Published on Feb 04, 2019 Updated 0 Hours ago

अमीर और ग़रीब के बीच की बड़ी खाई को कम करना सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है क्योंकि ग़रीबों का सामाजिक कल्याण बढ़ाने के लिए सार्वजनिक निवेश में बड़ी बढ़ोतरी की ज़रूरत होगी।

उदासीन होती दुनिया

इस साल स्विटज़रलैंड के दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम की बैठक उम्मीद की तुलना में निराशाजनक और सूनी रही। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे कुछ प्रमुख लोग जो पिछले साल वहां मौजूद थे और जिनकी उपस्थिति ने दावोस में एक अलग रंग भरा था, वो इस बार नदारद थे। इसके अलावा, दुनिया की धीमी विकास गति के इंटरनेशनल मॉनेटरी फ़ंड (IMF) के पूर्वानुमान ने 2019 की एक निराशावादी तस्वीर पेश की। हालांकि दावोस में मौजूद अमीरों के पास जश्न मनाने की वजह थी क्योंकि पिछले एक साल में वो और ज़्यादा अमीर हुए थे लेकिन पहले जहां अमीर होना दावोस में एंट्री का पासपोर्ट होता था, वहीं इसके विपरीत इस बार बढ़ती असमानता की छाया और इसके परिणाम पूरी तरह हावी रहे।

जहां पिछले साल, शी जिनपिंग और नरेंद्र मोदी ने दावोस में वैश्वीकरण का बचाव किया था, वहीं इस साल वहां मौजूद लोगों द्वारा ये महसूस किया गया कि एक संकट उभर रहा है। वास्तव में, वैश्वीकरण में पिछले कुछ वर्षों में मंदी आई है, इसके उत्थान की अवधि 1990-2010 रही।सभी क्रॉस बॉर्डर इन्वेस्टमेंट, व्यापार, बैंक लोन और सप्लाई चेन कम हो रहे हैं या गतिहीन हो रहे हैं। वैश्वीकरण के उत्थान के दिनों में, माल का परिवहन काफ़ी हद तक शिपिंग की जगह हवाई ट्रांसपोर्ट के ज़रिए होने लगा क्योंकि हवाई परिवहन से माल की ढुलाई सस्ती हो गई, टैरिफ़ में कटौती हुई और वित्तीय प्रणाली उदार हो गई। दूरसंचार क्रांति से फ़ोन कॉल बेहद सस्ते हो गए जिससे वैश्वीकरण की राह और आसान हो गई। चीज़ें बदल गई हैं और पश्चिम के देशों में पगार बढ़ गई, हालांकि ये बढ़ोतरी अधिकारियों की तनख़्वाह में हुई भारी बढ़ोतरी से कम है, जिससे माल तैयार करने और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में उन्हें निर्यात करने का ख़र्च बढ़ गया है। साथ ही, मल्टीनेशनल कंपनियों को स्थानीय उत्पादकों से कड़ी प्रतिस्पर्द्धा मिली है, जिससे उनके मुनाफ़े में कटौती हुई है और इस तरह के बाज़ारों का आकर्षण कम हुआ है।इसके परिणामस्वरूप, 2018 में क्रॉस बॉर्डर इन्वेस्टमेंट 20 फ़ीसदी तक डूब गया। इसके बजाय क्षेत्रवाद और सेवा व्यापार बढ़ रहा है।

वैश्वीकरण के उत्थान के दिनों में, माल का परिवहन काफ़ी हद तक शिपिंग की जगह हवाई ट्रांसपोर्ट के ज़रिए होने लगा क्योंकि हवाई परिवहन से माल की ढुलाई सस्ती हो गई, टैरिफ़ में कटौती हुई और वित्तीय प्रणाली उदार हो गई। दूरसंचार (टेलीकॉम) क्रांति से फ़ोन कॉल बेहद सस्ते हो गए जिससे वैश्वीकरण की राह और आसान हो गई। चीज़ें बदल गई हैं और पश्चिम के देशों में पगार बढ़ गई है, हालांकि ये बढ़ोतरी अधिकारियों की तनख़्वाह में हुई भारी बढ़ोतरी से कम है, जिससे माल तैयार करने और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में उन्हें निर्यात करने का ख़र्च बढ़ गया है।

वैश्वीकरण में मंदी का अमेरिका और चीन और अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के बीच व्यापार युद्ध के साथ सीधा सरोकार है। चीन और यूरोपीय यूनियन दोनों जीडीपी में धीमी बढ़ोतरी दिखा रहे हैं जो कि भारत के निर्यात के लिए अच्छी ख़बर नहीं है। भारत का निर्यात 2018 में पूरी तरह सुस्त रहा है। यूरोपीय यूनियन भारत के लिए एक बड़ा बाज़ार है। चीन भी भारत से बड़ी मात्रा में कच्चे पदार्थ ख़रीदता है। जहां अमेरिका और चीन के बीच व्यापार घटने से कुछ निर्यात फ़ायदे में रह सकते हैं, वहीं चीन के कुछ फ़्री ट्रेड पार्टनर्स की तुलना में भारत कम लाभप्रद स्थिति में है। चीन अपनी ज़रूरतों के मुताबिक़ अपने फ़्री ट्रेड पार्टनर्स से आसान शर्तों पर माल आउटसोर्स कर सकता है और ख़रीद सकता है। भारत सोयाबीन और कपास जैसे कुछ कृषि उत्पादों में चीन के साथ अपना निर्यात बढ़ा सकता है।

एक और ख़तरे की घंटी तब सुनाई पड़ी जब मशहूर अमेरिकी निवेशक और अरबपति एन्ड्रयू क्लरमन ने दावोस के प्रतिभागियों को चिट्ठी लिखकर एक ख़तरनाक प्रवृति के बारे में आगाह किया जो कि दुनिया भर में राजनीतिक और सामाजिक विभाजन का भाव पैदा कर रही है, जो कि आर्थिक आपदा के रूप में ख़त्म हो सकती है। चिट्ठी में क्लरमन ने लिखा कि, “लगातार विरोध, दंगों, शटडाउन और बढ़ते तनाव के बीच कारोबार नहीं हो सकता है।” उन्होंने चेतावनी दी कि पूंजी निवेश करने वालों के लिए सामाजिक सामंजस्य ज़रूरी है। भारत को इस पर ध्यान देना चाहिए।

अमेरिका और चीन और अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के बीच व्यापार युद्ध का वैश्वीकरण में मंदी से सीधा सरोकार है।

उन्होंने ध्यान दिलाया कि 2008 से 2017 के वित्तीय संकट के बाद से हर विकसित देश समेत दुनिया के सभी देशों का राष्ट्रीय क़र्ज़ बढ़ाहै। भारत भी उस लीग में है जहां सामान्य तौर पर जीडीपी के अनुपात में राष्ट्रीय क़र्ज़ 70 फ़ीसदी ज़्यादा है। यह भी एक अस्थिर स्थिति है। क़र्ज़ के लिए सरकार को भारी ब्याज चुकाना पड़ता है और इसकी वजह से उन संसाधनों में कटौती होती है जिनका इस्तेमाल सामाजिक कार्यक्रमों की फ़ंडिंग के लिए हो सकता था। पहले से ही, सामाजिक कार्यक्रमों के लिए बजट आवंटन में पिछले दिनों कटौती हुई है। ज़्यादा क़र्ज़ वाला प्रोफ़ाइल विदेशी निवेशकों के लिए भी हतोत्साहित करनेवाला होगा और क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां ​​भारत को अपग्रेड देने के लिए अनिच्छुक हैं। भारत ने 2023 तक जीडीपी के 40 फ़ीसदी क़र्ज़ और राज्यों के लिए 20 फ़ीसदी क़र्ज़ के अनुपात का लक्ष्य रखा है। अगर राज्य बड़े पैमाने पर किसानों के लिए क़र्ज़ माफ़ी करते हैं तो शायद यह संभव नहीं होगा।

उन्नत देशों के 100 फ़ीसदी से अधिक के जीडीपी अनुपात के उच्च ऋण के साथ-साथ वैश्विक स्तर पर आय और धन की असमानता बढ़ी है। पिछले साल के 44 लोगों के मुक़ाबले अब दुनिया के सिर्फ़ 26 लोगों के पास उतनी संपत्ति है जितनी 3.8 अरब लोगों के पास है जो कि सबसे ग़रीब लोगों की आधी आबादी है।

ऑक्सफ़ैम रिपोर्ट भारत के लिए इस मायने में अशुभ है कि इसके मुताबिक भारत में असमानता ख़तरनाक स्तर पर बढ़ रही है। एक साल में, पहले से मौजूद अरबपतियों की लिस्ट में 18 नए अरबपति जुड़ गए और इनकी संख्या 119 जा पहुंची है। अब इनकी कुल संपत्ति 440.1 बिलियन डॉलर है। शीर्ष के एक फ़ीसदी लोगों और बाक़ी लोगों के बीच असमानता लगातार बढ़ रही है। देश की कुल संपत्ति का 51.53 फ़ीसदी हिस्सा इन एक फ़ीसदी लोगों के पास है। नीचे की 60 फ़ीसदी आबादी के पास राष्ट्रीय संपत्ति का महज 4.8 फीसदी हिस्सा है। ऑक्सफ़ैम ने चेताया है कि असमानता की इतनी बड़ी खाई बहुत ख़तरनाक है और यह लोकतंत्र को तहस-नहस कर सकता है।

पिछले साल के 44 के मुक़ाबले अब दुनिया के सिर्फ़ 26 लोगों के पास उतनी संपत्ति है जितनी 3.8 अरब लोगों के पास है जो कि सबसे ग़रीब लोगों की आधी आबादी है।

ऐसा अनुमान है कि 2018 से 2022 के बीच, भारत में हर दिन 70 नए डॉलर करोड़पति पैदा होंगे। ऑक्सफ़ैम के मुताबिक़, बढ़ती आर्थिक असमानता के कारण महिलाएं और लड़कियां सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगी क्योंकि ग़रीब घरों में मातृत्व, बच्चे के जन्म और सामान्य स्वास्थ्य देखभाल पर ख़र्च करने के लिए कम पैसा होगा। जब तक एक फ़ीसदी सबसे अमीर लोगों पर थोड़ा और टैक्स नहीं लगाया जाता, कह सकते हैं कि अगर उनकी संपत्ति पर 0.5 फ़ीसदी टैक्स नहीं बढ़ता, तब तक महिलाओं और लड़कियों के लिए हालात बहुत ख़राब बने रहेंगे। इन पर लगाए गए 0.5 फ़ीसदी टैक्स से जो पैसा आएगा वो भारत में स्वास्थ्य पर सरकारी ख़र्च को 50 फ़ीसदी तक बढ़ाने के लिए पर्याप्त होगा।

अमीर और ग़रीब के बीच की बड़ी खाई को कम करना सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है क्योंकि ग़रीबों के सामाजिक कल्याण बढ़ाने के लिए सार्वजनिक निवेश में बड़ी बढ़ोतरी की ज़रूरत होगी ताक़ि वो एक सभ्य जीवन-यापन कर सकें। बढ़ती असमानता से हर दिन सामाजिक तनाव बढ़ रहा है और इसकी वजह से देश की आर्थिक गतिविधियां बाधित हो सकती हैं, जैसा कि फ़्रांस में जिलेट्स जॉन्स आंदोलन कर रहा है, विकास को धीमा कर रहा है और ग़रीबों को और ग़रीब बना रहा है।

दावोस में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और ऑटोमेशन पर फ़ोकस के साथ जहां चौथी औद्योगिक क्रांति की चर्चा हुई, ये साफ़ हो गया कि नौकरियों का भविष्य धूमिल है। इसका मतलब भारत में, ऑटोमेशन और डिजिटलाइजेशन की वजह से बेरोज़गार लोगों को ज़्यादा प्रशिक्षण देना होगा। कम आमदनी वाले ग्रुप के नौजवानों को प्रशिक्षित करना बड़ी चुनौती होगी क्योंकि सरकारी स्कूलों में, ख़ास कर गांवों में अच्छी शिक्षा न मिल पाने की वजह से उन्हें कठिन प्रशिक्षण की ज़रूरत होगी।

आज कई देशों के सामने अच्छी गुणवत्ता वाली नौकरियां पैदा करना एक समस्या है। भारत कुछ श्रम प्रधान उद्योगों पर ध्यान केंद्रित करके और उन्हें प्रोत्साहित करके इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दे सकता है जिसमें हमारे पास पारंपरिक विशेषज्ञता है- जैसे टेक्सटाइल, गारमेंट्स और फ़ूड प्रोसेसिंग — इससे महिलाओं के लिए रोज़गार सृजन में भी मदद मिलेगी।

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