Author : Manish Dabhade

Expert Speak Raisina Debates
Published on Jul 24, 2025 Updated 4 Days ago

ट्रंप के द्वारा ताकत के इस्तेमाल को जो चीज़ अलग करती है वो हवाई हमलों या लक्ष्य बनाकर किए गए ऑपरेशन का नयापन नहीं बल्कि उनके पीछे छिपे निर्णय-तंत्र में है.

अमेरिका की नई सैन्य शैली: ट्रंप ने सैन्य शक्ति का व्याकरण बदला

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प्रस्तावना

2025 के जून में अमेरिका ने ईरान की परमाणु सुविधाओं पर एक साथ वायु और मिसाइल हमले करते हुए 'ऑपरेशन मिडनाइट हैमर' को अंजाम दिया. यह अभियान समय में सीमित किंतु रणनीतिक दृष्टि से अत्यंत सटीक था — और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के युद्ध-सम्बंधी दृष्टिकोण की स्पष्ट झलक देता था. यह कोई अलग-थलग घटना नहीं थी, बल्कि उस सैन्य सिद्धांत का नवीनतम उदाहरण था जिसे ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में धीरे-धीरे आकार दिया था — जिसमें 2017 और 2018 के सीरिया हमले और अफगानिस्तान में ‘MOAB’ (सबसे शक्तिशाली गैर-परमाणु बम) के प्रयोग जैसी कार्रवाइयाँ शामिल थीं.

इन सभी कार्रवाइयों के पीछे एक सुविचारित — भले ही पारंपरिक न हो — सैन्य दर्शन था, जो लंबे समय से अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप को परिभाषित करने वाले उदार अंतरराष्ट्रीयतावादियों और नवसंरक्षणवादियों से भिन्न था.

 ट्रंप डॉक्ट्रिन के तीन स्तंभ 

मूल रूप से ट्रंप के बल प्रयोग की डॉक्ट्रिन तीन महत्वपूर्ण सिद्धांतों पर आधारित है: 

  • ख़तरे पर केंद्रित सटीकता

  • दीर्घकालीन युद्धों से परहेज

  • लेन-देन आधारित यथार्थवाद. 

ये दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से एकतरफा है, किंतु गहराई से रणनीतिक भी. साथ ही इस विश्वास पर आधारित है कि अमेरिकी ताकत एकध्रुवीय है, फिर भी इसका इस्तेमाल चुनिंदा ढंग से किया जाना चाहिए, कार्रवाई में तेज़ है लेकिन इसके बावजूद दायरे मे सीमित है और इसका उद्देश्य नैतिक या संस्थागत ज़रूरतों के बदले आवश्यक राष्ट्रीय चिंताओं की सुरक्षा करना है. 

ख़तरे पर केंद्रित सटीकता

ट्रंप के द्वारा ताकत के इस्तेमाल को जो चीज़ अलग करती है वो हवाई हमलों या लक्ष्य बनाकर किए गए ऑपरेशन का नयापन नहीं बल्कि उनके पीछे छिपे निर्णय-तंत्र में है. सबसे पहले, ये ख़तरे पर निर्भर होते हैं. हमले का फैसला सत्ता को बदलने, मानवीय हस्तक्षेप या गठबंधन की एकजुटता के सिद्धांत के आधार पर नहीं बल्कि अमेरिका के राष्ट्रीय हितों को सीधे, तत्काल और बड़े ख़तरे की धारणा पर आधारित होते हैं. उदाहरण के लिए, 2025 में खुफिया आकलन था कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम ने किसी ‘रेड लाइन’  को पार कर लिया है. यही मामला रासायनिक हथियारों के उपयोग के कारण 2017 और फिर 2018 में सीरिया के साथ भी था. हालांकि ओबामा प्रशासन के तहत अमेरिका ने लक्ष्मण रेखा पार करने को लेकर कोई कदम नहीं उठाया था. 

ट्रंप की रणनीति में बल प्रयोग का उद्देश्य किसी क्षेत्र को रूपांतरित करना नहीं, बल्कि विरोधियों को सज़ा देना, प्रतिक्रिया परखना और सौदेबाज़ी की स्थिति को नियंत्रित करना है.

दीर्घकालीन युद्धों से परहेज

ट्रंप की रणनीति का दूसरा स्तंभ है — दीर्घकालिक सैन्य अभियानों से स्पष्ट दूरी. ट्रंप प्रशासन के तहत अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी भागीदारी के चरम के दौरान भी वो इस बात को लेकर ज़िद पर अड़े थे कि अंतिम लक्ष्य 'राष्ट्र-निर्माण' नहीं, बल्कि सैनिकों की वापसी है. 2017 में अफ़ग़ानिस्तान नीति को लेकर अपने चर्चित भाषण में ट्रंप ने कहा था, “हम फिर से राष्ट्र निर्माण नहीं कर रहे हैं.” ये झुकाव- जो आंशिक रूप से यथार्थवाद, आंशिक रूप से राजनीति है- ऐसा है कि ट्रंप प्रशासन के तहत अमेरिका केवल उसी रूप में ताकत का उपयोग करता है जो प्रतिबद्धता को कम-से-कम करने में सबसे ज़्यादा काम आता है: ड्रोन हमला, हवाई ताकत और छोटे हमले. इसके साथ अमेरिका की तरफ से ये स्पष्ट आश्वासन दिया जाता है कि वो लंबे समय तक युद्ध नहीं लड़ना चाहता है या कब्ज़ा नहीं जमाना चाहता है. 

लेन-देन आधारित यथार्थवाद

तीसरा, ट्रंप की डॉक्ट्रिन लेन-देन संबंधी यथार्थवाद का है. ताकत को अक्सर एक व्यापक रणनीतिक सौदेबाज़ी के ढांचे में रखा जाता है. ईरान में किया गया हमला जितना इच्छा का प्रदर्शन था, उतना ही कूटनीतिक पूनर्मूल्यांकन के लिए मजबूर करने का एक तरीका भी था. अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के साथ बातचीत से पहले 2018 और 2019 में हवाई हमलों में बढ़ोतरी कर दी गई थी. सीरिया में सटीक बमबारी चेतावनी का एक संदेश था जिसके तहत कुछ मानदंडों (जैसे कि रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल नहीं करना) को लागू किया जाना था लेकिन इसके लिए गृह युद्ध में अधिक भागीदारी की दिशा में कोई प्रतिबद्धता नहीं करनी थी. 

इस प्रकार, ट्रंप की रणनीति में बल प्रयोग का उद्देश्य किसी क्षेत्र को रूपांतरित करना नहीं, बल्कि विरोधियों को सज़ा देना, प्रतिक्रिया परखना और सौदेबाज़ी की स्थिति को नियंत्रित करना है.

 “ट्रंप डॉक्ट्रिन” सैन्य, भू-राजनीतिक और राजनीतिक संचालकों के जटिल परस्पर क्रिया से प्रेरित है और ये सभी मिलकर एक निर्णय तक ले जाते हैं. पहला और सबसे स्पष्ट संचालक रणनीतिक ख़तरे का आकलन है. ट्रंप के द्वारा ताकत का इस्तेमाल प्रतिक्रियात्मक है लेकिन अनियमित नहीं; ये ख़तरे के आकलन पर आधारित है जो कदम नहीं उठाने को सोची-समझी कार्रवाई से अधिक महंगा मानता है. इस मायने में उनका दृष्टिकोण सज़ा देने के ज़रिए रोकथाम की तरह है, वो सटीक, अधिक असर वाली सैन्य कार्रवाई के माध्यम से विरोधियों के लिए एक उदाहरण पेश करना चाहते हैं. 

एक और संचालक परिचालन प्रभावशीलता और जोखिम को कम करना है. ज़मीनी सैनिकों की जगह हवाई शक्ति पर ट्रंप की निर्भरता सैन्य रणनीति के साथ-साथ नीतिगत मामला भी है ताकि अमेरिकी सैनिकों को हताहत होने से बचाया जा सके और युद्ध में उलझने से होने वाली थकान से दूर रहा जा सके. सटीक, दूरदराज और तकनीकी रूप से उन्नत “स्वच्छ युद्ध” की धारणा सैन्य प्रतिष्ठान को भी उतनी ही आकर्षित करती है, जितनी घरेलू राजनीतिक समर्थकों को. ये आगे ट्रंप को कार्रवाई के लिए अधिकतम स्वतंत्रता प्रदान करती है क्योंकि बड़े स्तर पर सैनिकों की तैनाती को लेकर लोगों या कानूनी विरोध के बिना वो एकतरफा कार्रवाई कर सकते हैं. 

भविष्य में यह मॉडल अमेरिका की सैन्य रणनीति को कितना टिकाऊ या विघटनकारी बनाएगा, यह कहना जल्दबाज़ी होगी. परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि ट्रंप की यह “नवीन सैन्य परिभाषा” 21वीं सदी में अमेरिकी शक्ति-प्रदर्शन की नई खिड़की खोलती है.

ट्रंप की ताकत की नीति का तीसरा संचालक घरेलू राजनीति पर विचार है, विशेष रूप से लंबे समय तक खर्च के बिना शक्ति प्रदर्शन की आवश्यकता. ट्रंप प्रशासन के तहत सैन्य कार्रवाई दोहरे उद्देश्य को पूरा करती है: ये कार्रवाई से नहीं डरने वाले, कठोर प्रहार करने वाले और अमेरिकी हितों के लिए खड़े होने वाले नेता की छवि को मज़बूत करते हुए विरोधियों को रोकती भी है. इसके नतीजतन हर सैन्य कार्रवाई घरेलू समर्थकों को याद दिलाने की तरह होती है और इस तरह नेतृत्व, दृढ़ निश्चय और राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के नैरेटिव की पुष्टि होती है. चौथा, “ट्रंप डॉक्ट्रिन” भू-राजनीतिक मेलजोल और चुनिंदा गठबंधन के संकेत से निर्धारित होती है. ट्रंप अपने पूर्ववर्तियों की इस नीति में दिलचस्पी नहीं रखते हैं कि उद्देश्यों को वैध बनाने के लिए वैश्विक गठबंधन बनाया जाए. उनका तर्क बहुपक्षीय नहीं बल्कि रणनीतिक है लेकिन ये तब तक है जब तक कि अमेरिका के किसी सहयोगी के सामने अस्तित्व का संकट नहीं हो जैसे कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम से इज़रायल के सामने उपस्थित ख़तरा होने पर अमेरिका कार्रवाई कर सकता है और ऐसे सैन्य रवैये का समन्वय कर सकता है जो उनके अंतर्राष्ट्रीय निर्देश से बाहर हो सकता है. इस तरह ताकत को द्विपक्षीय संकेत के एक औज़ार के रूप में पेश किया जाता है जो रणनीतिक गठबंधनों को व्यापक संस्थागत संरचनाओं के भीतर कैद किए बिना उन्हें मज़बूत बनाती है. 

अंत में, एक सामान्य आशय है जो कि अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार में लक्ष्मण रेखा को स्थापित करने का नए सिरे से प्रयास है. भले ही ट्रंप पर बार-बार ये आरोप लगते हैं कि उन्होंने मानदंडों को कमज़ोर किया है लेकिन उनकी सैन्य कार्रवाई की वजह से कई मानदंड बरकरार भी हुए हैं: सीरिया पर हमले ने दोहराया कि रासायनिक हथियार मंज़ूर नहीं है; ईरान पर हमले ने पारंपरिक संधि की प्रक्रियाओं से परे परमाणु अप्रसार को लागू करने की याद दिलाई. लेकिन मानदंडों को लागू करना हमेशा हितों के लिए होता है. ये विश्व के कल्याण के लिए नहीं लागू किया जाता है बल्कि उल्लंघनों को अमेरिका की ताकत या विश्वसनीयता को संकट में डालने वाला माना जाता है. 

ट्रंप की डॉक्ट्रिन का परिणाम दूर तक है, अमेरिका के साथ-साथ विश्व की सुरक्षा व्यवस्था तक. सबसे पहले, हम संभवत: उपस्थिति आधारित रोकथाम से क्षमता आधारित रोकथाम की तरफ और बदलाव देख सकते हैं. मोर्चे पर ठिकानों और सैनिकों की तैनाती कम कर दी जाएगी जबकि तेज गति से हमले, सटीक क्षमताओं में निवेश बढ़ जाएगा जिनमें स्टेल्थ बमवर्षक, लंबी दूरी की मिसाइल और साइबर क्षमताएं शामिल हैं.  

दूसरा, ट्रंप का नज़रिया सैन्य कार्रवाई को बड़े राजनीतिक या पुनर्निर्माण के उद्देश्यों से अलग करने पर ज़ोर देता है. इसमें लोगों का “दिल और दिमाग जीतने” या समाज के पुनर्निर्माण की कोई इच्छा नहीं है. अभियान का मक़सद बदलाव लाना नहीं बल्कि सज़ा देना या ज़बरदस्ती करना है. ये भागीदारी का एक तेज़ लेकिन संकीर्ण साधन उत्पन्न करता है, ऐसा साधन जो संकट प्रबंधन में उपयोगी तो हो सकता है लेकिन दीर्घकालिक हितों को तय करने में उसकी क्षमता सीमित है. 

तीसरा, हम सामूहिक सुरक्षा के मानदंडों में कमज़ोरी की उम्मीद कर सकते हैं क्योंकि राष्ट्रीय हितों को पूरा करने में आम सहमति की जगह एकतरफा हमलों को न्यू नॉर्मल (सामान्य बात) के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है. ट्रंप का तौर-तरीका एकतरफा कार्रवाई के पक्ष में अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों को दरकिनार करता है. भले ही ये तौर-तरीका परिचालन की स्वतंत्रता को अधिकतम करता है लेकिन इससे वैश्विक वैधता न्यूनतम हो जाती है और दूसरी शक्तियां भी ऐसे कदम उठाने के लिए प्रोत्साहित हो सकती हैं. 

अंत में, “ट्रंप डॉक्ट्रिन” भविष्य में अधिक शर्तों के तहत ताकत का इस्तेमाल करने को ज़रूरी बनाती है- बढ़े हुए साधनवाद के साथ लेकिन उपयोग में कोई बदलाव नहीं. जिन परिस्थितियों के तहत कार्रवाई पर विचार किया जाता है, वो साधारण बनी हुई हैं: स्पष्ट ख़तरा, कम जोखिम, अधिक प्रभाव. लेकिन इन पैमानों के तहत शासन की कला के एक साधन के रूप में सैन्य हमले नियमित हो जाते हैं- बार-बार, अविश्वसनीय लेकिन फिर भी रणनीतिक रूप से सर्वोच्च पारदर्शी.  

निष्कर्ष

राष्ट्रपति ट्रंप के द्वारा बल प्रयोग- जिसका उदाहरण पिछले दिनों ईरान में हमला है और सीरिया एवं अफ़ग़ानिस्तान में इसका पूर्वाभास मिलता है- लंबे समय तक चलने वाली लड़ाई और नैतिक धर्मयुद्ध की जगह सैन्य भागीदारी के नपे-तुले, बलपूर्वक और गहन लेन-देन वाले मॉडल की तरफ ले जाने वाले सैद्धांतिक बदलाव को दिखाता है. ये सिद्धांत अलग-थलग नहीं करता है बल्कि धोखा देने को लेकर गहरा संदेह रखता है. ये शांतिवादी नहीं है लेकिन युद्ध की कीमत को लेकर सतर्क है. 

भविष्य में यह मॉडल अमेरिका की सैन्य रणनीति को कितना टिकाऊ या विघटनकारी बनाएगा, यह कहना जल्दबाज़ी होगी. परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि ट्रंप की यह “नवीन सैन्य परिभाषा” 21वीं सदी में अमेरिकी शक्ति-प्रदर्शन की नई खिड़की खोलती है.

 


मनीष दभाडे JNU के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. वो कूटनीति और राष्ट्रीय सुरक्षा पढ़ाते हैं.

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