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भारत-सीईई संबंध की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझना ज़रूरी है. शुरुआत में सीईई की दिलचस्पी भारत की शानदार प्राचीन सभ्यता में थी.
मध्य और पूर्वी यूरोप (सीईई) भारत को किस तरह देखता है? पिछले दो दशकों से इसका जवाब दिया जा रहा है कि सीईई के देश शायद ही कभी भारत को देखते हैं, लेकिन जब वे देखते हैं, तो उन्हें एक उभरती हुई शक्ति और संभावनाओं से भरा एक आर्थिक साझीदार दिखाई देता है. फिर भी, पिछले तीन वर्षों में अमेरिका और चीन के बीच एक “शीत युद्ध” देखा जा रहा है, हालांकि, यह अमेरिका-सोवियत के बीच चले “शीत युद्ध” से बहुत अलग है, जिसमें भारत ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक प्रमुख भू-राजनीतिक शक्ति की भूमिका निभाई थी, और जो अब वाशिंगटन के महत्वपूर्ण पार्टनर के तौर पर उभर रहा है. इसलिए एक नया सवाल उठता है: इन घटनाक्रमों ने सीईई के भारत को देखने के नज़रिये पर कितना असर डाला है?
शीत युद्ध के दौरान दिल्ली की मास्को से साझीदारी में क़रीबी संबंधों के एक नए युग की शुरुआत हुई, जिस दौरान सीईई ने भारत को एक महत्वपूर्ण राजनीतिक साझीदार के तौर पर देखा. अर्थनीति ने राजनीति का अनुसरण किया और भारत 1980 के दशक तक विकासशील देशों में सीईई के प्रमुख व्यापारिक साझीदार के रूप में उभरा.
इस सवाल का जवाब देने के लिए पहले भारत-सीईई संबंध की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझना ज़रूरी है. शुरुआत में सीईई की भारत की शानदार प्राचीन सभ्यता में दिलचस्पी थी. यह दिलचस्पी सीईई के विश्वविद्यालयों में विभिन्न इंडोलॉजी (भारत-विज्ञान) संस्थानों की स्थापना में ज़ाहिर होती थी, जैसे 1850 में प्राग की प्रतिष्ठित चार्ल्स यूनिवर्सिटी में संस्कृत चेयर और सीईई के प्रमुख बुद्धिजीवियों में भारतीय संस्कृति और धर्म के प्रति गहरा आकर्षण, जैसे रोमानियाई धर्म के विद्वान मिर्चा एलियाड और पोलिश भाषाविद आंद्रेज़ गावरोंस्की. शीत युद्ध के दौरान दिल्ली की मास्को से साझीदारी में क़रीबी संबंधों के एक नए युग की शुरुआत हुई, जिस दौरान सीईई ने भारत को एक महत्वपूर्ण राजनीतिक साझीदार के तौर पर देखा. अर्थनीति ने राजनीति का अनुसरण किया और भारत 1980 के दशक तक विकासशील देशों में सीईई के प्रमुख व्यापारिक साझीदार के रूप में उभरा. इस अवधि के दौरान, दिल्ली ने ख़ासतौर से पोलैंड, बल्गारिया और यूगोस्लाविया के साथ नज़दीकी रिश्ते बनाए, जो आख़िरकार 1961 में बेलग्रेड में स्थापित गुट-निरपेक्ष आंदोलन (एनएएम) में भारत के प्रमुख साझीदार बनने तक जाते हैं.
शीत युद्ध के बाद के काल में समय के साथ भारत और सीईई के बीच नए तरह के संबंध बने. बर्लिन की दीवार गिरने के साथ भारत-सीईई संबंधों में तेज़ गिरावट आई, जिसके बाद से अब तक राजनीतिक संबंध पूर्व स्तर पर नहीं आए हैं, पिछले बीस सालों के दौरान भारत के तेज़ आर्थिक विकास ने सीईई के साथ दिल्ली के आर्थिक संबंधों को फिर से जोड़ा है, हालांकि, वे अपेक्षाकृत न्यून स्तर पर हैं और अपनी क्षमता से बहुत कम हैं. द्विपक्षीय व्यापार लगभग 6 अरब डॉलर तक पहुंच गया है, और इतना ही द्विपक्षीय निवेश है, जिसमें कुछ बड़ी निवेश परियोजनाएं जैसे कि हंगरी में अपोलो टायर्स की 55.7 करोड़ डॉलर की ग्रीनफील्ड परियोजना शामिल है. सीईई की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था पोलैंड इस क्षेत्र में भारत के अग्रणी आर्थिक साझीदार के रूप में उभरा है, पोलैंड में कुल भारतीय निवेश लगभग 3 अरब डॉलर और भारत में कुल पोलिश निवेश लगभग 67.2 करोड़ डॉलर है. अर्थशास्त्र से परे, प्राग और बुडापेस्ट में भारतीय सैलानियों का बढ़ती आमद, बल्गारिया में बॉलीवुड की फिल्मों की लगातार शूटिंग और उच्चस्तरीय यात्राओं, जैसे कि क्षेत्र की राष्ट्रपति कोविंद की 2018 की यात्रा ने सीईई में भारत का क़द बढ़ाया है. इन सबके नतीजे में, सीईई भारत को एक दूर की लेकिन तेज़ी से उभरती महत्वपूर्ण शक्ति और बड़ी क्षमताओं वाले आर्थिक साझीदार के रूप में देखने लगा है
अर्थशास्त्र से परे, प्राग और बुडापेस्ट में भारतीय सैलानियों का बढ़ती आमद, बल्गारिया में बॉलीवुड की फिल्मों की लगातार शूटिंग और उच्चस्तरीय यात्राओं, जैसे कि क्षेत्र की राष्ट्रपति कोविंद की 2018 की यात्रा ने सीईई में भारत का क़द बढ़ाया है. इन सबके नतीजे में, सीईई भारत को एक दूर की लेकिन तेज़ी से उभरती महत्वपूर्ण शक्ति और बड़ी क्षमताओं वाले आर्थिक साझीदार के रूप में देखने लगा है.
इस पृष्ठभूमि के साथ, वाशिंगटन और बीजिंग के बीच नए “शीत युद्ध” ने भारत के प्रति सीईई के नज़रिये को किस तरह से प्रभावित किया है? इसका फ़ौरी जवाब यह है कि यह अभी भी अस्पष्ट है. सीईई का हाल में उभरे इस “शीत युद्ध” से अभी पूरी तरह सामना नहीं हुआ है, और क्षेत्र का ध्यान रूस और पश्चिम के बीच तनाव पर है. इतना ही महत्वपूर्ण यह भी है कि, न तो नाटो और न ही ईयू ने चीन को लेकर अपने सीईई सदस्यों का मार्गदर्शन करने के लिए पूरी तरह से स्पष्ट, सुसंगत नीति तैयार की है, हालांकि, दोनों हाल ही में बीजिंग को लेकर सख़्त हुए हैं, यूरोपीय संघ ने बीजिंग को “सिस्टमिक राइवल” (व्यवस्थागत प्रतिद्वंद्वी) और नाटो ने चीन को लेकर “चैलेंजेस” (चुनौतीपूर्ण) कहा है. इसके साथ ही, सीईई देश अभी तक भारत को इस नए “शीत युद्ध” में एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में नहीं देखते हैं, जिसका कारण आंशिक रूप से उनका हिंद-प्रशांत भू-राजनीति से पर्याप्त रूप से परिचित नहीं होना है, लेकिन यह भी एक कारण है कि बढ़ रहे विवाद में दिल्ली अभी तक खुलकर सामने नहीं आई है.
फिर भी, नए चीन-अमेरिकी “शीत युद्ध” में सीईई के भारत को देखने के तरीके को तीन तरह से प्रभावित करने की संभावना है. पहला, सीईई का भारत को चीन के मुकाबले आंशिक रूप से प्रतिगामी आर्थिक बल के रूप में देखने की संभावना है. बेशक, भारत सीईई को वो नहीं दे सकता जो चीन दे सकता है. हालांकि, चीन और इसके 17+1 मैकेनिज़्म (चीन और मध्य पूर्वी यूरोपीय देशों के बीच साझीदारी) को इंफ़्रास्ट्रक्चर और टेलीकम्युनिकेशन में चीनी निवेश को सीमित करने और चीन के प्रति उत्साह में कमी के लिए अमेरिकी और यूरोपीय संघ के बढ़ते दबाव के साथ, सीईई भारत को चीन की तुलना में अधिक सुरक्षित व आसान आर्थिक साझीदार के रूप में देखने लगा है. पोलैंड की अपनी इनवेस्टमेंट एजेंसी की मुंबई में शाखा खोलने के हालिया कदम और चीन के साथ बिगड़ते संबंधों के बीच वार्सा और दिल्ली के बीच सीधा हवाई संपर्क, इस रुझान के शुरुआती संकेत हैं. दूसरा, अमेरिकी असर में मध्य और पूर्वी यूरोपीय देशों द्वारा भारत को एक दोस्ताना लोकतंत्र के रूप में देखे जाने की अधिक संभावना है. हालांकि, सीईई अंतरराष्ट्रीय संबंधों को वैचारिक दृष्टिकोण से नहीं देखता है और लोकतांत्रिक शासन के साथ उसकी अपनी समस्याएं हैं, नया “शीत युद्ध” निश्चित रूप से भारत के साथ क्षेत्र के लोकतांत्रिक बंधन और कम्युनिस्ट चीन के साथ इसकी भिन्नता को रेखांकित करता है. इसके अलावा, हाल ही में चीनी दबाव के बीच चेक और लिथुआनिया की ताइवान पर दिलचस्पी से पता चलता है कि एशिया में दोस्त लोकतंत्रों का समर्थन सीईई में ज़्यादा लोकप्रिय हो रहा है. तीसरा, सीईई के देशों में भारत को संभावित भू-राजनीतिक साझीदार के रूप में देखने की संभावना बढ़ रही है. इसके कारणों में भारत के साथ अमेरिका की उत्तरोत्तर घनिष्ठ होती रणनीतिक साझीदारी भी एक है. सीईई अभी भी सुरक्षा और रणनीति पर वाशिंगटन के नज़रिये का अनुसरण करता है और साथ ही यूरोपीय संघ व नाटो भी चीन के ख़िलाफ सख़्त रुख़ अपना रहे हैं. अगर नाटो अपनी चीन पर नीति की समीक्षा के बाद हिंद-प्रशांत में ज़्यादा सक्रिय होता है, तो सीईई के सदस्यों के भारत के साथ ज़्यादा से ज़्यादा रणनीतिक जुड़ाव हासिल करने की संभावना है.
सीईई भारत को चीन की तुलना में अधिक सुरक्षित व आसान आर्थिक साझीदार के रूप में देखने लगा है. पोलैंड की अपनी इनवेस्टमेंट एजेंसी की मुंबई में शाखा खोलने के हालिया कदम और चीन के साथ बिगड़ते संबंधों के बीच वार्सा और दिल्ली के बीच सीधा हवाई संपर्क, इस रुझान के शुरुआती संकेत हैं
ये तीन एकदम नए रुझान सीईई भारत को कैसे देखता है, इसे निश्चित रूप से बदलने वाले साबित होंगे. ये रुझान क्षेत्र के साथ नज़दीकी संबंध बनाने के लिए दिल्ली को एक बड़ा मौक़ा पेश करते हैं. ऐसा संबंध भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की दावेदारी, आर्थिक अवसरों और यूरोपीय यूनियन के देशों के एक बड़े समूह की सद्भावना का मौका मुहैया कराते हैं, जो यूरोपियन यूनियन की नीतियों को प्रभावित करेगा. हालांकि, दिल्ली इस मौके को गंवा भी सकती है, जैसा कि कई सालों से इस क्षेत्र के प्रति बड़े पैमाने पर निष्क्रिय भारतीय नीति को देखते हुए लगता है. संक्षेप में, नया शीत युद्ध भारत को मध्य और पूर्वी यूरोप में एक अवसर प्रदान करता है, लेकिन इसे मुट्ठी में करने के लिए दिल्ली को अपने दांव ऊंचे करने की ज़रूरत है.
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Ivan Lidarev is a former advisor at Bulgarias National Assembly and former Visiting Fellow at ORF.
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