एक सख़्त और कठिन हालात के मध्य: रूस-यूक्रेन संघर्ष पर अफ्रीका की स्थिति
एक सख़्त और कठिन हालात के मध्य: रूस-यूक्रेन संघर्ष पर अफ्रीका की स्थिति
यूक्रेन पर रूस का हमला ऐसे वक़्त में हो रहा है जब अफ्रीका के देश पहले से ही कोरोना महामारी के असर से उबरने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. यह युद्ध भौगोलिक रूप से दूर के इलाक़े में हो रहा है लेकिन इसके परिणाम अफ्रीकी महादेश को भी भुगतने होंगे. यह जानते हुए कि रूस और यूक्रेन दोनों की अफ्रीकी महाद्वीप में महत्वपूर्ण भूमिका है, इस मामले का अफ्रीका की अर्थव्यवस्था और राजनीति पर तात्कालिक और स्थायी दोनों असर पड़ने वाला है.
यह युद्ध भौगोलिक रूप से दूर के इलाक़े में हो रहा है लेकिन इसके परिणाम अफ्रीकी महादेश को भी भुगतने होंगे.
युद्ध के तत्कालिक प्रभाव को अफ्रीकी नागरिकों ने महसूस किया है. ज़्यादातर इंजीनियरिंग और मेडिकल छात्रों द्वारा, जिन्होंने युद्धग्रस्त देश से वतन वापसी की कोशिशों के दौरान कथित तौर पर नस्लवाद और भेदभाव को महसूस किया है. यूक्रेन में 80,000 से अधिक अंतर्राष्ट्रीय छात्रों में से लगभग एक चौथाई (क़रीब 20 फ़ीसदी) अफ्रीकी देशों से पढ़ने के लिए आते हैं, जिनमें मिस्र, नाइजीरिया और मोरक्को से बड़ी तादाद में छात्र आते हैं. सोशल मीडिया पर ऐसे कईवीडियोसामने आए हैं, जिनमें दिखाया गया है कि यूक्रेन में सुरक्षाकर्मियों द्वारा अफ्रीकी नागरिकों को ट्रेन में चढ़ने से रोक दिया गया और पहले यूक्रेनी नागरिकों के लिए ट्रेन में जगह बनाई गई.
अफ्रीका पर इस युद्ध के आर्थिक प्रभाव का सबसे ज़्यादा असर खाद्य आयात और पर्यटन पर पड़ेगा. रूस और यूक्रेन दोनों ही बड़े पैमाने पर अफ्रीकी देशों को सोयाबीन, गेहूं, जौ और सूरजमुखी के तेल जैसे खाद्य पदार्थ निर्यात करते हैं. साल 2020 में अफ्रीकी देशों ने दुनिया भर में बढ़ती कीमतों के बीच भी रूस और यूक्रेन से 6.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर के कृषि उत्पादों का आयात किया था. ऐसे में अगर युद्ध लंबा चलता है तो अफ्रीकी देशों को इसकी आपूर्ति बाधित होगी जिससे ना सिर्फ़ वस्तुओं की क़ीमतें बढ़ेंगी बल्किपूरे महाद्वीप में खाद्य असुरक्षा और ग़रीबी को बढ़ावा मिलेगा.
अगर युद्ध लंबा चलता है तो अफ्रीकी देशों को इसकी आपूर्ति बाधित होगी जिससे ना सिर्फ़ वस्तुओं की क़ीमतें बढ़ेंगी बल्कि पूरे महाद्वीप में खाद्य असुरक्षा और ग़रीबी को बढ़ावा मिलेगा.
जहां तक बात राजनीतिक और कूटनीतिक असर की है तो अफ्रीकी देश अब एक गंभीर संकट और कठिन परिस्थितियों के बीच फंस गए हैं. जब संघर्ष छिड़ा तो अफ्रीकी देशों ने रूस के अंतर्राष्ट्रीय कानून के उल्लंघन की जमकर आलोचना की और यूक्रेनी लोगों और मुल्क की स्वतंत्रता के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त की. संयुक्त राष्ट्र में केन्या के स्थायी प्रतिनिधि मार्टिन किमानी के बेबाक भाषण मेंरूसी हमले की निंदाकी स्पष्ट झलक मिलती थी और इसके तुरंत बादअफ्रीकी संघ(एयू) और सुरक्षा परिषद के सभी तीन अफ्रीकी सदस्यों (केन्या, गैबॉन और घाना) ने रूसी आक्रमण की जमकर आलोचना की, जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद(यूएनएससी) के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था.
कुल मिलाकर 28 अफ्रीकी देशों ने बिना शर्त रूसी सैनिकों की वापसी की मांग वाले प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया. इसमें नाइजीरिया, घाना और मिस्र जैसी कुछ बड़ी अर्थव्यवस्थाएं भी शामिल थीं. 17 अफ्रीकी देशों के एक समूह ने मतदान से परहेज़ किया जिसमें दक्षिण अफ्रीका, युगांडा, माली और जिम्बाब्वे शामिल थे. महाद्वीप में इरिट्रिया एकमात्र ऐसा देश था जिसने इस प्रस्ताव के ख़िलाफ़ मतदान किया था. यूक्रेन पर रूस के आक्रमण को लेकर संयुक्त राष्ट्र के वोट ने वास्तव में महाद्वीप को दो हिस्से में विभाजित कर दिया और आगे उन देशों के बीच गहरी दरार को उजागर कर दिया जो रूस और पश्चिम के बीच पक्ष लेने से इनकार करते हैं.
अफ्रीकी वोटिंग पैटर्न क्या बताता है?
मतदान के पैटर्न में इस तरह के विभाजन और कुछ अफ्रीकी देशों की ओर से रूसी आक्रामकता की निंदा करने के पीछे दो प्रमुख कारण हैं. पहला, अफ्रीकी देश बेहद सावधानी से कदम बढ़ा रहे हैं और तटस्थत रहने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि वे किसी एक पक्ष को चुनने की स्थिति में फंसना नहीं चाहते हैं या किसी भी प्रकार के छद्म युद्ध में शामिल नहीं होना चाहते हैं. दरअसल ये मुल्क पश्चिम और पूर्व के देशों के साथ अपने संबंधों में संतुलन लाने की कोशिश कर रहे हैं जिससे कि वो अपने बाहरी भागीदारों में विविधता ला सकें. यह इस तथ्य के अलावा है कि अफ्रीकी देश ज़्यादातर नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था पसंद करते हैं और बहुपक्षवाद को अपनाने के हिमायती हैं.
यूक्रेन पर रूस के आक्रमण को लेकर संयुक्त राष्ट्र के वोट ने वास्तव में महाद्वीप को दो हिस्से में विभाजित कर दिया और आगे उन देशों के बीच गहरी दरार को उजागर कर दिया जो रूस और पश्चिम के बीच पक्ष लेने से इनकार करते हैं.
दूसरा, पिछले कुछ सालों में रूस की अफ्रीकी नेताओं के साथ नजदीकियां बढ़ी हैं. रूस ने लीबिया, सूडान, मध्य अफ्रीकी गणराज्य (सीएआर), मोजाम्बिक, बुर्किना फासो और माली जैसे अफ्रीकी देशों को व्यापक ख़ुफ़िया और सैन्य सहायता प्रदान की है. ख़ास तौर पर वैगनर समूह के भाड़े के रूसी सैनिक सीएआर और माली के संघर्षों में शामिल रहे हैं. इस तरह का सैन्य और भौतिक समर्थन बिना किसी ख़ास जुड़ाव के, अफ्रीकी देशों के लिए विद्रोहियों और ज़िहादी समूहों के ख़िलाफ़ उनकी लड़ाई में काफी काम आता रहा है. पहले से ही सीएआर के अध्यक्ष, फॉस्टिन-आर्केंज टौएडेरा ने डोनेट्स्क और लुहान्स्क में रूस के हस्तक्षेप के लिएसमर्थन की घोषणाकी है.
पश्चिमी प्रतिबंधों के चलते अफ्रीका के लिए मौके और चुनौतियां
जैसे-जैसे रूस-यूक्रेन के बीच जंग लंबा होता जा रहा है, संयुक्त राज्य अमेरिका, नेटो और उसके पश्चिमी सहयोगियों ने कई तरह के प्रतिबंध रूस पर लगा दिये हैं और रूस के ख़िलाफ़ एक तरह से आर्थिक युद्ध छेड़ दिया है. इनमें रूसी बैंकों को स्विफ़्ट भुगतान प्रणाली से बाहर रखा गया है जो वैश्विक लेनदेन पर रोक लगाता है, रूसी संपत्तियों को फ्रीज़ करता है, यात्रा प्रतिबंध लगाता है, कंप्यूटर चिप्स, कंप्यूटर और अन्य उच्च तकनीक वाले उत्पादों तक रूसी पहुंच को रोकता है. रूसी मुद्रा – रूबल 30-40 प्रतिशत तक गिर गया है, जिसके कारण राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने पश्चिम द्वारा प्रतिबंधों को ‘युद्ध की घोषणा‘ के समान बताया है.
रूस पर पश्चिमी प्रतिबंधों का अफ्रीकी देशों की अर्थव्यवस्था और सुरक्षा पर प्रतिकूल असर होना तय है लेकिन इसके साथ ही ये परिस्थितियां चुनौतियां और अवसर भी प्रदान करते हैं. प्रतिबंधों और आपूर्ति श्रृंखला में व्यवधानों के सबसे स्पष्ट प्रभावों में से एक वैश्विक उत्पादों की क़ीमतों में वृद्धि होगी, ख़ास तौर पर तेल और गेहूं की क़ीमतों में बढ़ोतरी होना तय है. रूस और यूक्रेनदुनिया भर में गेंहू निर्यात का लगभग 30 प्रतिशतहिस्सा पूरा करते हैं जो अफ्रीकी उपभोक्ताओं के भोजन का मुख्य स्रोत है. इस गेहूं का अधिकांश भाग मिस्र में आयात किया जाता है और फिर वहां से महाद्वीप के बचे हुए हिस्से में वितरित किया जाता है. गेहूं और अन्य वस्तुएं जैसे कच्चा तेल, उर्वरक काला सागर के साथ विभिन्न बंदरगाहों से अफ्रीका भेजे जाते हैं, जोसामान भेजने का एक प्रमुख जलमार्गहै. इसने यूक्रेन के काला सागर के बंदरगाहों की नाकाबंदी और बाद में इसके चलते खाद्य क़ीमतों में बढ़ोतरी और मुद्रास्फीति की आशंकाओं की चिंताओं को बढ़ा दिया है, विशेष रूप से घाना, नाइजीरिया, केन्या और सूडान जैसे अफ्रीकी देशों में जो काला सागर से गेहूं के आयात पर निर्भर हैं.
अगर रूस चीन को अपना तेल बेचने में सफल हो जाता है, जो अब तक अफ्रीका से अपने तेल आयात पर निर्भर रहा है, तो यह अफ्रीकी आपूर्तिकर्ताओं को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा.
हालांकि अफ्रीकी देशों के लिए कुछ मौके भी हैं. पश्चिमी देशों के प्रतिबंध जो यूरोपीयन तेल और गैस बाज़ार तक रूस की पहुंच को रोकते हैं, वो तेल उत्पादक अफ्रीकी देशों के लिए एक वरदान साबित हो सकते हैं, बशर्ते वे इस मौके का लाभ उठाएं. अब जबकि यूरोपीय देश अपने आयात में विविधता लाने की कोशिश में हैं और रूसी आयात पर अपनी निर्भरता को कम करने के लिए अल्ज़ीरिया, अंगोला और मोज़ाम्बिक जैसे देशों को विकल्प के रूप में देख रहे हैं और अफ्रीकी देशों के लिए इस मौके को भुनाने और अपनी कच्चे तेल की वैश्विक मांगों की आवश्यकता को पूरा करने के लिए उन्हें स्थानीय स्तर पर उत्पादन करने की क्षमता बढ़ाने और पर्याप्त रिफाइनरियों की कमी की चुनौती का समाधान करने की ज़रूरत होगी. दूसरी ओर, अगर रूस चीन को अपना तेल बेचने में सफल हो जाता है, जो अब तक अफ्रीका से अपने तेल आयात पर निर्भर रहा है, तो यह अफ्रीकी आपूर्तिकर्ताओं को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा.
अफ्रीका में रूसी मौजूदगी की सीमा
2014 में रूस द्वारा क्रीमिया पर कब्ज़ा करने और उसके बाद वैश्विक समुदाय से अलग थलग किए जाने के बाद रूस ने उद्देश्यपूर्ण ढंग से और अधिक अंतर्राष्ट्रीय साझेदारों की तलाश की है. स्वाभाविक रूप से रूस ने अफ्रीका पर अपनी निगाहें डाली हैं, जो एक ऐसा महाद्वीप है जहां पारंपरिक पश्चिमी प्रभाव लगातार कम होता जा रहा है और चीन, भारत, संयुक्त अरब अमीरात, तुर्की, जापान और ब्राजील जैसे नए मुल्क यहां अपनी उपस्थिति लगातार बढ़ा रहे हैं. साल 2019 में पहले रूस-अफ्रीका शिखर सम्मेलन में पुतिन ने स्पष्ट किया कि अफ्रीका उसकी प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर था. दो साल बाद मॉस्को की विदेश नीति साल 2022 को ‘अफ्रीका वर्ष’ के रूप में संदर्भित करने जा रही थी, जैसा कि सेंट पीटर्सबर्ग में अक्टूबर में होने वाले दूसरे रूस-अफ्रीका शिखर सम्मेलन से साफ है. रूस-यूक्रेन संकट के बीच शिखर सम्मेलन अब होगा या नहीं यह देखा जाना बाकी है लेकिन जो साफ है वह यह कि रूस अफ्रीकी महादेश में अपनी मौजूदा संपर्कों के विस्तार में दिलचस्पी दिखा सकता है, जो उसका इरादा भी है.
लाल सागर पर बंदरगाह शहर सूडान में एक नौसैनिक अड्डे से, माली, सीएआर और बुर्किना फासो जैसे अफ्रीकी देशों के साथ विभिन्न सैन्य सहयोग समझौतों को अंजाम देने के लिए रूस अफ्रीका पर अधिक प्रभाव जमाने की कोशिश में है. साल 2015 से रूस और अफ्रीका के बीच द्विपक्षीय व्यापार बढ़ता जा रहा है और यह20 बिलियन अमेरिकी डॉलरतक पहुंच गया है. यह ख़ुफ़िया, प्रशिक्षण और उपकरणों के रूप में अपारदर्शी सुरक्षा प्रावधानों के अलावा है जो रूस कुछ अफ्रीकी देशों को देता रहता है. वैगनर समूह की गुप्त गतिविधियां, जिसके निजी सैन्य समूह के कई अफ्रीकी देशों में शामिल होने की सूचना है, आगे अफ्रीका में रूस के हितों की असली रूपरेखा की भविष्यवाणी करने के काम को और जटिल बना देती है.
जैसे-जैसे यूक्रेन में संघर्ष लंबा खिंचता जा रहा है, अफ्रीकी देशों को कुछ कठिन विकल्प चुनने की ज़रूरत होगी और अपने विविध बाहरी भागीदारों के साथ अपने संबंधों को चतुराई से बहाल रखना होगा ताकि उनके राष्ट्रीय हितों की रक्षा हो सके.
कुछ ऐतिहासिक और वर्तमान कारण हैं जो इस ओर इशारा करते हैं कि अफ्रीकी देशों ने एकीकृत तरीक़े से चल रहे संघर्ष की निंदा क्यों नहीं की. अपनी ओर से रूस ने कभी भी 1884 के बर्लिन सम्मेलन में भाग नहीं लिया जिसमें अफ्रीका को यूरोपीय देशों द्वारा विभाजित, साझा और उपनिवेश बनाया गया था. और ना ही रूस ने अफ्रीका के संसाधनों की लूट को कभी अंजाम दिया या फिर उसे उपनिवेश बनाने की कोशिश की. वर्तमान संदर्भ में सोमालिया से अमेरिका की वापसी या माली से फ्रांस की वापसी से एकसुरक्षा के नज़रिये से शून्यपैदा होने की आशंका है जो रूस को अधिक केंद्रीय भूमिका निभाने की अनुमति देगा. हालांकि इस तरह की धारणाओं पर बहस हो सकती है लेकिन वे बिना उकसावे के रूसी एकतरफा आक्रमण को सही नहीं ठहरा सकते हैं और जो अब विश्व व्यवस्था को बाधित करने की धमकी दे रहा है.
जैसे-जैसे यूक्रेन में संघर्ष लंबा खिंचता जा रहा है, अफ्रीकी देशों को कुछ कठिन विकल्प चुनने की ज़रूरत होगी और अपने विविध बाहरी भागीदारों के साथ अपने संबंधों को चतुराई से बहाल रखना होगा ताकि उनके राष्ट्रीय हितों की रक्षा हो सके.
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Abhishek Mishra is an Associate Fellow with the Manohar Parrikar Institute for Defence Studies and Analysis (MP-IDSA). His research focuses on India and China’s engagement ...