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Published on Apr 17, 2024 Updated 0 Hours ago

ODA को लेकर भारत का रुख़ ‘मांग पर आधारित’ रहा है, जहां भारत ने विकास के अपने अनुभवों को ग्लोबल साउथ की दूसरी अर्थव्यवस्थाओं के साथ साझा करने को प्राथमिकता दी है. 

भारत की आर्थिक कूटनीति में विविधता के पहलू!

भारत की आर्थिक कूटनीति ने अब एक नया रुख़ अख़्तियार कर लिया है. बरसों तक भारत आधिकारिक विकास सहायता (ODA) के ज़रिए विकास संबंधी साझेदारियों के भरोसे रहा था. हालांकि, पश्चिमी देश भारत को एक उभरता हुआ दानदाता देश मानते हैं. लेकिन, भारत अपने पड़ोसी देशों के अलावा अन्य देशों को आज़ादी हासिल करने से पहले से ही मदद करता रहा है. ODA को लेकर भारत का रुख़ मांग पर आधारितरहा है, जहां भारत ने विकास के अपने अनुभवों को ग्लोबल साउथ की दूसरी अर्थव्यवस्थाओं के साथ साझा करने को प्राथमिकता दी है. धीरे धीरे विकास के मामले में भारत की भूमिका साख अर्जित करने और विकासशील देशों के बीच एक मधुर कूटनीतिक स्थान बनाने की हो गई थी. जहां पिछले दो दशकों से आर्थिक कूटनीतिक को विकास की साझेदारियों के बराबर दर्जा दिया जा रहा है. वहीं, भारत की आर्थिक कूटनीति का मॉडल अब बड़ी गंभीरता से मुक्त व्यापार समझौते (FTA) करने और परिवहन के निर्माण से आख़िर में आर्थिक गलियारों की स्थापना को अपनी आर्थिक कूटनीति के प्रमुख तत्व मान रहा है. भारत का ये रुख़ उस प्रभावी नैरेटिव के उलट है, जो पहले के ज़माने में चली रही थी, जब भारत ने 2020 में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (RCEP) से ख़ुद को अलग कर लिया था. इस क़दम की वजह से भारत की छवि एक रूढ़िवादी और बाहरी दुनिया से कटी हुई ऐसी अर्थव्यवस्था वाली बन गई थी, जो अपने घरेलू उद्योग के लिए संरक्षणवाद को अपनाता है.

भारत की छवि एक रूढ़िवादी और बाहरी दुनिया से कटी हुई ऐसी अर्थव्यवस्था वाली बन गई थी, जो अपने घरेलू उद्योग के लिए संरक्षणवाद को अपनाता है.

दिलचस्प बात ये है कि RCEP की वार्ताओं से अलग होने के बाद, भारत ने कई व्यापार समझौते किए हैं. इनमें 2021 में भारत और मॉरीशस के बीच आर्थिक सहयोग और साझेदारी का व्यापक समझौता (CECPA), भारत और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के बीच आर्थिक साझेदारी का व्यापक समझौता (CEPA) और भारत एवं ऑस्ट्रेलिया के बीच आर्थिक सहयोग और व्यापार समझौता (CECTA) शामिल है. संयुक्त अरब अमीरात और ऑस्ट्रेलिया के साथ समझौतों पर 2022 में दस्तख़त किए गए थे. 2024 में भारत और यूरोप के मुक्त व्यापार एसोसिएशन (EFTA) वाले देशों के बीच हुआ व्यापार एवं आर्थिक साझेदारी का समझौता (TEPA) इस सिलसिले की सबसे ताज़ा कड़ी है. इस दौरान भारत ने G20 शिखर सम्मेलन के दौरान, भारत, मध्य पूर्व और यूरोप के बीच आर्थिक गलियारा (IMEEC) की स्थापना को लेकर हुई वार्ताओं में भी हिस्सा लिया. इससे, भारत द्वारा अपनी आर्थिक कूटनीति को पहले के विकास संबंधी साझेदारियों से अलग हटकर नया रूप देने के इरादे की झलक मिलती है. ऐसे व्यापार समझौते और आर्थिक गलियारों की स्थापना से, मुक्त व्यापार समझौते (FTA) होने की स्थिति में वस्तुओं के व्यापार में लगने वाले व्यापार कर की बाधाएं ख़त्म होती हैं. क्षेत्रीय एकीकरण और कनेक्टिविटी को बढ़ावा मिलता है. इससे वस्तुओं और सेवाओं में विदेशी निवेश बढ़ता है और आर्थिक गलियारे में भागीदार देशों के बीच कारोबार में लेन-देन की लागत भी कम होती है.

भले ही इन समझौते से व्यापार की राह में आने वाली बाधाएं दूर करने, व्यापार कर कम करने और बौद्धिक संपदा की रक्षा का मज़बूत ढांचा खड़ा करने में मदद मिलती हो. लेकिन, ये समझौते करना आसान नहीं होता. मिसाल के तौर पर भारत और यूरोपीय संघ (EU) के बीच व्यापार और निवेश का व्यापक समझौता (BTIA) पिछले एक दशक के दौरान 15 दौर की बातचीत होने के बावजूद अटका हुआ है. यही स्थिति भारत और ब्रिटेन के बीच मुक्त व्यापार समझौते की है, जिसके लिए 14 दौर की बातचीत हो चुकी है. मगर, अब तक बीच का कोई रास्ता नहीं निकल सका है. तो, आख़िर क्या वजहब है कि व्यापार वार्ताओं में इतना वक़्त लगता है? अर्थशास्त्रियों की राय है कि बहुपक्षीय व्यापार समझौतों में ज़्यादा संख्या में भागीदार होने का मतलब हमेशा फ़ायदा ही नहीं होता. चूंकि, वार्ताओं में एक से ज़्यादा देश भाग लेते हैं. इसलिए, किसी समझौते पर पहुंच पाना और मुश्किल हो जाता है. भले ही द्विपक्षीय समझौते ज़्यादा तेज़ गति से हो पाते हों. लेकिन, उन तक पहुंचने में भी काफ़ी वक़्त लग जाता है और इसके पीछे भी राजनीतिक मक़सद होते हैं.

RCEP की वार्ताओं के दौरान, भारत में काफ़ी बड़ा तबक़ा ऐसा था, जो नहीं चाहता था कि भारत इस संधि का हिस्सा बने. हालांकि, व्यापार समझौतों और आर्थिक गलियारों का भारत के भू-राजनीतिक संबंधों पर पड़ने वाले असर पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है.

इसके अलावा, मुक्त व्यापार समझौते और क्षेत्रीय व्यापार समझौते (RTA) दो स्तर के मामले होते हैं. इसमें केवल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वार्ताएं होती हैं. बल्कि, इन वार्ताओं में घरेलू भागीदारों की चिंताओं का भी ख़याल रखना होता है. क्योंकि, इन व्यापार समझौतों का असर घरेलू कारोबारियों पर भी पड़ता है. RCEP की वार्ताओं के दौरान, भारत में काफ़ी बड़ा तबक़ा ऐसा था, जो नहीं चाहता था कि भारत इस संधि का हिस्सा बने. हालांकि, व्यापार समझौतों और आर्थिक गलियारों का भारत के भू-राजनीतिक संबंधों पर पड़ने वाले असर पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है. ये बात, खाड़ी देशों के साथ भारत के रिश्तों के मामले में तो विशेष तौर पर लागू होती है.

मुक्त व्यापार समझौते, FDI और ODI के बीच सामरिक समीकरण

ऐसे में, जब बात विकास में विदेशी सहायता (ODA) के ज़रिए तरक़्क़ी में साझेदारी और मुक्त व्यापार समझौतों और आर्थिक गलियारों के ज़रिए व्यापक आर्थिक सहयोग के बीच तुलना की आती है, तो भारत की स्थिति दिलचस्प ढंग से सैद्धांतिक कल्पनाओं और व्यवहारिक नफ़ा-नुक़सान के बीच की रहती है. आर्थिक नज़रिए से देखें तो ODA और FTA की बिल्कुल अलग अलग उपयोगिताएं हैं. हालांकि, भू-राजनीतिक तौर पर दोनों ही भागीदारी करने वाले देशों के रिश्तों की गुणवत्ता को बेहतर बनाते हैं. मुक्त व्यापार समझौते के ज़रिए मुक्त व्यापार क्षेत्र या फिर आर्थिक गलियारे के निर्माण की वजह से, कम पहुंच वाले बाज़ार के साथ व्यापार में आने वाली लागत काफ़ी कम हो जाती है. इससे निजी क्षेत्र के लिए निवेश से बेहतर लाभ (ROI) का माहौल बनता है. IMEEC की उभरती हुई स्थिति इसकी बेहतरीन मिसाल है. जहां एक तरफ़, ये अंतरराष्ट्रीय आर्थिक मामलों में भारत के वार्ता करने की कुशलता को दिखाता है. वहीं, दूसरी ओर ये भारत के वैश्विक मंच पर सामरिक दांव-पेंच का भी प्रदर्शन करता है, जिसमें वो व्यापार को भू-राजनीतिक समीकरण साधने के अहम औज़ार के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है. व्यापक क्षेत्रीय आर्थिक भागीदारी (RCEP) के समझौते से अलग होने की वजह से आलोचना झेलने के बावजूद, भारत आर्थिक वार्ताओं में शानदार प्रदर्शन कर रहा है, और उसने 2021 से ही संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और यूरोपीय मुक्त व्यापार एसोसिएशन (EFTA) जैसी अहम आर्थिक शक्तियों के साथ व्यापार के समझौते किए हैं. इन क़दमों का ताल्लुक़ केवल व्यापार से नहीं है; ये भारत को वैश्विक मूल्य संवर्धित श्रृंखला (GVC) में भी अधिक प्रभावी तरीक़े से मज़बूत स्थिति में पहुंचाने वाले हैं. इस समय, GVC में भारत की भागीदारी, वैश्विक औसत से भी कम है. फिर भी वैश्विक महामारी और यूक्रेन के संकट की वजह से बह रही बदलाव की बयार ने इस स्थिति को बदलने की शुरुआत करती है और कमोडिटी की वैल्यू चेन में उथल-पुथल मची हुई है. इस उथल-पुथल की वजह से भारत जैसे कई देशों के लिए नए अवसरों के रास्ते खुले हैं, जिनका फ़ायदा उठाकर वो अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में अपनी हिस्सेदारी को बढ़ा सकते हैं. किसी भी तरह के व्यापार समझौते से पैदा होने वाले निवेश के अवसर, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) के दबे हुए मौक़ों को उभरने का मौक़ा देते हैं.

वहीं दूसरी तरफ़, विकास के लिए विदेशी सहायता (ODA) जो दान पर आधारित होती है, उससे रिटर्न हासिल करने की कोई दर होती नहीं (हालांकि, ऐसे निवेशों से हासिल होने वाले सामाजिक और भू-राजनीतिक फ़ायदे काफ़ी ज़्यादा होते हैं). वहीं सरकार क़र्ज़ और रियायत पर ऋण देने जैसे निवेशों पर रिटर्न हासिल कर सकती है. ODA, निजी क्षेत्र के बजाय, सरकार के दख़ल के साथ मिलते हैं. निश्चित रूप से विकास के लिए निजी क्षेत्र द्वारा सहायता देने को दानशीलता से ज़्यादा कुछ और नहीं समझा जाता. ग्लोबल साउथ के नाज़ुक इलाक़ों में टिकाऊ विकास की बढ़ती चुनौतियों ने विकास में मदद करना वालों को आधिकारिक विकास सहायता पर पुनर्विचार करने पर मजबूर किया है. हां, ऐसे मामलों में लाभार्थी देशों को मिलने वाली सहायता की भूमिका बहुत अहम होती है. वहीं, स्थायी विकास के लक्ष्यों (SDGs) को हासिल करने में सहायता में कोई कारोबारी हित नज़र नहीं आता.

भारत को एक व्यापक फैक्टर बाज़ार और ऊर्जावान प्रोडक्ट बाज़ार स्थापित करने में सहायता मिलती है और इस तरह भारत को FTA योजना के तहत बहुत अधिक मांग वाला भागीदार या साझीदार बनाने में योगदान देती है.

यहां फिर दोहराना होगा कि अध्ययन बताते हैं कि FDI और ODI के बीच अस्थायी संबंध का अगर लाभ उठाया जाए, तो इससे एक तो लाभार्थी देशों की लागत कम होगी. वहीं दूसरी ओर वो मदद का अधिकतम लाभ भी उठा सकेंगे. तकनीक और कारोबार के हुनर को विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को देने में रियायतें देने के अलावा, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश किसी देश की अर्थव्यवस्था को ग्लोबल वैल्यू चेन से जोड़ने और उसकी आर्थिक स्थिति बेहतर करने में मददगार साबित होता है. फिर भी, हम सभी तरह के ODA के बारे में ये नहीं कह सकते कि उनसे निवेश, प्रगति और आर्थिक तरक़्क़ी को बढ़ावा मिलता है. आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) के सदस्य देश (जापान, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका) ये रेखांकित करते हैं कि विकास में सहायता देने वाले देश से प्राप्त होने वाला क़र्ज़ जिसके ODA के तौर पर दिया जाता है, वो सहायता पाने वाले देशों में उनके FDI को बढ़ावा देने में योगदान देता है. यही नहीं, ये भी पता चलता है कि ये ख़ास क़र्ज़ जो किसी विशेष परियोजना, जैसे कि आर्थिक मूलभूत ढांचे, दूरसंचार, ऊर्जा और वित्त क्षेत्र के लिए दिए जाते हैं, उनसे दान प्राप्त करने वाले देश के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हासिल करने की संभावनाएं काफ़ी बढ़ जाती हैं. हालांकि, ये तय है कि FDI के ये सकारात्मक लाभ इसके लिए मुफ़ीद नीतियां, क़ानून और संस्थागत माहौल बनाए बग़ैर नहीं मिलते.

इसीलिए, अमेरिका, ब्रिटेन और चीन की तुलना में जब हम ODA के ज़रिए विकास के लिए पूंजी जुटाने की बात करते हैं, तो वैश्विक स्तर पर भारत कोई बड़ा खिलाड़ी नहीं है. लेकिन, ‘मांग पर आधारित सहायतादेने का उसका मॉडल अनूठा है और ये विकासशील देशों द्वारा एक दूसरे को मदद देने के लिए अपनाया जा सकता है. वहीं दूसरी तरफ़, भारत मुक्त व्यापार समझौतों और आर्थिक गलियारों के ज़रिए जो आर्थिक कूटनीति चला रहा है, वो अर्थव्यवस्था की अंतर्निहित ताक़त पर आधारित है, जो भारत की व्यापक मानव पूंजी (1.42 अरब की जनसंख्या, जिसमें 55 फ़ीसद से ज़्यादा लोगों की उम्र 30 साल से कम है) और लगातार बढ़ती ख़रीदारी की क्षमता से आती है. ये बात 6.5 प्रतिशत से ज़्यादा की विकास दर से ज़ाहिर हो जाती है. इससे भारत को एक व्यापक फैक्टर बाज़ार और ऊर्जावान प्रोडक्ट बाज़ार स्थापित करने में सहायता मिलती है और इस तरह भारत को FTA योजना के तहत बहुत अधिक मांग वाला भागीदार या साझीदार बनाने में योगदान देती है. इस वजह से भारत को उन देशों से कूटनीति लाभ भी मिले हैं, जो किसी अन्य स्थिति में शायद भारत के साथ ऐसे गर्मजोशी भरे भू-राजनीतिक संबंध रखने के इच्छुक होते. इसमें कोई शक नहीं कि भारत की आर्थिक कूटनीति की फ़ेहरिस्त में ऐसी विविधता ने विश्व को लेकर भारत के दृष्टिकोण की गहराई और उसके दायरे, दोनों को बढ़ाया है, और इसके साथ ही साथ भारत की भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक हैसियत में भी बढ़ोतरी हुई है.

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Authors

Nilanjan Ghosh

Nilanjan Ghosh

Dr Nilanjan Ghosh is a Director at the Observer Research Foundation (ORF) in India, where he leads the Centre for New Economic Diplomacy (CNED) and ...

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Swati Prabhu

Swati Prabhu

Dr Swati Prabhu is Associate Fellow with the Centre for New Economic Diplomacy at the Observer Research Foundation. Her research explores the interlinkages between development ...

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