अफ़ग़ानिस्तान के लिए अमेरिका (United States) के विशेष प्रतिनिधि थॉमस वेस्ट (Thomas West) ने हाल ही में एक साक्षात्कार के दौरान वहां के अंतरिम तालिबान (Taliban) प्रशासन और वाशिंगटन के बीच वार्ता को सुविधाजनक बनाने में पाकिस्तानी मध्यस्थता की किसी भी संभावना को ख़ारिज़ कर दिया. उन्होंने कहा कि अमेरिका अफ़ग़ानियों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए व्यावहारिक रूप से तालिबान के साथ बातचीत में लगा हुआ है. उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान (Afghanistan) के भीतर अपने अभियानों को अंज़ाम देने के लिए पाकिस्तानी हवाई क्षेत्र के ज़रूरत के सवाल को टालते हुए इस क्षेत्र में ‘अपनी क्षमताओं के पुनर्गठन’ पर ज़ोर देने की बात कही. ज़ाहिर है कि अमेरिका का अफ़ग़ानिस्तान में हालातों को संभालने में पाकिस्तानी सहयोग की किसी भी ज़रूरत से इनकार करना, अगस्त 2021 के बाद से अमेरिका और अफ़ग़ानिस्तान (Afghanistan) के साथ इस्लामाबाद (Pakistan) के संबंधों में आए बदलाव और विषमता को दर्शाता है.
पाकिस्तान इन दिनों कई तरह के संकटों से जूझ रहा है. एक तरफ इमरान ख़ान के अड़ियल और सख़्त रवैये से वहां राजनीतिक अस्थिरता का माहौल है, वहीं आर्थिक हालात भी बद से बदतर हो चुके हैं.
काबुल में तालिबान के कब्ज़े के तत्काल बाद पाकिस्तान में एक प्रकार से जीत की भावना दिखाई दी थी. पाकिस्तानी सुरक्षा और सैन्य प्रतिष्ठान अपने पड़ोस से अमेरिका के बाहर निकलने से और अफ़ग़ानिस्तान में एक दोस्ताना तालिबान शासन को देखकर बेहद उत्साहित थे. लेकिन पिछले साल में वहां जो कुछ भी हुआ है, उसने अफ़ग़ानिस्तान में फिर से अपना दबदबा क़ायम करने वाली तालिबान सरकार के दुष्प्रभावों से पाकिस्तानियों को परिचित कराया है. पाकिस्तान इन दिनों कई तरह के संकटों से जूझ रहा है. एक तरफ इमरान ख़ान के अड़ियल और सख़्त रवैये से वहां राजनीतिक अस्थिरता का माहौल है, वहीं आर्थिक हालात भी बद से बदतर हो चुके हैं. ऐसे में काबुल के साथ अनिश्चित संबंध और अमेरिका के साथ तनावपूर्ण रिश्तों ने इस्लामाबाद के लिए स्थिति को और भी जटिल बना दिया है. इमरान ख़ान के सत्ता से बेदख़ल होने के बाद से भले ही अमेरिका के साथ अपने संबंधों को लेकर सार्वजनिक बयानबाज़ी से दोनों देशों के बीच रिश्ते पहले तरह बनने को लेकर गतिरोध बना हुआ हो, लेकिन एक वास्तविकता यह भी है कि आज अफ़ग़ानिस्तान को दोनों देशों के बीच सहयोग की तत्काल ज़रूरत है.
एक खट्टी-मीठी जीत
पाकिस्तान इंस्टीट्यूट फॉर पीस स्टडीज की एक ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़ काबुल के पतन के बाद से पाकिस्तान के अपने इलाक़ों में आतंकवादी हमलों में 51 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है. पिछले साल इसी अवधि की तुलना में आतंकी हमलों में यह महत्वपूर्ण बढ़ोतरी पाकिस्तान में तेज़ी से बिगड़ते सुरक्षा हालातों की ओर इशारा करती है. यह जगजाहिर है कि तालिबान की जीत पर पाकिस्तान की ‘बेवजह की खुशी‘ ने द्विपक्षीय संबंधों के मामले में कोई नई शुरुआत नहीं की या फिर कहा जाए कि इसने पड़ोस में सुरक्षा स्थिति में सुधार लाने जैसा कोई काम नहीं किया है. कहा जा सकता है कि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के जाने के बाद जो भी हालात बने उनका लाभ उठाने की पाकिस्तान की आकांक्षा बेकार साबित हुई है.
दोनों पड़ोसियों के बीच विवाद के दो प्रमुख मुद्दे हैं और पिछले एक साल में इन मुद्दों पर तनातनी और बढ़ गई है. पहला मुद्दा है तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) का फिर से उभार होना और दूसरा मुद्दा है तालिबान द्वारा डूरंड लाइन को अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में स्वीकार करने से इनकार करना. इन दोनों मुद्दों की वजह से इन दोनों देशों के मध्य ना केवल विश्वास की कमी आई है, बल्कि दोनों पक्षों के बीच मनमुटाव और भी गहरा हो गया है. टीटीपी ने अपनी बेहतर राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाते हुए पाकिस्तान के अंदर अपने हमले जारी रखे हैं. देखा जाए तो पाकिस्तानी नेतृत्व इस समूह पर लगाम लगाने को लेकर तालिबान का समर्थन मिलने के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त था. लेकिन सच्चाई यह है कि तालिबान टीटीपी पर लगाम लगाने के लिए अपने प्रभाव का उपयोग करने में नाकाम रहा है.यह समूह पाकिस्तान में राजनीतिक विरोधियों, सुरक्षाबलों और चीनी हितों को निशाना बना रहा है. इसके द्वारा चीनी श्रमिकों और चीनी इंफ़्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं पर हमले बढ़ रहे हैं. पाकिस्तान द्वारा सीमा पर बाड़ लगाने और सैन्य चौकियां स्थापित करने के प्रयासों का अफ़ग़ानिस्तान द्वारा विरोध किया जा रहा है और इसको लेकर जवाबी कार्रवाई भी की जा रही है. डूरंड रेखा विवाद तालिबान के लिए के लिए बहुत अहम है, क्योंकि यह उसके एक हद तक मान्यता हासिल करने और अपने मुताबिक़ जनमत जुटाने के लिए एक ज़रूरी हथियार है. तालिबान के लिए टीटीपी जहां एक तरफ पाकिस्तान पर अपना दबदबा बनाने का एक माध्यम है, वहीं दूसरी तरफ इस दबदबे को बनाए रखने के लिए खुद को दोनों यानी टीटीपी और पाकिस्तानी सरकार के बीच एक मध्यस्थ के रूप में पेश करने का एक साधन भी है. पाकिस्तान में हुए आतंकवादी हमलों को लेकर होने वाली झड़पों ने अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान सीमा क्षेत्र में सुरक्षा के हालातों को और बिगाड़ दिया है. अमेरिका ने भी बढ़ते आतंकी हमलों की वजह से पाकिस्तान के सामने आ रही चुनौतियों पर अपनी चिंता ज़ाहिर की है.
दोनों पड़ोसियों के बीच विवाद के दो प्रमुख मुद्दे हैं और पिछले एक साल में इन मुद्दों पर तनातनी और बढ़ गई है. पहला मुद्दा है तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) का फिर से उभार होना और दूसरा मुद्दा है तालिबान द्वारा डूरंड लाइन को अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में स्वीकार करने से इनकार करना.
पाकिस्तान ने आतंकवादियों के ख़तरे को कम करने के लिए अप्रैल में अफ़ग़ानिस्तान के ख़ोस्त और कुनार प्रांतों के भीतर एयर स्ट्राइक्स की थी. हालांकि,आधिकारिक तौर पर इन हमलों को स्वीकार नहीं किया गया था, लेकिन यह सच्चाई है कि इन हवाई हमलों का मकसद तालिबान को स्पष्ट संदेश देना था कि यह हमले टीटीपी को उसके बढ़ते समर्थन का ही नतीज़ा हैं. हालांकि, ये हमले टीटीपी को रोकने में विफल साबित हुए, जबकि इन हवाई हमलों में 45 नागरिकों की मौत हो गई, जिनमें से आधे बच्चे थे. निर्दोष नागरिकों और बच्चों की हत्या ने अफ़ग़ानिस्तान के जनमानस में आक्रोश पैदा कर दिया. इसने दोनों पक्षों की आवाजों यानी प्रतिक्रियाओं की गति को भी बढ़ा दिया. एक ओर पाकिस्तान अपने क्षेत्र से हमलों की अनुमति देने के लिए अफ़ग़ानिस्तान की फटकार लगा रहा है, तो दूसरी ओर अफ़ग़ानिस्तान अपनी संप्रभुता का उल्लंघन करने के लिए इस्लामाबाद के विरुद्ध कूटनीतिक कार्रवाई कर रहा है.
अमेरिकी ड्रोन हमले में 31 जुलाई को काबुल में हुई अयमान अल-ज़वाहिरी की हत्या ने द्विपक्षीय संबंधों को और झटका दिया. सिराजुद्दीन हक़्क़ानी के घर में अल-क़ायदा नेता की उपस्थिति ने दोहा समझौतों के उल्लंघन को लेकर चिंता बढ़ाई है. इस समझौते के अनुसार तालिबान आतंकवाद का समर्थन रोकने के लिए प्रतिबद्ध है. तालिबान नेतृत्व ने अमेरिका द्वारा अपने हवाई क्षेत्र का इस्तेमाल करने की इजाजत देने के लिए पाकिस्तान की सार्वजनिक रूप से आलोचना की.अफ़ग़ानिस्तान के आंतरिक मंत्री शेर मोहम्मद अब्बास स्तनेकजई ने पाकिस्तान पर अपनी आर्थिक स्थिति का फायदा उठानेऔर अमेरिका को ड्रोन हमले के लिए अपना हवाई क्षेत्र इस्तेमाल करने के एवज में भारी भरकम राशि लेने का आरोप लगाया. हालांकि, यह एक सच्चाई है कि अमेरिका या अन्य किसी देश को अपने हवाई क्षेत्र के उपयोग की अनुमति देने को लेकर पाकिस्तान द्वारा लगातार इनकार के बावज़ूद अफ़ग़ानिस्तान पर हवाई हमला हुआ था.
तालिबान के कब्ज़े के बाद क्षेत्र में वाशिंगटन की भूमिका
पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने इस साल सितंबर में अमेरिका की अपनी यात्रा के दौरान अमेरिका-पाकिस्तान संबंधों की स्थिति पर संतोष जताया था. इन संबंधों में अफ़ग़ानिस्तान के साथ पैदा हुई स्थितियों को दरकिनार करते हुए उन्होंने विशेष रूप से जियोइकोनॉमिक्स में अपने सहयोग के विस्तार को लेकर उम्मीद जताई, यह शब्द इन दिनों इस्लामाबाद की विदेश नीति हलकों में बेहद अहम है. लेकिन वाशिंगटन के लिए डीहाइफेनेशन की प्रक्रिया यानी दो परस्पर विरोधी संबंध रखने वाले देशों के साथ स्वतंत्र तरीके से व्यवहार की प्रक्रिया अभी भी अधूरी है. अगस्त 2021 के बाद अमेरिका में अधिकारियों ने पाकिस्तान के साथ अपने संबंधों का ना केवल पुनर्मूल्यांकन किया, बल्कि तालिबान के उभार के मद्देनज़र इसकी भूमिका को बारीक़ी से समझा. इस तरह के बयानों ने इस्लामाबाद को नाराज़ कर दिया. पाकिस्तान ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में अपने बलिदानों और शांति स्थापित करने की प्रक्रिया में इसके योगदान को स्वीकार करने की मांग की. इमरान ख़ान द्वारासत्ता हासिल करने के लिए संघर्ष के दौरान की गई अमेरिका विरोधी बयानबाज़ी की वजह से दोनों देशों के संबंध और खराब हो गए. प्रधानमंत्री रहने के दौरान इमरान ख़ान ने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के आने पर ख़ुशी जताई थी. उन्होंने उस पल को इस रूप में माना था कि उनके पड़ोसी यानी अफ़ग़ानिस्तान ने खुद को ‘गुलामी की बेड़ियों‘ से ना सिर्फ मुक्त किया, बल्कि स्वतंत्रता की एक नई सुबह में प्रवेश किया. इसके बाद उन्होंने अपना खुला समर्थन देकर तालिबान की कठोर नीतियों को कम करने की कोशिश की औरइसे एक प्रकार से संदेह का लाभ देने की कोशिश भी की. इतना ही नहीं उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया.इमरान ख़ान ने आतंक के ख़िलाफ़ अपने युद्ध की विफलता के साथ-साथ, प्रधानमंत्री के पद से उन्हें हटाने के लिए अमेरिका को भी आड़े हाथ लिया.
अमेरिकी ड्रोन हमले में 31 जुलाई को काबुल में हुई अयमान अल-ज़वाहिरी की हत्या ने द्विपक्षीय संबंधों को और झटका दिया. सिराजुद्दीन हक़्क़ानी के घर में अल-क़ायदा नेता की उपस्थिति ने दोहा समझौतों के उल्लंघन को लेकर चिंता बढ़ाई है. इस समझौते के अनुसार तालिबान आतंकवाद का समर्थन रोकने के लिए प्रतिबद्ध है.
इस अमेरिका विरोधी बयानबाजी से हुए नुकसान की भरपाई करने के लिए पाकिस्तान की शरीफ़ सरकार ने अमेरिकी शासन के शीर्ष नेताओं के सामने काफी अनुनय-विनय की. देखा जाए तो अमेरिका नेएफ-16 के लिए पाकिस्तान को450 मिलियन अमेरिकी डॉलर के रखरखाव पैकेज मंजूर कर रिश्तों में जमी बर्फ़ को पिघलने के संकेत दिए. लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन की पाकिस्तानी सरकार की ख़तरनाक प्रकृति पर टिप्पणी और काबुल में स्थिति को संभालने में इस्लामाबाद की भूमिका को स्वीकार करने को लेकर अमेरिकी राजदूत की नकारात्मक बयानबाज़ी कुछ और ही संकेत देती है. इन सभी बातों और चिंताओं के होने के बाद भी मध्यम अवधि में दोनों के बीच संबंधों को एक उभरते तालिबान की सच्चाई और इसके व दूसरे आतंकवादी संगठनों द्वारा पैदा होने वाले ख़तरे से निर्धारित किया जाएगा. ज़ाहिर है कि इसके लिए वाशिंगटन को पाकिस्तान के समर्थन की आवश्यकता होगी.
संबंधों में संभावित अलगाव?
शरीफ़ प्रशासन ने सीधे तौर पर तालिबान की मान्यता के लिए आह्वान करने से परहेज किया है, हालांकि उसने तालिबान को और अधिक राजनीतिक तबज्जो देने और वक़्त देने पर ज़ोर दिया है. इसके साथ ही शरीफ़ प्रशासन इस पर कोई निर्णय लेने से पहले अपनी क्षमता के निर्माण पर ज़ोर दे रहा है कि क्या उन्होंने सुधार शुरू करने की इच्छा को ज़ाहिर किया है. नेताओं ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से आग्रह किया कि वे उन कठिनाइयों की अनदेखी ना करें, जो अफ़ग़ानी वित्तीय संस्थान सुरक्षा के हालातों के मद्देनज़र महसूस कर रहे हैं. यहां तक कि टीटीपी के हमले और तालिबान की मध्यस्थता में की गई वार्ता की विफलता के बावज़ूद संबंधों में एक बड़ी दरार को लेकर वहां सार्वजनिक रूप से कोई स्वीकृति नहीं है.
तालिबान के प्रवक्ता ने हाल ही में पाकिस्तानी अधिकारियों को एक बार फिर से आश्वस्त किया है कि अफ़ग़ानिस्तान की धरती का उपयोग पाकिस्तान में हमलों को अंज़ाम देने के लिए नहीं किया जाएगा. इतना ही नहीं ऐसा करने वाले किसी भी व्यक्ति पर राजद्रोह के तहत कार्रवाई की जाएगी. तालिबानी प्रवक्ता ने सीमा से लगे क्षेत्रों को नियंत्रित करने में अपनी असमर्थता को भी दोहराया. सीमा से लगे इन क्षेत्रों में तालिबान की पहुंच बहुत सीमित है या बिलकुल नहीं है, जिसके कारण कुछ समूह तालिबान की गैर मौजूदगी का फ़ायदा उठा रहे हैं. जब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने अफ़ग़ानिस्तान के अंदर आतंकवादी समूहों की मौजूदगी की ओर इशारा किया तो उन्हें तालिबान की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा. हालांकि, पाकिस्तान विदेश विभाग ने स्पष्ट किया है कि सरकार के विरुद्ध किसी भी तरह की आलोचना को दुश्मनी के संकेत के तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए. इस गर्मा गर्मी को ठंडा करने के लिए पाकिस्तान की तरफ से कई प्रयास किए गए हैं, जैसे कि अफ़ग़ान नागरिकों के वीजा में तेज़ी लाई गई है और उन्हें स्कॉलरशिप प्रदान करने के लिए भी प्रतिबद्धता जताई गई है.
इमरान ख़ान द्वारासत्ता हासिल करने के लिए संघर्ष के दौरान की गई अमेरिका विरोधी बयानबाज़ी की वजह से दोनों देशों के संबंध और खराब हो गए. प्रधानमंत्री रहने के दौरान इमरान ख़ान ने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के आने पर ख़ुशी जताई थी.
निकट भविष्य में जब तक घरेलू मामलों में हस्तक्षेप पर एक-दूसरे के ख़िलाफ़ तीखी बयानबाज़ी या फिर अपनी परेशानियों के लिए दूसरे को बलि का बकरा बनाना बंद नहीं होगा, तब तक दोनों देशों के बीच वास्तविकता में मेल-जोल और पारस्परिक प्रगाढ़ संबंध संभव नहीं होंगे. पाकिस्तान के लिए, ‘भू-रणनीतिक’ से ‘भू-आर्थिक’ सरोकारों में अपने स्पष्ट परिवर्तन को अमली जामा पहनाने और मध्य एशिया के साथ अपने कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट्स को पूरा करने के लिए अफ़ग़ानिस्तान की भागीदारी अनिवार्य है. पाकिस्तान की अपने विज़न सेंट्रल एशिया के अंतर्गत एक नया अंतरमहाद्वीपीय ट्रेड नेटवर्क स्थापित करने की महत्वाकांक्षी योजना काबुल के साथ शांतिपूर्ण संबंधों पर निर्भर करती है. यूक्रेन में संकट के बादअफ़ग़ान कोयले और कपास की मांग में बढ़ोतरी के साथ अफ़ग़ानिस्तान से होने वाले पाकिस्तान के आयात में वृद्धि दर्ज़ की गई है.लेकिन इसके साथ ही तालिबान के आने के बाद से काबुल के रास्ते मध्य एशिया के देशों में पाकिस्तान के निर्यात में भी उछाल देखने को मिला है.
अमेरिका के साथ भी पाकिस्तान के संबंध उस उम्मीद के मुताबिक़ नहीं हैं, जो दोनों पक्ष एक-दूसरे से रखते हैं. कहा जा सकता है कि दोनों देशों के संबंधों में खींचतान है और भारी असंतुलन भी है.
निष्कर्ष
देखा जाए तो पिछले साल की घटनाओं ने अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान की हस्तक्षेपवादी नीतियानी घरेलू मुद्दों पर जबरन दख़लंदाज़ी वाली नीति पर पानी फेर दिया है. कहने का मतलब यह नहीं है कि तालिबान के साथ पाकिस्तान के रिश्ते बहुत ज़्यादा प्रभावित हुए हैं, लेकिन अफ़ग़ानिस्तान के रणनीतिक मामलों, जैसे कि किसी सैन्य अभियानों या राजनीतिक निर्णयों में पाकिस्तान की अब पहले जैसी बड़ी और निर्णायक भूमिका नहीं रही है. अमेरिका के साथ भी पाकिस्तान के संबंध उस उम्मीद के मुताबिक़ नहीं हैं, जो दोनों पक्ष एक-दूसरे से रखते हैं. कहा जा सकता है कि दोनों देशों के संबंधों में खींचतान है और भारी असंतुलन भी है. लंबे समय तक अफ़ग़ानिस्तान दोनों देशों के लिए एक साथ खड़े होने की एक अहम वजह था, लेकिन आज की बदली हुई परिस्थियों में अब यह सच नहीं है. वाशिंगटन के साथ अपने मतभेदों को दूर करना और अफ़ग़ानिस्तान के साथ लगने वाली अपनी सीमा पर शांति सुनिश्चित करना पाकिस्तान के लिए आज बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है. यह इसलिए भी बेहद अहम हो गया है, क्यों की यह पाकिस्तान के लिए अपनी धरती पर बढ़ते आतंकवाद पर लगाम लगाने और जियो इकोनॉमिक्स के लिए अपनी भूमिका को वास्तविक बनाने के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है. यही वजह है कि आज यह सब पाकिस्तान की विदेश नीति का सबसे बड़ा आधार बन गया है.
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