Author : Ritu Mathur

Published on Sep 06, 2021 Updated 0 Hours ago

विश्व में महाशक्ति समझे जाने वाले एक देश द्वारा अपने और अपने सहयोगी देशों के सैनिकों को सुरक्षित वापिस लाने के लिए एक गैर-राज्य अभिकर्ता की मदद लेने की विडम्बना को लोकतांत्रिक देशों में लोकप्रियता व समर्थन नहीं मिल सकता.

अफ़ग़ानिस्तान: ट्रंप और तालिबान का शांति समझौता

तालिबान एक बार फिर से तेज़ी से सत्ता की ओर बढ़ रहा है और अब सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या पश्चिमी देश तालिबान को अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक वैधानिक शक्ति के रूप में मान्यता देंगे या नहीं. अंतरराष्ट्रीय मीडिया लगातार उन क्षेत्रों से आने वाली ख़बरों के बारे में बता रहा है, जो अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के कब्ज़े में आ चुके हैं, और उसके रंगीन नक्शे तालिबान की ताक़त के दूरगामी प्रभावों को दर्शाते हैं क्योंकि एक के बाद एक शहर उसके कब्ज़े में आते जा रहे हैं, जबकि ग्रामीण इलाकों में उनकी पकड़ हमेशा से मजबूत थी. अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर जाने को बेचैन लोगों की मीडिया में आई तस्वीरों ने कुछ समय के लिए जनता का ध्यान अपनी ओर खींच लिया था और जबकि राजनीतिज्ञ उनका सामना करने और उनकी कार्रवाईयों पर अपनी छवि बचाने वाली नीतियों को समाधान के रूप पेश करने की कोशिश कर रहे हैं, ऐसे में ये ज़रूरी है कि शांति की शर्तों और तालिबान की वैधता से जुड़े कुछ अहम सवाल किए जाएं.

पुराने साम्राज्यवादी शक्तियों की पैंतरेबाजी की याद दिलाते हुए ट्रंप प्रशासन ने अफ़ग़ानिस्तान में अशरफ गनी के नेतृत्व की नेशनल यूनिटी सरकार को जानबूझकर दरकिनार करते हुए तालिबान के साथ गुप्त वार्ता की शुरुआत की और उसके साथ एक समझौता किया. तालिबान और अमेरिका के बीच ‘अफ़ग़ानिस्तान में शांति की बहाली को लेकर हुए समझौते’ के क़ानूनी दस्तावेज़ में लिखे किसी शब्द को लेकर न तो अमेरिकी कांग्रेस में कोई बहस हुई और न ही ब्रिटिश संसद में.

तालिबान और अमेरिका के बीच ‘अफ़ग़ानिस्तान में शांति की बहाली को लेकर हुए समझौते’ के क़ानूनी दस्तावेज़ में लिखे किसी शब्द को लेकर न तो अमेरिकी कांग्रेस में कोई बहस हुई और न ही ब्रिटिश संसद में.  

लोगों की इसमें लोकतांत्रिक तरीके से भागीदारी को सुनिश्चित करने की दिशा में कभी इस समझौते का पूरा मसौदा किसी अखबार के मुख्य पन्ने पर प्रकाशित नहीं हुआ. एक महाशक्ति देश द्वारा अपने और अपने सहयोगी देशों के सैनिकों को सुरक्षित वापिस लाने के लिए एक गैर-राज्य अभिकर्ता की सहायता लेने जैसी कोई कार्रवाई लोकतांत्रिक राज्यों में उन्हें कोई चुनाव नहीं जितवा सकती.

समझौते से जुड़े कुछ प्रमुख बिंदु

ये समझौता ऊपरी तौर पर स्पष्ट रूप से कहता है कि अमेरिका तालिबान या अफ़ग़ानिस्तान के इस्लामी अमीरात को एक राज्य के रूप में मान्यता नहीं देता है. लेकिन इस समझौते में सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों स्तरों पर एक अभिकर्ता के रूप में केवल तालिबान की ही पहचान की गई है. इससे वैश्विक संप्रभु राज्य की व्यवस्था में शांति की स्थापना के शर्त के रूप में एक राज्य को मान्यता देने की राजनीति से जुड़े कुछ अहम सवाल उठ खड़े होते हैं; खासकर उपनिवेशों के आत्मनिर्णय और स्वतंत्रता के अधिकार के संघर्ष से जुड़े सवालों को लेकर विद्वानों में दिलचस्पी काफ़ी ज़्यादा है. यही सवाल पूरे अंतरराष्ट्रीय  जगत को सबसे ज़्यादा परेशान कर रहा है जबकि यूरोपीय परंपराओं से प्रभावित संप्रभु राज्य व्यवस्था में विभिन्न अभिकर्ता अपनी पहचान और वैधता को लेकर संघर्ष कर रहे हैं.

भले ही समझौते के तहत अमेरिका ये उदघोषणा करता है कि वो अफ़ग़ानिस्तान के इस्लामी अमीरात को मान्यता नहीं देता है, लेकिन समझौते की भाषा स्पष्ट तौर पर ये स्वीकार करती है कि अफ़ग़ानिस्तान के महत्त्वपूर्ण हिस्सों को तालिबान नियंत्रित करता है. ये मान्यता अफ़ग़ानिस्तान के जमीनी हालातों की वास्तविकता पर आधारित है, जहां दो दशकों तक अमेरिका और उसके सहयोगी देशों द्वारा देश पर कब्ज़ा करने और वहां सैनिक कर्रवाईयों के बावजूद क्षेत्र का नियंत्रण तालिबान के हाथों में है, और ये समझौता तालिबान से “व्यवस्था की बहाली को लेकर वादे” की मांग करता है ताकि “अफ़ग़ानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल किसी समूह या व्यक्ति द्वारा अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल” न किया जाए.

ये समझौता ऊपरी तौर पर स्पष्ट रूप से कहता है कि अमेरिका तालिबान या अफ़ग़ानिस्तान के इस्लामी अमीरात को एक राज्य के रूप में मान्यता नहीं देता है. लेकिन इस समझौते में सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों स्तरों पर एक अभिकर्ता के रूप में केवल तालिबान की ही पहचान की गई है.

अंतरराष्ट्रीय संबंधों में किसी क्षेत्र पर नियंत्रण किसी राज्य को मान्यता देने की पूर्व-शर्त होती है. समझौते की भाषा बार बार इस बात पर ज़ोर देती है कि अमेरिका और उसके सहयोगी देश तालिबान से इस बात की गारंटी चाहते हैं कि उनके नियंत्रण में “अफ़ग़ानी मिट्टी” का इस्तेमाल अमेरिका और उसके सहयोगी देशों की सुरक्षा के ख़िलाफ़ नहीं होगा. समझौते की ये भाषा इस बात का सबूत है कि एक राज्य दूसरे राज्य के साथ अपनी संप्रभुता पर बाहरी खतरे को पैदा न किए जाने के संदर्भ में समझौता कर रहा है. ये और भी स्पष्ट हो जाता है जब समझौते के अनुसार, ‘अमेरिका और उसके सहयोगी देश अफ़ग़ानिस्तान की राजनीतिक स्वतंत्रता या उसकी क्षेत्रीय अखंडता या उसके घरेलू मामलों के विरुद्ध कोई खतरा पैदा करने से बचेंगे या बल-प्रयोग नहीं करेंगे. ये और कुछ नहीं बल्कि परोक्ष रूप से तालिबान के नेतृत्व में अफ़ग़ानिस्तान की संप्रभुता को वास्तविक रूप से मान्यता प्रदान करना है.

यह समझौता तालिबान को ऊपर बताए गए दो सुरक्षा वादों  की घोषणा के बाद अफ़गान पक्षों के साथ आंतरिक-अफ़गान वार्ता शुरू करने के लिए भी ज़िम्मेदार ठहराता है. औपनिवेशिक काल के दौरान ये केंद्रीय राष्ट्रीय आंदोलन था , चाहे भारत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस हो हा फिर दक्षिण अफ्रीका में अफ्रीकन राष्ट्रीय कांग्रेस हो, जिसने विभिन्न समूहों और धड़ों के बीच एकजुटता बढ़ाने और उनके बीच सहयोग स्थापित करने का काम किया. ये समझौता इस काम को तालिबान के हवाले करता है, जिसका मतलब ये है कि उन्हें अफ़ग़ानी राष्ट्रवादी के तौर चिन्हित किया जा सकता है. ये दिलचस्प है कि इस तरह कि किसी भी पहचान और ज़िम्मेदारी दिए जाने की संभावना केवल तभी देखी जा सकती है जब पश्चिम ने तालिबान से सुरक्षा की गारंटी ली हो.

समझौते की भाषा बार बार इस बात पर ज़ोर देती है कि अमेरिका और उसके सहयोगी देश तालिबान से इस बात की गारंटी चाहते हैं कि उनके नियंत्रण में “अफ़ग़ानी मिट्टी” का इस्तेमाल अमेरिका और उसके सहयोगी देशों की सुरक्षा के ख़िलाफ़ नहीं होगा.

सुरक्षा वादों और व्यवस्था बहाली जैसे कठिन विषयों पर किए जाने वाले समझौते और अनुबंध को पारंपरिक रूप से दो राज्यों के बीच आपसी संबंधों के अंर्तगत आते हैं, न कि एक राज्य और गैर राज्य अभिकर्ता के बीच, खासकर तब जब इसे लंबे समय तक एक आतंकवादी समूह के रूप में पहचाना जाता रहा हो. ये अवलोकन और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि ‘विश्वास निर्माण प्रक्रिया के रूप में सैन्य और राजनीतिक बंदियों की अतिशीघ्र रिहाई की योजना’ को लेकर इसमें कई प्रावधान शामिल हैं और वो इस बात पर ज़ोर देता है कि रिहा किए गए बंदी ‘समझौते से जुड़ी जिम्मेदारियों के प्रति वचनबद्ध’ रहेंगे. ‘आतंक पर युद्ध’ के दौरान अमेरिकी सरकार और अंतरराष्ट्रीय रेड क्रॉस समिति (International Red Cross Committee) का प्रतिनिधित्व कर रहे वकीलों द्वारा क़ानूनी और गैर-क़ानूनी लड़ाकों और युद्ध बंदियों की परिभाषा पर काफ़ी कुछ लिखा गया है. ये समझौता बड़ी आसानी से इन क़ानूनी पहलुओं को मिटाते हुए इन्हें ‘सैन्य और राजनीतिक बंदियों की रिहाई’ के रूप में संबोधित करता है.

तालिबान का स्पष्ट संदेश

औपनिवेशिक उपकार का इशारा करते हुए, ये आगे तालिबान को ये वादा करता है कि ‘आंतरिक स्तर पर विभिन्न अफ़गान समूहों के बीच वार्ता की शुरुआत’ के साथ ही, अमेरिका और उसके सहयोगी देश तालिबान के सदस्यों के विरुद्ध ‘वर्तमान में अमेरिकी प्रतिबंधों और पुरस्कारों की सूची की प्रशासनिक समीक्षा करेंगे’ और उसके अलावा 29 मई 2020 तक उन्हें  प्रतिबंधों की सूची से हटाने के लिए संयुक्त राज्य सुरक्षा परिषद में ‘राजनयिक वार्ता’ की शुरुआत भी करेगा. इन वादों की संभाव्यता के साकार होने की उम्मीद नहीं है. औपनिवेशिक उपकारों के पारंपरिक पुनरावृत्ति के रूप में, ये वादे अफ़गानिस्तानी सरकार के पतन के बाद झूठे साबित हो रहे हैं और राष्ट्रपति बाइडेन के भाषण और वक्तव्य यही स्पष्ट कर रहे हैं कि समय के साथ तालिबान नहीं बदल पाया है. तालिबान को और भी ज़्यादा अनुशासित किए जाने की ज़रूरत है, अगर आवश्यकता पड़ेगी तो इसके लिए बल-प्रयोग भी किया जाएगा.

ये समझौता इस काम को तालिबान के हवाले करता है, जिसका मतलब ये है कि उन्हें अफ़ग़ानी राष्ट्रवादी के तौर चिन्हित किया जा सकता है. ये दिलचस्प है कि इस तरह कि किसी भी पहचान और ज़िम्मेदारी दिए जाने की संभावना केवल तभी देखी जा सकती है जब पश्चिम ने तालिबान से सुरक्षा की गारंटी ली हो

असुरक्षित और बेचैन अभिकर्ता की भाषा में, ये समझौता बार-बार कहता है कि अफ़गानिस्तान की ज़मीन को अमेरिका और उसके सहयोगियों को धमकाने, धन इकट्ठा करने, प्रशिक्षण और भर्ती के लिए इस्तेमाल करने के विरुद्ध अलक़ायदा समेत सभी समूहों और व्यक्तियों को  ‘तालिबान एक स्पष्ट संदेश भेजेगा’, ‘तालिबान रोकेगा’, ‘तालिबान मंजूरी नहीं देगा’, ‘तालिबान कुछ नहीं देगा’. ‘सकारात्मक संबंधों’ के लिए किए गए ऐसे असंतुलित वादों और अपेक्षाओं की अनिश्चितता ही भविष्य में ‘औपनिवेशिक सरकार के बाद नए अफ़ग़ानी इस्लामी सरकार के साथ आर्थिक सहयोग और पुनर्निर्माण’ को लेकर वार्ता और समझौते का आधारबिंदु है. अन्य शब्दों में कहें तो अमेरिकी सरकार इस विचार के साथ सहमत हो चुका है कि अंतर-अफ़गान वार्ता और समझौते के बाद भी अफ़ग़ानिस्तान में एक इस्लामी सरकार बनेगी और अमेरिका ‘उनके आंतरिक मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा.’ इसलिए, एक राज्य की घरेलू आबादी पर धर्म और उसके प्रभाव को इस समझौते में प्राथमिकता नहीं दी गई है.

दोहा (क़तर) में हुआ ये समझौता तारीखों और संदर्भों को लेकर बड़ी बारीकी से हिजरी संवत (चंद्र और सूरज पर आधारित दोनों कैलेंडरों) और ग्रेगरी कैलेंडर के अनुसार पश्तो, दारी और अंग्रेजी भाषाओं में प्रकाशित किया गया है.

.अमेरिकी सरकार इस विचार के साथ सहमत हो चुका है कि अंतर-अफ़गान वार्ता और समझौते के बाद भी अफ़ग़ानिस्तान में एक इस्लामी सरकार बनेगी और अमेरिका ‘उनके आंतरिक मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा

अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ अफ़ग़ानियों के अनुभवों को दरकिनार करते हुए समय के पंजीकरण में बरती गई ये सावधानियां और बारीकियां अफ़ग़ानिस्तान में शांति की परिस्थितियों की पोल खोल देती हैं. इस क़ानूनी समझौते में, अफ़ग़ानी जनता के नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों या उनके सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को लेकर किसी भावुकता की जगह नहीं है. अफ़ग़ानिस्तान में शांति की परिस्थितियां तालिबान की वैधता की गुलाम और पश्चिम की सुरक्षा बने रहने की शर्तों के आगे गौण हैं.

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