पिछले साल भारतीय रक्षा नीति में कुछ अहम घटनाक्रम सामने आए. इस दिशा में चार प्रमुख और पहचाने जाने योग्य (identifiable) बदलावों ने गति पकड़ी है: पहला, भारत के अधिग्रहणों या ख़रीदों की प्रकृति में किए गए बदलाव; दूसरा, घरेलू विनिर्माण पर पहले से अधिक ज़ोर; तीसरा, भारत में रक्षा से जुड़े विनिर्माण संस्थाओं के साथ-साथ अनुसंधान और विकास (R&D) संस्थानों के संदर्भ में विदेशों से अधिग्रहण और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण (ToT) के बीच संबंध; और चौथा, अपने रक्षा निर्यातों के ज़रिए भारत विशुद्ध रूप से सुरक्षा प्रदाता के रूप में उभर रहा है.
रक्षा मंत्रालय ने अप्रैल 2022 में रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया (DAP) में बदलाव करने का एलान किया. इन परिवर्तनों का एक हिस्सा ये भी है कि भविष्य में भारत की तीनों सशस्त्र सेनाओं और भारतीय तटरक्षक बलों द्वारा किए जाने वाले उपकरणों के सभी अधिग्रहण, घरेलू उद्योग से प्राप्त करने होंगे.
सर्वप्रथम, रक्षा मंत्रालय ने अप्रैल 2022 में रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया (DAP) में बदलाव करने का एलान किया. इन परिवर्तनों का एक हिस्सा ये भी है कि भविष्य में भारत की तीनों सशस्त्र सेनाओं और भारतीय तटरक्षक बलों द्वारा किए जाने वाले उपकरणों के सभी अधिग्रहण, घरेलू उद्योग से प्राप्त करने होंगे. रक्षा मंत्रालय ने ज़ोर देकर कहा है कि तीनों सेनाओं और तटरक्षक बलों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए विदेशी सैन्य उपकरणों की ख़रीद एक अपवाद होनी चाहिए, न कि प्रचलित नियम. इतना ही नहीं, तीनों सेनाओं और तटरक्षकों द्वारा विदेशों से अधिग्रहण के लिए अब रक्षा अधिग्रहण परिषद (DAC) की पूर्व मंज़ूरी की दरकार होगी. इस क़वायद का उद्देश्य विदेशी विक्रेताओं से सैन्य हार्डवेयर की ख़रीद में कमी लाना है. घरेलू उद्योगों को रक्षा ख़रीद या अधिग्रहण का स्रोत बनाने वाली यह नीति, मई 2020 के आख़िर में मोदी सरकार द्वारा घोषित आत्मनिर्भर भारत कार्यक्रम का एक अभिन्न हिस्सा है.
दूसरा, इस बदलाव के स्वाभाविक परिणाम के रूप में रक्षा मंत्रालय की रक्षा नीति ने विदेशी हार्डवेयर को देसी सामग्री से प्रतिस्थापित (substituting) करके घरेलू रक्षा उद्योग को मज़बूत करने पर ज़ोर दिया है. ज़्यादा से ज़्यादा स्वदेशीकरण की दिशा में यह नीतिगत बदलाव, रक्षा उत्कृष्टता के क्षेत्र में सरकार के नवाचार (iDEX) का भी नतीजा है. ये क़वायद भारत की स्टार्ट-अप प्रतिभा के साथ-साथ सूक्ष्म, लघु और मध्यम स्तर के उद्यमों (MSMEs) की ताक़त का लाभ उठाने की दिशा में एक प्रयास है.
अनिवार्य रूप से, भारत ने यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि अब तक ऊसकी पहुंच से बाहर रही महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियां, विदेशी विनिर्माताओं के साथ लाइसेंस प्राप्त समझौतों के ज़रिए मुहैया कराई जा सकें, ताकि उनका भारत में निर्माण किया जा सके.
इसके साथ साथ, रक्षा के क्षेत्र में भारत की शीर्ष संस्था रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) भी भारतीय उद्योग जगत के साथ “नाममात्र लागत” पर प्रौद्योगिकी साझा कर रहा है. इससे उद्योगों को अपने पेटेंट तक लागत-रहित पहुंच सुनिश्चित करने में मदद मिल रही है. रक्षा के क्षेत्र में अधिक से अधिक आत्मनिर्भरता की दिशा में इस प्रयास के पूरक के रूप में रक्षा मंत्रालय ने बेहद संजीदगी से रक्षा वस्तुओं की सकारात्मक स्वदेशीकरण सूचियों (PILs) की एक श्रृंखला जारी की है. इस प्रकार की पहली सूची दिसंबर 2020 में जारी की गई थी. इसमें तीनों सेनाओं द्वारा अनेक हार्डवेयर को हटाने की ज़रूरत बताई गई है, जिनमें फिन स्टैबिलाइज़्ड आर्मर पायर्सिंग डिस्कार्डिंग सैबोट (FSAPDS) से लेकर लैंड-अटैक क्रूज़ मिसाइल (LACMs) तक शामिल हैं. चौथी स्वदेशीकरण सूची सबसे ताज़ा है, जिसके लिए रक्षा सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों (डीपीएसयू) को रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण 928 उपकरणों के स्रोत जुटाने की आवश्यकता बताई गई है. इनमें लाइन रिप्लेसमेंट यूनिट्स (LRUs) के कलपुर्ज़े और घटक, सैन्य उप-प्रणालियां और महंगी सामग्रियां शामिल हैं. 715 करोड़ रुपयों तक की ये पूरी ख़रीद विशिष्ट रूप से घरेलू उद्योग से की जानी है. स्वदेशीकरण सूचियों का लक्ष्य सैन्य ठेकों के लिए बोली लगाने वाले सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के घरेलू रक्षा उद्यमों के बीच “प्रतिस्पर्धा के एक समान अवसर” पैदा करना है.
तालमेल की कोशिश
घरेलू रक्षा विनिर्माण को बढ़ावा देने वाली क़वायद का समर्थन, अन्य देशों के साथ भारतीय रक्षा सौदों के नए सिरे से तालमेल बिठाने की प्रक्रिया का अंग रहा है. तालमेल बिठाने की ऐसी प्रक्रिया दो-स्तरों वाली रही है. पहला, ये सुनिश्चित करना कि सैन्य प्लेटफॉर्म या बाहरी किरदारों से ख़रीदे गए विशिष्ट हिस्से भारत में निर्मित हों; जबकि दूसरा, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण समझौतों के माध्यम से देश की रक्षा अनुसंधान और विकास क्षमता को भी आगे बढ़ाया जाए. अनिवार्य रूप से, भारत ने यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि अब तक ऊसकी पहुंच से बाहर रही महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियां, विदेशी विनिर्माताओं के साथ लाइसेंस प्राप्त समझौतों के ज़रिए मुहैया कराई जा सकें, ताकि उनका भारत में निर्माण किया जा सके.
वित्तीय वर्ष 2022-2023 के लिए भारत ने अपना अब तक का सर्वोच्च निर्यात राजस्व कमाया है, जो 15,920 करोड़ रु या तक़रीबन 5 अरब अमेरिकी डॉलर है. ये रकम 2016-17 में रक्षा निर्यात से कमाए गए 1,521 करोड़ रुपए से 10 गुना से भी ज़्यादा है.
F414 लड़ाकू जेट इंजन के लिए हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) और GE एयरोस्पेस के बीच हाल ही में एक समझौता पत्र (MoU) पर दस्तख़त हुए हैं. प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के नज़रिए से ये बेहद कारगर है. इस MoU में भारत के हल्के लड़ाकू विमान MK II कार्यक्रम के लिए HAL और GE के बीच F414 इंजन के संयुक्त उत्पादन से जुड़े प्रावधान भी शामिल हैं. हालांकि अब तक इसे अंतिम रूप नहीं दिया गया है, फिर भी इंजन के संयुक्त उत्पादन के माध्यम से भारत के रक्षा अनुसंधान इकोसिस्टम को लड़ाकू जेट इंजनों के उत्पादन से जुड़ी बारीक़ जानकारियों तक पहुंच मिलेगी. दीर्घकाल में यह देश के रक्षा औद्योगिक आधार को वैज्ञानिक ज्ञान साझा करने और अपने ख़ुद के स्वदेशी लड़ाकू जेट इंजन बनाने में सक्षम बनाएगा. इस प्रकार, देश की रक्षा विनिर्माण क्षमता और मुमकिन तौर पर हमारी लड़ाकू स्क्वाड्रन शक्ति को रफ़्तार मिलेगी.
नीतिगत बदलाव
वैसे तो भारत की रक्षा ऑफसेट नीति ने विदेशी ठेकेदारों के साथ क़रारों के 30 प्रतिशत हिस्से को देश में ख़र्च करना अनिवार्य बना दिया है, जिसका लक्ष्य रक्षा उद्योग को बढ़ावा देना है. बहरहाल, पिछले कुछ वर्षों में इसके मिश्रित परिणाम देखने को मिले हैं. हालांकि भारत के हालिया रक्षा सौदे इस नीति को सकारात्मक रूप से नई दिशा दिए जाने और उसपर अमल किए जाने की क़वायदों का प्रदर्शन करते हैं. विशेष रूप से, भारतीय वायु सेना के 56 एयरबस C-295 परिवहन विमान ख़रीदने के सौदे में, 40 विमानों का निर्माण टाटा एडवांस्ड सिस्टम्स लिमिटेड के साथ भारत में किया जाना है. एयरबस ने भारत में C-295 के निर्माण के पैमाने को “अभूतपूर्व” क़रार दिया है.
घरेलू रक्षा विनिर्माण पर दिया जा रहा संस्थागत तवज्जो, रक्षा निर्यात के क्षेत्र में भारत की बढ़ती धमक से भी ज़ाहिर हुआ है. वित्तीय वर्ष 2022-2023 के लिए भारत ने अपना अब तक का सर्वोच्च निर्यात राजस्व कमाया है, जो 15,920 करोड़ रु या तक़रीबन 5 अरब अमेरिकी डॉलर है. ये रकम 2016-17 में रक्षा निर्यात से कमाए गए 1,521 करोड़ रुपए से 10 गुना से भी ज़्यादा है. 2013-14 में भारत का रक्षा निर्यात महज़ 686 करोड़ रु था. ज़ाहिर है भारत के रक्षा निर्यात में तगड़ी बढ़ोतरी हुई है.
संस्थागत ढांचों और नीतिगत बदलावों के मिले-जुले प्रभाव ने भारत के रक्षा निर्यात में ऐसी बढ़ोतरी सुनिश्चित की है. सर्वप्रथम, केंद्र सरकार ने 2014 में रक्षा निर्यात रणनीति लागू की; दूसरे, रक्षा विनिर्माण और निर्यात के लिए लाइसेंसिंग और सर्टिफिकेशन से जुड़े मानदंडों को उदार बनाया गया. इसके अलावा सकारात्मक स्वदेशीकरण सूचियों में विशिष्ट सैन्य उपकरणों को बाहरी स्रोतों से ख़रीदने की बजाए स्थानीय स्तर पर उनकी ख़रीद किए जाने का निर्देश दिया गया है. इन क़वायदों के साथ-साथ रक्षा अधिग्रहण को लेकर सामने रखी गई नई प्रक्रिया ने निर्यात में इस तरह की ज़बरदस्त बढ़ोतरी को सक्षम बनाया है. फिलीपींस, आर्मीनिया और इक्वाडोर जैसे देश, भारतीय सैन्य उपकरणों के प्राप्तकर्ता रहे हैं, जिससे भारत अपने रक्षा निर्यात के ज़रिए सुरक्षा प्रदाता में तब्दील हो गया है. आख़िरी तौर पर सरकार ने भी अन्य देशों के लिए लाइंस ऑफ क्रेडिट (यानी ऋण सुनिश्चित करने की व्यवस्था) की पहल कर दी है. इसका उद्देश्य ये सुनिश्चित करना है कि भारत के रक्षा आधार से तैयार साज़ो-सामानों की विदेशों में आसानी से बिक्री हो सके. सौ बात की एक बात ये है कि भारतीय रक्षा नीति में बेहतरी के लिए बदलाव हुआ है, और आगे चलकर भारत को इन परिवर्तनों का ज़बरदस्त लाभ मिलने वाला है.
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