इस साल आधुनिक देशों के रूप में भारत और जर्मनी अपने संबंधों की सत्तरवीं वर्षगांठ मना रहे हैं. पिछले एक दशक के दौरान, जर्मनी भारत का भरोसेमंद साझीदार बनकर उभरा है, और यूरोपीय देशों की बात करें तो जर्मनी, भारत के सबसे क़रीबी देशों में से एक है. इसका बहुत सारा श्रेय भारत द्वारा जर्मनी के सभी राजनीतिक पक्षों से बराबर संवाद करने और जर्मनी में एंजेला मर्केल के लगातार चांसलर बने रहने को जाता है.
लेकिन, वर्ष 2021 वैश्विक स्थितियों के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण है. ऐसा महामारी, भूमंडलीकरण को मिल रही चुनौतियों और साझेदार देशों के बीच संबंध चलाने के नए नियमों के चलते हो रहा है. 2021 में एंजेला मर्केल सितंबर में चुनाव के बाद जर्मनी की चांसलर का पद भी छोड़ने जा रही हैं. ऐसे में 2021 के आख़िर में भारत को जर्मनी के नए नेतृत्व के साथ संवाद करने का अवसर मिलेगा. अपेक्षा यही है कि जर्मनी, भारत के साथ साझेदारी को लेकर पहले जैसी ही प्रतिबद्धता बनाए रखेगा. हालांकि, दोनों देशों के रिश्तों का रंग रूप निश्चित रूप से अब से अलग होगा. ये इस बात पर निर्भर करेगा कि, जर्मनी के नए चांसलर की प्राथमिकताएं क्या रहने वाली हैं.
अगर भारत और जर्मनी के बीच अब तक हुए संवाद से जो बड़े विचार उत्पन्न हुए हैं, उन्हें सफलता से लागू किया जाए, तो हो सकता है कि भारत और जर्मनी की साझेदारी और भी व्यापक और रिश्ते गहराई भरे हो सकते हैं.
पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत और जर्मनी के रिश्तों में कई नए विचार उभरकर सामने आए हैं. इसकी मुख्य वजह भारत और जर्मनी के बीच संवाद की अंतर-सरकारी सलाह व्यवस्था (IGC) रही है. ये बड़े साझा आयोगों की तरह होती है. लेकिन, इसके शीर्ष स्तर जर्मनी के चांसलर और भारत के प्रधानमंत्री के बीच संवाद होता है. इस सलाह मशविरे में दोनों देशों के कई मंत्रालय शामिल होते हैं और इस संवाद की निरंतरता और सघनता को बनाए रखा गया है. दोनों देशों की सरकारों के बीच ये सीधा संवाद वर्ष 2011 में शुरू हुआ था और इस वर्ष इसका छठा सत्र होगा.
ऐसा लगता है कि जर्मनी और भारत के रिश्तों में एक नई छलांग लगाने की शक्ति का अभाव है. दोनों देश लंबे समय से रिश्तों को नई ऊंचाई देने के मोड़ पर खड़े हैं और उनके बीच संबंध आगे बढ़ाने की बहुत सी संभावनाएं भी हैं. मौजूदा समय के दौरान, दोनों देशों के बीच फिर से संवाद स्थापित करने की आवश्यकता है. इस संदर्भ में अगर भारत और जर्मनी के बीच अब तक हुए संवाद से जो बड़े विचार उत्पन्न हुए हैं, उन्हें सफलता से लागू किया जाए, तो हो सकता है कि भारत और जर्मनी की साझेदारी और भी व्यापक और रिश्ते गहराई भरे हो सकते हैं.
हाई स्पीड रेलवे के क्षेत्र में सहयोग
भारत और जर्मनी के बीच सहयोग का एक क्षेत्र हाई स्पीड रेलवे (HSR) का है, जिस पर वर्ष 2015 से चर्चा होती आ रही है. हाई स्पीड रेलवे में भारत की दिलचस्पी की शुरुआत जापान के साथ साझेदारी से हुई थी, जब मुंबई और अहमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन शिनकानसेन की परियोजना को लेकर समझौता हुआ. जर्मनी ने भी भारत के सामने ऐसा ही प्रस्ताव रखा था. पिछले पांच वर्षों के दौरान जर्मनी ने भारतीय रेलवे के साथ मिलकर चेन्नई बैंगलुरू मैसुरू के बीच हाई स्पीड रेलवे की संभावनाएं तलाशने का काम किया है. इससे उस क्षेत्र में औद्योगिक गलियारे को मज़बूती मिलेगी. दोनों देश मिलकर या तो इस क्षेत्र के मौजूदा रेलवे ट्रैक को आधार बनाकर ये प्रोजेक्ट लागू कर सकते हैं. या फिर, एकदम नई हाई स्पीड रेलवे लाइन भी बिछाई जा सकती है. भारत हाई स्पीड रेलवे के लिए बिल्कुल नई रेलवे लाइन बिछाने को ही तरज़ीह देता है. ऐसा लगता है कि इस प्रोजेक्ट की संभावनाएं तलाशने की स्टडी पूरी हो चुकी है. ऐसा अनुमान लगाया गया है कि ये प्रोजेकट 18 अरब डॉलर का होगा. 2019 में दोनों देशों की सरकारों के बीच सलाह मशविरे (IGC) के दौरान, ‘रेलवे पर ध्यान केंद्रित करने वाले रणनीतिक प्रोजेक्ट में सहयोग की नीयत जताने के साझा बयान पर हस्ताक्षर किए गए थे.’
लेकिन, ऐसा लगता है कि किन्हीं कारणों से ये बड़ा विचार आगे नहीं बढ़ सका है. ऐसा लगता है कि ये मामला प्रोजेक्ट की स्टडी से आगे बढ़ाने को लेकर अधूरी सहमति के कारण अधर में लटक गया है. जर्मनी की तकनीक भारत में स्वीकार्य है. जर्मनी की कंपनियां भारत में जानी मानी जाती हैं, और भारत ने भी ऐसा कोई वचन नहीं दिया है कि वो अपने हाई स्पीड रेलवे के सभी प्रोजेक्ट में केवल जापान की तकनीक इस्तेमाल करेगा. अगर ये प्रोजेक्ट कम लागत में लगाने का जर्मनी का प्रस्ताव सफल होता है, तो इससे भारत में हाई स्पीड रेलवे के कम से कम छह प्रोजेक्ट बनाने के कारोबारी अवसर उत्पन्न होंगे. जहां तक जापान की बात है, तो उसका रुख़ हमेशा स्पष्ट रहा है. वो किसी प्रोजेक्ट की वित्तीय शर्तों को लेकर पहले बात करते हैं और तकनीकी पहलुओं पर बाद में चर्चा करते हैं. जहां तक जर्मनी की बात है, तो उसकी तरफ़ से प्रोजेक्ट की वित्तीय शर्तें धीरे धीरे सामने आती हैं. शायद यहीं पर दोनों देशों के बीच सहमति का फ़र्क़ पैदा होता है.
जहां तक जापान की बात है, तो उसका रुख़ हमेशा स्पष्ट रहा है. वो किसी प्रोजेक्ट की वित्तीय शर्तों को लेकर पहले बात करते हैं और तकनीकी पहलुओं पर बाद में चर्चा करते हैं. जहां तक जर्मनी की बात है, तो उसकी तरफ़ से प्रोजेक्ट की वित्तीय शर्तें धीरे धीरे सामने आती हैं. शायद यहीं पर दोनों देशों के बीच सहमति का फ़र्क़ पैदा होता है.
जर्मनी पहले से ही भारत में मेट्रो परियोजनाओं की वित्तीय मदद करने में शामिल हो रहा है. जर्मनी ने नागपुर मेट्रो के लिए महा मेट्रो स्पेशल पर्पज़ व्हीकल (SPV) को 50 करोड़ यूरो की मदद देने को राज़ी हो गया है. मेट्रो प्रोजेक्ट को जर्मनी की इस वित्तीय मदद के दायरे में पुणे मेट्रो भी आ सकती है, क्योंकि इस प्रोजेक्ट में फ्रांस की एजेंसी फ्रांस डेवेलपमेंट (AfD) और यूरोपीय निवेश बैंक भी शामिल हैं. इन। दोनों ने पुणे मेट्रो को 60 करोड़ यूरो की मदद की है. नवंबर 2020 में KfW ने मुंबई मेट्रो की दो लाइनों के लिए 54.5 करोड़ यूरो की सहायता देने की घोषणा की थी, जो अब तक की सबसे बड़ी वित्तीय मदद थी. हरित शहरी परिवहन के लिए भारत जर्मनी की साझारी से जुड़े साझा बयान में कोच्चि में वाटर मेट्रो प्रोजेक्ट भी शामिल था, जिसके अंतर्गत दस द्वीपों को बैटरी से चलने वाली नावों के माध्यम से जोड़ने का प्रस्ताव है.
एशिया में रणनीतिक वित्तीय मदद की पहल में स्पष्टीकरण की आवश्यकता
भारत और जर्मनी के रिश्तों में दूसरा बड़ा आइडिया इन्हीं प्रयासों से जुड़ा हुआ है. 2016 में घोषित किए गए एशिया में रणनीतिक वित्तीय मदद की पहल का लक्ष्य मोटे तौर पर तो, चीन के बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) और एशिआई इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (AIIB) से प्रतिद्वंदिता करने का था. लेकिन, इसका असली मक़सद, भारत में जापान से मुक़ाबला करना था. इस प्रस्ताव का विकास एंगेला मर्केल के ऑफिस, जर्मनी के अर्थ मंत्रालय और KfW विकास बैंक ने मिलकर किया था. इस क़दम के पीछे मुख्य विचार ये था कि जर्मनी को टिकाऊ विकास के नज़रिए से मूलभूत ढांचे के विकास और संपर्क बढ़ाने से जुड़े प्रोजेक्ट में अपने विकास संबंधी सहयोग को बढ़ाना चाहिए. ये बात बिल्कुल साफ़ थी कि जर्मनी, जापान के बराबर रियायती दरों पर क़र्ज़ नहीं दे सकता था. जर्मनी का मानना है कि ये ऑर्गेनाइज़ेशन फॉर इकॉनमिक को-ऑपरेशन ऐंड डेवेलपमेंट (OECD) के अधिकार क्षेत्र से बाहर की बात है. जर्मनी का विचार ये था कि वो शायद कुल क़र्ज़ में अपनी ओर से दी जाने वाली मदद का हिस्सा बढ़ाकर पूरे आर्थिक पैकेज की संरचना इस तरह से कर सकता है, जिससे क़र्ज़ की अदायगी आकर्षक हो जाए और किसी प्रोजेक्ट भी कुल लागत भी कम हो जाए. हालांकि, जर्मनी द्वारा प्रस्तावित मिली जुली वित्तीय व्यवस्था के इस विकल्प की शर्तें स्पष्ट नहीं थीं. भारत के वार्ताकारों को ये प्रस्ताव बहुत दिलचस्प नहीं लगा. उनके ज़हन में ये सवाल था कि आख़िर क़र्ज़ पर ब्याज की आख़िरी दर क्या होगी. वहीं, जर्मनी इस बात का इंतज़ार करता रहा कि किसी प्रोजेक्ट विशेष को लेकर चर्चा होगी, तो क़र्ज़ और मदद के इस मिले जुले वित्तीय पैकेज की शर्तें लागू की जा सकेंगी.
यही विचार जर्मनी के संघीय आर्थिक सहयोग एवं विकास मंत्रालय (BMZ) और KfW द्वारा मुंबई मेट्रो को दिए गए आर्थिक पैकेज पर लागू किया गया है. इसमें ‘34.5 करोड़ यूरो विकास संबंधी क़र्ज़ हैं तो 20 करोड़ यूरो की रक़म को प्रोत्साहन वाले क़र्ज़ की रक़म के तौर पर नामांकित किया गया है.’ अलग अलग समय पर चुकाए जाने वाले इन दोनों क़र्ज़ों की ब्याज दरें 0.07 प्रतिशत से लेकर 0.82 फ़ीसद तक हैं. भारत में मूलभूत ढांचे के विकास से जुड़े किसी भी प्रोजेक्ट के लिहाज़ से ये सबसे कम ब्याज दर वाला ऋण है. इसीलिए, जर्मनी के एशिया में रणनीतिक वित्तीय मदद की पहल (SFIA) के पास भारत के सामने रखने का एक पैकेज पहले से ही लागू है.
अब जबकि हाई स्पीड रेलवे के प्रोजेक्ट की संभावनाएं तलाशने की स्टडी पूरी हो चुकी है, तो अब समय आ गया है कि जर्मनी इसकी वित्तीय मदद के लिए एक स्पष्ट प्रस्ताव के साथ सामने आए. जिसमें ये बात बिल्कुल साफ हो कि 18 अरब अमेरिकी डॉलर के इस संभावित प्रोजेक्ट का कितना हिस्सा वो मदद के रूप में देगा और कितना प्रोत्साहन के ऋण और रियायती दरों वाले क़र्ज़ के रूप में देगा. इससे भारत को जर्मनी से मिलने वाले ऋण की लागत का आकलन करने में मदद मिल सकेगी. अगर जर्मनी, भारत में निवेश के इस अवसर को झपट सकता है, तो इससे भारत में हाई स्पीड रेलवे प्रोजेक्ट के विकास में वो बड़े स्तर पर प्रवेश कर सकेगा. फिर वो ये प्रोजेक्ट या तो ख़ुद से या फिर यूरोपीय संघ (EU) के अपने अन्य साझेदारों की मदद से पूरा कर सकेगा. भारत और यूरोपीय संघ के बीच कनेक्टिविटी की साझेदारी में साफ तौर से रेलवे को ज़ोर दिए जाने वाले एक प्रमुख क्षेत्र के रूप में रेखांकित किया गया है.
उच्च तकनीक की साझेदारी के समूह में नई जान फूंकना
जर्मनी और भारत के रिश्तों को नई ऊंचाई पर ले जाने का एक आइडिया, उच्च तकनीक की साझेदारी के समूह (HTPG) का गठन करना भी. ये प्रस्ताव 2013 में पहली बार लागू किया गया था. ये फ़ैसला काफ़ी सोच विचार के बाद उठाया गया था. इसे विदेश विभाग के द्विपक्षीय विचार विमर्श से अलग करके तैयार किया गया था. इस व्यवस्था का मक़सद ये था कि जर्मनी में ऐसी तकनीकों की पहचान की जाए, जिनसे भविष्य में सहयोग के क्षेत्रों का निर्धारण हो सके और जिनकी मदद से भारत के साथ और नज़दीकी सहयोग किया जा सके. शुरुआत में ये व्यवस्था, दोनों देशों के विदेश विभागों में अच्छे से स्थापित थी. विदेश विभाग तय हुए विषयों और क्षेत्रों को संबंधित मंत्रालयों के साथ साझा करते थे. मेट्रो प्रोजेक्ट, हाई स्पीड रेलवे, सौर ऊर्जा के प्रोजेक्ट और बिजली के वितरण के हरित नेटवर्क जैसे कई विचारों पर उच्च तकनीक की साझेदारी समूह में चर्चा हुई थी. 2015 में अंतर-सरकारी सलाह मशविरों के दौरान ये स्वीकार किया गया था कि भारत के रक्षा उद्योगों और ‘मेक इन इंडिया’ प्रोजेक्ट में उच्च तकनीक की साझेदारी समूहों की काफ़ी महत्ता है. लेकिन, वर्ष 2016 के बाद से ये सिलसिला बंद हो गया. 2016 में जब विदेश सचिव के तौर पर डॉक्टर एस. जयशंकर ने मार्कस एडेरर और राज्य सचिव स्टीफन स्टीनलीन के साथ उच्च तकनीक साझेदारी समूह की तीसरी बैठक की थी, तो इस विषय पर चर्चा नहीं हुई थी. इसकी बड़ी वजह यही थी कि जर्मनी के विदेश विभाग के भीतर इस विषय को लेकर कोई दिलचस्पी नहीं दिखी थी. उनका ये मानना है कि चूंकि साझेदारी के विस्तार के साथ अब जर्मनी के अन्य मंत्रालय सीधे तौर पर भारत के साथ संवाद कर रहे हैं, तो उन्हें अब इस विषय की परिचर्चाओं को आगे बढ़ाने के लिए विदेश विभाग के सहयोग या मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं रह गई है. हो सकता है कि ये बात सही हो. लेकिन इससे जर्मनी और भारत के बीच सलाह मशविरे की एक व्यवस्था को ज़रूर छोड़ दिया गया. जबकि ये व्यवस्था किसी क्षेत्र विशेष के हितों से परे थी और भारत व जर्मनी के रिश्तों का बेहतर ढंग से मार्गदर्शन कर सकती थी. 2013 में दोनों देशों की सरकारों के बीच सलाह मशविरे के दौरान जिस भारत-जर्मनी सलाहकार समूह की तारीफ़ की गई थी, और जिस पर जर्मनी के लोग ट्रैक 1.5 स्तर पर आगे बढ़ने को तैयार थे, उसे बाद में इसी तरह बंद कर दिया गया था, क्योंकि भारतीय पक्ष को उसमें दिलचस्पी नहीं रह गई थी. भारत और जर्मनी के बीच परिचर्चा के ऐसे कार्यकारी मंचों में नई जान फूंकने की भी ज़रूरत है.
अब जबकि हाई स्पीड रेलवे के प्रोजेक्ट की संभावनाएं तलाशने की स्टडी पूरी हो चुकी है, तो अब समय आ गया है कि जर्मनी इसकी वित्तीय मदद के लिए एक स्पष्ट प्रस्ताव के साथ सामने आए.
जर्मनी को रक्षा उद्योग के साझीदार के तौर पर आकर्षित करना
उच्च तकनीक साझेदारी समूह और एशिया में रणनीतिक निवेश, ये दोनों ही ऐसी व्यवस्थाएं हैं जो जर्मनी और भारत के संबंधों के चौथे बड़े आइडिया को हक़ीक़त में बदलने में मददगार साबित हो सकते हैं: ये विचार है, जर्मनी को एक भरोसेमंद रक्षा उद्योग साझीदार बनाना. जर्मनी की HDW पनडुब्बियां भारत के पास हैं. अब जर्मनी भारत की नौसेना की ज़रूरत के लिए छह API पनडुब्बियां उपलब्ध कराने के लिए भी उत्सुक है. रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में भारत के साथ सहयोग बढ़ाने के प्रयासों की अगुवाई जर्मनी की कंपनी थिसेनक्रुप मरीन सिस्टम कर रही है. जर्मनी की सरकार आम तौर पर कारोबारी प्रयासों से ख़ुद को अलग ही रखती है. लेकिन, इस मामले में अपवादस्वरूप जर्मनी की सरकार ने भी थिसेनक्रुप मरीन के प्रयासों का समर्थन किया है. मई 2015 में जर्मनी की तत्कालीन रक्षा मंत्री उर्सुला वॉन डर लिएन भारत आई थीं. तब उन्होंने पनडुब्बी के क्षेत्र में भारत के साथ सहयोग को समर्थन का वादा किया था. अब उर्सुला यूरोपीय संघ आयोग की अध्यक्ष हैं. वो प्रस्ताव अभी भी बना हुआ है क्योंकि थिसेनक्रुप मरीन सिस्टम ने इस रेस में उन गिनी चुनी कंपनियों में जगह बना ली है, जिन्हें भारत ने काट छांट के बाद चुना है. थिसेनक्रुप के पास अपने भारतीय सामरिक साझीदारों के रूप में मझगांव डॉक्स और लार्सन ऐंड टुब्रो का चुनाव भी कर लिया है. अब इस क्षेत्र में जो काम बाक़ी है, वो ये है कि भारत का रक्षा मंत्रालय विदेशी तकनीक के साझीदार का चुनाव करे. अगर ये सौदा जर्मनी के हक़ में जाता है, तो इससे भारत और जर्मनी के रिश्तों को नई धार दी जा सकेगी.
अब इस क्षेत्र में जो काम बाक़ी है, वो ये है कि भारत का रक्षा मंत्रालय विदेशी तकनीक के साझीदार का चुनाव करे. अगर ये सौदा जर्मनी के हक़ में जाता है, तो इससे भारत और जर्मनी के रिश्तों को नई धार दी जा सकेगी.
हिंद प्रशांत क्षेत्र को लेकर जर्मनी के नीतिगत निर्देशक तत्वों की रौशनी में देखें, तो जर्मनी की ओर से भारत के साथ साझेदारी को और मज़बूत करने की उत्सुकता निरंतर बनी हुई है. जर्मनी की चीन+1 रणनीति के मुक़ाबले भारत के प्रति उसकी नीति अधिक बाज़ार आधारित है. मेट्रो और हाई स्पीड रेलवे के माध्यम से कनेक्टिविटी का विस्तार भारत को जर्मनी के साथ जापान जैसी ही विश्वसनीय साझेदारी हासिल हो सकती है. इसके बाद इन सभी विचारों की मदद से एशिया के लिए जर्मनी की रणनीतिक निवेश नीति का बेहतर असरदार तरीक़े से इस्तेमाल हो सकता है और फिर इन कोशिशों के ज़रिए टिकाऊ विकास एवं आधुनिक मूलभूत ढांचे के क्षेत्र को भारत और जर्मनी की साझेदारी का आधार बनाकर दोनों के रिश्तों को तेज़ी से आगे बढ़ाया जा सकता है.
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