOM ने आतंकवादियों को ख़त्म तो किया लेकिन इस दौरान आम लोगों की मौत भी हुई जिसकी वजह से स्थानीय समर्थन में कमी आई और अमेरिका विरोधी भावना में बढ़ोतरी हुई. इसके अलावा, पूरे अफ्रीका में AFRICOM को लोगों के व्यापक समर्थन की कमी है क्योंकि कई लोग इसे संदेह की नज़र से देखते हैं जिससे नए सिरे से अमेरिकी उपनिवेशवाद की धारणा मज़बूत हुई है. इसकी प्रतिक्रियात्मक स्थिति ने इसके रणनीतिक प्रभाव को सीमित कर दिया है और साहेल रीजन में लगातार अस्थिरता दीर्घकालिक संकट को रोकने में असमर्थता दिखाती है. इस बीच चीन और रूस का बढ़ता प्रभाव AFRICOM की भूमिका को चुनौती दे रहा है क्योंकि चीन और रूस वैकल्पिक सुरक्षा मॉडल पेश कर रहे हैं. अमेरिका का एक प्रमुख साधन होने के बावजूद AFRICOM सीमित संसाधनों, राजनीतिक प्रतिरोध और रणनीतिक अस्पष्टता से मजबूर है.
AFRICOM की गतिविधियों को लेकर ट्रंप प्रशासन का एक जटिल और काफी हद तक लेन-देन वाला रवैया है जो आतंकवाद निरोध, चीन एवं रूस के प्रभाव का मुकाबला करने और रणनीतिक खनिजों तक पहुंच हासिल करने पर केंद्रित है. वैसे तो ट्रंप प्रशासन ने नौकरशाही की दिक्कतों को दूर करने के लिए AFRICOM का विलय अमेरिका यूरोपीय कमान के साथ करने पर विचार किया लेकिन अंत में उसने AFRICOM को एक स्वतंत्र कमान के रूप में बनाए रखने का फैसला लिया. ट्रंप प्रशासन ने अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान अफ्रीका से जुड़ी नीति में AFRICOM की केंद्रीय भूमिका की योजना बनाई. ट्रंप प्रशासन के रक्षा मंत्री पीट हेगसेथ के बयानों और 2025 के मध्य में संसद के सामने AFRICOM के पूर्व कमांडर, जनरल माइकल लैंगली एवं ट्रंप के द्वारा जनरल लैंगली के उत्तराधिकारी के रूप में नियुक्त जनरल डैगविन एंडरसन की गवाही से पता चलता है कि AFRICOM अपना मौजूदा दर्जा बनाए रखेगा और ट्रंप प्रशासन की अफ्रीका नीति में मुख्य भूमिका निभाएगा.
AFRICOM और EUCOM के स्टटगार्ट मुख्यालय के दौरे में हेगसेथ ने कहा, “अफ्रीका में इस्लामी कट्टरपंथियों और ईसाई आबादी के बीच लड़ाई में अफ्रीका सबसे आगे है. अफ्रीका के ईसाई इस्लामिक कट्टरपंथियों के घेरे में हैं और उन्हें लंबे समय से अनदेखा किया गया है. अमेरिकी हितों को भी वहां नज़रअंदाज़ किया गया है. ये बहुत मायने रखता है. हम इस्लामिक कट्टरपंथियों को पैर जमाने की अनुमति नहीं देंगे, विशेष रूप से अमेरिका पर हमले का प्रयास नहीं करने देंगे.”
AFRICOM की गतिविधियों के लिए ट्रंप प्रशासन के समर्थन के प्रमुख पहलुओं में शामिल हैं:
सैन्य अभियानों में बढ़ोतरी: ट्रंप प्रशासन ने सोमालिया में अमेरिकी सैन्य अभियानों में महत्वपूर्ण बढ़ोतरी की है, विशेष रूप से अल-शबाब और ISIS-सोमालिया के ठिकानों पर हवाई हमलों में बहुत ज़्यादा बढ़ोतरी हुई है. हेगसेथ ने AFRICOM के कमांडर को राष्ट्रपति की पूर्व मंज़ूरी के बिना हमले और कमांडो छापे मारने का अधिकार दिया है.
वो “हिंसक चरमपंथी संगठनों” (VEO) के ख़तरों से निपट सकते हैं. इन संगठनों पर आधिकारिक रूप से पेंटागन प्रतिबंध लगाता है और इनमें हथियारबंद जिहादी आतंकवादियों (जिनमें से कई अल-क़ायदा या इस्लामिक स्टेट से जुड़े हैं) के अलावा साहेल में तुआरेग मिलिशिया और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में हुतु एवं तुत्सी मिलिशिया जैसे जातीय संगठन शामिल हैं. इसके अलावा सहरावी अरब डेमोक्रेटिक रिपब्लिक जैसे सशस्त्र संगठन भी हैं जो अपने आत्मनिर्णय के अधिकार को हासिल करने के लिए लड़ रहे हैं.
“अमेरिका फर्स्ट” और लेन-देन का रवैया: ट्रंप प्रशासन की नीति “अमेरिका फर्स्ट” और बहुत ज़्यादा लेन-देन के दृष्टिकोण पर आधारित है. इसके तहत रणनीतिक रूप से कच्चे माल (जैसे कि डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में) तक पहुंच के बदले में अफ्रीकी देशों को सुरक्षा सहायता एवं सैन्य उपकरण की पेशकश की जाती है. वर्तमान समय में अमेरिका के लगभग 6,500 सैन्य कर्मी अफ्रीका में तैनात हैं. 2019 की AFRICOM की एक सूची में 13 स्थायी अड्डों और 17 अस्थायी साइट के बारे में बताया गया है. हालांकि उसके बाद नाइजर के अगाडेज़ में ड्रोन अड्डे समेत कई अमेरिकी केंद्र बंद हो गए हैं. इसका कारण नाइजर, माली और बुर्किना फासो में सैन्य तख्तापलट है.
प्रतिस्पर्धी ताकतों का मुकाबला: ट्रंप प्रशासन के तहत AFRICOM के लिए एक बड़ी प्राथमिकता अफ्रीका में चीन और रूस के बढ़ते आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य प्रभाव का मुकाबला करना है. इसमें अफ्रीकी बंदरगाहों में चीन की भागीदारी और रूसी भाड़े के सैनिकों की मौजूदगी को लेकर चिंताएं भी शामिल हैं. सीनेट की सशस्त्र बल समिति को जनरल एंडरसन ने कहा ‘स्पेशल ऑपरेशन कमांड अफ्रीका (SOCAF) के कमांडर के रूप में मैंने देखा कि अटलांटिक और इंडो-पैसिफिक के बीच रणनीतिक रूप से स्थिति अफ्रीका कैसे महाशक्तियों की शत्रुता और आतंकवाद के मिलने की जगह बनता जा रहा है. चीन आर्थिक प्रभाव से आगे बढ़कर अपने दृष्टिकोण का विस्तार अधिक सैन्य एवं सूचना अभियानों पर केंद्रित कर रहा है. रूस की कार्रवाई के कारण बार-बार अस्थिरता पैदा हो रही है और ये अमेरिकी हितों के ख़िलाफ़ होती है. आतंकवादी नेटवर्क बिना शासन वाले क्षेत्रों में फायदा उठा रहे हैं जिससे हमारी सुरक्षा को सीधे तौर पर ख़तरा है.’
निवेश के लिए सुरक्षा पर ध्यान: ट्रंप प्रशासन अफ्रीका में अमेरिका के निजी निवेश के लिए सुरक्षा को ज़रूरी मानता है और AFRICOM अमेरिका के वाणिज्यिक हितों के लिए स्थिर माहौल की गारंटी देने वाले के रूप में काम कर रहा है. मरीन कोर AFRICOM के कमांडर, जनरल माइकल लैंगली ने इससे पहले सदन की सशस्त्र सेवा समिति को बताया था कि “अमेरिका का AFRICOM ताकत के ज़रिए शांति हासिल करेगा. वो उन आतंकवादी संगठनों का मुकाबला करेगा जो अमेरिका पर हमले के लिए अपनी क्षमता बढ़ा रहे हैं. साथ ही चीन और दूसरे विरोधियों की गतिविधियों का भी जवाब देगा. बढ़ते ख़तरे का जवाब देने के लिए एयरबोर्न-इंटेलिजेंस, सर्विलांस एंड रिकॉनिसेंस (A-ISR) और काउंटर-अनमैन्ड एरियल सिस्टम (C-UAS) जैसी क्षमताएं महत्वपूर्ण हैं. हमें ये अच्छी तरह से पता है कि अगर ISIS और अल-क़ायदा जैसे संगठन अपना विस्तार जारी रखते हैं तो वो अमेरिका के लिए सीधा ख़तरा बनेंगे. इस स्थिति को देखते हुए अमेरिकी AFRICOM—खुफिया समुदाय और दूसरे देशों के खुफिया साझेदारों के साथ मिलकर काम करना जारी रखेगा ताकि अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा हितों पर ख़तरे को कम रखा जा सके.’
कम विकास सहायता: अब ध्यान काफी हद तक पारंपरिक विदेशी सहायता एवं विकास कार्यक्रमों (जिनमें से कुछ में कटौती की गई है या उन्हें समाप्त कर दिया गया है) से हटकर संघर्ष के कारणों के प्रति विशुद्ध सैन्य जवाब की तरफ केंद्रित हो गया है. कुछ जानकार तर्क देते हैं कि इससे दीर्घकालिक स्थिरता के प्रयास सीमित हो सकते हैं.
कमान की स्वतंत्रता के लिए समर्थन: शुरुआत में AFRICOM के आकार को छोटा करने या विलय करने की संभावना पर विचार करने के बावजूद प्रशासन एवं सेना के शीर्ष अधिकारियों ने इस बात की पुष्टि की है कि कमान मौजूदा सुरक्षा चुनौतियों से निपटने के लिए अपना स्वतंत्र दर्जा बनाए रखेगी.
संक्षेप में कहें तो ट्रंप प्रशासन सक्रिय रूप से AFRICOM की उन गतिविधियों का समर्थन करता है जो उसकी मूल राष्ट्रीय सुरक्षा एवं आर्थिक प्राथमिकताओं के साथ मेल खाती हैं, विशेष रूप से वो जो कथित ख़तरों के ख़िलाफ़ प्रत्यक्ष सैन्य कार्रवाई और दुनिया की दूसरी ताकतों के साथ रणनीतिक प्रतिस्पर्धा से जुड़ी हैं.
वित्त वर्ष 2026 का बजट अफ्रीका में UN और AU (अफ्रीकन यूनियन) के शांति अभियानों के लिए अमेरिका की सभी फंडिंग को ख़त्म करने का प्रस्ताव रखता है.
29 मई 2025 को राष्ट्रपति ट्रंप ने अफ्रीका के लिए सुरक्षा सहायता समेत विदेश विभाग और विदेश परिचालन का वित्त वर्ष 2026 का बजट अनुरोध जारी किया. वैसे तो इसमें किसी देश के बारे में बहुत कम जानकारी दी गई है लेकिन ये ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में अफ्रीका को लेकर 1 अक्टूबर 2025 से शुरू होने वाली अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति को तय करने वाली प्रमुख प्राथमिकताओं का संकेत देता है. वित्त वर्ष 2026 का बजट अफ्रीका में UN और AU (अफ्रीकन यूनियन) के शांति अभियानों के लिए अमेरिका की सभी फंडिंग को ख़त्म करने का प्रस्ताव रखता है. इस कदम के पीछे शांति अभियानों की नाकामी और बहुत ज़्यादा खर्च का हवाला दिया गया है. इनमें सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो, दक्षिण सूडान, अबेई रीजन और पश्चिमी सहारा में शांति मिशन शामिल हैं. इसके अलावा सोमालिया में AU की शांति सेना भी है. इन्हें संयुक्त राष्ट्र के अभियानों के लिए वित्त वर्ष 2025 में 1.2 अरब अमेरिकी डॉलर मिले और अकेले सोमालिया के लिए अमेरिका से 200 मिलियन अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा मिले.
ट्रंप प्रशासन के तहत अफ्रीका में कम नागरिक भागीदारी के बीच AFRICOM की भूमिका अधिक सुरक्षा केंद्रित दृष्टिकोण की तरफ बदल गई है. USAID के संचालन में कमी आने के साथ AFRICOM आतंकवाद निरोध, सैन्य ट्रेनिंग और क्षेत्रीय सुरक्षा सहयोग के लिए अमेरिका का प्राथमिक साधन बन गया. ट्रंप प्रशासन ने जिहादी ख़तरों और रूस-चीन के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए ड्रोन हमलों, सैन्य ताकत और साझेदार देशों की सेनाओं के समर्थन पर ज़ोर दिया लेकिन आलोचकों ने चेतावनी दी है कि सेना पर केंद्रित इस दृष्टिकोण से दीर्घकालिक स्थिरता और अमेरिकी सॉफ्ट पावर को नुकसान होने का ख़तरा है.
अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए AFRICOM को अधिक समग्र रूप से काम करने की ज़रूरत है. उसे अफ्रीका की अगुवाई में सुरक्षा प्रयासों का समर्थन करना होगा, सुशासन को बढ़ावा देना होगा और USAID एवं विदेश विभाग जैसी नागरिक एजेंसियों के साथ नज़दीकी रूप से जुड़ना होगा. इस तरह के फेरबदल के बिना AFRICOM के सामने कुछ समय के लिए सुरक्षा फायदे के चक्र में बने रहने का ख़तरा है जो दीर्घकालिक स्थिरता पैदा करने में नाकाम है.
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Gurjit Singh has served as Indias ambassador to Germany Indonesia Ethiopia ASEAN and the African Union. He is the Chair of CII Task Force on ...
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