Published on Dec 11, 2020 Updated 0 Hours ago

क्वॉड (QUAD) का गठन- जिसका असर भारत के श्रीलंका जैसे छोटे पड़ोसी देशों पर भी पड़ेगा- वो उसकी विदेश और सुरक्षा के नीति निर्माताओं की मुख्य़ चिंता का विषय बन गया है?

क्या भारत को श्रीलंका की ‘इंडिया फ़र्स्ट’ की सुरक्षा नीति पर आंख मूंदकर विश्वास करना चाहिए?

28 अक्टूबर को अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो के श्रीलंका दौरे के बाद, पहली बार श्रीलंका की ‘इंडिया फ़र्स्ट’ सुरक्षा नीति का हवाला देते हुए, श्रीलंका के विदेश सचिव एडमिरल (रि.) जयंत कोलोम्बगे ने राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के द्वारा माइक पॉम्पियो को दिए एक बयान का ज़िक्र किया. गोटोबाया ने माइक पॉम्पियो से कहा था कि, ‘जब तक मैं सत्ता में हूं, तब तक मैं भारत के सामरिक हितों का बिल्कुल नुक़सान नहीं होने दूंगा.’ इसके साथ साथ कोलोम्बगे ने शिलॉन्ग स्थित थिंक टैंक एशिया कॉनफ्लुएंस द्वारा आयोजित एक वेबिनार में कहा कि भारत को भी श्रीलंका के इस संदेश को समझना होगा कि श्रीलंका, भारत के हितों को चोट पहुंचाने का काम नहीं करेगा. कोलोम्बगे ने कहा कि, ‘हमारे राष्ट्रपति और हमारी सरकार ये बात बार-बार दोहराते रहे हैं.’

पिछले साल नवंबर में देश का राष्ट्रपति चुने जाने के बाद, गोटोबाया राजपक्षे, अपनी पहली विदेश यात्रा पर जब भारत आए थे, तो ख़बरें हैं कि उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कहा था कि उनकी सरकार, अपनी विदेश और सुरक्षा नीति के मामलों में ‘इंडिया फ़र्स्ट’ को तरज़ीह देगी. 

पिछले साल नवंबर में देश का राष्ट्रपति चुने जाने के बाद, गोटोबाया राजपक्षे, अपनी पहली विदेश यात्रा पर जब भारत आए थे, तो ख़बरें हैं कि उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कहा था कि उनकी सरकार, अपनी विदेश और सुरक्षा नीति के मामलों में ‘इंडिया फ़र्स्ट’ को तरज़ीह देगी. कोलोम्बगे ने भी इस साल अगस्त में विदेश सचिव का पद ग्रहण करने के बाद कमोबेश यही बात दोहराई थी. एशिया कॉनफ्लुएंस के वेबिनार में कोलोम्बगे ने कहा था कि, ‘हम भारत की सुरक्षा के लिए न ख़तरा बनेंगे, न बन सकते हैं और न ही हमें ऐसा बनना चाहिए. बात ख़त्म’ उन्होंने आगे कहा कि, ‘हमें इस क्षेत्र में भारत की अहमियत को समझना होगा और हमें ये भी समझना होगा कि श्रीलंका भारत की समुद्री और हवाई सुरक्षा के दायरे में भी आता है. हमें उसका लाभ लेने की ज़रूरत है.’ कोलोम्बगे अपने इस बयान के माध्यम से अपने देश की उस नीति को ज़ोर देकर दोहरा रहे थे, जिसका ज़िक्र राष्ट्रपति गोटोबाया राजपक्षे पहले ही कर चुके हैं.

ये सारी बातें मिलाकर ऐसा लगता है कि श्रीलंका शायद अब भारत के प्रति अपनी वफ़ादारी को बार बार साबित करने की मांग को लेकर अपना धीरज खो रहा है. अब श्रीलंका चाहता है कि भारत भी उसकी ‘इंडिया फ़र्स्ट’ की इकतरफ़ा सुरक्षा नीति की प्रतिबद्धता पर यक़ीन करे. राष्ट्रपति गोटोबाया राजपक्षे ने भारत और श्रीलंका के संदर्भ में ये बात एक तीसरे देश के मंत्री यानी माइक पॉम्पियो के सामने कही, ये अपने आप में इस बात का सुबूत है कि श्रीलंका नहीं चाहता कि हिंद महासागर की सुरक्षा के मामले में कोई तीसरा देश, या इस क्षेत्र के बाहर की शक्ति दख़ल दे. न ही श्रीलंका और न ही अमेरिका ने दोनों देशों के बीच इस उच्च स्तरीय वार्ता के बारे में विस्तृत जानकारी दी है.

क्वॉड (QUAD) को लेकर चिंताएं

जयंत कोलोम्बगे स्वयं भी सुरक्षा मामलों के विद्वान और लेखक हैं. उन्होंने इस वेबिनार में भारत के ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका के साथ मिलकर चतुर्भुज गठबंधन (QUAD) बनाने को लेकर भी श्रीलंका की चिंताएं ज़ाहिर कीं. श्रीलंका के विदेश सचिव ने कहा कि, ‘हम देख रहे हैं कि क्वॉड में क्या हो रहा है. क्या वाक़ई हमें क्वॉड की ज़रूरत है? क्या क्वॉड से एक नए शीत युद्ध का जन्म नहीं होगा? या शायद हिंद महासागर में एक अलग क़िस्म की तनातनी का जन्म हो. ये हमारी कुछ चिंताएं हैं.’

कोलोम्बगे ने भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर के उस बयान का ज़िक्र किया जिसमें जयशंकर ने कहा था कि क्वॉड बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था के विकास की प्रक्रिया से उपजा एक प्राकृतिक संगठन है. वेबिनार में जयंत कोलोम्बगे ने कहा कि, ‘अगर ये अधिक समावेशी बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था है, तो एक छोटे देश के दौर पर श्रीलंका बहुत, बहुत ख़ुश होगा. पर ये तो हिंद महासागर में बड़ी ताक़तों की विशेषाधिकार लगते हैं और इसी क्षेत्र का देश होने के बावजूद, इसमें न श्रीलंका की भागीदारी है और न ही उसके लिए सलाह मशविरे का कोई मौक़ा?’ ऐसा लगता है कि कोलोम्बगे ने ये बात तंज़ में कही.

भारत के पास-पड़ोस के सामरिक माहौल पर नज़र रखने वाले विशेषज्ञों की नज़र में ऐसे बयान का अर्थ ये है कि हिंद महासागर का एक महत्वपूर्ण देश होने के बावजूद, क्वॉड के गठन पर न तो उससे कोई सलाह मशविरा किया गया और न ही उसे इस बारे में कोई जानकारी दी गई. जैसा कि जयंत कोलोम्बगे, जो श्रीलंका की नौसेना के प्रमुख भी रहे हैं ने कहा भी कि श्रीलंका, हिंद महासागर क्षेत्र में दो सामरिक नीतियों के संगम के मुहाने पर स्थित है. उन्होंने कहा कि, ‘मगर, दुर्भाग्य से श्रीलंका चीन के BRI और अमेरिका के हिंद-प्रशांत के दोराहे पर है.’

इस संदर्भ में कोलोम्बगे ने कहा कि उनका देश, ‘समुद्री क्षेत्र के सैन्यीकरण को लेकर बहुत फ़िक्रमंद है. ये एक तथ्य है कि वर्ष 2009 से लेकर अब तक 28 देशों के 550 से अधिक जंगी जहाज़ श्रीलंका में अपना लंगर डाल चुके हैं. ये बहुत बड़ी संख्य़ा है. ये इस बात का संकेत है कि इस क्षेत्र में सामरिक गतिविधियां कितनी तेज़ी से बढ़ रही हैं.’

वर्ष 2009 वही साल था, जब श्रीलंका में लंबे समय से चल रहे जातीय गृह युद्ध का समापन हुआ था. तमिल उग्रवादी संगठन LTTE और इसकी ताक़तवर नौसैनिक टुकड़ी, ‘सी-टाइगर्स’ को ज़मीन से लेकर समंदर तक, पूरी तरह से नेस्तनाबूद कर दिया गया था. पर इत्तेफ़ाक़ से कोलोम्बगे ने श्रीलंका के तट तक पहुंचने वाले जंगी जहाज़ो की जिस संख्या का ज़िक्र अपने बयान में किया, वो असल में उस वक़्त श्रीलंका के राष्ट्रपति रहे महिंदा राजपक्षे-जो अब देश के प्रधानमंत्री हैं- के महिंदा चिंतनाया या महिंदा के विचार वाले उस चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा है, जिसे उन्होंने पहली बार 2005 के चुनाव में जारी किया था.

इस घोषणापत्र में महिंदा राजपक्षे ने श्रीलंका को एक नौसैनिक और समुद्री व्यापार का केंद्र बनाने का वादा किया था, जिससे कि देश में नए रोज़गार का सृजन हो, परिवारों की आमदनी बढ़े और सेवा क्षेत्र में सरकार का राजस्व भी बढ़ाया जा सके. इस वादे का एक मतलब ये भी था कि श्रीलंका के पास रोज़गार के अवसर और सरकार की आमदनी बढ़ाने के लिए निर्माण के उद्योग लगाने के विकल्प बहुत सीमित थे.

पहला शिकार?

अगर हम उपरोक्त बयानों के भीतर छुपे संदेशों को पढ़ने की कोशिश करें, तो श्रीलंका इस बात से नाख़ुश है कि उसके आस-पास के क्षेत्रों का सैन्यीकरण हो रहा है और इस बात में उसे साझीदार नहीं बनाया जा रहा है. श्रीलंका का संदेश साफ़ है, ‘बड़ी ताक़तें हमारे इलाक़े में आकर अपने शक्ति प्रदर्शन का खेल खेल रहे हैं और अगर इससे किसी को नुक़सान होगा, तो पहला नंबर श्रीलंका जैसे देशों का ही होगा.’ ये बात तब और साफ़ हो गई, जब कोलम्बगे ने दोहराया कि, ‘श्रीलंका एक निष्पक्ष और गुट-निरपेक्ष देश है’, और जैसा कि वो बार-बार कहते आ रहे हैं कि, ‘हम बड़ी ताक़तों के इस खेल में ख़ुद को नहीं फंसाना चाहते हैं.’

श्रीलंका इस बात से नाख़ुश है कि उसके आस-पास के क्षेत्रों का सैन्यीकरण हो रहा है और इस बात में उसे साझीदार नहीं बनाया जा रहा है. 

राष्ट्रपति गोटोबाया की उच्च स्तरीय बैठकों में और किन मुद्दों पर बात हुई होगी, इस राज़ पर से पर्दा हटाते हुए कोलोम्बगे ने स्पष्ट किया कि उनके राष्ट्रपति ने अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ही नहीं, चीन के उच्च स्तर के विदेश नीति संबंधी अधिकारी यांग जिएची के हालिया श्रीलंका दौरे में उनसे भी यही बात साफ़ तौर से कही है.

इकतरफ़ा गठन

भारत के सामरिक समुदाय को कोलोम्बगे के इन बेबाक बयानों से मिलने वाले संकेतों को समझना होगा. वो जब से विदेश सचिव बने हैं तब से ही खुलकर श्रीलंका की विदेश और सुरक्षा नीति को कभी इशारों में तो कभी बेबाकी से बयां करते रहे हैं. सुरक्षा के मुद्दे पर श्रीलंका के साथ तनातनी की शुरुआत तो वर्ष 2005 में ही हो गई थी, जब मनमोहन सिंह की सरकार ने अमेरिका के साथ बड़ी हड़बड़ी में रक्षा सौदे पर दस्तख़त किए थे. इस बारे में उन्होंने भारत के छोटे पड़ोसी देशों को विश्वास में नहीं लिया था.\

सुरक्षा के मुद्दे पर श्रीलंका के साथ तनातनी की शुरुआत तो वर्ष 2005 में ही हो गई थी, जब मनमोहन सिंह की सरकार ने अमेरिका के साथ बड़ी हड़बड़ी में रक्षा सौदे पर दस्तख़त किए थे. इस बारे में उन्होंने भारत के छोटे पड़ोसी देशों को विश्वास में नहीं लिया था.

अब चतुर्भुज गठबंधन (QUAD) के गठन से हिंद महासागर के श्रीलंका जैसे छोटे देशों को असहाय स्थिति में छोड़ दिया है. श्रीलंका के सामरिक विशेषज्ञों के एक तबक़े के बीच ही नहीं, आज वहां के विदेश और सुरक्षा नीति निर्माताओं के लिए भी ये एक बड़ी चिंता का विषय बन गया है. कुछ लोगों का तो ये भी मानना है कि भारत, दक्षिण एशिया एक बड़ा और सबसे शक्तिशाली देश होने के बावजूद, राजनीतिक हो या सामरिक, दोनों ही मोर्चों पर, ‘श्रीलंका को हल्के में लेता आया है.’

श्रीलंका के कुछ सामरिक विशेषज्ञ, बांग्लादेश युद्ध (1971) के पहले से ही और श्रीलंका में भारत के शांति मिशन (1987) के बाद तक, भारत पर नज़र रखते आए हैं. उनका मानना है कि श्रीलंका में सामरिक और सुरक्षा संबंधी मुद्दों पर, और ख़ास तौर से सत्ता में आने की संभावना रखने वाले सिंहल राजनीतिक दलों के बीच एक राष्ट्रीय आम सहमति है. ये ठीक उसी तरह है जैसे, ‘भारत की मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार शीत युद्ध के बाद के अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों की विदेश और सुरक्षा नीतियों को ही आगे बढ़ा रहे हैं.’

अब अगर सवाल श्रीलंका के अपने हंबनटोटा बंदरगाह को ठेके पर चीन को देने का है, तो श्रीलंका बार-बार ये बताता आया है कि किस तरह उसने इस बंदरगाह को पहले भारत को ठेके पर देने का प्रस्ताव रखा था और कई बार ये प्रस्ताव दिया गया. श्रीलंका के अनुसार, तब से ही वहां की सरकारें भारत की सुरक्षा संबंधी चिंताओं को ध्यान में रखकर क़दम उठाती आई हैं. इस संदर्भ में, उनका तर्क ये है कि जब शुरू में भारत ने हंबनटोटा बंदरगाह में निवेश करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, तो अब उसे इस बात की शिकायत करने का कोई हक़ नहीं कि श्रीलंका ने इसे चीन को ठेके पर क्यों दिया? एक बार भारत ने प्रस्ताव ठुकरा दिया, तो फिर श्रीलंका अपने यहां किसी भी देश से किन्हीं शर्तों पर निवेश हासिल करने को स्वतंत्र रहना चाहिए, ख़ास तौर से जब श्रीलंका ने भारत से ये वादा किया है कि वो भारत के सुरक्षा हितों का ख़याल रखेगा, क्योंकि ‘दोनों देशों के हित आपस में मिलते हैं’. श्रीलंका के विशेषज्ञों का मानना है कि, ‘तब हो या अब केवल चीन के पास ही निवेश के लायक़ पैसे हैं और दुनिया के ऐसे किसी भी देश या संगठन को, जिसे हंबनटोटा में चीन के निवेश पर ऐतराज़ है, उसने ख़ुद से यहां चीन के बदले अपने पैसे लगाने का कोई प्रस्ताव नहीं दिया.’

अगर सवाल श्रीलंका के अपने हंबनटोटा बंदरगाह को ठेके पर चीन को देने का है, तो श्रीलंका बार-बार ये बताता आया है कि किस तरह उसने इस बंदरगाह को पहले भारत को ठेके पर देने का प्रस्ताव रखा था और कई बार ये प्रस्ताव दिया गया. 

कोलंबो स्थित अख़बार संडे टाइम्स ने (1 नवंबर 2020 को) ख़बर दी थी कि, श्रीलंका के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम, श्रीलंका पोर्ट अथॉरिटी ने उसके बाद कोलंबो बंदरगाह के ईस्टर्न कंटेनर टर्मिनल (ECT) को भारत के अडानी समूह के हवाले कर दिया है. ये प्रोजेक्ट तीन देशों का है, जिसमें जापान भी शामिल है. मगर, राजपक्षे के सत्ता में वापस आने के बाद इसके भविष्य पर प्रश्नचिह्न लग गया था. हालांकि, कोलोम्बगे ने विदेश सचिव बनने के बाद अपने पहले ही इंटरव्यू में कहा था कि वो कोलंबो बंदरगाह को लेकर भारत के तर्क से सहमत हैं क्योंकि, इस बंदरगाह से होने वाला 70 प्रतिशत कारोबार भारत के साथ ही होता है.

इस पूरे परिदृश्य को देखते हुए, सवाल ये उठता है कि आख़िर भारत ने अपने प्रति ‘अधिक दोस्ताना रवैया’ रखने वाली विक्रमसिंघे की सरकार को क्वॉड (QUAD) जैसे सुरक्षा संबंधी क़दमों को लेकर विश्वास में क्यों नहीं लिया? और हां, जैसा कि विदेश सचिव जयंत कोलोम्बगे ने विदेश मंत्री जयशंकर का हवाला देकर कहा भी कि अगर क्वॉड का मतलब चार देशों के बीच सिर्फ़ सुरक्षा सहयोग ही नहीं है, तो इसके साझीदारों को उन विषयों पर और पारदर्शी रुख़ अपनाना चाहिए था. अगर इसमें कोई गोपनीय एजेंडा नहीं था, तो फिर QUAD देशों को हिंद महासागर क्षेत्र के अन्य देशों जैसे श्रीलंका से भी संवाद करके उन्हें इसके लिए राज़ी करना चाहिए था.

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