-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
ऐतिहासिक डूरंड लाइन अब भी एक चुभते हुए कांटे की तरह है क्योंकि पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान दोनों इसे लेकर किसी परस्पर फ़ायदेमंद निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सके हैं.
अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय संबंध हमेशा से तनावपूर्ण रहे हैं. इन दोनों पड़ोसियों के बीच विवाद की एक प्रमुख वज़ह औपनिवेशिक विरासत – डूरंड लाइन है, जो पश्तून बहुल आदिवासी क्षेत्रों से होकर गुजरती है. पहले से ही अनिश्चित माहौल में तालिबान के बढ़ते प्रभाव के साथ, साल 2021 के अंतिम कुछ हफ़्तों में यह तनाव और बढ़ गया है. रिपोर्टों के मुताबिक़ पाकिस्तानी सेना ने अफ़गानी सीमा के अंदर 15 किलोमीटर तक चहार बुर्ज़क ज़िले तक जमीन हथिया कर बाड़ लगाने की कोशिश की, जिसे तालिबान ने नाकाम कर दिया. इससे पहले नंगहर इलाक़े में भी ऐसी कोशिश हुई थी.
पाकिस्तान इसे कानूनी रूप से ज़रूरी अंतर्राष्ट्रीय सीमा बताता रहता है और बाड़ लगाने को एक निश्चित उपलब्धि बता कर इसके 90 फ़ीसदी हिस्सा को पूरा करने का दावा करता है, जिससे अफ़ग़ानिस्तान के पास इसे लेकर कोई विकल्प नहीं बचा है सिवाए इसके कि वो इसे स्वीकार कर ले.
सीमा विवाद को परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए, उन स्थितियों को समझना ज़रूरी है जिनके कारण डूरंड समझौते पर हस्ताक्षर हुए और डूरंड रेखा की घोषणा का रास्ता साफ हुआ. अफ़ग़ानिस्तान में, सत्ता में बैठे लोगों के बावजूद, डूरंड लाइन को ‘ऐतिहासिक ग़लती‘ माना जाता है और यह ब्रिटिश उपनिवेशवाद का एक बचा हुआ हिस्सा है जिसे अफ़ग़ान के नागरिक स्वीकार नहीं करना चाहते हैं. अगस्त 2021 में अमेरिका द्वारा नियंत्रित सरकार को सत्ता से हटाने के बाद तालिबान ने अपनी स्थिति मज़बूत की है और यह कहा है कि इस बाड़ ने परिवारों को अलग किया है, और समूह के कमांडर मौलवी सनाउल्लाह संगीन ने एक बयान में कहा है कि वे कथित रूप से बाड़ लगाने के किसी भी नई कोशिश को स्वीकार नहीं करने वाले हैं. दूसरी ओर, पाकिस्तान इसे कानूनी रूप से ज़रूरी अंतर्राष्ट्रीय सीमा बताता रहता है और बाड़ लगाने को एक निश्चित उपलब्धि बता कर इसके 90 फ़ीसदी हिस्सा को पूरा करने का दावा करता है, जिससे अफ़ग़ानिस्तान के पास इसे लेकर कोई विकल्प नहीं बचा है सिवाए इसके कि वो इसे स्वीकार कर ले.
18 वीं शताब्दी में दुर्रानी वंश के शासन के ख़त्म होने के साथ ही पश्तून साम्राज्य बिखर गया और इस क्षेत्र में ब्रिटिश साम्राज्य का परचम लहराने लगा लेकिन दूरदराज़ के इलाक़ों को नियंत्रण में रखना काफी मुश्किल था. जब दो बार के एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध (1832 – 42 और 1878 – 80) से भी ब्रिटिश प्रभाव का विस्तार संभव नहीं हो सका और संघर्षरत कबीलाई समूहों पर कब्ज़ा नहीं जमाया जा सका तो ब्रिटिश साम्राज्य ने अपनी नीतियों में बदलाव करने की सोची. मध्य एशिया में रूस के प्रभाव के विस्तार का जोख़िम और इन इलाक़ों में अपनी आबादी पर पश्तून कबीलाइयों द्वारा संभावित हमले को देखते हुए एक बहुस्तरीय सुरक्षा व्यवस्था – एक त्रिस्तरीय सीमा – तीन संकेंद्रित सीमाओं के साथ आगे बढ़ाया गया : पहला सुलेमान पहाड़ियों की तलहटी का इलाक़ा, जहां तक अंग्रेजों का औपचारिक कब्ज़ा था; दूसरा जहां तक अंग्रेजों के ‘प्रभाव’ में जागीरदार राज्य मौजूद थे; और अंतिम इलाक़ा जो ख़ुद अफ़ग़ानिस्तान था.
विदेश सचिव सर मोर्टिमर डूरंड को अफ़ग़ानिस्तान के अमीर अब्दुर रहमान के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए भेजा गया था. जिसके बाद 12 नवंबर 1893 को डूरंड लाइन से पश्तून-आबादी वाले क्षेत्र का सीमांकन किया गया, जिससे समान संस्कृति और जातीयता साझा करने वाले लोगों के बीच एक दरार पैदा हो गई.
विदेश सचिव सर मोर्टिमर डूरंड को अफ़ग़ानिस्तान के अमीर अब्दुर रहमान के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए भेजा गया था. जिसके बाद 12 नवंबर 1893 को डूरंड लाइन से पश्तून-आबादी वाले क्षेत्र का सीमांकन किया गया, जिससे समान संस्कृति और जातीयता साझा करने वाले लोगों के बीच एक दरार पैदा हो गई. इस समझौते ने रूसी हमले के मामले में सुरक्षा का भरोसा देने के अलावा ब्रिटेन को प्रमुख कारोबारी मार्गों तक पहुंच दिया और बढ़ते पश्तून राष्ट्रवाद को रोकने के लिए फूट डालो और शासन करने की रणनीति को भी पूरक बनाया.
दोनों ही समूहों ने अपने प्रभाव क्षेत्र को सीमित करने और एक दूसरे के इलाक़े में हस्तक्षेप ना करने पर सहमति बनाई. 40,000 स्क्वायर मील क्षेत्र जिसे अफ़ग़ानिस्तान ने खो दिया था उसके बदले ब्रिटिश साम्राज्य ने 60,000 पाउंड सालाना मदद करने और किसी भी अनिश्चित स्थिति की हालत में सुरक्षा देने का वादा किया. 1897 में अंतिम सीमा के साथ ही सीमा आयोगों का गठन किया गया लेकिन इसके साथ ही फौरन ही विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए, जिसमें कबिलाई समूह ने डूरंड लाइन का विरोध करना शुरू कर दिया, जो एक ऐसा प्रतिरोध बन गया जो आज तक जारी है. साल 1949 में लोया जिरगा (आदिवासी सभा) में अफ़ग़ानिस्तान ने इस समझौते से एकतरफा हटने का फैसला ले लिया और भले ही देश में कोई भी सरकार हो,यह स्थिति आज तक अपरिवर्तित बनी हुई है.
इसके साथ ही दक्षिण एशिया में नए स्वतंत्र देशों के लिए एक उपनिवेश से एक आज़ाद राष्ट्र में बदलने पर उसकी सीमाएं भी अनिवार्य हो गईं और इन सीमाओं ने मुल्कों की संप्रभुता को आगे बढ़ाया. राष्ट्रीय संप्रभुता और प्रादेशिकता को अंजाम देने के लिए सीमा पर तैनाती की वजह से लोगों की करीबी भावना से जुड़े समुदाय पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है. पश्तूनों के लिए, उनकी जातीय पहचान किसी भी राष्ट्र द्वारा बढ़ाई गई पहचान से परे थी. शुरूआत से ही साथ रहने की वजह से वे डूरंड लाइन को महज़ एक ‘कृत्रिम विभाजन’ करने की कोशिश से ज़्यादा कुछ नहीं मानते थे. पश्तून समुदाय के कई लोग अभी भी अपनी कबीलियाई जीवन जीने के तरीक़े पर कायम हैं और राज्य द्वारा प्रायोजित विचारधारा जो उनपर थोपी जाती है, उससे अधिक ‘पश्तूनवाली’ को बढ़ावा देते हैं.
पश्तूनों के लिए, उनकी जातीय पहचान किसी भी राष्ट्र द्वारा बढ़ाई गई पहचान से परे थी. शुरूआत से ही साथ रहने की वजह से वे डूरंड लाइन को महज़ एक ‘कृत्रिम विभाजन’ करने की कोशिश से ज़्यादा कुछ नहीं मानते थे.
आज़ादी से पहले भी उत्तर-पश्चिमी सीमांत एजेंसी के क्षेत्र में पश्तून ख़ुदाई ख़िदमतगार आंदोलन ने इस विभाजन का विरोध किया था. विभाजन ,और जब विभाजन एक वास्तविकता बन कर सामने आया तो उन्होंने पाकिस्तान के साथ एकीकरण से इनकार कर दिया और एक स्वतंत्र ‘पश्तूनिस्तान’ की मांग पर जोर दिया.
आज़ादी के बाद अंग्रेजों की सभी प्रमुख नीतियों को शामिल रखने के बाद पाकिस्तान ने फ़्रंटियर क्राइम्स रेगुलेशन (एफएआर) के ज़रिए दूर दराज़ के संघीय प्रशासित जनजातीय क्षेत्रों (एफएटीए) पर शासन करना जारी रखा, जिसमें किसी कबीलाई समूह के एक व्यक्ति द्वारा अपराध किए जाने पर समूचे कबीले को दंडित किए जाने का प्रावधान था. साल 2018 में जब यह प्रांत खैबर-पख़्तूनख़्वा प्रांत में विलय कर दिया गया जिससे इसे पाकिस्तान की मुख्यधारा में लाने की कोशिश की गई, तब जाकर एफएआर को परंपरागत कानूनों से बदला गया.
बाड़ लगाने का मक़सद इस क्षेत्र में उठ रहे विरोध की आवाज़ को दबाना और नशीली दवाओं और सामानों की तस्करी को रोकना था जो अब तक जारी है. यहां लगभग 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर की लागत से सीमा चौकियों और फ्रंटियर कोर की एक नई शाखा स्थापित करने की भी योजना है लेकिन इस नीति ने सीमाओं पर लोगों के लिए जीवन को बेहद कठिन बना दिया. परिवारों के बीच आवाजाही की आज़ादी को इसने ख़त्म कर दिया जबकि आतंकवादी और उनकी संदिग्ध गतिविधियां तस्करी के जरिए बेरोकटोक जारी है. 2001 के बाद पाकिस्तान भी इस रिपोर्ट के साथ एकतरफ़ा पश्चिम की ओर बढ़ रहा है और चमन सीमा के अंदर एक मील तक दाख़िल हो चुका है और एक नए क्रॉसिंग का निर्माण भी कर लिया है.
समझौते की वैधता, जिसे आमतौर पर पश्चिम के मुल्कों द्वारा उल्लंघन के रूप में माना जाता है, उस पर वियना कन्वेंशन समझौते के कानून (1969) (वीसीएलटी) के कुछ प्रावधानों के आधार पर सवाल खड़े किए गए. अफ़ग़ानिस्तान ने वीसीएलटी के अनुच्छेद 51 और 52 का इस्तेमाल इस बात का तर्क देने के लिए किया कि इस समझौते के लिए आमिर पर दबाव बनाया गया था और इसे कानूनी नहीं माना जा सकता. यह और इसके साथ ही साल 1949 में ब्रिटिश भारतीय अधिकारियों के साथ किए गए सभी समझौतों से एकतरफा पीछे हट जाना और उत्तराधिकारी राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान को लेकर विरोध करना, अंतर्राष्ट्रीय कानून के लागू होने और आपसी संबंधों को लेकर अहम सवाल पैदा करते हैं. हालांकि पाकिस्तान अपने दावों को चार समझौतों के तहत, जिस पर 1905, 1919, 1921 और 1930 में हस्ताक्षर किया गया था , अपने दावे को तार्किक बताता है.
अफ़ग़ानिस्तान ने वीसीएलटी के अनुच्छेद 51 और 52 का इस्तेमाल इस बात का तर्क देने के लिए किया कि इस समझौते के लिए आमिर पर दबाव बनाया गया था और इसे कानूनी नहीं माना जा सकता.
हालांकि हाल ही में ब्रिटिश विदेश कार्यालय की कुछ फाइलें सार्वजनिक की गई हैं, वो इससे इतर बात की ओर इशारा करती है. इसके मुताबिक डूरंड लाइन को बनाने वाले अंतर्राष्ट्रीय सीमा स्थापित करने के पक्ष में नहीं थे. उनके लिए इसकी उपयोगिता उसी ख़ास समय और जगह को लेकर थी. यह ख़ुद डूरंड द्वारा इशारा किया गया था, जो इस बात को लेकर चिंतित थे कि समझौते को ‘विभाजन’ के रूप में देखना इस क्षेत्र में ब्रिटिश हितों के लिए कभी बेहतर नहीं होगा. पंजाब के लेफ़्टिनेंट गवर्नर डेनिस फिट्ज़पैट्रिक भी इस बात से आशंकित थे कि एक औपचारिक विभाजन से कबीलाई अंग्रेजों के ख़िलाफ़ भड़क जाएंगे और उन पर अतिरिक्त दायित्व डाल दिए जाएंगे. यहां तक कि अब्दुर रहमान ने भी बताया कि इस क्षेत्र का अंग्रेजों द्वारा औपचारिक विलय एक वर्चुअल बफ़र की मौज़ूदगी को बेअसर कर देगा जिसका मतलब यह हुआ कि उस क्षेत्र में रहने वाले वज़ीरी और महसूद जैसे कबीलाई समूहों के लिए कमोबेश आज़ादी की स्थिति. इस बिंदु को समझौते में इस्तेमाल शब्दों से भी आगे बढ़ावा मिलता है, जैसा कि डूरंड समझौते में ‘प्रभाव के क्षेत्र’ के उलट उत्तर में रूस के साथ समझौते में एक ‘सीमा’ के संदर्भ के बीच अंतर से साफ है. अगर यह दावा सही साबित होता है तब यह पाकिस्तान के चार समझौतों पर दावे को कमज़ोर करेगा क्योंकि ये सभी मूल समझौते को दोहराते हैं.
अफ़ग़ानिस्तान के मानवीय संकट से जूझने और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और मान्यता के बग़ैर मुल्क में व्यवस्था कायम करने में तालिबान के संघर्ष को देखते हुए पाकिस्तान की सहायता काफी अहम है.
सीमा पर बाड़ लगाने के मुद्दे पर चर्चा करने के लिए पाकिस्तानी एनएसए की काबुल यात्रा को रद्द करना पाकिस्तान विरोधी प्रदर्शनों के जोख़िम से प्रेरित है और यह बताता है कि डूरंड लाइन को लेकर अफ़ग़ानिस्तान के नागरिकों की भावनाएं उबाल मार सकती हैं. बावजूद इन संदर्भों को लेकर चिंता है लेकिन डूरंड लाइन को लेकर भावनाएं आने वाले कम समय में किसी भी तरह से दोनों मुल्क के रिश्ते को प्रभावित नहीं करेगी. भले ही समझौते की वैधता के लिए एक कानूनी चुनौती मौजूद है लेकिन तालिबान द्वारा इसे मौजूदा राजनीतिक हालात में फिर से उठाने की संभावना काफी कम दिखती है. अफ़ग़ानिस्तान के मानवीय संकट से जूझने और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और मान्यता के बग़ैर मुल्क में व्यवस्था कायम करने में तालिबान के संघर्ष को देखते हुए पाकिस्तान की सहायता काफी अहम है. इस लिहाज़ से डूरंड लाइन को लेकर बढ़ती बयानबाजी को तालिबान द्वारा मदद और वैधता पाने की कोशिश के तौर पर देखा जा सकता है.
लेखक ओआरएफ में रिसर्च इंटर्न हैं.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Shivam Shekhawat is a Junior Fellow with ORF’s Strategic Studies Programme. Her research focuses primarily on India’s neighbourhood- particularly tracking the security, political and economic ...
Read More +