Author : Satish Misra

Published on Jun 17, 2019 Updated 0 Hours ago

अपने मूल वोट बैंक पर अपनी कमजोर पकड़, घमंडी दृष्टिकोण और कमज़ोर होते राजनीतिक ब्रांड की बदौलत मायावती के लिए राजनीति में आगे बढ़ना आसान नहीं होगा.

दाँव पर लगा है दलित राजनीति की पैरोकार मायावती का राजनीतिक भविष्य

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकीं और एक बार अफ़वाहों में बनने वाली भविष्य की पहली दलित प्रधानमंत्री मायावती का राजनीतिक भविष्य यूपी में भाजपा की 62 सीटों की जीत के बाद, सबसे ज्य़ादा यानि 10 लोकसभा सीटें जीतने के बावजूद अधर में लटका हुआ है. मायावती अपने मतलब के लिए चुनावी गठबंधन बनाने के लिए जानी जाती रहीं हैं. इस चुनाव में भी वे बहुजन समाज पार्टी जिसका नेतृत्व वे साल 2011 से कर रही हैं उसके चुनावी हितों को आगे बढ़ाने के लिए गठबंधन के घटक दलों को बीच मझधार में छोड़ कर आगे बढ़ गई हैं, ये वो कला है जिसमें वे लगातार माहिर होती जा रहीं हैं.

मायावती ने साल 2019 में लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी के साथ हुए अपने गठबंधन को लोकसभा चुनावों के नतीजे आने के तुरंत बाद यह आरोप लगाते हुए तोड़ दिया कि उनके सहयोगी अखिलेश यादव, यादव वोटों को गठबंधन के पक्ष में तब्दील करने में असमर्थ रहे. हालिया लोकसभा चुनाव में यादव मतदाताओं का बीएसपी के उम्मीदवारों के पक्ष में वोट नहीं पड़ने के उनके दावे चुनावी नतीजों की बारीकी से की गई समीक्षा के आगे नहीं टिकते जिसमें यह स्पष्ट हुआ कि दलित मतदाता भी महागठबंधन (एसपी-बीएसपी-आरएलडी गठबंधन) से दूर जा रहे थे. साफ़ है कि पूर्व-मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पार्टी से गठबंधन तोड़ने का उनका कारण बिलकुल अलग है.

उपचुनाव नहीं लड़ने की अपनी ही पुरानी परंपरा को तोड़ते हुए मायावती का सभी 11 विधानसभा उपचुनाव लड़ने के निर्णय को, जिससे वर्तमान विधायकों की जीत सुनिश्चित होगी बदले ज़मीनी राजनीतिक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में देखने की ज़रूरत है. इसके लिए उन्हें भाजपा की मदद की ज़रूरत होगी और यह कदम उनके अवसरवादी स्वभाव को भी सामने लाता है.

उपचुनाव नहीं लड़ने की अपनी ही पुरानी परंपरा को तोड़ते हुए मायावती का सभी 11 विधानसभा उपचुनाव लड़ने के निर्णय को, जिससे वर्तमान विधायकों की जीत सुनिश्चित होगी बदले ज़मीनी राजनीतिक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में देखने की ज़रूरत है.

केंद्र के साथ-साथ यूपी में सत्तारूढ़ पार्टी के साथ उनके समीकरणों को फिर से समझने की जरूरत है, क्योंकि राजनीति को लेकर उनका दृष्टिकोण व्यापारिक और व्यवहारिक दोनों तरह का है. मायावती की राजनीति के व्यावसायिक नज़रिये में शोषण के कई जाल हैं, जिसमे उनके स्वयं के फंसने और जकड़े जाने की संभावनाएं अधिक होती जा रही हैं जो बदले में उन्हें अपनी कार्यप्रणाली बदलने के लिए मजबूर कर रही हैं और आगे भी करती जाएंगी, क्योंकि सरकारी तंत्र की पकड़ मजबूत होती जा रही है विशेषकर विरोधियों के लिए तो और भी ज्य़ादा समस्याएं पैदा हो रही हैं

सभी विधानसभा उपचुनावों को लड़ने के निर्णय का एक सीधा परिणाम यह होगा कि यह चुनावी लड़ाई चौतरफ़ा होगी जो भाजपा की जीत सुनिश्चित करेगी. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कभी भी नहीं चाहेंगे कि सत्तारूढ़ दल इस तरह का कोई संदेश दे जिससे कि लोकसभा चुनावों को या तो जोड़तोड़ द्वारा या पार्टी के चुनावी कौशल या कुशल संचालन के रूप मिली जीत के तौर पर देखा जाने लगे. 2014 चुनावों के बाद जिस प्रकार से बीजेपी लोक सभा के उपचुनाव हारी थी और पार्टी के नेतृत्व की किरकिरी हुई थी, उस प्रकार की पुनरावृत्ति न तो मोदी, न योगी और न ही अमित शाह देखना चाहेंगे. पार्टी नेतृत्व अपनी क्षमता खोता जा रहा है, इस प्रकार के संदेश किसी भी हालत में नहीं जाने देना चाहेगी.

बीएसपी की महारानी की रणनीति और राजनीतिक कौशल अभी तक बहुत सफल रहा है और उनकी कीमत बराबर बढ़ती ही चली गयी. इसके परिणामस्वरूप बीएसपी को राज्य में बड़ा राजनीतिक लाभ भी मिला है. राज्य में अन्य सभी राजनीतिक दल जिसमें दो बड़े राष्ट्रीय दल भी शामिल हैं, जब भी उन्होंने मायावती के साथ गठबंधन किया, उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा है. एक ओर जहाँ बीएसपी मजबूत होती गयी और अपनी विधानसभा और लोकसभा सदस्यों की संख्य़ा बढ़ाती चली गयी, वही दूसरी तरफ़ गठबंधन करने वाले दल सिमटते चले गए. इसका आरंभ साल 1995 में मुलायम सिंह यादव के साथ हुआ जब उनकी चुनाव पूर्व सहयोगी मायावती ने 1996 में बीजेपी के सहयोग से मुख्यमंत्री बनने के लिए उनका साथ छोड़ दिया.

अपने मूल वोट बैंक पर अपनी कमजोर पकड़, अन्य जातियों और उप-जातियों को अपनी पार्टी की तरफ आकर्षित करने में विफल, मुस्लिम मतदाताओं का गहरा अविश्वास, घमंडी दृष्टिकोण और उनका राजनीतिक ब्रांड उन्हें पर्याप्त वोट लाभ पहुंचाने वाला नहीं है, इसलिए जब तक वे मौलिक रूप से अपनी छवि को नहीं बदलती उनका और उनकी पार्टी का पतन जारी रहेगा.

1996 में धोखा खाने की कांग्रेस की बारी थी जब गठबंधन में बीएसपी ने कांग्रेस के साथ विधानसभा का चुनाव लड़ा और सरकार बीजेपी के सहयोग से बनाकर मायावती राज्य की मुख्यमंत्री बनी. साल 2002 में वे भाजपा के समर्थन से फिर एक बार मुख्यमंत्री बनीं. उसके बाद 1995, 1997 और 2002 में वह भाजपा के घोड़े पर सवार होकर सत्ता में आईं. इस प्रक्रिया में हुआ यह कि बीजेपी ने राज्य में अपनी विश्वसनीयता खो दी, जिसके परिणामस्वरूप उसका राजनीतिक आधार सिकुड़ गया. एक दशक से अधिक समय तक राजनीतिक निर्वासन काल में रहने के बाद बीजेपी ने 2014 में मोदी लहर और अमित शाह के चुनावी संचालन के चलते राज्य में अपनी राजनीतिक ज़मीन दोबारा हासिल की. 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को भारी बहुमत से सत्ता में लाने के लिए इन दोनों कारकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और राज्य में कट्टर हिंदुत्व की राजनीति की नींव रखी, जिसमें भगवा धारण किए योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ कर सामने से नेतृत्व कर रहे थे.

हालांकि, मायावती के पलटने और तोड़ने-मरोड़ने की कला का परिणाम अतीत में उनकी राजनीतिक सफलता और विकास के रूप में हुआ, क्योंकि दलित मतदाताओं का उनका गढ़ अभेद्य था मगर इस बार परिणाम पहले की तरह उनके मनमाफ़िक नहीं रहे. यहाँ तक कि उनके अपने जाटव मतदाता बीएसपी से दूर जाते हुए दिख रहे हैं और गैर-जाटव दलित मतदाता की क्या कही जाए, वह तो पहले ही उनसे एक दूरी बना चुका है.

लोकनीति-सीएसडीएस (सेंटर फॉर स्टडीज ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज़) उत्तर प्रदेश में चुनाव के बाद के एक सर्वेक्षण में एसपी और बीएसपी दोनों के मूल वोट बैंकों के घटने की ओर इशारा करता है. लोकसभा चुनावों में 75 प्रतिशत जाटवों ने एसपी-बीएसपी और आरएलडी गठबंधन को वोट दिया, लेकिन गैर-जाटव दलितों में से केवल 42 प्रतिशत ने ही उन्हें वोट दिया. गैर जाटव दलित मतदाताओं में से 48 प्रतिशत ने बीजेपी उम्मीदवारों को चुना. विधानसभा चुनावों में बीएसपी के वोट-शेयरों में लगातार गिरावट आई है. 2007 में उसे 30.43 प्रतिशत वोट मिले, जब मायावती ने ब्राह्मणों, मुस्लिमों, ओबीसी और दलितों के समर्थन से पूर्ण बहुमत हासिल किया था. 2012 में यह वोट शेयर घटकर 25.95 प्रतिशत रह गया, जो 2017 में 22.23 प्रतिशत तक नीचे आ गया. 2019 में एसपी और आरएलडी के साथ हुए गठबंधन के बावजूद बीएसपी यूपी में केवल 19.26 प्रतिशत वोट ही हासिल कर सकी, जो 2014 के वोट शेयर से भी 0.51 प्रतिशत कम है.

अपने मूल वोट बैंक पर अपनी कमजोर पकड़, अन्य जातियों और उप-जातियों को अपनी पार्टी की तरफ आकर्षित करने में विफल, मुस्लिम मतदाताओं का गहरा अविश्वास, घमंडी दृष्टिकोण और उनका राजनीतिक ब्रांड उन्हें पर्याप्त वोट लाभ पहुंचाने वाला नहीं है, इसलिए जब तक वे मौलिक रूप से अपनी छवि को नहीं बदलती उनका और उनकी पार्टी का पतन जारी रहेगा.

दलित राजनीति की मलिका जो अभी कुछ वक़्त पहले तक देश के प्रत्येक राजनीतिक द्वारा सिर आंखों पर बिठाई जा रहीं थी, ख़ासकर उत्तर भारत में जिनके समर्थन की मांग की जाती थी, आज एक महत्वपूर्ण चौराहे पर खड़ी है. आगे आने वाले हफ़्ते और महीने दिखाएँगे कि वे खुद को फिर से मजबूती के साथ स्थापित कर सकेंगी या नहीं?

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