Published on Mar 08, 2018 Updated 0 Hours ago

क्या भारत में महिलाओं का सशक्तिकरण हो रहा है?

महिला दिवस: भारतीय महिलाओं के लिए चुनौतियां

हम 8 मार्च को फिर एक बार महिला दिवस मना रहे होंगे। महिलाएं भारत की जनसंख्या का आधा हिस्सा हैं। समय आ गया है कि हम हम समीक्षा करें कि उन्होंने सामाजिक व आर्थिक रूप से कितनी प्रगति की है जिससे उनके सशक्तिकरण का अंदाजा लगाया जा सके। यह दुखद है कि कुछ अपवादों को छोड़कर प्रोफेशनल और सार्वजनिक जीवन में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम है।

संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट, (2016) में लैंगिक असमानता सूचकांक को देखा जाए तो भारत 159 देशों में 125वें स्थान है। विश्व आर्थिक फोरम के जेंडर गैप इंडेक्स पर भी भारत 144 देशों में 108वें स्थान पर है। पिछले साल के मुकाबले भारत यहां 21 पायदान फिसला है।


आर्थिक समीक्षा 2017-18 में भारत में बेटे को तरजीह देने के बारे में चर्चा की गई है। लड़कियों के साथ भेदभाव बचपन से ही शुरू हो जाता है। लड़कों की तुलना में लड़कियों को सर्वश्रेष्ठ इलाज नहीं मिलता है और न ही उन्हें खाने में सबसे बेहतर चीजें मिलती हैं। कम आय वाले घरों में लड़कियों कुपोषण के बीच बड़ी होती हैं और जीवन में आगे चलकर एनीमिया का शिकार हो जाती हैं।


साल 2017 में 14 से 49 साल की 51 प्रतिशत भारतीय महिलाएं एनीमिया की शिकार थीं जो दुनिया में अधिकतम है। यह बच्चे को जन्म देने के समय खतरे का सबब बनती है। भारत में जन्म देते हुए माताओं की मृत्यु दर बहुत ज्यादा होने के पीछे यह एक प्रमुख कारण है। भारत में प्रति एक लाख जन्म पर 167 माताओं की जान जाती है। इस श्रेणी में हम संयुक्त राष्ट्र के सहस्त्रा​ब्दि लक्ष्य नहीं प्राप्त कर पाए।

बच्चियों के किशोरावस्था में पहुंचते ही उन्हें स्कूलों से निकाल लिया जाता है, खासकर उन स्कूलों से जहां लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है। इस​लिए मिडिल और सेकेंडरी स्कूलों में लड़कियों की बीच में पढ़ाई छोड़ने की दर लड़कों की तुलना में काफी ज्यादा है। आज 25 साल से ज्यादा से उम्र की महिलाओं का शिक्षा स्तर पुरूषों से कम है और उनमें से केवल 35.3 प्रतिशत ही सेकेंडरी स्तर तक पढ़ी हैं।

भारत के बारे में सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था के तौर पर चर्चा की जाती है पर सच ये भी है कि यह महिलाओं के लिए दुनिया में सबसे असुरक्षित स्थानों में से एक है। हर रोज महिलाओं के खिलाफ हिंसा के समाचार आते हैं। महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए पुरूषों के रुख में बदलाव आना जरूरी है पर महिलाओं की सुरक्षा अंतत: राज्य की जिम्मेदारी है। महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना जरूरी है। परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के ताजा परिणामों में खुलासा हुआ है कि अपने परिवारों में महत्वपूर्ण निर्णय लेने की छूट केवल 20 प्रतिशत महिलाओं को है। इकसठ प्रतिशत महिलाओं ने बताया कि महत्वपूर्ण निर्णय पति-पत्नी संयुक्त रूप से लेते हैं। केवल 7 प्रतिशत ने ही कहा कि सारे फैंसले पति लेते हैं। क्या यह हैरानी की बात नहीं है कि आज 42 फीसदी महिलाएं अपने पतियों के बराबर कमा रही हैं, 21वीं सदी में महिलाओं का अब जल्दी विवाह भी नहीं होता है पर अभी भी पतियों का प्रभुत्व कायम है।

महिलाएं परिवारों के पालन-पोषण के लिए काम करना छोड़ देता हैं पर बाद में उन्हें काम मिलना आसान नहीं होता है। इसीलिए भारत में बहुत सी शिक्षित महिलाएं काम नहीं कर रही हैं। एक बार छोड़ने के बाद नौकरी पाने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण देने की सुविधा भारत में न के बराबर है।


हालांकि कुछ महिलाएं अचछा कर रही हें लेकिन कुल मिलाकर काम में महिलाओं की भागीदारी श्रम बल के तौर पर ब्रिक्स देशों की तुलना में बहुत कम 26 प्रतिशत है। इसका कारण महिलाओं के सामने आने वाली वे सभी बाधाएं हैं जिनका सामना काम करने पर करना पड़ता है।


कई मामलों में पति की अच्छी आय शुरू होते ही वे काम करना बंद कर देती हैं। कई पुरूष भी कामकाजी महिलाओं को पसंद नहीं करते हैं। उनका मानना है कि वे घर की जिम्मेदारी और बच्चों के पालन-पोषण को उपेक्षित करती हैं। मध्य व उच्च आय वर्ग में महिलाओं के घरेलू बने रहने पर ज्यादा जोर है।

महिलाओं की मजदूरी पुरूषों से काफी कम है। दूरदराज के गांवों में महिलाओं को पानी भरने से लेकर जलावन के लिए लकड़ी एकत्र करना, मवेशियों की देखभाल और घर के बुजुर्गों और बच्चों की सेवा करनी पड़ती है। उनका पूरा दिन इस भाग दौड़ में गुज़र जाता है। लाखों ग्रामीण महिलाओं के लिए जीवन कठोर है। इनमें से कईयों को गैर सरकारी संगठनों ने इस दुष्चक्र से निकलने में मदद की; आज इन महिलाओं को एक साथ काम करने, नए हुनर सीखने और इसके एवज में होने वाली कमाई से आनंद मिलता है।


कृषि में महिलाओं के साथ बहुत ज्यादा भेद-भाव होते है। हालांकि वे औसतन घर के पुरूष से कहीं ज्यादा काम करती हैं पर उनके इस काम का न कोई भुगतान है न पहचान।


संसद में भी महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने के कई प्रस्ताव आए और अस्वीकार हुए। भारत में संसद में 12.2 प्रतिशत महिलाएं हैं। पंचायतों में हालांकि 1993 में ही महिला आरक्षण हो गया था जो ग्रामीण विकास के क्षेत्र में मील का पत्थर है। अब यह आरक्षण 50 प्रतिशत तक जाने की संभावना है।

पाकिस्तान ने महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने का कानून बनाया है। पाकिस्तान के निचले सदन नेशनल असेंबली में 342 में से 60 सीटें और चार प्रांतीय असेंबलियों में 137 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।

विधवाओं की स्थिति तो और भी बुरी है। समाज में, खासकर हिंदुओं में, उन्हें बड़े खराब तरीके से रखा जाता है। बहुत से मामलों में उनके परिवार वाले उन्हें छोड़ देते हैं यां एक अभाव भरी जिंदगी बिताने के लिए वृंदावन यां बनारस भेज देते हैं। वृंदावन में लगभग 6,000 विधवाएं अपने बूते यां दान पर निर्भर होकर अकेले रह रही हैं। इंदिरा गांधी पेंशन योजन के तहत उन्हें नाम-मात्र की 350 रूपए प्रति माह की पेंशन मिलती है, पहले यह 200 रूपए थी। अधिकत राज्यों में विधवाओं को अशुभ का प्रतीक मनकर उन्हें अलग-थलग कर दिया जाता है। इस प्रकार की प्ररूष प्रधान रूढ़ियां देश में महिलाओं को स्थिति को खराब करते हैं।

कुल मिलाकर, महिला दिवस के मौके पर हमें यह अहसास करना होगा कि कई अन्य देशों , खासकर स्कैंडिनेवियाई देशों की तरहं भारतीय महिलाओं का सशक्तिकरण भी संभव है। इसके लिए उन्हें काम कर आर्थिक स्वतंत्रता हासिल करनी होगी, अपने प्रजनन स्वास्थ्य का ध्यान रखना होगा, परिवार के मामलों में मजबूती से आवाज रखनी होगी तथा राजनीति में उचित अनुपात में प्रतिनिधत्व हासिल करना होगा।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.