Published on Mar 12, 2020 Updated 0 Hours ago

संभव है कि कुछ कर्ज़ समुचित ख़तरा उठा कर दिये गये हों, पर जब बैंक का प्रमुख उसका शेयरधारक भी हो, तो ऐसे कर्ज़ बांटने के रवैये पर सवाल उठना स्वाभाविक है.

यस बैंक: वित्तीय संकट और सबक़

हमारे सामने यस बैंक का संकट पूरी तरह से भले ही बीते कुछ दिनों में सामने आया है, पर इस बैंक के कामकाज को लेकर छानबीन पहले से शुरू हो चुकी थी क्योंकि इसने 2014 और 2019 के बीच बहुत तेजी से कर्ज़ बांटा था. इसकी वजह से अग्रिम भुगतान 334 फीसदी तक जा पहुंचा था. अगस्त, 2018 में जब राणा कपूर का कार्यकाल समाप्त हो रहा था, तब रिजर्व बैंक ने कहा था कि अगली सूचना तक वे अपने पद पर बने रह सकते हैं.

इससे पहले ही बैंक के शेयरधारकों ने बोर्ड के ज़रिये कपूर को तीन साल का सेवा विस्तार दे दिया था, बशर्ते इस फैसले पर रिजर्व बैंक की मुहर लग जाये. लेकिन उस साल सितंबर से रिजर्व बैंक के रवैये में अंतर आने लगा था और उसने कपूर को जनवरी, 2019 तक पद छोड़ने के लिए कह दिया. तब परिसंपत्तियों के हिसाब से यस बैंक चौथा सबसे बड़ा निजी बैंक था और बैलेंस शीट के हिसाब से देखें, तो यह सबसे अधिक लाभ कमानेवाला बैंक भी था.

यह भी उल्लेखनीय है कि राणा कपूर के बैंक के संस्थापक और लंबे समय तक इसके प्रमुख होने के साथ इनके परिवार के सदस्यों की बैंक में हिस्सेदारी भी अच्छी-खासी रही है. कॉरपोरेट गवर्नेंस यानी कम-से-कम सरकारी नियंत्रण के संदर्भ में यह रेखांकित करना जरूरी है कि कारोबारी दुनिया में ऐसे लोगों का वित्तीय रसूख और पहुंच का दायरा फंसे हुए कर्ज़ को छुपाने में बहुत सहायक होता है. शेयर बाजार में हिस्सेदारी बढ़ाने-घटाने और कर्ज़ के लेन-देन का पैंतरा व्यापारिक व वित्तीय दुनिया का एक सच है.

यस बैंक के नये प्रबंधन और रिजर्व बैंक ने एक साल की अवधि में संकट के समाधान के लिए बहुत पुख्ता इंतज़ाम नहीं किया और अगर कुछ किया भी है, तो उसके नतीजे अच्छे नहीं रहे

अब यह सवाल है कि रिजर्व बैंक की ओर से क्या कदम उठाये गये. तब उर्जित पटेल केंद्रीय बैंक के गवर्नर थे और फंसे हुए कर्ज़ के बारे में पूर्व गवर्नर रघुराम राजन के द्वारा तय तौर-तरीकों का ही कमोबेश लागू कर रहे थे. उस समय यह बात सामने आयी थी कि यस बैंक रिजर्व बैंक के निर्देशों का ठीक से पालन नहीं कर रहा है. साथ ही, जोख़िम का ठीक से आकलन किये बिना कर्ज़ देने के रवैये यानी कमजोर प्रबंधन की शिकायत भी की गयी थी. यह संभव है कि कुछ कर्ज़ समुचित ख़तरा उठा कर दिये गये हों, पर जब बैंक का प्रमुख उसका शेयरधारक भी हो, तो ऐसे कर्ज़ बांटने के रवैये पर सवाल उठना स्वाभाविक है.

ऐसा ही मामला एक्सिस बैंक के साथ भी हुआ था और उसकी प्रमुख को रिजर्व बैंक ने हटने का आदेश दिया था. लेकिन ऐसी रिपोर्ट सामने आ रही हैं कि पद से हटने के बाद भी राणा कपूर नये प्रबंधन द्वारा निवेश जुटाने की कोशिशों को बाधित करने की कोशिशें करते रहे थे. अब कर्ज़ बांटने में भ्रष्टाचार, कमीशनखोरी, जान-बूझकर की गयी लापरवाही जैसे आरोपों की सच्चाई तो समुचित जांच के बाद ही सामने आ सकेगी, लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि प्रबंधन के स्तर पर यस बैंक के संचालन में भारी ख़ामियां थीं.

राणा कपूर बैंक से अपना नाता खत्म करने के लिए भी तैयार नहीं थे. पद से हटाये जाने के बाद वे बोर्ड में एक जगह अपने लिए चाहते थे और एक बड़ी रकम बतौर मुआवजा भी चाहते थे. इस वजह से बोर्ड के स्वतंत्र निदेशकों में से अनेक ने इस्तीफ़े भी दिये और इन सब से बैंक को सुधारने की कोशिशें भी कुंद हुईं.

ऐसी स्थिति में बैंक को पटरी पर लाने के तुरंत कदम उठाने की जरूरत थी, लेकिन रिजर्व बैंक ने एकदम से आपात उपाय करते हुए खाताधारकों को पचास हजार रुपये से ज्यादा निकालने पर ही रोक लगा दी. यह रोक तीन अप्रैल तक जारी रहेगी. अभी हमारे सामने ताजा बैलेंस शीट भी नहीं है और इसकी जानकारी रिजर्व बैंक या यस बैंक की ओर से दिये जाने की फिलहाल उम्मीद भी नहीं की जा सकती है.

यस बैंक के प्रकरण के संदर्भ में कॉरपोरेट गवर्नेंस और सरकारी नियमन के नरम करने के पीछे दिये जानेवाले तर्कों की भी समीक्षा होनी चाहिए तथा बैंकों पर रिजर्व बैंक की कड़ी निगरानी होनी चाहिए

इससे एक संकेत यह मिलता है कि यस बैंक के नये प्रबंधन और रिजर्व बैंक ने एक साल की अवधि में संकट के समाधान के लिए बहुत पुख्ता इंतज़ाम नहीं किया और अगर कुछ किया भी है, तो उसके नतीजे अच्छे नहीं रहे. इसी कारण सीधे निकासी को सीमित करने की जरूरत पड़ी. लेकिन, इसका एक नकारात्मक असर भी हो सकता है.

भले ही रिजर्व बैंक अनेक बैंकों के सहयोग से यस बैंक में पूंजी निवेश कर उसे उबारने का प्रयास कर रहा है, पर यह भी तो हो सकता है कि जैसे ही निकासी की सीमा पर लगी रोक हटेगी, खाताधारक इस बैंक से अपना पैसा निकालकर संबंध तोड़ लेगा और बैंक के उबारने की कोशिशें असफल हो जायेंगी. ऐसा होने का एक आधार यह भी है कि अनेक गैर-बैंकिंग संस्थाएं और बैंक संकटग्रस्त हैं तथा फंसे हुए कर्ज़ का दबाव पूरे बैंकिंग सेक्टर पर है. अर्थव्यवस्था की धीमी चाल ने स्थिति को और चिंताजनक बना दिया है.

यस बैंक के प्रकरण के संदर्भ में कॉरपोरेट गवर्नेंस और सरकारी नियमन के नरम करने के पीछे दिये जानेवाले तर्कों की भी समीक्षा होनी चाहिए तथा बैंकों पर रिजर्व बैंक की कड़ी निगरानी होनी चाहिए. यदि किसी बैंक में गड़बड़ी की थोड़ी भनक भी लगे, तो तुरंत कार्रवाई होनी चाहिए, ताकि खाताधारक, निवेशक और अर्थव्यवस्था को नुकसान न हो. अनेक गैर-बैंकिंग एवं बैंकिंग संस्थाओं में गड़बड़ियों एवं लचर प्रबंधन की वजह से संकट पैदा हो चुका है या ऐसा होने की आशंका है. ऐसे में सभी संस्थाओं के बैलेंस शीट पर नजर डाली जानी चाहिए.


यह लेख मूलरूप से प्रभात ख़बर में छप चुका है.

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