Author : Samir Saran

Expert Speak Raisina Debates
Published on Nov 04, 2024 Updated 0 Hours ago

नये साल की शुरुआत में दुनिया के तमाम देशों को लगातार बढ़ती जा रही आर्थिक, सामाजिक, सुरक्षा और पर्यावरण की चुनौतियों से निपटना होगा.

वर्ष 2025 के लिए पांच भू-राजनीतिक सवाल!

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  • वर्ष 2025 में दुनिया के नेताओं को कई तरह की भू-राजनीतिक चुनौतियों से निपटना पड़ेगा.
  • अगले साल के भू-राजनीतिक एजेंडे को तय करने में तमाम समीकरणों और सवालों की भूमिका अहम होगी.
  • ये वो पांच सवाल हैं, जिनके जवाब दुनिया के नेताओं को तलाशने होंगे.

 

अगर 2024 का साल चुनावी था, तो 2025 सवालों का साल होगा.

 

इस साल की शुरुआत में दुनिया के तमाम देशों के नेता और सरकारें अपने नए कार्यकाल में ही लगातार बढ़ती जा रही आर्थिक, सामाजिक, सुरक्षा संबंधी, पर्यावरण की और तकनीकी चुनौतियों से निपटने के लिए तेज़ी से क़दम उठाने को मजबूर होंगे. वैसे तो इन मसलों से निपटना किसी भी वक़्त एक चुनौती होता. लेकिन, आज के दौर में ये चुनौतियां उस वक़्त उठ खड़ी हुई हैं, जब भू-राजनीतिक उथल पुथल का दौर चल रहा है. ऐसा दौर, जिसमें दूसरे विश्व युद्ध के बाद खड़ी की गई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था टुकड़ों में बंट रही है.

 आज के दौर में ये चुनौतियां उस वक़्त उठ खड़ी हुई हैं, जब भू-राजनीतिक उथल पुथल का दौर चल रहा है. ऐसा दौर, जिसमें दूसरे विश्व युद्ध के बाद खड़ी की गई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था टुकड़ों में बंट रही है.

इसी का परिणाम है कि नेताओं को न केवल कुछ ख़ास चुनौतियों का सामना करना होगा, बल्कि इसके साथ ही साथ, उन्हें आज के दौर के आक्रामक हमलों और आर्थिक अनिश्चितताओं की जगह एक ऐसा वैश्विक ढांचा खड़ा करने के लिए सहमति बनाने की कोशिश करनी होगी, ताकि शांति और समृद्धि को बढ़ावा दिया जा सके.

 

तो फिर, वो कौन से समीकरण हैं, जिनके आधार पर दुनिया के नेता अपने फ़ैसले करेंगे?

 

वो कौन से तीन आयाम हैं, जिनका असर 2025 में नेताओं की कार्रवाई पर पड़ेगा?

 

पहला, नेताओं को कोई भी क़दम उठाने से पहले अपने यहां की जनता और दूसरे देशों के नेताओं के अतार्किक सी दिखने वाली प्रतिक्रियाओं में लगातार होती वृद्धि का ख़याल रखना होगा. नेता अब ये मानकर नहीं चलते कि उनके अपने नागरिक और वैश्विक भागीदार स्पष्ट रूप से दिख रहे हितों के हिसाब से चलेंगे. क्योंकि आज ध्रुवीकृत हो चुकी घरेलू और वैश्विक राजनीति की वजह से शायद ऐसे फ़ैसले लिए जाएं, जिसका देश के बाहर के लोगों पर विपरीत असर होता दिखे. निश्चित रूप से इन फ़ैसलों को आकार देने के पीछे की कुछ ताक़तें न केवल गहरी होती ध्रुवीकरण की जड़ों की वजह से पैदा हुई हैं, बल्कि ग़लत सूचना के बढ़ते प्रसार का भी परिणाम हैं.

 वो देश जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद की व्यवस्था की रीढ़ थे, वहां भी ऐसी ताक़तवर घरेलू राजनीतिक शक्तियां उभरी हैं, जो इस आम सहमति को चुनौती दे रही हैं.

दूसरा, नेताओं को लगातार बढ़ती असंगति का सामना करने के लिए भी तैयार होना होगा. देश से बाहर के लिए फ़ैसले किसी राष्ट्र की भौगोलिक स्थिति और घरेलू हितों के हिसाब से लिए जाते हैं. भूगोल का अंतरात्माओं पर असर हमें ग़ज़ा, यूक्रेन और सूडान में चल रहे युद्धों को लेकर अलग अलग और कई बार परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाओं के रूप में साफ़ तौर पर दिख रहा है. मानव अधिकार और जवाबदेही तय करने या फिर उनकी रक्षा करने को लेकर दोहरे मापदंडों की स्वीकार्यता अब सामान्य से भी इतनी बड़ी बात हो गई है कि संयुक्त राष्ट्र के चार्टर और मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा जैसे सर्वमान्य मूल्य भी पीछे छूट गए हैं.

 

आख़िर में नेताओं को प्रभावशाली व्यक्तित्वों के बढ़ते दबदबे के लिए भी तैयार रहना होगा. नेताओं को नए किरदारों को स्वीकार करना होगा, उनकी बातें सुननी होंगी. ये नए किरदार कारोबारी नेताओं से लेकर सोशल इन्फ्लुएंसर्स और उभरते हुए नए देश भी हो सकते हैं. इनमें से कई ऐसे हैं, जो यथास्थिति का पालन करने को तैयार नहीं हैं. दूसरे विश्व युद्ध के बाद की ‘उदारवादी’ आम सहमति को बाहर और भीतर दोनों तरफ़ से चुनौती मिल रही है. यहां तक कि वो देश जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद की व्यवस्था की रीढ़ थे, वहां भी ऐसी ताक़तवर घरेलू राजनीतिक शक्तियां उभरी हैं, जो इस आम सहमति को चुनौती दे रही हैं.

 

इन समीकरणों की पृष्ठभूमि में वो कौन से तात्कालिक भू-राजनीतिक प्रश्न हैं, जिनके सवाल वैश्विक नेताओं को आने वाले साल में तलाशने होंगे?

 

2025 के लिए वो पांच सवाल इस प्रकार हैं:

 

टुकड़ों में बंटती विश्व व्यवस्था में सुरक्षा को कैसे बढ़ावा दिया जाए?

 

आज वैश्विक सहयोग निचले स्तर पर है और संघर्ष बढ़ता जा रहा है. हाल के दिनों में विश्व व्यापार संगठन (WTO) और संयुक्त राष्ट्र (UN) जैसे पारंपरिक संगठन और नेता, व्यापक वैश्विक आम सहमति बना पाने या फिर विवादों के निपटारे के मंच की भूमिका में पूरी तरह नाकाम रहे हैं. ग्लोबल साउथ के उभरते देशों समूहों ने अभी तक ये साफ़ नहीं किया है कि वो पश्चिम की अगुवाई वाली कमज़ोर होती वैश्विक सुरक्षा व्यवस्था के पूरी तरह पतन को रोकने की कोशिश करेंगे या फिर विश्व व्यवस्था में खलल डालने वाली भूमिका ही अदा करते रहेंगे. इस समीकरण के बीच संतुलन बिठाना चीन के लिए भी चुनौती होगा, क्योंकि वो कई बहुपक्षीय समकीरणों के केंद्र में है. जैसे कि प्रस्तावित ग्लोबल सिक्योरिटी इनिशिएटिव, शंघाई सहयोग संगठन, फोरम ऑन चाइना अफ्रीका को-ऑपरेशन (FOCAC) और रूस, ईरान व चीन की संभावित धुरी.

 

2024 के दो सबसे विभाजनकारी संघर्ष, यूक्रेन में रूस का युद्ध और ग़ज़ा में इज़राइल और हमास के बीच संघर्ष, दोनों ही लंबे समय से चले आ रहे विवादों के परिणामस्वरूप पैदा हुए. ये संघर्ष अचानक भड़क उठे. इससे ये संकेत मिलता है कि दुनिया की सुरक्षा व्यवस्था इस क़दर विघटित हो चुकी है कि वो न तो शांति बनाए रखने में सक्षम है, न स्थापित कर पाने की स्थिति में है.

 

इस संदर्भ में जब सार्वभौमिक मूल्यों का पालन करना एक असंभव काम हो गया है और मौजूदा व्यवस्था विघटित होती जा रही है, तो नेताओं को अपने प्रभाव की सीमाओं और अपने गठबंधनों की मजबूरियों को स्वीकार करना होगा.

 

नेताओं को सवाल करना होगा कि: वो कौन से तरीक़े हैं कि एक दूसरे के ख़िलाफ़ खड़े लोगों से संवाद करके संघर्ष को बढ़ने से रोका जाए? क्या नेताओं के लिए ये मुमकिन है कि वो अपनी शक्तियों को और सीमित करना स्वीकार करें और शांति बहाली की ज़िम्मेदारी उठाएं? समझौते को वो कौन से न्यूनतम मानक हो सकते हैं, जिनके आधार पर प्रगति हो और आक्रामक गतिविधियों का मुक़ाबला किया जा सके?

 

मौजूदा विश्व में संप्रभुता को कैसे समझा जाए?

 

नियमों पर आधारित विश्व व्यवस्था के जिस आदर्श को 1945 से ही बड़ी मेहनत के साथ संरक्षित किया जाता रहा है, वो पिछले आठ दशकों की तुलना में व्यवहारिक तौर पर अपने आदर्शों से काफ़ी दूर हट चुकी है. साझा नियमों, मज़बूत संस्थानों और अंतरराष्ट्रीय क़ानून के प्रति वचनबद्धता के बग़ैर एक स्थिर और शांतिपूर्ण माहौल को साकार करना मुश्किल है. हालांकि, नियमों पर आधारित व्यवस्था का बचाव करने वालों को ये सच्चाई स्वीकार करनी होगी कि बहुत से देशों के लिए उनके राष्ट्रीय राजनीतिक संस्थानों की भूमिका और स्थिरता और व्यवस्थाएं ज़रूरी हैं. वैसे तो किसी देश की सीमा में दूसरे देश की सेना का दाख़िल होना, संप्रभुता का अपमान है. पर, बदनीयती से उठाए जाने वाले आर्थिक क़दम, राजनीतिक व्यवस्थाओं में हेरा-फेरी और बाज़ार तक पहुंच, व्यापारिक समझौते और भुगतान को सीमित करना भी एक तरह से संयुक्त राष्ट्र के चार्टर का उल्लंघन है और इससे संप्रभुता के सबसे अहम पहलुओं पर चोट पहुंचती है.

 

हाल के दशकों में इस बात को अहम माना जाता था कि देश, कुछ नीतियों के मामले में संप्रभुता और स्वतंत्र रूप से फ़ैसले लेने की क्षमता का त्याग करें और ये ज़िम्मेदारी वैश्विक प्रशासन के संस्थानों के हवाले कर दें, ताकि ‘एकजुट’ वैश्विक व्यवस्था का निर्माण किया जा सके. इस व्यवस्था को अनुदारवादी चुनौती देने वाले लंबे समय से संप्रभुता को लेकर अलग नज़रिए रखते थे और इसको बनाए रखने को अंतरराष्ट्रीय संबंधों का बुनियादी उसूल बनाने की अहमियत पर ज़ोर देते थे. अब तो वैश्विक व्यवस्था के रक्षक भी अक्सर ये समझते हैं कि नियमों को ऐसी दुनिया के लिए नहीं गढ़ा या लागू किया जा सकता, जहां संप्रभुता का सम्मान न हो. क्योंकि, अपनी जनता की तरफ़ से आवाज़ बुलंद कर सकने और उनके अधिकारों की रक्षा कर सकने वाले मज़बूत देशों की अनुपस्थिति में, नियमों पर आधारित व्यवस्था ही कैसे फल-फूल सकती है?

 अब तो वैश्विक व्यवस्था के रक्षक भी अक्सर ये समझते हैं कि नियमों को ऐसी दुनिया के लिए नहीं गढ़ा या लागू किया जा सकता, जहां संप्रभुता का सम्मान न हो.

ऐसे में 2025 में नेता ये सवाल करेंगे कि: क्या देशों की स्वतंत्रता के सवाल का सामना करते हुए और उनकी संप्रभुता में नई जान डालने के साथ ही साथ ऐसे बहुराष्ट्रीय ढांचों को ताक़तवर बनाया जा सकता है, जो उनके देश के नागरिकों को सुरक्षा प्रदान कर सकें?

 

आगे का सफ़र

 

2025 में दुनिया के तमाम नेताओं को इन पांच सवालों के जवाब तलाशने होंगे. ज़रूरी नहीं कि उनके जवाब एक जैसे हों; लेकिन, संभावना इस बात की है कि अगर नेताओं के विचार एक दूसरे से टकराने वाले होंगे, तो दुनिया जिन समस्याओं से निपटने की कोशिश कर ही है, वो और भी बढ़ जाएंगी. अतार्किकता, असंगति और आवाज़ों के बढ़ते शोर के बीच, आज एक नाज़ुक संतुलन बनाना पहले से कहीं ज़्यादा अहम हो गया है.


(ये लेख पहले वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में छप चुका है).   

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