Published on Aug 12, 2020 Updated 0 Hours ago

अगर सदस्य देशों की सरकारें चाहती हैं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ज़्यादा असरदार बने, तो उन्हें इंटरनेशनल हेल्थ रेग्यूलेशन (IHR) के तहत इसे कुछ वास्तविक अधिकार देने होंगे.

एक ऐसा विश्व स्वास्थ्य संगठन जो 21वीं सदी के अनुकूल हो!

22 मई को भारत के केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री, डॉक्टर हर्षवर्धन को विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्यकारी बोर्ड का अध्यक्ष चुना गया. ये कार्यकारी अथवा एग्ज़ीक्यूटिव बोर्ड, विश्व स्वास्थ्य संगठन के 194 सदस्य देशों और इसके सचिवालय के बीच कड़ी का काम करता है. सचिवालय यानी, विश्व स्वास्थ्य संगठन के सभी तकनीक और प्रशासनिक कर्मचारी. हर्षवर्धन का कार्यकाल एक साल यानी 21 मई 2021 तक के लिए होगा. ये एक वर्ष ख़ुद विश्व स्वास्थ्य संगठन और पूरी दुनिया के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण होगा. हालांकि, कोविड-19 ने भारत के अपनी आर्थिक और सैन्य शक्ति के बूते दुनिया की बड़ी शक्ति बनने की राह को मुश्किल कर दिया है. फिर भी भारत के पास ये मौक़ा  है कि वो कम से कम वैश्विक स्वास्थ्य कूटनीति में अपनी शक्ति का विस्तार करके एक बड़ा खिलाड़ी बन सकता है. क्योंकि, स्वास्थ्य ऐसा मसला है जिसकी दुनिया की तमाम बड़ी ताक़तें लंबे समय से अनदेखी करती रही हैं. ऐसे में इस क्षेत्र में एक बड़ी ताक़त बनने के लिए भारत के पास काफ़ी संभावनाएं हैं.

अब तक किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि, अमेरिका विश्व स्वास्थ्य संगठन की फंडिंग रोक देगा. लेकिन, उसके ऐसा क़दम उठाने से एक ऐसा दुर्लभ अवसर उत्पन्न हुआ है, जब विश्व स्वास्थ्य संगठन को दोबारा ट्रैक पर लाकर इसे इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों का सामना करने लायक़ बनाया जा सके.

विश्व स्वास्थ्य संगठन में डॉक्टर हर्षवर्धन का कार्यकाल ठीक उस समय शुरू हुआ है, जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने WHO के साथ अपने रिश्ते ख़त्म कर लिए हैं. जबकि, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने काम से विकासशील देशों की काफ़ी मदद की है. अमेरिका का WHO से अलग होने का निर्णय, विश्व स्वास्थ्य संगठन के उस अधिकार क्षेत्र पर सीधा हमला है, जो उसे हाल ही में प्राप्त हुआ है. और, जिसके तहत WHO अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य संकट के समय अपने सदस्य देशों के बीच संयोजन का काम कर सकता है. अमेरिका के विश्व स्वास्थ्य संगठन की सदस्यता ख़त्म कर देने के फ़ैसले से दुनिया में बहुत से लोग सदमे में हैं, तो बहुत से देश नाराज़ भी हैं. लेकिन, ऐसा होना नहीं चाहिए. अमेरिका ने विश्व स्वास्थ्य संगठन से अलग होने का फ़ैसला इसलिए उठाया, क्योंकि अमेरिकी जानकार ये मानते हैं कि दुनियाभर में सबसे ज़्यादा अमेरिका ही, स्वास्थ्य क्षेत्र में अन्य देशों की मदद करता रहा है. जबकि, हक़ीक़त ये है कि अमेरिका एक ऐसी वैश्विक संस्था का सदस्य था, जो न केवल अमेरिकी जनता बल्कि दुनिया के कई देशों के लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा में मदद का काम करती थी. अमेरिका का ये क़दम नैतिक रूप से भी बेहद नकारात्मक है. किसी की मदद करने वाले के भी कुछ नैतिक कर्तव्य होते हैं. ख़ासतौर से तब और जब इंसानों की ज़िंदगियां दांव पर हों. तो कम से कम ऐसा क़दम उठाने से पहले किसी मददगार को चाहिए कि वो वैकल्पिक व्यवस्था हो जाने का इंतज़ार तो कर ले. अगर कोई ऐसी महामारी फैली हो, जिसने दुनियाभर में लाखों लोगों की जान ले ली हो, तो हड़बड़ी में ऐसा क़दम उठाए जाने को अनैतिक ही कहा जाएगा.

हालांकि, अब तक किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि, अमेरिका विश्व स्वास्थ्य संगठन की फंडिंग रोक देगा. लेकिन, उसके ऐसा क़दम उठाने से एक ऐसा दुर्लभ अवसर उत्पन्न हुआ है, जब विश्व स्वास्थ्य संगठन को दोबारा ट्रैक पर लाकर इसे इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों का सामना करने लायक़ बनाया जा सके. एक तो विश्व स्वास्थ्य संगठन लंबे समय से अमेरिकी सरकार और गेट्स फ़ाउंडेशन की मदद के भरोसे चल रहा था. दूसरी बात ये कि सबसे अधिक धन देने की वजह से विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्राथमिकता हमेशा ही अमेरिका के हितों, उसके विचारों और मूल्यों का ध्यान रखना होता था. जिसके कारण अन्य देशों की अनदेखी हुआ करती थी. मिसाल के तौर पर, अमेरिका में लंबे समय से आम नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने को लेकर गर्मागर्म राजनीतिक बहस छिड़ी हुई है. और इस बहस का अमेरिकी सरकार के उन अधिकारियों, विद्वानों और अन्य लोगों पर भी असर पड़ता है, जो स्थायी विकास के लक्ष्य (SDGs) के तहत, सबके लिए स्वास्थ्य सेवा (UHC) के एजेंडे को आगे बढ़ाने का काम करते हैं. शुरुआत में सबके लिए स्वास्थ्य का लक्ष्य केवल स्वास्थ्य सेवाओं तक सीमित नहीं था. बल्कि, इसका मक़सद अच्छी सेहत पर असर डालने वाले बुनियादी स्तंभों को मज़बूत करना था. लेकिन, आज अमेरिकी दृष्टिकोण के प्रभाव से ये केवल सबको स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने के लक्ष्य की प्राप्ति तक सीमित रह गया है. क्योंकि, अमेरिका में यही सोच है कि अच्छी सेहत का मतलब सबको हेल्थकेयर की सेवा मुहैया कराना होता है. इसकी वजह साफ़ है. अमेरिका में स्वास्थ्य सेवा का अपना अलग अर्थशास्त्र है. वहां पर बड़ी तादाद में स्वास्थ्य सेवाओं का प्रबंधन करने वाले कंसलटेंट काम करते हैं. और, अमेरिका के कारोबारियों के हित भी स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े हैं. जिसके कारण, अमेरिका पूरी दुनिया में उनके हितों को बढ़ावा देने का काम करता है. इस समय अमेरिका में सेहत के लिए अच्छे हालात बनाने से उनके कोई कारोबारी हित नहीं जुड़े हैं. यानी सार्वजनिक स्वास्थ्य की व्यवस्था वहां नहीं है. अगर, ऐसा होता तो मैं शायद उनमें से किसी एक में काम कर रहा होता.

कुछ अमेरिकी विशेषज्ञ और अन्य लोग ये तर्क देते हैं कि अमेरिकी हितों का विश्व स्वास्थ्य संगठन पर कुछ ज़्यादा ही प्रभाव है. हाल के कुछ वर्षों में चीन ने कई विकासशील और अविकसित देशों में स्वास्थ्य सेवा के ढांचे के निर्माण और उसमें मदद करने को लेकर आक्रामक रुख़ अख़्तियार किया हुआ है.

1990 के दशक से ही विश्व स्वास्थ्य संगठन और व्यापक वैश्विक स्वास्थ्य के एजेंडे पर अमेरिका का बहुत अधिक प्रभाव रहा है. इसके अलावा अमेरिका से विश्व स्वास्थ्य संगठन को फंड देने वाले, जैसे कि गेट्स फ़ाउंडेशन, कार्यक्रम लागू करने वाले संगठन, अकादेमिक सदस्यों और अन्य लोगों को मिला लें तो WHO पर अमेरिका का प्रभाव विश्व स्वास्थ्य संगठन के किसी अन्य देश से कई गुना अधिक है. कुछ अमेरिकी विशेषज्ञ और अन्य लोग ये तर्क देते हैं कि अमेरिकी हितों का विश्व स्वास्थ्य संगठन पर कुछ ज़्यादा ही प्रभाव है. हाल के कुछ वर्षों में चीन ने कई विकासशील और अविकसित देशों में स्वास्थ्य सेवा के ढांचे के निर्माण और उसमें मदद करने को लेकर आक्रामक रुख़ अख़्तियार किया हुआ है. चीन, ऐसा करके अमेरिका की उस परंपरा का ही पालन कर रहा है, जिसके तहत अमेरिका स्वास्थ्य सेवाओं के ज़रिए अपने राष्ट्रीय हित साधता है. और अब इनका इस्तेमाल वो चीन के प्रभाव को रोकने के लिए करना चाहता है. और यक़ीन जानिए कि वुहान शहर में कोरोना वायरस को लेकर चीन व विश्व स्वास्थ्य संगठन के बीच जो भी बातचीत हुई हो, अमेरिका को इसकी ख़बर अवश्य थी.

इसके साथ साथ, अमेरिका ने जो आरोप लगा कर, विश्व स्वास्थ्य संगठन से ख़ुद को अलग किया है, वो WHO को उसकी वास्तविक हैसियत से अधिक ताक़त वाला संगठन मानने वाली बात है. विश्व स्वास्थ्य संगठन का अपने सदस्य देशों की सरकारों पर इतना ही प्रभाव है कि वो उनसे अपनी बात मनवाने की कोशिश करे. फिर चाहे चीन ही क्यों न हो. विश्व स्वास्थ्य संगठन के पास कोई छड़ी या प्रतिबंध जैसा हथियार तो है नहीं. न ही उसकी बात मानना सदस्य देशों के लिए बाध्यकारी है. फिर चाहे किसी महामारी के प्रकोप की ख़बर विश्व स्वास्थ्य संगठन को देने की बात ही क्यों न हो. 2005 में WHO के सदस्य देशों के बीच अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य नियमों पर सहमति बनी थी. जिसके तहत सदस्य देशों को फ़ौरन अपने यहां फैली किसी महामारी की ख़बर देने का औपचारिक समझौता हुआ था. अंतरराष्ट्रीय हेल्थ रेग्यूलेशन (IHR) अलग भी हो सकते थे. जिन सदस्य देशों ने IHR पर दस्तख़त किए, उन्होंने ही किसी बीमारी का प्रकोप फैलने की जानकारी देना अनिवार्य बनाने के बजाय इसे स्वैच्छिक बनाया था. यानी ये बात सदस्य देशों पर छोड़ दी गई थी कि वो अपने यहां नई महामारी फैलने की जानकारी विश्व स्वास्थ्य संगठन को दें या नहीं. उस समय कोई भी देश अपना इस बात का संप्रभु अधिकार छोड़ने को राज़ी नहीं था कि, वो अपने यहां फैलने वाली बीमारी से कैसे निपटे और कब इसकी ख़बर WHO को करे. उस समय इस विषय को लेकर अमेरिका भी सहमत हुआ था. उसने भी IHR पर दस्तख़त किए थे. और ये कहें कि इन नियमों को तय करने और बाद में इन्हें संशोधित करने में सबसे मज़बूत आवाज़ और भूमिका अमेरिका की ही थी.

इसका नतीजा ये हुआ कि, विश्व स्वास्थ्य संगठन अपने सदस्य देशों से अपील कर सकता है, उन्हें अपनी बात मानने के लिए रिझा सकता है, या हद से हद चेतावनी दे सकता है. लेकिन, विश्व स्वास्थ्य संगठन किसी भी सदस्य देश को ज़बरदस्ती अपने यहां फैली बीमारी दिखाने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है. यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के निदेशक या किसी अन्य अधिकारी पर ख़ासतौर से निशाना साधना न केवल ग़लत है, बल्कि नुक़सान पहुंचाने वाला भी है. ये सभी अधिकारी, उन नियमों के ग़ुलाम हैं, जिन्होंने ये नियम बनाए हैं. और WHO के अधिकारियों की ज़िम्मेदारी यही है कि वो सदस्य देशों द्वारा बनाए गए नियमों के दायरे में रहते हुए, जानकारी हासिल करने की कोशिश करें. और इस जानकारी के आधार पर अन्य सदस्य देशों को आने वाले ख़तरे के प्रति आगाह करें. इसी बात को दूसरे शब्दों में कहें, तो एक बिखरे हुए पारिवारिक ढांचे में घर के नौकरों से गाली गलौज करना भले ही आसान हो, मगर इससे किसी का भला नहीं, नुक़सान ही होता है. यहां पर मैं जान बूझकर नौकर का उदाहरण दे रहा हूं, जिससे कि उस व्यक्ति या देश की मानसिकता समझ में आ सके, जो अपने आपको दूसरों का मददगार और बड़ा दानदाता समझता है.

किसी भी सूरत में, विश्व स्वास्थ्य संगठन के सचिवालय के पास सरकारों से अपनी बात मनवा पाने के बेहद सीमित संसाधन उपलब्ध हैं. लालच और फटकार के बीच, हक़ीक़त ये है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के पास किसी भी देश पर दादागीरी दिखाने का अधिकार ही नहीं है. ऐसे में WHO के अधिकारियों ने चीन में कोरोना वायरस के प्रकोप की जानकारी निकालने के लिए उसे ललचाने की नीति पर अमल किया. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अधिकारियों को ये उम्मीद थी कि चीन एक ज़िम्मेदार वैश्विक नागरिक जैसा बर्ताव करेगा और दुनिया को अपने यहां के असल हालात की जानकारी देने में कोई कोताही नहीं करेगा. यहां पर जिस हक़ीक़त को समझने की ज़रूरत है, वो ये है कि बहुत से अन्य देश भी शायद विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ ऐसा ही बर्ताव करते, जैसा चीन ने किया. जिससे कि उन्हें अपने राष्ट्रीय और वाणिज्यिक हितों की रक्षा करने का समय मिल जाता. अगर अमेरिका या भारत में वायरस का प्रकोप सबसे पहले फैला होता, तो शायद ये दोनों देश भी वैसा ही करते और सबसे पहले अपने हितों की हिफ़ाज़त की कोशिश करते.

अगर हमें विश्व स्वास्थ्य संगठन को इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों के लिए तैयार करना है, तो इसकी ज़रूरतों का हिसाब भी इस आधार पर होना चाहिए कि इसके सदस्य देश आज कितना ख़र्च उठा सकने में सक्षम हैं. और भविष्य में भी इस आकलन को नियमित रूप से अपडेट करते रहना होगा

जहां तक बीमारियों का प्रकोप फैलने की बात है, तो अगर सदस्य देशों की सरकारें चाहती हैं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ज़्यादा असरदार बने, तो उन्हें इंटरनेशनल हेल्थ रेग्यूलेशन (IHR) के तहत इसे कुछ वास्तविक अधिकार देने होंगे. इसका मतलब ये है कि अगर कोई सदस्य देश अपने यहां नई बीमारी के फैलने की जानकारी को छुपाता है, तो उसकी जवाबदेही तय की जा सके. इसका अर्थ होगा कि आपसी एकता को बढ़ावा दिया जाए और राष्ट्रीय हितों पर दुनिया की सेहत की रक्षा करने को तरज़ीह दी जाएगा. जैसा कि इस महामारी के दौरान हमने देखा है, तमाम देशों की सरकारें अपनी अबाध संप्रभुता और राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देती हैं. जिससे वो आपसी सहयोग के मोर्चे पर तो असफल होती ही हैं, अपने नागरिकों का ख़याल रखने की ज़िम्मेदारी निभाने में भी विफल साबित हो जाती हैं. ऐसा करके, सरकारें अन्य देशों के नागरिकों के सीमित मानवीय अधिकारों का भी सम्मान नहीं करतीं. और, इस लिहाज़ से पलटकर देखें, तो अच्छा होता कि IHR को लागू करने के लिए कुछ अधिकार दिए जाते. इससे, आज जिस तरह तमाम देश, दशकों तक स्वास्थ्य सेवा में कटौती से बचत करने के बाद, कोविड-19 की महामारी रोकने के लिए अरबों-खरबों डॉलर ख़र्च कर रहे हैं, उसके मुक़ाबले इंटरनेशनल हेल्थ रेग्यूलेशन को लागू करने की लागत कम ही आती. अमेरिका के विश्व स्वास्थ्य संगठन से हाथ खींच लेने से न तो IHR से जुड़ी बुनियादी समस्या का ख़ात्मा होगा. और न हीं विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रशासनिक व्यवस्था की मूलभूत ख़ामियां दूर होंगी. ये एक ऐसी समस्या है जिसका समाधान होना ज़रूरी है. क्योंकि, आने वाले समय में ऐसी वैश्विक महामारियां फिर फैलेंगी. और विश्व भर में क़हर ढाने के बावजूद, कोविड-19 से वैसी तबाही नहीं मची, जिसकी आशंका दुनियाभर के विशेषज्ञ जता रहे थे. इस महामारी से आज जो हालात पैदा हुए हैं, उनकी बड़ी वजह, कोरोना वायरस से अधिक, ख़राब स्वास्थ्य प्रशासन और सेहत से जुड़ी ग़लत नैतिकताएं हैं. बड़ा सवाल ये है कि क्या, इस महामारी के प्रकोप को देखते हुए, अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य नियमों (IHR) में बदलाव किए जाएंगे? और क्या ये संशोधन बिना अमेरिका की भागीदारी के किए जाएंगे?

एक और बात ये है कि ‘अमेरिका फ़र्स्ट’ कोई ऐसा एजेंडा नहीं है, जो अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति या प्रशासन की ही ख़ूबी हो. इससे पहले की भी हर अमेरिकी सरकार और अधिकारियों का भी यही एजेंडा रहा है कि वो अमेरिका के हितों को अन्य बातों पर प्राथमिकता देते रहे हैं. और ये हर अमेरिकी राष्ट्रपति और सरकारी अधिकारी का संवैधानिक कर्तव्य भी है. इसीलिए, ये विडम्बना ही है कि अमेरिका ने ख़ुद को विश्व स्वास्थ्य संगठन से अलग करके, संगठन के भीतर रहकर आवाज़ उठाने का अपना विकल्प ख़त्म कर लिया है. और इस तरह से, अमेरिका के हितों को प्राथमिकता देने के अपने कर्तव्य को क्षति पहुंचाई है. हां, ये बात सच है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन पर अमेरिका का प्रभाव हमेशा वैश्विक स्वास्थ्य या दुनिया के सबसे कमज़ोर देशों और समुदायों की सेहत के लिए अच्छा नहीं रहा है. इसके कारण, अक्सर अमेरिका ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के उन कार्यों की राह में रोड़े अटकाए हैं, जिससे कि अमेरिका की कंपनियों (जैसे कि तंबाकू, शराब, चीनी और तकनीक वग़ैरह… का कारोबार करने वाली) के कारोबारी मुनाफ़े पर बुरा असर न पड़े. इसके अलावा अमेरिका ने प्रजनन और यौन स्वास्थ्य जैसे मसलों में बेहतरी लाने वाले प्रोजेक्ट में हमेशा अड़ंगा ही लगाया है.

पर, ऐसा नहीं है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन पर अमेरिका ने हमेशा नकारात्मक प्रभाव ही डाला हो. WHO पर अमेरिका प्रभाव के कई बड़े अच्छे परिणाम भी रहे हैं. ऐतिहासिक रूप से देखें, तो अमेरिका हमेशा से ही संक्रामक बीमारियों की रोकथाम में दुनिया की अगुवाई करता रहा है. अमेरिका ने महामारियों और विकलांगता के बोझ को मापने और इसे कम करने में हमेशा अग्रणी भूमिका निभाई है. इनके लिए नए तरीक़ों की खोज की है. ऐसे कई अमेरिकी नागरिक हैं, जिन्होंने स्वास्थ्य के ऐसे मुद्दों पर काम किया है, जिनकी हमेशा अनदेखी होती आई है. स्वास्थ्य की ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए बौद्धिक, वित्तीय और मानवीय संसाधनों को अमेरिका में जुटाया है. और अमेरिका के बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों ने ऐसे अनगिनत लोगों को प्रशिक्षित किया है, जो आज विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुख्यालय और क्षेत्रीय कार्यालयों में काम कर रहे हैं. यहां तक कि संगठन के ज़्यादातर  प्रशिक्षु भी अमेरिकी ही हैं, जो असल में बहुत सारा काम करते हैं.

ये विकल्प भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के पास है कि वो ख़ुद को एक ऐसी वैश्विक संस्था के रूप में नए सिरे से ढाल ले कि दुनिया के तमाम अंतरराष्ट्रीय संगठनों के लिए मॉडल का काम करे. एक ऐसा वैश्विक संगठन जिसकी ज़िम्मेदारियां और लाभ दोनों को इसके सदस्य देशों और नागरिकों के बीच बराबर-बराबर और न्यायोचित तरीक़े से विभाजित किया जाए

हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि अमेरिका और विश्व स्वास्थ्य संगठन के बीच संबंध टूटने की ये घटना अस्थायी हो. क्योंकि, दोनों के अलग होने से विश्व स्वास्थ्य संगठन की आमदनी को तगड़ा झटका लगा है. लेकिन, विश्व स्वास्थ्य संगठन के अमेरिका और गेट्स फ़ाउंडेशन पर इस क़दर निर्भरता की एक वजह ये भी है कि, अन्य सदस्य देश इसको उतनी वित्तीय मदद नहीं दे रहे हैं, जितनी उन्हें देनी चाहिए. आज भी WHO के सदस्य देश, इसे उस आधार पर फंड दे रहे हैं, जिसका आकलन कई दशक पहले किया गया था. अगर हमें विश्व स्वास्थ्य संगठन को इक्कीसवीं सदी की चुनौतियों के लिए तैयार करना है, तो इसकी ज़रूरतों का हिसाब भी इस आधार पर होना चाहिए कि इसके सदस्य देश आज कितना ख़र्च उठा सकने में सक्षम हैं. और भविष्य में भी इस आकलन को नियमित रूप से अपडेट करते रहना होगा. क्योंकि, आज भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के सदस्य देश आपस में मिलकर इसके व्यय को वहन करने के लिए तैयार नहीं हैं. आज भी WHO का 80 प्रतिशत से अधिक बजट अतिरिक्त स्वैच्छिक अनुदानों पर आधारित है. इसका एक मतलब ये भी है कि संगठन के फंड का आबंटन देने वाले की प्राथमिकताओं के आधार पर होता है. अमेरिका से विश्व स्वास्थ्य संगठन को मिलने वाले अनुदान के बंद होने का अर्थ ये है कि इसके कर्मचारियों की संख्या कम हो जाएगी और स्वास्थ्य से जुड़े कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में काम भी बंद हो जाएगा.

लेकिन, जैसा कि मैं अपने छात्रों को सिखाता हूं और दुनियाभर में अपने श्रोताओं को बताता हूं, वैश्विक स्वास्थ्य की चुनौतियों से निपटने में, या WHO की कमियों के धन की कमी ही मुख्य समस्या नहीं है. असल में इसके लिए ठोस तर्क की कमी, नए विचारों का अभाव और नैतिक मूल्यों का पतन अधिक ज़िम्मेदार है. आज तमाम देशों की सरकारों के पास ख़ूब सारा पैसा है. 2008 में दिवालिया हो रहे बैंकों और डूबती हुई अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए रातों-रात अरबों-खरबों रुपए जमा हो गए थे. और पिछले कुछ महीनों के दौरान ही हमने देखा है कि इस महामारी से निपटने के लिए ख़रबों डॉलर की रक़म ख़र्च कर दी गई. इस समय विश्व स्वास्थ्य संगठन और इसकी उपयोगिता की वक़ालत करने वालों के लिए सबसे बड़ी और साफ़ चुनौती यही है कि वो WHO को अमेरिका से मिलने वाले धन का विकल्प खोजें. संभावित दानदाताओं को तलाशें. लेकिन, इस चुनौती के साथ, तमाम देशों की सरकारों और नागरिकों के लिए एक अभूतपूर्व अवसर भी आया है. अब वो विश्व स्वास्थ्य संगठन की और अधिक ज़िम्मेदारी उठा सकते हैं. इसकी संरचनात्मक कमियों को दूर कर सकते हैं. जिससे कि, विश्व स्वास्थ्य संगठन ज़्यादा निष्पक्षता, पारदर्शिता और मज़बूती से काम कर सके. क्योंकि, दुनिया में बहुत सारा धन पड़ा हुआ है. और जल्द ही विश्व स्वास्थ्य संगठन को इतना पैसा मिल जाएगा कि वो अमेरिका के मशहूर राजनीतिक चरित्र की तरह चलता रहेगा. जो धन देगा वो WHO से अपने हिसाब से काम कराएगा. या फिर, ये विकल्प भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के पास है कि वो ख़ुद को एक ऐसी वैश्विक संस्था के रूप में नए सिरे से ढाल ले कि दुनिया के तमाम अंतरराष्ट्रीय संगठनों के लिए मॉडल का काम करे. एक ऐसा वैश्विक संगठन जिसकी ज़िम्मेदारियां और लाभ दोनों को इसके सदस्य देशों और नागरिकों के बीच बराबर-बराबर और न्यायोचित तरीक़े से विभाजित किया जाए. और ये काम आपसी सहयोग और निर्भरता पर आधारित हो, जिसे मिलकर अंजाम दिया जाए. अगर हम ऐसा कर सके, तो जब तक अमेरिका वापस विश्व स्वास्थ्य संगठन से जुड़ने का फ़ैसला करता है, तब तक ये काफ़ी बेहतर वैश्विक संगठन बन चुका होगा. क्योंकि, अंत में अमेरिका WHO में वापस आएगा ही.

इस बीच, सवाल ये है कि क्या भारत और इसके स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन शांति से एक साल बिताएंगे? जिससे की वो मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति की निगाहों में न खटकें और साथ ही साथ चीन के बढ़ते प्रभाव को भी क़ाबू में रख सकें. या फिर, भारत विश्व स्वास्थ्य संगठन और विश्व व्यवस्था में निष्पक्षता और पारदर्शिता को बढ़ाने के लिए काम करेगा?

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