Author : Vikrom Mathur

Expert Speak Health Express
Published on Apr 08, 2024 Updated 0 Hours ago
स्वास्थ्य का अधिकार सुनिश्चित करने के लिए ‘वन हेल्थ’ दृष्टिकोण बेहद महत्वपूर्ण!

यह लेख विश्व स्वास्थ्य दिवस 2024: मेरा स्वास्थ्य, मेरा अधिकार श्रृंखला का हिस्सा है.


औपचारिक तौर पर देखा जाए तो भारतीय संविधान में स्वास्थ्य के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता नहीं दी गई है. सरकार के नीति निर्देशक सिद्धांतों में हालांकि, नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने को लेकर राज्यों के साथ ही पंचायतों एवं नगरपालिकाओं जैसे स्थानीय निकायों के उत्तरदायित्वों का वर्णन ज़रूर किया गया है. ऐसे में जब भारतीय संविधान में स्वास्थ्य के अधिकार के बारे में कोई स्पष्टता नहीं है, तब भारत के सुप्रीम कोर्ट ने राइट टू लाइफ यानी जीवन के अधिकार की विवेचना की है. ज़ाहिर है कि संविधान के आर्टिकल 21 में जीवन के अधिकार या जीने के अधिकार का उल्लेख किया गया है, जिसमें मानव गरिमा को बरक़रार रखने के मकसद से स्वास्थ्य के अधिकार को भी शामिल किया गया है. कुछ वर्षों पहले 2017 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनाई गई थी, जिसमें सभी नागरिकों को सुलभ, सुगम, किफायती और बगैर किसी भेदभाव के बराबरी की स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने की सरकार की प्रतिबद्धता को जताया गया है.

 

जलवायु परिवर्तन की वजह से जिस तरह से स्वास्थ्य से जुड़ी नई-नई चुनौतियां सामने रही हैं, इसके साथ ही पूरी दुनिया में कोविड-19 महामारी ने जिस प्रकार से तबाही मचाई थी, इस सबने वर्तमान में स्वास्थ्य के अधिकार पर ज़ोरदार बहस को जन्म दिया है. विशेषज्ञों ने अनुमान जताया है कि जलवायु परिवर्तन के साथ ही ज़मीन के बदलते उपयोग के कारण आने वाले दिनों में संक्रामक वायरस के जंगली जानवरों से मनुष्यों में फैलने की संभावना और अधिक हो जाएगी. विशेषज्ञों के मुताबिक़ भविष्य में अनुमान है कि मनुष्यों में 70 प्रतिशत से अधिक संक्रामक रोग जानवरों से फैलेंगे. इसलिए, अब इसमें कोई शंका नहीं बची है कि मानव स्वास्थ्य और धरती की सेहत में गहरा पारस्परिक संबंध है. इतना ही नहीं, भारत को अपने सभी नागरिकों के लिए स्वास्थ्य के अधिकार की गारंटी देते हुए इस विषय पर गंभीरता से कार्य करना चाहिए, साथ ही मानव स्वास्थ्य एवं धरती के स्वास्थ्य को दुरुस्त करने के लिए एकीकृत दृष्टिकोण अपनाना चाहिए.

 भारत को अपने सभी नागरिकों के लिए स्वास्थ्य के अधिकार की गारंटी देते हुए इस विषय पर गंभीरता से कार्य करना चाहिए, साथ ही मानव स्वास्थ्य एवं धरती के स्वास्थ्य को दुरुस्त करने के लिए एकीकृत दृष्टिकोण अपनाना चाहिए.

इस वर्ष के विश्व स्वास्थ्य दिवस की थीममेरा स्वास्थ्य, मेरा अधिकारहै. विश्व स्वास्थ्य दिवस की यह थीम केवल स्वास्थ्य के अधिकार के बारे में, बल्कि मनुष्यों, जानवरों और प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र की सेहत के बीच महत्वपूर्ण संबंध पर प्रकाश डालते हुए, इससे जुड़े विभिन्न पहलुओं पर गंभीरता के साथ चर्चा-परिचर्चा करने का अनुकूल अवसर उपलब्ध कराती है. यह जो विचार-विमर्श है, वो सिर्फ़ 'वन हेल्थ' के दृष्टिकोण का महत्व सामने लाने का काम करता है, बल्कि मानव स्वास्थ्य एवं पृथ्वी ग्रह की सेहत को एकीकृत करने के लिए एक सशक्त बुनियाद भी प्रदान करता है. 

 

पारस्परिक रूप से जुड़े हैं मानव स्वास्थ्य एवं पृथ्वी की सेहत

निसंदेह तौर पर मानव स्वास्थ्य के लिए क्लाइमेट चेंज यानी जलवायु परिवर्तन एक गंभीर ख़तरा बनकर सामने आया है. तेज़ी से बदलते मौसम के साथ ही बेतरतीब तरीक़े से किए जा रहे इंफ्रास्ट्रक्चर विकास ने हालात को और पेचीदा बना दिया है. ज़ाहिर है कि इससे बहुत तेज़ी के साथ वायु और जल प्रदूषण बढ़ रहा है और पौष्टिक खाद्य पदार्थों एवं रहने के उचित स्थानों तक लोगों की पहुंच सीमित होती जा रही है. ये सभी चीज़ें कहीं कहीं कुदरती इकोसिस्टम को नुक़सान पहुंचा रही हैं. ऐसे हालात मानव स्वास्थ्य के लिहाज़ से कतई उचित नहीं है और लोगों की सेहत पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं. ऐसे में जब हम मानव स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए और उसमें सुधार के लिए भारत के हेल्थ केयर सिस्टम को नए सिरे से स्थापित करने और उसमें नई जान फूंकने के बारे में विचार करते हैं, तो ऐसा लगता है कि शायद इस तरह के विमर्श का यह सबसे अनुकूल समय है. निसंदेह रूप से मानव स्वास्थ्य और धरती की सेहत पारस्परिक रूप से गहराई से जुड़े हैं और इस मुद्दे पर समग्रता के साथ कार्य करने की ज़रूरत है.

 आज की परिस्थितियों के मद्देनज़र यह बेहद ज़रूरी हो जाता है कि जलवायु परिवर्तन को सार्वजनिक स्वास्थ्य के एक मुद्दे के रूप में नए सिरे से परिभाषित किया जाए, साथ ही इस मुश्किल चुनौती का मुक़ाबला करने के लिए आवश्यक तंत्र की स्थापना की जाए.

जब धरती की सेहत दुरुस्त होगी, तो इसका सीधा असर धरती पर रहने वाले मनुष्यों समेत सभी जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों पर भी पड़ेगा, यानी धरती की सेहत अच्छी होगी तो यहां रहने वाले हर जीव की सेहत बेहतर होगी. ऐसे में धरती के पारिस्थितिक तंत्र को संरक्षित एवं पुनर्स्थापित करके, साथ ही प्रदूषण पर लगाम लगाकर एवं टिकाऊ प्रथाओं को प्रोत्साहित करके हम सिर्फ़ पर्यावरण की रक्षा कर सकते हैं, बल्कि वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लिए बेहतर स्वास्थ्य एवं गुणवत्तापूर्ण जीवन भी सुनिश्चित कर सकते हैं. आज की परिस्थितियों के मद्देनज़र यह बेहद ज़रूरी हो जाता है कि जलवायु परिवर्तन को सार्वजनिक स्वास्थ्य के एक मुद्दे के रूप में नए सिरे से परिभाषित किया जाए, साथ ही इस मुश्किल चुनौती का मुक़ाबला करने के लिए आवश्यक तंत्र की स्थापना की जाए. इसके लिए नीतिगत समाधानों में सार्वजनिक स्वास्थ्य को प्रमुखता देना और इसके लिए अधिक से अधिक निवेश करना बहुत महत्वपूर्ण है. ज़ाहिर है कि इन क़दमों के ज़रिए ही इस गंभीर संकट से निपटा जा सकता है.

 

वन हेल्थ का दृष्टिकोण

उल्लेखनीय है कि सरकारी तंत्र में कुछ ढांचागत व्यवस्थाएं पहले से ही मौज़ूद हैं, जो मानव स्वास्थ्य और पृथ्वी की सेहत के मुद्दे पर एकजुट होकर कार्य कर सकती हैं. "वन हेल्थ" एक ऐसा नज़रिया है, जिसमें अलग-अलग विषयों को एक साथ लेकर विचार किया जाता है, यानी कहा जा सकता है कि वन हेल्थ मनुष्यों, जानवरों और पर्यावरण के स्वास्थ्य के बीच आपसी संबंधों को स्वीकारता है. वन हेल्थ कहीं कहीं सहभागी स्वास्थ्य मुद्दों का समाधान तलाशने के लिए दवाओं, पशुओं के स्वास्थ्य एवं उनके इलाज, इकोलॉजी और पब्लिक हेल्थ जैसे अलग-अलग क्षेत्रों के बीच सहयोग पर बल देता है. कहने का तात्पर्य यह है कि इन अलग-अलग क्षेत्रों के विशेषज्ञ एकीकृत तरीक़े से कार्य करके संक्रामक रोगों, एवं ऐसे जीव-जंतुओं, जिनसे संक्रामक बीमारी या महामारी फैलने की संभावना बनी हुई है, जैसी वैश्विक चुनौतियों एवं पर्यावरण से संबंधित ख़तरों से निपटने के लिए व्यापक रणनीतियां बना सकते हैं और इस प्रकार से सभी के कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं.

 राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में वन हेल्थ के सिद्धांतों को शामिल करने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े वर्तमान क़ानून में बदलाव करना होगा. इससे यह सुनिश्चित होगा कि नई स्वास्थ्य नीति इन क्षेत्रों पर पड़ने वाले असर का भी समाधान करने में सक्षम होगी. 

राष्ट्रीय "वन हेल्थ" मिशन के अंतर्गत भारत में तमाम प्रयास किए जा रहे हैं. देखा जाए तो राष्ट्रीय वन हेल्थ मिशन का उद्देश्य मानव स्वास्थ्य के मद्देनज़र सिर्फ़ बीमारियों के इलाज और उनकी रोकथाम तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इस मिशन का लक्ष्य पशु स्वास्थ्य देखभाल से जुड़ी सुविधाओं के विकास पर भी है. हालांकि, इसमें पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत को दुरुस्त करने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं किया जा रहा है. ज़ाहिर है कि वन हेल्थ मिशन के अंतर्गत भविष्य में फैल सकने वाली संक्रामक बीमारियों एवं महामारियों की रोकथाम पर अधिक ध्यान दिया गया है. लेकिन केवल यहीं तक सीमित रहने से काम नहीं चलने वाला है, वरन इससे भी आगे जाकर कार्य करना होगा और धरती की सेहत यानी प्रकृति के संरक्षण से संबंधित विभिन्न पहलुओं को भी इसमें शामिल करना होगा. अर्थात इस तरह की विभिन्न चुनौतियों के साथ समग्रता से निपटने के लिए वन हेल्थ मिशन को सार्वजनिक स्वास्थ्य को संबोधित करने वाली राष्ट्रीय नीतियों में परिवर्तित किया जा सकता है.

 

वन हेल्थ के विचार को विभिन्न स्तरों पर कई प्रमुख रणनीतियों के ज़रिए भारत की स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में समाहित किया जा सकता है. ऐसी ही कुछ रणनीतियों के बारे में आगे चर्चा की गई है:

 

नीतिगत समन्वय एवं क़ानून बनाना: संक्रामक बीमारियों की रोकथाम को लेकर भारत का नज़रिया बेहद सक्रियता के साथ कार्रवाई करने और रोकथाम से जुड़े उपायों को गंभीरता के साथ अमल में लाने का है. भारत में इसके लिए एक मज़बूत और सुव्यवस्थित आपदा प्रतिक्रिया तंत्र मौज़ूद है. पहले जब H5N1 इन्फ्लूएंजा बीमारी का संक्रमण फैला था, तब इसकी रोकथाम के दौरान भारत ने छोटे स्तर पर ही सही, लेकिन वन हेल्थ नज़रिए को अपनाया था. इसके लिए भारत ने सहयोगी ढांचागत सुविधाओं को संस्थागत बनाने का काम किया था. अफसोस की बात यह है कि भारत के इन संक्षिप्त प्रयासों को दीर्घकालिक नीतिगत ढांचे में तब्दील नहीं किया जा सका. ज़ाहिर है कि भारत की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में अलग-अलग विषयों को लेकर एकीकृत नज़रिए को अपनाने की आवश्यकता है, साथ ही इस प्रकार की नीतियों को समाहित करने की ज़रूरत है, जो मानव, पशु और पर्यावरण की सेहत के बीच के पारस्परिक संबंध को पहचानने वाली हों. यानी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में वन हेल्थ के सिद्धांतों को शामिल करने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े वर्तमान क़ानून में बदलाव करना होगा. इससे यह सुनिश्चित होगा कि नई स्वास्थ्य नीति इन क्षेत्रों पर पड़ने वाले असर का भी समाधान करने में सक्षम होगी. 

 

संस्थागत सहयोग: जहां तक वन हेल्थ नज़रिए की बात है, इसमें सामूहिक और सक्रिय प्रतिक्रिया के लिए विभिन्न सरकारी विभागों एवं एजेंसियों के बीच एकीकृत रणनीति पर बल दिया गया है. इसमें मानव स्वास्थ्य, पशु कल्याण, वन्य-जीव संरक्षण और पर्यावरण संरक्षण के लिए उत्तरदायी राष्ट्रीय, राज्य एवं स्थानीय स्तर की एजेंसियों एवं विभागों के साथ सशक्त संपर्क अर्थात विभिन्न हितधारक समूहों क्षेत्रों के बीच मज़बूत मेलजोल शामिल है. विभिन्न हितधारकों के बीच इस सहयोग को राष्ट्रीय स्तर पर एक अंतर-मंत्रालयी टास्क फोर्स और एक संयुक्त निगरानी समूह की स्थापना के ज़रिए संस्थागत स्वरूप दिया जाना चाहिए. इतना ही नहीं, इसी प्रकार के टास्क फोर्स का स्थानीय स्तर पर भी गठन किया जा सकता है.

 

अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: आने वाले दशकों में वन हेल्थ का यह दृष्टिकोण अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए एक मजबूत विकल्प के तौर पर उभर सकता है. इसकी वजह यह है कि दुनिया के तमाम देश अपनी-अपनी राष्ट्रीय नीतियों में वन हेल्थ जैसे विचार को समाहित करने की दिशा में काम कर रहे हैं. गौरतलब है कि अगर इस विषय पर पुख्ता अंतर्राष्ट्रीय सहयोग स्थापित हो जाए, तो दूसरे देशों से आने वाले स्वास्थ्य ख़तरों से निपटने और इसके लिए अपनाए जाने वाले बेहतरीन उपायों को एक दूसरे से साझा करने के लिए एक मज़बूत इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया जा सकता है. जहां तक भारत का सवाल है, तो भारत क्षेत्रीय स्तर पर वन हेल्थ पहलों में अग्रणी भूमिका निभा सकता है. हालांकि, देश के भीतर और वैश्विक स्तर पर इस तरह के प्रयासों के लिए वित्तपोषण का एक तंत्र स्थापित करके उनका पुरज़ोर सहयोग किया जाना चाहिए. ज़ाहिर है कि इसके लिए वर्तमान संसाधनों को दूसरी जगह पर ख़र्च करना और वित्तपोषण के नए ज़रियों को तलाशना, जिसमें विकास सहयोग निधि से धनराशि प्राप्त करना भी कारगर सिद्ध हो सकता है.

 

शोध और प्रशिक्षण: वन हेल्थ के विचार को मूर्त रूप देने में अनुसंधान और प्रशिक्षण की भी बहुत अहम भूमिका है. इस प्रयास को आगे बढ़ाने में इससे जुड़े विभिन्न विषयों को लेकर शोध को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. यानी इस प्रकार के शोधों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जो मानव, पशु और पर्यावरण की सेहत से संबंधित मुद्दों को संबोधित करने वाला हो. उल्लेखनीय है कि चिकित्सा, पशु चिकित्सा और पर्यावरण विज्ञान के पाठ्यक्रम में इन विचारों और परिकल्पनाओं को शामिल करके और इन क्षेत्रों में विशेषज्ञों या जानकारों का एक व्यापक टैलेंट पूल बनाकर इस लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है. इतना ही नहीं, ज़ूनोटिक रोगों यानी जानवरों से फैलने वाली बीमारियों, एंटी माइक्रोबियल रेजिस्टेंस, खाद्य सुरक्षा और पर्यावरणीय स्वास्थ्य से जुड़े संकटों का अध्ययन को प्रोत्साहित करने के साथ ही, इन प्रयासों में ऐसी सभी चुनौतियों से निपटने के लिए नए-नए समाधानों को विकसित करने के बारे में सोचना चाहिए.



निष्कर्ष

देश में शायद अब वो वक़्त गया है, जब सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी मुश्किल चुनौती का मुक़ाबला करने हेतु सभी नागरिकों के लिए स्वास्थ्य के अधिकार को सशक्त किया जाए. ऐसा करने के दौरान वन हेल्थ फ्रेमवर्क को अपनाने वाली सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों पर दोबारा से काम करने की ज़रूरत है. सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी व्यवस्थाओं और सुविधाओं को दुरुस्त करने के लिए, ज़ाहिर तौर पर विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक स्तर पर कार्य करने की ज़रूरत होती है और अक्सर ऐसा करने में तमाम चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है. इतना ही नहीं इन रणनीतियों को ज़मीनी स्तर पर लागू करने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति वाले नेतृत्व, पारस्परिक विश्वास और विभिन्न हितधारकों के बीच समुचित सहयोग भी ज़रूरी होता है.


विक्रम माथुर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.

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