Published on Mar 27, 2021 Updated 0 Hours ago

असल में 20वीं सदी के आख़िरी दशक में अमेरिका के नेतृत्व में एकध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था कायम करने की कोशिश हुई, लेकिन वह सफल नहीं हो पाई

दुनिया में स्वास्थ्य सेवा बना प्रतिस्पर्धा का नया मोर्चा: वैक्सीन डिप्लोमेसी को लेकर शुरू हुई नई होड़

याल्टा-पोस्टडैम की एक हद तक स्थिर दो-ध्रुवीय व्यवस्था के खत्म होने के बाद से ही दुनिया में उथल-पुथल मची है. इस दो ध्रुवीय व्यवस्था में सोवियत संघ और अमेरिका एक दूसरे के मुख्य प्रतिद्वंद्वी थे, लेकिन उनके साथ इस खेल में और भी कई अहम खिलाड़ी थे. क्या आपको याल्टा और पोस्टडैम की कहानी पता है? शायद ही आपने इनका नाम सुना होगा. दरअसल, द्वितीय विश्वयुद्ध के एक तरह से ख़त्म होने के बाद जर्मनी के साथ क्या करना चाहिए, इस बारे में फैसला करने के लिए इन दोनों जगहों पर मित्र देशों ने दो सम्मेलन किए थे. इसी वजह से उस वक्त़ हुए समझौते को याल्टा-पोस्टडैम कहते हैं.

असल में 20वीं सदी के आख़िरी दशक में अमेरिका के नेतृत्व में एकध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था कायम करने की कोशिश हुई, लेकिन वह सफल नहीं हो पाई. तब भी, जबकि अमेरिका ने इसके लिए दूसरे दर्जे के गुटनिरपेक्ष देशों और कभी-कभार छोटे ‘दुष्ट देशों’ का समर्थन भी किया. इसके बाद एक बदलाव के साथ दुनिया 21वीं सदी में दाखिल हुई. यहां वैश्विक व्यवस्था के लिए कई देशों की प्रमुखता पर ज़ोर बढ़ा. नए खिलाड़ी भी खेल में शामिल होने को आतुर दिखने लगे. नई सदी के पिछले तीन दशकों में हमने सैन्य, राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियों को लेकर जिस मुकाबले को बढ़ते हुए देखा है, वह एक तरह से इसी का नतीजा है.

पिछले दशक के आख़िरी साल में दुनिया का सामना कोविड-19 महामारी से हुआ. इससे भले ही धरती सिर के बल न खड़ी हुई हो, लेकिन कई अहम बदलावों के संकेत ज़रूर मिले. 

पिछले दशक के आख़िरी साल में दुनिया का सामना कोविड-19 महामारी से हुआ. इससे भले ही धरती सिर के बल न खड़ी हुई हो, लेकिन कई अहम बदलावों के संकेत ज़रूर मिले. पहली बात तो यह है कि जो भी संकट पहले से चल रहे थे, वे भीषण हुए, और गहरे हुए. लेकिन इसी वजह से सामाजिक-मानवीय मामलों को लेकर मुक़ाबला भी बहुत अधिक बढ़ गया. वैसे, सच यह भी है कि 2020 में ही मानवीय, खेल या सांस्कृतिक गतिविधियों का कोई पहली बार राजनीतिकरण नहीं हुआ.

खैर, 2020 ने ही अलग-अलग देशों के लोगों के बीच और इंसानी रिश्तों की सीमाओं और बुनियादी सिद्धांतों के ताबूत में आख़िरी कील ठोक दी और दुनिया को डार्विनवाद की ओर घसीट लिया. देशों के लिए सबसे प्रासंगिक सिद्धांत यह बन गया कि एक इंसान दूसरे के लिए भेड़िया है. महामारी के शुरुआती दौर में जब यूरोपीय संघ के एक देश से दूसरे देश में जाने पर रोक लगी तो उसमें इसी की झलक दिखी. अमीर देशों ने मेडिकल सप्लाइज के लिए ऊंची कीमत चुकाकर उसे एक तरह से लूट लिया. गैर-पश्चिमी देशों से जो राहत सामग्री आई, उसे लेकर पश्चिमी देशों के मीडिया और नेताओं का रुख़ आक्रामक रहा. इसका सबसे ताज़ा उदाहरण ब्रिटेन में बनने वाली और यूरोप भेजी जा रही एस्ट्राजेनेका वैक्सीन की सप्लाइज को लेकर हुआ विवाद है. इसी वजह से इस वैक्सीन के उत्पादन में देरी हो रही है.

दुनिया में बढ़ता विरोधाभास

आज वैश्विक व्यवस्था तितर-बितर हो चुकी है और विरोधाभास बढ़ रहे हैं. ऐसे में दुनिया का ध्यान धीरे-धीरे महामारी और उसके अंजाम से कोविड-19 की वैक्सीन की ओर शिफ्ट हो रहा है. उसी को लेकर अब बहस भी हो रही है. और इसने ‘वैक्सीन डिप्लोमेसी’ नाम के शब्द को जन्म दिया है.

रूस की स्पूतनिक V रजिस्टर होने वाली पहली कोविड-19 वैक्सीन थी. यही वैक्सीन थी, जिसका सार्वजनिक तौर पर सबसे पहले ऐलान हुआ. इसे लेकर वैसी ही प्रतिक्रिया हुई, जैसे 1957 में अतरिक्ष में भेजे गए इसी नाम के स्पूतनिक 1 सैटेलाइट को लेकर हुई थी. पहले स्पूतनिक से पेशेवरों को चिंता नहीं हुई थी. हां, इससे यह डर जरूर पैदा हुआ कि इंटरकॉन्टिनेंटल बैलेस्टिक मिसाइल (ICBMs) का दौर शुरू होने से सामरिक क्षेत्र में अमेरिका का रसूख कम हो जाएगा. उस वक्त जो प्रतिक्रिया आई, वह इस सोच से प्रेरित थी कि सोवियत संघ पिछड़ा हुआ देश है. असल में इस गलतफहमी को बढ़ावा देने में पश्चिमी देशों के मीडिया का बड़ा योगदान था. सच तो यह था कि सोवियत संघ ने अंतरिक्ष अनुसंधान के आधुनिक क्षेत्र में तब बड़ी सफलता हासिल की थी और इसकी दुनिया को जरूरत भी थी.

रूस की स्पूतनिक V या वहां बन रही दो अन्य वैक्सीन के असरदार होने पर जोर देना महत्वपूर्ण नहीं है. ना ही पश्चिमी देशों में फाइजर या मॉडर्ना की वैक्सीन में संभावित खामियों की तलाश का कोई मतलब है. इन सवालों का जवाब तलाशना स्वास्थ्य मामलों के जानकारों का काम है और वे इसे कर भी रहे हैं. 

आज भी वैसी ही परिस्थितियां दिख रही हैं. यह समानता सिर्फ स्पूतनिक नाम को लेकर ही नहीं है. रूस आज भी अमेरिका और यूरोपीय संघ के लिए एक पहेली बना हुआ है. यह भी सच है कि इनकी लगाई अवैध पाबंदियों के कारण वह कमज़ोर दिख रहा है, लेकिन इससे भी कोई इनकार नहीं कर सकता कि जब कोविड-19 महामारी की चुनौती से निपटने की बात आई तो उसने वैक्सीन के ज़रिये मॉडर्न साइंस के क्षेत्र में वैश्विक योगदान दिया. इस वैक्सीन को लेकर पश्चिमी देशों की जो पहले प्रतिक्रिया थी, उसे देखकर हैरानी नहीं हुई. पहले वहां इसके असरदार होने और सुरक्षित होने पर संदेह जताया गया. जो हाल में प्रामाणिक मेडिकल जर्नल द लांसेट में छपी रिपोर्ट में गलत साबित हुआ.

रूस की स्पूतनिक V या वहां बन रही दो अन्य वैक्सीन के असरदार होने पर जोर देना महत्वपूर्ण नहीं है. ना ही पश्चिमी देशों में फाइजर या मॉडर्ना की वैक्सीन में संभावित खामियों की तलाश का कोई मतलब है. इन सवालों का जवाब तलाशना स्वास्थ्य मामलों के जानकारों का काम है और वे इसे कर भी रहे हैं. द लांसेट और अन्य राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाएं ऐसे शोध और उन पर बहस का मंच देती हैं. इसलिए इस पर अधिक माथापच्ची नहीं होनी चाहिए. मुद्दे की बात तो यह है कि जब समूची दुनिया के लोगों की बात आती है तो इन देशों के रवैये में कितना अंतर होता है.

एक तरफ तो हम पश्चिमी मीडिया की ओर से सूचनाओं का जबरदस्त हमला देखते हैं. सबसे पहले यह हमला रूस और चीन पर होता है. पश्चिमी मीडिया दावा करता है कि दोनों देश वैक्सीन का इस्तेमाल दुनिया में अपनी धाक बढ़ाने के लिए कर रहे हैं. दूसरी तरफ, हम देखते हैं कि पश्चिमी देशों की जिन वैक्सीन को मान्यता मिल चुकी है, उनका व्यावसायिक फायदे के लिए इस्तेमाल होता है. वैक्सीन जिस देश में बनी है, वहां के लोगों को लगाए जाने या इसे अमीर देशों को ऊंची कीमत पर मुनाफे के लिए बेचा जाता है. इसी वजह से हाल में विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे बहुराष्ट्रीय संस्थानों को झिड़कने या उनकी अनदेखी हो रही है. ऐसा अनुमान है कि महामारी से गरीब देशों में रहने वाले सिर्फ़ 3 फीसदी का टीकाकरण

COVAX प्रोग्राम के ज़रिये होगा, जिसके लिए पश्चिमी देश थोड़ी-बहुत रकम इस साल के अंत तक देंगे.

दूसरी ओर, रूस, भारत और चीन जैसे देश दूसरे देशों को मानवीय आधार पर वैक्सीन की सप्लाई करने को तैयार हैं या वे अपने यहां की वैक्सीन के लिए दूसरे देशों के साथ लाइसेंसिंग एग्रीमेंट की पहल भी कर रहे हैं. जिन देशों को वैक्सीन का लाइसेंस मिलेगा, वे इसे अपने यहां बना सकेंगे. उदाहरण के लिए, स्पूतनिक V के लिए ऐसे समझौते ब्राजील, चीन, भारत, सऊदी अरब, दक्षिण कोरिया और तुर्की सहित अन्य देशों ने किए हैं. कुल मिलाकर, 10 देशों में 15 कंपनियां इसके 1.4 अरब डोज़ तैयार कर रही हैं. इसके अलावा स्पूतनिक V का रजिस्ट्रेशन 35 देशों में हुआ है, जिनमें से 20 देशों में टीकाकरण अभियान शुरू भी हो चुका है. इस तरह से 2 करोड़ लोगों का टीकाकरण किया जा चुका है.

कमज़ोर और ग़रीब देशों का ब्लैकमेल

ग़ौर करने वाली बात यह है कि मध्य एशिया, अफ्रीका, यूरोप के ये देश निम्न और मध्यम आय वाले हैं. जब सरकारों की चिंता अपने नागरिकों को बचाने और उनके स्वास्थ्य को लेकर हो, तब जियो-पॉलिटिक्स और ब्लैकमेल करने को सही नहीं ठहराया जा सकता. इसी वजह से यूरोपीय संघ के साथ मुश्किल रिश्तों के बावजूद उसके कुछ सदस्य देश (जैसे हंगरी) स्पूतनिक V की सप्लाई के लिए मान गए हैं या इसके लिए बातचीत (जैसे स्लोवाकिया या क्रोएशिया) कर रहे हैं. अमेरिका के दक्षिणी पड़ोसी मेक्सिको ने हाल ही में स्पूतनिक V के 70 लाख डोज़ की ख़ातिर समझौता किया है. चीन ने भी 13 देशों को मुफ्त में वैक्सीन देने की घोषणा इधर ही की है. वह और 38 देशों को इसकी आपूर्ति करेगा.

एस्ट्राजेनेका वैक्सीन की सप्लाई को लेकर यूरोपीय संघ से बाहर हो चुके ब्रिटेन के इर्दगिर्द एक स्कैंडल हो चुका है. इसी के साथ, वैक्सीन डिप्लोमेसी का इस्तेमाल करके कई देश अलग-अलग क्षेत्रों में अपना प्रभाव बढ़ाने की भी कोशिश कर रहे हैं. 

इसके साथ इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि वैक्सीन डिप्लोमेसी में दरार सिर्फ पश्चिमी देशों और रूस, भारत या चीन के बीच नहीं दिख रही है, जो एक बेहतर दुनिया बनाने की कोशिश कर रहे हैं. यह होड़ हर स्तर पर हो रही है और इसमें भी अलग-अलग खेमे बन चुके हैं. पहले हमने इस बात का ज़िक्र किया है कि एस्ट्राजेनेका वैक्सीन की सप्लाई को लेकर यूरोपीय संघ से बाहर हो चुके ब्रिटेन के इर्दगिर्द एक स्कैंडल हो चुका है. इसी के साथ, वैक्सीन डिप्लोमेसी का इस्तेमाल करके कई देश अलग-अलग क्षेत्रों में अपना प्रभाव बढ़ाने की भी कोशिश कर रहे हैं.

इस संदर्भ में मालदीव्स और नेपाल का उदाहरण दिया जा सकता है, जिन्हें लेकर भारत और चीन के बीच मुकाबला चल रहा है. दूसरी ओर, जिन देशों ने बीआरआई में निवेश किया है, उन्होंने वैक्सीन की ख़ातिर काफी हद तक चीन को चुना है. इसके बावजूद, हाल में भारत से उन दो देशों के वैक्सीन लेने के बाद भारत उम्मीद कर रहा है कि वे उसके पाले में आ जाएंगे. इसके अलावा, भारत दवा निर्यात करने के मामले में दुनिया का अगुवा मुल्क रहा है। इसलिए मौजूदा वैक्सीन रेस में उसका केंद्र में रहना अनिवार्य है. अनुमानों के मुताबिक वह वैक्सीन प्रोडक्शन के मामले में दूसरे नंबर पर रह सकता है.

मैं एक बार फिर से यह बात कहना चाहूंगी कि महामारी ने हमारी सारी समस्याओं को और भीषण रूप दे दिया है और इसके कारण आज कई देशों के बीच आक्रामक प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है. ख़ासतौर पर पारंपरिक पश्चिमी और गैर-पश्चिमी देशों के बीच. अपने-अपने राष्ट्रीय हितों का ख्याल रखते हुए यूरेशिया की उभरती ताकतों, रूस, भारत या चीन के बीच जो होड़ दिख रही है, उसके बीच अंतरराष्ट्रीय राजनीति में मानवतावादी सिद्धांत भी दिख रहे हैं. व्यावसायिक मुनाफ़े की परवाह़ किए बग़ैर कई देश उन मुल्कों को वैक्सीन की सप्लाई कर रहे हैं, जिन्हें इनकी ज़रूरत है. इसके साथ, वे उन देशों में वैक्सीन के प्रोडक्शन के लिए उनके साथ समझौते कर रहे हैं और उन्हें अपनी वैक्सीन का लाइसेंस भी देने को तैयार हैं.

पहले इंसान या पहले पैसा? इस सवाल का जवाब बहुत आसान है और वह यह है कि आप किस तरह की दुनिया में रहना चाहते हैं और आप कैसी दुनिया चाहते हैं.

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