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इसमें ख़ास बात यह है कि मध्य-पूर्व की, जिओ-पॉलिटिक्स में विदेशी लड़ाके रखने का चलन मध्य एशिया में भी आ गया है, जहां कथित रूप से प्राइवेट ठेकेदारों के मार्फ़त तुर्की ने विदेशी लड़ाके ‘किराए पर’ रखें हैं जो अज़रबैजान में अज़ेरी सेना के साथ मिलकर बॉर्डर गार्ड्स के तौर पर काम करेंगे.
नागोर्नो-कराबाख़ के विवादित क्षेत्र को लेकर अज़रबैजान और आर्मेनिया के बीच हाल में शुरू हुई लड़ाई एक अंतरराष्ट्रीय घटना बन गई है, जिसमें तुर्की ने अज़रबैजान के प्रति अपना समर्थन जताया है, जबकि रूस के आर्मेनिया के साथ है, और सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन (CSTO) के माध्यम से इसकी सुरक्षा की गारंटी देता है. इसमें ख़ास बात यह है कि मध्य-पूर्व की, जिओ-पॉलिटिक्स में विदेशी लड़ाके रखने का चलन मध्य एशिया में भी आ गया है, जहां कथित रूप से प्राइवेट ठेकेदारों के मार्फ़त तुर्की ने विदेशी लड़ाके ‘किराए पर’ रखें हैं जो अज़रबैजान में अज़ेरी सेना के साथ मिलकर बॉर्डर गार्ड्स के तौर पर काम करेंगे.
सबसे पहले, नागोर्नो-काराबाख़ संकट अपने आप में जिओ-पॉलिटिक्स की आधुनिक प्रवृत्ति का बहुत ही दिलचस्प अध्ययन का मौका देता है, जिसमें यह समझना ज़रूरी है कि कुछ देश अपनी संप्रभु सेना के साथ सीधे शामिल होने के बजाय, अन्य देशों को हथियारबंद करने के लिए क्यों पैसा खर्च करेंगे. अज़ेरी-आर्मेनियाई झगड़े में अज़ेरी में 80% से अधिक शिया हैं जिसे सुन्नी-इस्लामी देश तुर्की द्वारा समर्थन दिया जा रहा है, जबकि शिया शासन वाला देश ईरान कथित रूप से आर्मेनिया का समर्थन कर रहा है, जो बहुसंख्यक ईसाई राष्ट्र है. यह नाटक रणनीतिक और सामरिक उद्देश्य बनाम हितों की एक दिलचस्प झलक दिखाता है, जिसमें हित विदेश नीति में अधिक मज़बूत कारक बन गए हैं, खासकर जब दीर्घकालिक दृष्टिकोण से देखा जाए.
अज़ेरी-आर्मेनियाई झगड़े में अज़ेरी में 80% से अधिक शिया हैं जिसे सुन्नी-इस्लामी देश तुर्की द्वारा समर्थन दिया जा रहा है, जबकि शिया शासन वाला देश ईरान कथित रूप से आर्मेनिया का समर्थन कर रहा है, जो बहुसंख्यक ईसाई राष्ट्र है.
आधुनिक राष्ट्र देशों की विचारधारा के इर्द-गिर्द परिभाषित ‘हितों’ की सुरक्षा अक्सर सरकारों को समानांतर या ‘प्रॉक्सी (छद्म)’ युद्ध का सहारा लेने के लिए मजबूर करती है, जो सीधे सैन्य टकराव में शामिल नहीं हो रही है, लेकिन साथ ही जिओ-पॉलिटिक्स संघर्ष से अप्रत्यक्ष रूप से लड़ रही है — कई बार किसी तीसरे पक्ष की ज़मीन पर. 1964 में प्रसिद्ध पॉलिटिकल साइंटिस्ट कार्ल डोएच ने प्रॉक्सी युद्ध को परिभाषित करते हुए कहा था, ‘दो विदेशी शक्तियों के बीच एक अंतरराष्ट्रीय संघर्ष, जो तीसरे देश की ज़मीन पर लड़ा जाता है; उस देश के आंतरिक मुद्दे की आड़ लेते हुए; और उस देश की कुछ मानवशक्ति, संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए प्रत्यक्षतः विदेशी लक्ष्यों और विदेशी रणनीतियों को हासिल करने का साधन है.’ हालांकि तब से हालात बहुत बदल चुके हैं. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के दौर में संघर्ष की प्रकृति बदल गई, फिर भी राष्ट्र-शासित सशस्त्र बल लड़ाई का प्रमुख जत्था बने रहे. 1990 के दशक के बाद के सोवियत काल में बड़े पैमाने पर वैश्वीकरण, टेक्नोलॉजी में प्रगति और नए पहलुओं और चुनौतियों के जुड़ने के साथ जिओ-पॉलिटिक्स और युद्ध के स्वरूप में बहुत बदलाव आया है. यह संभवतः 2000 के दशक के मध्य में अमेरिकी कारोबारी और पूर्व अमेरिकी नेवी सील एरिक प्रिंस द्वारा संचालित सिक्योरिटी कंपनी ब्लैकवाटर को लेकर कई विवादों में सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित हुआ, जिसने 9/11 के बाद इराक़ में अमेरिकी युद्ध के कई हिस्सों का निजीकरण किया था. शायद पहली बार इतने बड़े पैमाने पर युद्ध से बाज़ार-स्वीकार्य मुनाफाख़ोरी का सबसे भोंडा रूप (प्रिंस अभी भी सक्रिय है, अब वह चीन के साथ काम करने की कोशिश कर रहा है) दिखा था.
स्कॉलर पीटर डब्ल्यू. सिंगर इस विचारधारा में तीन आयाम शामिल करते हुए उन पर प्रकाश डालते हैं जिनके कारण ‘प्राइवेट मिलिट्री इंडस्ट्री’ का उदय हुआ — शीत युद्ध की समाप्ति, सैनिकों और नागरिकों के बीच युद्ध की रेखाओं का धुंधला हो जाना और सरकारी कामकाज का निजीकरण व आउटसोर्सिंग के प्रति आम रुझान. सिंगर अपने शोध में बताते हैं कि अमेरिकी सैन्य प्रतिष्ठानों के भीतर ये बदलाव कैसे आए. हालांकि, युद्ध की ऐसी विचारधारा में बड़ा योगदान कुछ देशों का वातावरण आंतरिक रूप से संघर्ष के लिए अधिक उपजाऊ होना था, जैसे कि मध्य पूर्व.
सीरिया के लड़ाके हालात और ज़मीनी हक़ीक़तों का एक मिश्रण हैं. कई लड़ाके जो लीबिया या अब अज़रबैजान जैसे संघर्ष के दूसरे मोर्चों में अपनी मंज़िल तलाश रहे हैं, जरूरी नहीं कि वे आतंकवादियों, लड़ाकों, इस्लामपरस्तों और ऐसी ही किसी एक जैसी पृष्ठभूमि से आते हों.
साल 2010 के अंत से सीरियाई गृहयुद्ध में हिंसा के एक अंतहीन सिलसिले में ऊपर वर्णित रणनीतियों के विभिन्न स्वरूपों को देखा गया है. 2014 में तथाकथित इस्लामिक स्टेट (ISIS) के आधिकारिक उदय के बाद से इसने टेक्नोलॉजी और युद्ध कौशल और नेतृत्व के लिए विदेशी लड़ाकों पर भरोसा किया, जिन्हें ईरान की उस फ़ातेमियान ब्रिगेड का सामना करना था जिसमें सीरिया में ISIS और अन्य गुटों के खिलाफ अलेप्पो, हमा, दीयर इज़ोर, होम्स और ऐसी तमाम जगहों पर युद्ध में शामिल हो चुके युवा अफगान पुरुष भी शामिल थे. इस कदम ने ईरान के कुख्यात इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कोर (IRGC) को सीरियाई युद्ध में ईरानी हताहतों की संख्या को कम रखने का मौका दिया, जबकि देश पाबंदियों और अपनी सरहदों से परे लड़ाइयों पर खर्च किए जा रहे धन के कारण आर्थिक संकट से गुजर रहा था और जनता सवाल पूछ रही थी. यह तरीक़ा सिर्फ़ सीरिया, उत्तरी अफ़्रीका, लीबिया में ही ख़त्म नहीं हो जाता है. रूस ने त्रिपोली सरकार के खिलाफ लड़ाई में भगोड़े जनरल खलीफा हफ़्तार की मदद के लिए वैगनेर ग्रुप के भाड़े के सैनिकों को तैनात किया. इसके जवाब में, एक बार फिर अति उत्साही तुर्की पर रूस और यूएई द्वारा समर्थित हफ़्तार के खिलाफ़ लीबिया सरकार की मदद के लिए सीरिया से लड़ाके भेजने का आरोप है.
सीरिया के लड़ाके हालात और ज़मीनी हक़ीक़तों का एक मिश्रण हैं. कई लड़ाके जो लीबिया या अब अज़रबैजान जैसे संघर्ष के दूसरे मोर्चों में अपनी मंज़िल तलाश रहे हैं, जरूरी नहीं कि वे आतंकवादियों, लड़ाकों, इस्लामपरस्तों और ऐसी ही किसी एक जैसी पृष्ठभूमि से आते हों. हालांकि लीबिया में तुर्की की ओर से लड़ रहे लोगों को लेकर अधिकतम संभावना यही है, वे कट्टरपंथी लड़ाके होंगे जो तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप अर्दोआन की स्वयंभु सुन्नी रहनुमा की छवि को पसंद करते हों और अंकारा के क्षेत्रीय जिओ-पॉलिटिकल अभियानों के समर्थन में ऐसा करते हैं, जिनमें से एक अज़रबैजान में किया जा रहा है, रिपोर्टों के अनुसार प्राइवेट ठेकेदार द्वारा भर्ती किए गए ये ऐसे लोग होते हैं जो अपने देश में आर्थिक तंगी से परेशान होते हैं, और इसे सिर्फ़ एक नौकरी के रूप में देखते हैं, जिसके लिए उन्हें पैसा मिलता है. नागोर्नो-काराबाख़ में मारे गए सीरियाई लड़ाकों के सोशल मीडिया पर पोस्ट किए गए वीडियो और फ़ोटो में कुछ की पहचान ऐसे लोगों के रूप में हुई है, जो सामान्य परिवारों से थे और जिनका किसी आतंकी समूह के साथ जुड़ाव का कोई इतिहास नहीं था. हालांकि, किसी दूसरे देश के लिए किसी तीसरे देश की ज़मीन पर लड़ने के लिए एक अच्छे भुगतान का लालच, शायद कई सीरियावासियों के लिए अनदेखा करना बहुत मुश्किल है. सिद्धांत रूप में, यह वही मॉडल है जो फ़ातेमियान ब्रिगेड द्वारा अपनाया गया था, अफ़ग़ान पुरुषों को ईरान ले जाने, और फिर तेहरान के लिए लड़ने को सीरिया में पहुंचाया गया. यह मॉडल पिछले कुछ सालों में रूस, ईरान और तुर्की जैसे देशों के लिए अधिक दृश्यमान और कारगर है.
तुर्की के लिए अर्दोआन जैसे नेतृत्व से प्रोत्साहित, जिसने तुर्की सरहदों पर तक़रीबन चारों ओर समस्याएं पैदा कर ली हैं और लीबिया से लेकर भूमध्यसागर तक सैन्य दख़ल और ग्रीस जैसे देशों के साथ टकराव, यूरोपियन यूनियन से जुड़ाव की कोशिश में रुकावट और उत्तरी सीरिया में सक्रिय सैनिक उपस्थिति व ज़मीनी कब्ज़े के बीच, युद्ध की ‘आउटसोर्सिंग’ आर्थिक रूप से कारगर विकल्प बन जाता है. सऊदी अरब, यूएई और क़तर के बीच जीसीसी में आंतरिक झगड़े के दौरान, अर्दोआन ने तुर्की की सैन्य टुकड़ी की दोहा में तैनाती कर अपनी विदेश नीति के तौर पर सेना के इस्तेमाल का संकेत दिया. हालांकि आखिरकार, इस सबका भार अपेक्षाकृत नाज़ुक तुर्की अर्थव्यवस्था नहीं सभाल पा रही है, ख़ासतौर से कोरोनाकाल के दौरान.
एक और देश जहां निकट भविष्य में इस तरह के ‘अनुबंधित’ प्राइवेट लोग तैनात किए जा सकते हैं, वह है अफ़ग़ानिस्तान क्योंकि अमेरिका के यहां से निकलने की जल्दबाज़ी में पीछे महत्वपूर्ण सुरक्षा स्थान ख़ाली हो जाएगा. प्राइवेट सेक्टर अतीत में इस तरह के ख़ालीपन को भरने से पीछे नहीं हटा है, और इस प्राइवेट सेक्टर की क्षमताएं सरहदों पर सिर्फ सिक्योरिटी गार्डों से बहुत आगे तक जाती हैं. इराक़ इसका एक प्रमुख उदाहरण है. जिन कंपनियों का डिफेंस उद्योग से कोई लेना-देना नहीं है, वह भी वहां पैसा बनाने का मौका देख रही हैं. उदाहरण के लिए अमेरिकी एनर्जी कंपनी हॉलिबर्टन ने सार्वजनिक जानकारी में डिफेंस इसका बुनियादी कारोबार नहीं होने के बावजूद 2000 के दशक के मध्य में अन्य ऑपरेशंस के अलावा, ब्रिटिश और अमेरिकी सेना से सैनिक टुकड़ियों को अफ़ग़ानिस्तान पहुंचाने के लिए कई अनुबंध हासिल किए.
एक और देश जहां निकट भविष्य में इस तरह के ‘अनुबंधित’ प्राइवेट लोग तैनात किए जा सकते हैं, वह है अफ़ग़ानिस्तान क्योंकि अमेरिका के यहां से निकलने की जल्दबाज़ी में पीछे महत्वपूर्ण सुरक्षा स्थान ख़ाली हो जाएगा. प्राइवेट सेक्टर अतीत में इस तरह के ख़ालीपन को भरने से पीछे नहीं हटा है
सीरिया, यमन, इराक़ जैसे अनसुलझे संकट स्थल और ईरान व खाड़ी देशों द्वारा पैदा किए प्रॉक्सी युद्ध सैनिकों की एक ऐसी अर्थव्यवस्था बना रहे हैं जो आर्थिक लाभ के बदले में लड़ने में सक्षम और तैयार हैं. यह बड़े पैमाने पर वर्षों से पूरे देश के आर्थिक पतन के चलते हो रहा है, और जरूरी नहीं कि इस्लामी आतंकवादी समूहों और कट्टरता से ऐसा है. हालांकि, प्राइवेट ठेकेदारों की तरह, इस्लामपरस्त समूह भी लड़ाका बल बनाए रखने के लिए इसी तरह के तरीके़ अपनाते हैं.
अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भाड़े के लिए बेकाबू प्राइवेट लड़ाकों की भर्ती के इन रुझानों पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए, जो आज नागोर्नो-काराबाख़ जैसे क्षेत्रीय लड़ाइयों में आसानी से तैनात कर दिए गए हैं. तथ्य यह है कि तुर्की ‘किराए’ पर लेने और तीसरे पक्ष के लड़ाकूों को एयरलिफ्ट करने में सक्षम था और उन्हें सिर्फ़ नाममात्र की तैनाती वाला हवाई कवर प्रदान करता है. इस खेल में उसे ज़बरदस्त दो-तरफ़ा सामरिक और रणनीतिक सफलता मिली है, पहली विशुद्ध रूप से सैन्य है, और दूसरी और शायद अधिक महत्वपूर्ण रूप से विदेशी धरती पर संघर्ष शुरू करने और अपने सैनिकों की तैनाती न कर हताहतों की स्थिति में नेतृत्व के खिलाफ घरेलू राजनीति में उबाल पैदा होने से बचा लिया गया है. नागोर्नो-काराबाख़ में तुर्की की पहलकदमी को पाकिस्तान जैसे देशों का समर्थन मिला, और सोशल मीडिया हैंडल पर बाकू के पक्ष में अर्दोआन के कदमों को समर्थन और तारीफ़ मिली. प्रॉक्सी युद्ध में इस्लामाबाद के खुद के अनुभव और समर्थन के बारे में पूरी दुनिया जानती है.
इस खेल में उसे ज़बरदस्त दो-तरफ़ा सामरिक और रणनीतिक सफलता मिली है, पहली विशुद्ध रूप से सैन्य है, और दूसरी और शायद अधिक महत्वपूर्ण रूप से विदेशी धरती पर संघर्ष शुरू करने और अपने सैनिकों की तैनाती न कर हताहतों की स्थिति में नेतृत्व के खिलाफ घरेलू राजनीति में उबाल पैदा होने से बचा लिया गया है.
अंतरराष्ट्रीय बहुपक्षीय संस्थानों को सीरिया से बाहर जाने वाले किराए के सैनिकों के इस रुझान को उन घटनाओं के रूप में लेना चाहिए, जिन्हें अपने सामरिक फ़ायदे के लिए आगे भी गृह युद्ध की स्थितियों का फ़ायदा उठाने की राह देख रहे देशों द्वारा इस्तेमाल किया जाएगा. इन पर लगाम लगाने के लिए अंतरराष्ट्रीय कानून बनाने की फ़ौरन ज़रूरत है. जिस तरह परमाणु प्रसार, रासायनिक हथियारों आदि के खिलाफ संस्थाएं हैं, विदेशी नागरिकों का युद्धकाल में इस तरह उत्पादों के रूप में इस्तेमाल के खिलाफ न्यायपूर्ण व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे कि संघर्ष में स्थानीय क्षेत्रीय समुदायों और साथ ही वैश्विक रक्षा ढांचे की सुरक्षा की जा सके.
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Kabir Taneja is a Deputy Director and Fellow, Middle East, with the Strategic Studies programme. His research focuses on India’s relations with the Middle East ...
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