Author : Kabir Taneja

Published on Aug 31, 2020 Updated 0 Hours ago

ईरान से भारत के अच्छे संबंध हैं. ईरान से भारत के सामरिक हित भी जुड़े हुए हैं. मगर, ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर अमेरिका के विरोध के चलते, भारत को ईरान के साथ अपने सामरिक हित साधने के लिए दुधारी तलवार पर चलना पड़ रहा है.

ईरान पर ज़ुबानी हमले के दौरान अमेरिका के विदेश मंत्री ने भारत का ज़िक्र क्यों किया

जुलाई में अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक भाषण ऑनलाइन दिया. इसमें पॉम्पियो ने चेतावनी दी कि ईरान के ऊपर हथियार ख़रीदने को लेकर जो प्रतिबंध लगे हैं, उनकी अवधि इस साल अक्टूबर महीने में समाप्त हो रही है. ऐसा होने पर ईरान, रूस और चीन की मदद से अपने आपको हथियारबंद कर लेगा. पॉम्पियो ने सुरक्षा परिषद के सदस्यों को चेतावनी भरे लहज़े में कहा कि, ‘अगर आप ईरान के ख़िलाफ़ सख़्त प्रतिबंध लगाने में नाकाम रहते हैं, तो ईरान, रूस में बने लड़ाकू जहाज़ ख़रीदने के लिए स्वतंत्र होगा. ये फाइटर प्लेन तीन हज़ार किलोमीटर दूर तक प्रहार करने में सक्षम होंगे. और ईरान अगर ये लड़ाकू विमान रूस से ख़रीद लेता है, तो इससे रियाद, नई दिल्ली, रोम और वॉर्सा जैसे शहर ईरान के हमले की ज़द में आ जाएंगे.’ इससे पहले, 23 जून को एक ट्वीट में अमेरिका के विदेश मंत्री ने यही तर्क दिया था. उन्होंने ईरान के रूस और चीन से हथियार ख़रीदने का भय दिखाते हुए एक नक़्शा भी ट्वीट किया था. जिसके ज़रिए पॉम्पियो ने बताने की कोशिश की थी कि अगर ईरान पर लगे प्रतिबंधों की अवधि ख़त्म हो गई, तो उसकी फौज के दायरे में एशिया के साथ-साथ यूरोप भी होगा.

ईरान के साथ भारत के संबंध बहुत अच्छे रहे हैं. ईरान से भारत के सामरिक हित भी जुड़े हुए हैं. मगर, ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर अमेरिका के विरोध के चलते, भारत को ईरान के साथ अपने सामरिक हित साधने के लिए दुधारी तलवार पर चलना पड़ रहा है.

ईरान के ख़िलाफ़ ये बयानबाज़ी और दुनिया को उसकी सामरिक शक्ति का भय दिखाना, अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की विदेश नीति का एक स्थायी तत्व रही है. जबकि, ट्रंप ने राष्ट्रपति बनने के साथ ही ईरान के परमाणु कार्यक्रम के संबंध में सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों और जर्मनी के साथ हुए ईरान के समझौते (Joint Comprehensive Plan of Action-JCPOA) से अमेरिका को अलग कर लिया था. ये समझौता वर्ष 2015 में कई महीनों की थका देने वाली वार्ता के बाद हुआ था. जिसका अंत, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 2231 के रूप में हुआ था. ईरान के साथ समझौते से अलग होने के बाद डोनाल्ड ट्रंप को दुनिया के तमाम देशों से वो समर्थन नहीं हासिल हो सकता है, जिसकी मदद से वो ईरान पर समुचित दबाव बनाकर उसे अलग थलग कर सकें. हाल के महीनों में यूरोपीय देशों ने ईरान के साथ व्यापार करने के लिए एक अलग तरीक़ा निकाल लिया है. अब यूरोपीय देशों ने INSTEX नाम की व्यवस्था की है. जिसके माध्यम से ईरान और यूरोपीय देश आपस में व्यापार कर सकते हैं. वहीं, चीन तो अब खुलेआम अमेरिका से ये सवाल कर रहा है कि जब वो JCPOA का सदस्य ही नहीं रहा, तो किस आधार पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के माध्यम से ईरान पर एकतरफ़ा प्रतिबंध लगा रहा है.

ईरान के साथ भारत के संबंध बहुत अच्छे रहे हैं. ईरान से भारत के सामरिक हित भी जुड़े हुए हैं. मगर, ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर अमेरिका के विरोध के चलते, भारत को ईरान के साथ अपने सामरिक हित साधने के लिए दुधारी तलवार पर चलना पड़ रहा है. ट्रंप से पहले बराक ओबामा के शासनकाल में भारत पर अमेरिका ने ये दबाव बनाया था कि वो ईरान से तेल की ख़रीद कम कर दे. जबकि, तेल की ख़रीद-फ़रोख़्त, ईरान और भारत के व्यापारिक रिश्तों की धुरी रही है. भारत में ऊर्जा की भारी मांग की पूर्ति करने में ईरान हमेशा से ही चोटी के तीन देशों में शामिल रहा था. लेकिन, बराक ओबामा के शासन काल में भारत ने ईरान से तेल की ख़रीद इतनी कम कर दी थी, कि भारत को तेल निर्यात करने वाले देशों की सूची में ईरान सातवें नंबर पर आ गया था. इसकी वजह ये थी कि ईरान के साथ अच्छे संबंध बनाए रखते हुए, भारत को अमेरिका के दबाव का भी सामना करना पड़ रहा था. कहा जाता है कि भारत ने भी द्विपक्षीय वार्ताओं में ईरान को इस बात के लिए प्रेरित किया था कि वो अपने परमाणु कार्यक्रम को जारी रखने के लिए JCPOA समझौता कर ले. भारत ने हमेशा ही ईरान को ये समझाने की कोशिश की थी कि इस समझौते से ईरान के आर्थिक और राजनीतिक हित और ज़्यादा सधेंगे.

ओबामा के कार्यकाल के दौरान, भारत ने अमेरिका से इस बात की रियायत हासिल कर ली थी कि वो ईरान से ख़रीदे जा रहे तेल की क़ीमत का भुगतान तुर्की के हल्क बैंक के माध्यम से कर सके.

इस समझौते के लिए बातचीत के दौरान, भारत ने ईरान से तेल की ख़रीद लगातार जारी रखी थी. इसका भुगतान कोलकाता स्थित एक बैंक खाते में जमा किया जाता था. एक समय में ईरान को दी जाने लिए कोलकाता के बैंक में जमा होने वाली ये रक़म छह अरब डॉलर तक पहुंच गई थी. समझौता वार्ता के दौरान आर्थिक संकट का सामना कर रहे ईरान ने भारत पर इस बात का दबाव बनाया था कि वो तेल के दाम का भुगतान कर दे. ईरान ने अपने एक बैंक की शाखा मुंबई में खोलने का भी प्रस्ताव रखा था और किसी तीसरे देश के माध्यम से भुगतान करने का सुझाव भी भारत को दिया था. लेकिन, उस समय भारत ने ईरान के बैंक की एक शाखा मुंबई में खोलने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था. क्योंकि, भारत नहीं चाहता था कि वो ओबामा के राज वाले अमेरिका से अपने संबंधों में कोई और पेचीदगी पैदा करे. ओबामा के कार्यकाल के दौरान, भारत ने अमेरिका से इस बात की रियायत हासिल कर ली थी कि वो ईरान से ख़रीदे जा रहे तेल की क़ीमत का भुगतान तुर्की के हल्क बैंक के माध्यम से कर सके. आज की तारीख़ में हल्क बैंक को लेकर अमेरिका में ज़बरदस्त राजनीति हो रही है, क्योंकि हल्क बैंक पर अमेरिका में एक केस चल रहा है. उस पर आरोप ये है कि कि उसने ईरान की कुछ कंपनियों की ओर से अमेरिका में लेन-देन किया. जिससे कि वो अमेरिका द्वारा ईरान पर लगाए गए प्रतिबंधों से बच भी जाए और ईरान के व्यापारिक हित भी सध सकें. इस बीच, भारत ने जनवरी 2019 में ईरान के बैंकों को अपनी शाखाएं मुंबई शहर में खोलने की इजाज़त दे दी. इस बार भारत का तर्क ये था कि उसे सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण चाबहार बंदरगाह के प्रोजेक्ट से संबंधित भुगतान के लिए ऐसी व्यवस्था करनी ज़रूरी है. हालांकि, भारत ने ईरान को अपने यहां बैंकों की शाखाएं खोलने की इजाज़त उस दौर में दी थी, जब उस पर ट्रंप प्रशासन की ओर से इस बात का भारी दबाव था कि वो ईरान पर क़ाबू पाने में अमेरिका की मदद करे. ये वो दौर था जब जॉन बोल्टन अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे. बोल्टन को ईरान के मामले में बेहद कट्टरपंथी रुख़ वाला माना जाता था. भारत अपनी सामरिक स्वायत्तता बनाने के लिए अमेरिका द्वारा डाले जा रहे इस दबाव का कड़ा विरोध कर रहा था कि वो ईरान से सभी तरह के संबंध ख़त्म कर ले. ये ईरान को लेकर अमेरिकी सरकार की नीतियों और मक़सद के ख़िलाफ़ था. अप्रैल 2019 में आई ख़बरों के मुताबिक़, अमेरिका ने ये दावा किया था कि ईरान पर लगाए गए नए प्रतिबंधों से भारत के लिए सामरिक रूप से महत्वपूर्ण चाबहार बंदरगाह प्रोजेक्ट पर कोई असर नहीं पड़ेगा. क्योंकि, भले ही ये बंदरगाह ईरान में हो, मगर इससे अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान जैसे देशों में अपने हित साधने में मदद मिलेगी. भले ही वो सहायता सीमित स्तर पर ही क्यों न हो. इससे पूर्व भारत के दौरे पर आ रहे अमेरिकी अधिकारी, भारत पर ये दबाव लगातार बनाए हुए थे कि वो अमेरिका के 2017 के क़ानून CAATSA (Countering America’s Adversaries through Sanctions Act) के दायरे में आ सकता है. अमेरिका के इस दबाव का सीधा असर, न केवल भारत और ईरान के संबंधों पर पड़ रहा था. बल्कि, इससे रूस और भारत के बीच हुआ वो रक्षा समझौता भी खटाई में पड़ता नज़र आ रहा था, जिसके तहत भारत ने रूस से S-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम ख़रीदा था.

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने विश्व कूटनीति में अपना ख़ास स्टाइल विकसित किया है. जिसमें वो इस हाथ दे और उस हाथ ले के रास्ते पर चलते हैं. आज जब चीन के साथ सीमा पर भारत का तनाव है, तो अमेरिका और भारत के बीच सामरिक संबंध और तेज़ी से विकसित होने की चर्चा चल रही है.

भले ही अमेरिका, ईरान के संदर्भ में भारत को कभी-कभार रियायतें देता रहा है. लेकिन, दोनों देशों के संबंध में ईरान एक कांटे की तरह चुभता रहा है. आज की तारीख़ में जब भारत, विश्व स्तर पर ख़ुद को अमेरिका की रीति-नीति के ज़्यादा क़रीब देखता है. दोनों देशों के हित एक समान होते जा रहे हैं. दोनों देशों के क़रीब आने की एक वजह चीन का बढ़ता राजनीतिक और सामरिक प्रभाव भी है. लेकिन, हाल के दिनों में लद्दाख में चीन की सेना द्वारा भारत के बीस सैनिकों की हत्या को लेकर अमेरिका द्वारा चीन के ख़िलाफ़ कड़ी बयानबाज़ी के बावजूद, अमेरिका को ये समझना पड़ेगा कि दुनिया में सिर्फ़ उसी के हित अहम नहीं हैं. उसे भारत के हितों का भी ध्यान रखना होगा. बल्कि हक़ीक़त तो ये है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की परिचर्चा में पॉम्पियो के भाषण के बाद चीन ने एक बयान जारी किया. इसमें चीन ने अमेरिका से कहा कि वो ईरान के ख़िलाफ़ एकतरफ़ा प्रतिबंध लगाने की प्रक्रिया शुरू करने से परहेज़ करे. चीन के ईरान के साथ खड़े होने की एक वजह ये भी है कि ईरान, चीन के महत्वाकांक्षी बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) प्रोजेक्ट का एक सदस्य भी है. संयुक्त राष्ट्र में चीन के स्थायी प्रतिनिधि झैंग जुन ने अपने बयान में कहा कि, ‘मौजूदा संकट की सबसे बड़ी वजह ये है कि अमेरिका ने मई 2018 में ईरान के साथ हुए 6 देशों के समझौते से ख़ुद को अकेले ही अलग कर लिया था और ईरान पर एकतरफ़ा प्रतिबंध लगा दिए थे. हम अमेरिका से अपील करते हैं कि वो ईरान पर अवैध रूप से एकतरफ़ा पाबंदियां लगाना बंद करे. और ईरान को डराना धमकाना भी बंद करे. इसके बजाय अमेरिका को दोबारा JCPOA में शामिल होना चाहिए और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 2231 का पालन करना चाहिए.’

भले ही अमेरिका, ईरान के संदर्भ में भारत को कभी-कभार रियायतें देता रहा है. लेकिन, दोनों देशों के संबंध में ईरान एक कांटे की तरह चुभता रहा है. आज की तारीख़ में जब भारत, विश्व स्तर पर ख़ुद को अमेरिका की रीति-नीति के ज़्यादा क़रीब देखता है.

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने विश्व कूटनीति में अपना ख़ास स्टाइल विकसित किया है. जिसमें वो इस हाथ दे और उस हाथ ले के रास्ते पर चलते हैं. आज जब चीन के साथ सीमा पर भारत का तनाव है, तो अमेरिका और भारत के बीच सामरिक संबंध और तेज़ी से विकसित होने की चर्चा चल रही है. इस दौरान, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपने भाषण में अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो का भारत का ज़िक्र करना, भारत के लिए एक और अवसर लेकर आया है. जिसका फ़ायदा उठाते हुए भारत को चाहिए कि अमेरिका के उस दृष्टिकोण को मज़बूती से बदलने की कोशिश करे, जिसके तहत अमेरिका हमेशा ये सोचता है कि उसके हितों पर ख़तरा मंडरा रहा है. हालांकि, ट्रंप की ख़ास कूटनीतिक स्टाइल को देखते हुए ये भी कहा जा सकता है कि कई बार अमेरिका से आने वाले बयान, बस बयान ही होते हैं. उनको लेकर बहुत गंभीर होने का कोई औचित्य नहीं बनता. पर, मौजूदा विश्व व्यवस्था में बयानों के भीतर राजनीतिक और सामरिक निहितार्थ छुपे होते हैं. भले ही कोई बयान अचानक दे दिया गया हो, या फिर सोच समझ कर दिया गया हो. विश्व कूटनीति के क्षेत्र, में बीच का रास्ता बड़ी तेज़ी से संकरा होता जा रहा है.

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