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महिला, शांति और सुरक्षा (WPS) के एजेंडे को लागू करने के उलट एक तर्क ये भी हो सकता है कि क्या शांति और सुरक्षा के अभियानों में महिलाओं को समावेश करना, भागीदारी बढ़ाना और संवाद करने से युद्ध छिड़ने से रोके जा सकेंगे
युद्ध में महिलाएं: सुरक्षा का बहुपक्षीयवाद और उसकी मुख्यधारा में महिलाओं की मौजूदगी!
ये लेख हमारी रायसीना एडिट सीरीज़ 2022 का एक हिस्सा है.
इस वक़्त दुनिया तीसरे विश्व युद्ध के मुहाने पर खड़ी है. 2022 के अप्रैल महीने की शुरुआत के वक़्त, यूक्रेन पर रूस के हमले के पांच हफ़्ते बीत चुके थे. इस युद्ध की वजह से एक करोड़ से ज़्यादा लोग बेघर हो चुके हैं और हज़ारों मारे जा चुके हैं. इनमें आम नागरिक, महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं.
हमने दुनिया के कई देशों जैसे कि अफ़ग़ानिस्तान, इराक़, लीबिया, सीरिया और यमन में इसी तरह के सशस्त्र संघर्ष होते देखे हैं. इनमें से कुछ तो गृह युद्ध थे और कुछ एक देश द्वारा दूसरे के ख़िलाफ़ आक्रमण का नतीजा थे. इन सभी युद्धों में जो एक बात समान थी, वो थी महिलाओं के बेघर होने, हिंसा और शोषण या मौत का शिकार होने की आशंका तुलनात्मक रूप से कहीं ज़्यादा थी.
हाल के वर्षों के दौरान हमने दुनिया के कई देशों जैसे कि अफ़ग़ानिस्तान, इराक़, लीबिया, सीरिया और यमन में इसी तरह के सशस्त्र संघर्ष होते देखे हैं. इनमें से कुछ तो गृह युद्ध थे और कुछ एक देश द्वारा दूसरे के ख़िलाफ़ आक्रमण का नतीजा थे. इन सभी युद्धों में जो एक बात समान थी, वो थी महिलाओं के बेघर होने, हिंसा और शोषण या मौत का शिकार होने की आशंका तुलनात्मक रूप से कहीं ज़्यादा थी. इसके बावजूद शांति और सुरक्षा से जुड़े फ़ैसलों में महिलाओं की नुमाइंदगी सबसे कम है. काउंसिल ऑफ़ फॉरेन रिलेशंस के मुताबिक़, वर्ष 1992 से 2019 के बीच दुनिया भर की शांति प्रक्रियाओं में वार्ताकारों के तौर पर 13 फ़ीसद, मध्यस्थों में छह प्रतिशत और शांति प्रक्रिया में दस्तख़त करने वालों में भी छह प्रतिशत ही महिलाएं थी. ये हाल तब है जब ये साबित हो चुका है कि अगर लैंगिक समानता हो, तो किसी देश के भीतर हो या फिर दो देशों के बीच संघर्ष की संभावना कम होने का सीधा संबंध होता है.
अब हम शांति और सुरक्षा के एजेंडे में महिलाओं की भूमिका की अनदेखी नहीं कर सकते, भले ही वो लड़ने की भूमिका में हों, शांति स्थापित करने में हों या इससे जुड़े फ़ैसले लेने वाली भूमिका में हों. आज के दौर के युद्ध में महिलाओं की पूरी भागीदारी और इससे जुड़े होने की अपेक्षा की जाती है- महिलाएं न सिर्फ़ सशस्त्र संघर्ष का असर कम करने में अहम भूमिका निभाती हैं, बल्कि युद्ध की ओर बढ़ने की आशंका कम करके सुरक्षा के बहुपक्षीयवाद को सुधारने का काम भी करती हैं. हाल के रिसर्च ये साबित करते हैं कि जब महिलाएं शांति बहाली में भागीदार बनती हैं और भूमिका निभाती हैं, तो शांति समझौते ज़्यादा स्थायी होते हैं और बेहतर ढंग से लागू किए जाते हैं, और तब शांति समझौते के नाकाम होने की आशंका 64 प्रतिशत तक कम हो जाती है. इसके अलावा शांति स्थापना और सुरक्षा की भूमिकाओं में महिलाओं के होने से, उनके लिए समाज के कमज़ोर वर्ग तक पहुंच बनाना आसान होता है और वो सबूत जुटाने और ख़ुफ़िया जानकारी इकट्ठा करने की व्यवस्था को मज़बूत बनाने में योगदान देती हैं.
संयुक्त राष्ट्र संघ, यूरोपीय संघ, ऑर्गेनाइज़ेशन फॉर सिक्योरिटी ऐंड को-ऑपरेशन इन यूरोप और अफ्रीकी संघ जैसे अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठन भी महिला, शांति और सुरक्षा (WPS) के एजेंडे को मुख्यधारा में शामिल करने के प्रयास कर रहे हैं.
शांति और सुरक्षा के एजेंडे में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करते हुए, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) ने 2020 में एक ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें संघर्ष रोकने और उसके बाद पुनर्निर्माण और मानवीय अभियानों का समाधान करने और शांति वार्ताओं और शांति रक्षा में महिलाओं की अहमियत को दोहराया गया था. इस प्रस्ताव में सभी पक्षों से अपील की गई थी कि वो शांति और सुरक्षा के उपायों में महिलाओं को शामिल करें. इस प्रस्ताव में ये मांग भी की गई है कि सरकारें अपने नेशनल एक्शन प्लान (NAPs) के ज़रिए लॉ ऑफ़ आर्म्ड कॉनफ्लिक्ट (LOAC) को पूरी तरह से लागू करें और संघर्ष को रोकने के हर पहलू और उसके समाधान में महिलाओं को भागीदार को बढ़ाएं. इसके बाद नेटो (NATO) ने अपनी तीन मुख्य कार्यों- साझा रक्षा, संकट के प्रबंधन और सहयोगात्मक सुरक्षा और अपने राजनीतिक और सैन्य ढांचे में महिलाओं के नज़रिए को शामिल करना शुरू कर दिया था. संयुक्त राष्ट्र संघ, यूरोपीय संघ, ऑर्गेनाइज़ेशन फॉर सिक्योरिटी ऐंड को-ऑपरेशन इन यूरोप और अफ्रीकी संघ जैसे अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठन भी महिला, शांति और सुरक्षा (WPS) के एजेंडे को मुख्यधारा में शामिल करने के प्रयास कर रहे हैं.
महिला, शांति और सुरक्षा (WPS) के एजेंडे को अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा और सहयोग की संस्थागत व्यवस्था में शामिल करने की कोशिशों के बावजूद, नीति को ज़मीनी स्तर पर लागू करने का काम किस्तों में और अपर्याप्त तरीक़े से ही हो रहा है. रूस और यूक्रेन के बीच इस वक़्त चल रहे युद्ध के चलते अब ये समय आ गया है कि सुरक्षा के बहुपक्षीयवाद में महिलाओं को मुख्यधारा में लाने के काम को और बढ़ाने की अपील की जाए. WPS के एजेंडे को नीतिगत जामा पहनाने भर से न तो इसकी व्यापक स्तर पर स्वीकार्यता बढ़ी है और न ही इसको मज़बूती से लागू करने की संस्थागत व्यवस्था विकसित की जा सकी है.
नेटो के सहयोगियों के सैन्य बलों में WPS के एजेंडे को लेकर सैन्य और असैन्य नागरिकों के बीच जागरूकता या तो अपर्याप्त पायी गई या फिर आम तौर पर इसमें कमी देखी गई है. नीतियों को ज़मीनी स्तर तक पहुंचने के लिए इस मक़सद को केंद्र में लाना होगा.
वैसे नेटो की इस बात के लिए तारीफ़ की जानी चाहिए कि वो अपने सैन्य अभियानों में लैंगिक नज़रिया शामिल करने के लिए अभियान में असर पर आधारित दृष्टिकोण (EBAO) को अपना रहा है. सिद्धांत तौर पर EBAO का मक़सद नज़रियों और बर्ताव, व कार्यकारी माहौल में सभी किरदारों की क्षमताओं को प्रभावित करना है- ये ऊपर से लागू की जाने वाला नीतिगत नज़रिया है, जिसकी इस बात के लिए आलोचना की जाती है कि इसमें नेटो के सहयोगियों के बीच बराबरी से लागू करने लायक़ मानक नहीं हैं. नेटो के सहयोगियों के सैन्य बलों में WPS के एजेंडे को लेकर सैन्य और असैन्य नागरिकों के बीच जागरूकता या तो अपर्याप्त पायी गई या फिर आम तौर पर इसमें कमी देखी गई है. नीतियों को ज़मीनी स्तर तक पहुंचने के लिए इस मक़सद को केंद्र में लाना होगा. लैंगिक समानता को राष्ट्रीय, प्रांतीय और स्थानीय स्तर पर कैसे मुख्यधारा में लाकर एकीकृत किया जाए और उसे राष्ट्रीय सुरक्षा की नीतियों में शामिल करने के लिए रूल्स ऑफ़ एंगेजमेंट (RoE) तय करना ज़रूरी हो गया है.
अगर हम रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध को एक अपवाद मान लें, तो इक्कीसवीं सदी के ज़्यादातर युद्धों को आम तौर पर आम नागरिकों के बीच होते देखा गया है. इसके चलते युद्ध के किरदारों और उनके प्रेरक, उनके हौसले के कारणों और हितों को समझना कहीं अधिक पेचीदा, परतदार और संस्थागत हो गया है. युद्ध का स्वरूप जिस तरह से बदल रहा है, उससे ये ज़रूरी हो गया है कि सैन्य, शांति रक्षा और मानवीय मदद की कोशिशों में महिलाओं और पुरुषों के तुलनात्मक आयामों में शामिल किया जा सके. महिलाओं और पुरुषों पर हिंसक संघर्ष का असर अलग अलग तरह से पड़ता है और इनके अलग अलग नतीजे भी देखने को मिलते हैं. शांति स्थापना के प्रयासों में महिलाओं की अपर्याप्त नुमाइंदगी के चलते महिलाएं और भी हाशिए पर चली जाती हैं और इससे उन्हें जो चुनौतियां झेलनी पड़ती हैं, वो और बढ़ जाती हैं.
किसी भी देश ने NAP लागू करने की निगरानी के लिए किसी एक मंत्रालय को ज़िम्मेदारी नहीं दी है. आज भी ये ज़िम्मेदारी तमाम मंत्रालयों के बीच बंटी हुई है, जिससे जवाबदेही सुनिश्चित करना मुश्किल हो जाता है. ऐसे टुकड़े होने से अभियान में स्थायित्व नहीं आ पाता और संस्थागत बदलाव पर भी असर पड़ता है.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) ने क्षेत्रीय और राष्ट्रीय एक्शन प्लान की मांग करके ये सोचा था कि सेना को लैंगिक असमानता से ऊपर उठने के एक संरचनात्मक तरीक़े के तौर पर देखा था, जिससे कि सुरक्षा संस्थाओं में और लैंगिक समानता आ सके, और साल 2004 में सुरक्षा परिषद ने संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों से कहा कि वो अपने राष्ट्रीय एक्शन प्लान (NAPs) में महिलाओं को मुख्यधारा में शामिल करने के लक्ष्यों को साफ़ तौर से परिभाषित करें. साल 2015 तक, नेटो के 28 देशों में से 17 देशों और 40 साझीदार देशों में से 14 में नेशनल एक्शन प्लान (NAPs) को लागू किया जाने लगा था. वैसे तो इन कोशिशों को प्रगति के सबूत के तौर पर देखा जा सकता है. लेकिन, नेटो और इसके साझीदार देशों में लागू किए जा रहे राष्ट्रीय एक्शन प्लान में बहुत अलग अलग ढांचे देखने को मिल रहे हैं. इसके अलावा इनकी निगरानी और मूल्यांकन की व्यवस्थाओं में भी फ़र्क़ है. इससे इन प्रयासों के व्यापक असर को समझने के लिए इनको एक साथ परखने और संस्थागत तरीक़े से मूल्यांकन करना बेहद मुश्किल हो जाता है. किसी भी देश ने NAP लागू करने की निगरानी के लिए किसी एक मंत्रालय को ज़िम्मेदारी नहीं दी है. आज भी ये ज़िम्मेदारी तमाम मंत्रालयों के बीच बंटी हुई है, जिससे जवाबदेही सुनिश्चित करना मुश्किल हो जाता है. ऐसे टुकड़े होने से अभियान में स्थायित्व नहीं आ पाता और संस्थागत बदलाव पर भी असर पड़ता है.
शांति स्थापित करने की कोशिशों से महिलाओं को जोड़ने और उनकी भागीदारी बढ़ाने के केंद्र में राजनीतिक इच्छाशक्ति है. जब तक राष्ट्रीय एक्शन प्लान लागू करने के लिए संसाधन, मानवीय और वित्तीय पूंजी मुहैया नहीं कराई जाएगी तब तक ऐसी कोशिशें न तो असरदार और न ही कुशल साबित होंगी. सैन्य संस्थानों को तो ख़ास तौर से अपने अभियानों के सभी स्तरों यानी योजनाएं बनाने से उन्हें लागू करने पर महिलाओं को शामिल न करने की भारी क़ीमत का अंदाज़ा हो जाना चाहिए. लैंगिक समानता लागू करने के एजेंडे की सबसे बड़ी कमी ये सोच है कि ये सैन्य और सुरक्षा संस्थानों में महिलाओं की तादाद बढ़ाने से शुरू होकर उसी पर ख़त्म हो जाता है. लेकिन, लैंगिक समानता का मतलब तादाद बढ़ाने से आगे की बात है. इसे सामाजिक भूमिकाओं और संवाद में महिलाओं की ऐतिहासिक भूमिका, सांस्कृतिक शक्ति और आयाम और संसाधनों तक अपर्याप्त पहुंच को गहराई से समझना ज़रूरी है. इसके बाद इन अहम बातों को योजना में शामिल करना और अलग अलग सांस्कृतिक संदर्भों में WPS एजेंडे को लागू करना होगा. सिर्फ़ महिलाओं की संख्या बढ़ाने से कोई अर्थपूर्ण बदलाव तब तक नहीं आएगा जब तक एक्शन प्लान लागू करने के लिए ज़रूरी संस्थागत क्षमता को राजनीतिक इच्छाशक्ति से सहयोग नहीं मिलता. तभी महिलाओं पर अलग-अलग तरह से पड़ने वाले असर को संस्थागत और लक्ष्य आधारित तरीक़े से समझा जा सकेगा.
लैंगिक समानता को सुरक्षा के बहुपक्षीयवाद का क़ुदरती हिस्सा बनाने के लिए मानक पर आधारित योजनाओं और मूल्यांकनों को सावधानी से तय करना होगा, जो नियमित रूप से व्यापक लक्ष्य तय करें, ताकि शांति और सुरक्षा के एजेंडे के हर पहलू में महिलाओं की भागीदारी, संवाद और समावेश को सुधारा जा सके.
लैंगिक समानता लागू करना सिर्फ़ नेटो और उसके सहयोगी देशों भर की ज़िम्मेदारी नहीं होनी चाहिए. बल्कि, ये तो सुरक्षा से जुड़े सभी बहुपक्षीय संगठनों और देशों की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए. लैंगिक समानता को सुरक्षा के बहुपक्षीयवाद का क़ुदरती हिस्सा बनाने के लिए मानक पर आधारित योजनाओं और मूल्यांकनों को सावधानी से तय करना होगा, जो नियमित रूप से व्यापक लक्ष्य तय करें, ताकि शांति और सुरक्षा के एजेंडे के हर पहलू में महिलाओं की भागीदारी, संवाद और समावेश को सुधारा जा सके. इसके अलावा, मानकों को सभी देशों के हिसाब से ढाला जाना चाहिए. महिलाओं को देश और राज्य के स्तर पर अर्थपूर्ण तरीक़े से जोड़ने के लिए, लैंगिक नियमों को सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भों में समझना बेहद ज़रूरी है. इसके साथ साथ, शांति और सुरक्षा का समावेशी अभियान विकसित करके उन्हें लागू करना होगा.
महिला, शांति और सुरक्षा (WPS) के एजेंडे को लागू करने के उलट एक तर्क ये भी हो सकता है कि क्या शांति और सुरक्षा के अभियानों में महिलाओं को समावेश करना, भागीदारी बढ़ाना और संवाद करने से युद्ध छिड़ने से रोके जा सकेंगे. हो सकता है कि ऐसा हो, या नहीं भी हो सकता है. लेकिन, एक बात पक्की है कि इससे युद्ध के चलते महिलाओं को नुक़सान होने को नियति मानने पर रोक लगेगी.
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Karuna Kumar writes at the intersection of Gender Politics and Policy and has been working with international organizations to drive womens economic empowerment and young ...
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