Author : Sunjoy Joshi

Published on Jul 04, 2020 Updated 0 Hours ago

ऐसे समय में भारत और चीन के बीच सीमा पर सैन्य टकराव चल रहा हो तो रूस का महत्व कम नहीं होता बल्कि बढ़ जाता है क्योंकि दुश्मन का दोस्त कई बार दुश्मन को नियंत्रित करने में ज्यादा कामयाब और सफल होता है.

चीन के साथ भारत की लड़ाई में रूस किसका साथ देगा?

भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने अपने हालिया दौरे में रूस के 75वें विक्ट्री परेड में शिरकत की. जहां पर चीन के रक्षा मंत्री भी मौजूद थे. लेकिन गलवान घाटी और पूर्वी लद्दाख में हुए सैन्य संघर्षों की वजह से दोनों रक्षा मंत्रियों के बीच में आधिकारिक बातचीत न हो सकी. इस लेख में हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि भारत और चीन के बीच में जो घटना घट रही हैं उसका अंतरराष्ट्रीय संदर्भों में क्या मायने हैं? वहीं रूस के साथ हमारे संबंधों की कसौटी का भी समय है क्योंकि रूस के साथ हमारे बड़े ही घनिष्ठ संबंध रहे हैं – चाहे वह रक्षा ख़रीद को लेकर के हो, सांस्कृतिक संबंधों में हो या फिर फिल्म और साहित्य को लेकर हो. चाहे कश्मीर का मुद्दा हो या चाहे गोवा का मुद्दा हो, रूस ने हमेशा से ही भारत का साथ दिया है. हमने वो दौर भी देखा है जब चीन के साथ सन् 1962 की लड़ाई में रूस एक तटस्थ की भूमिका में रहा था. और यही सवाल आज के समय में भी उठ खड़े हो रहे हैं कि भारत और चीन के बीच जो सैन्य टकराव उत्पन्न हुए हैं उसको लेकर क्या रूस तटस्थ की भूमिका में रहेगा और उसकी निष्पक्षता क्या भारत के हित में होगी?

जहां तक राष्ट्रों के मध्य सामरिक संबंधों का सवाल हैं वो निरंतर बदलते रहते हैं. न तो यहां कोई स्थायी मित्र होता हैं और न तो कोई स्थायी शत्रु. केवल उनके हित ही सर्वोपरि होते हैं. इसका सबसे सटीक उदाहरण इस बात से समझा जा सकता है कि 1970 के दशक में राष्ट्रपति निक्सन के ज़माने में अमेरिका ने चीन को रूस के विरुद्ध काउंटर बैलेंस करने के लिए आर्थिक रूप से जितना बढ़ावा दिया आज उसी का नतीजा है कि चीन इस पायदान पर है. और इसे सामरिक रूप से विडंबना ही कहेंगे कि आज अमेरिका के विरुद्ध रूस और चीन एक साथ खड़े हैं. इस प्रकार सामरिक संबंध निरंतर बदलते रहते हैं और इन्हें समझने के लिए यह बहुत ज़रूरी हो जाता है कि यह किसके हित को किन तरहों से प्रभावित कर रहे हैं.

ऐसे समय में जब भारत और चीन के बीच सीमा पर सैन्य टकराव चल रहा हो तो रूस का महत्व कम नहीं होता बल्कि बढ़ जाता है क्योंकि दुश्मन का दोस्त कई बार दुश्मन को नियंत्रित करने में ज्यादा कामयाब और सफल होता है. इस बात का हमें ख्य़ाल रखना चाहिए.

अभी भारत और चीन के मध्य जो तनातनी चल रही है उससे यह अटकलें लगाई जा रही थी कि रूस-भारत-चीन (आरआईसी) – की जो बैठक है वह संपन्न होगा भी या नहीं होगा. भारत के रक्षामंत्री रूस जायेंगे की नहीं जायेंगे. हालांकि, इसी बीच हमारे रक्षामंत्री रुसी दौरे पर गए. अगर कोविड-19 नहीं होता तो वास्तव में यह समारोह मई माह में होने वाला था और इसमें रक्षामंत्री न जाकर प्रधानमंत्री भाग लेते. हमारे रक्षा मंत्री का इस समारोह में जाना बहुत ज़रूरी था. जब यह समारोह हुआ तो उसमें दोस्त देशों की सेनाएं थी. उसमें भारत और चीन की सेना रूसी सेनाओं के साथ परेड के दौरान शामिल भी हुए. सामरिक संबंधों को एक बड़े परिदृश्य में देखना चाहिए यह कोई स्कूल वाली लड़ाई नहीं है कि बात-बात में कट्टी कर ली जाए. यह बाघ और बकरी का एक लंबा खेल है इसे बेहद सावधानीपूर्वक खेलना चाहिए.

क्या है रूस की सामरिक विडंबना?

पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई तरह की घटनाएं हुए हैं जिससे भारत के राष्ट्रीय हितों में बदलाव देखने को मिला है जो रूस के हितों के साथ मेल नहीं खाते हैं. चाहे वह तालिबान के मामले में हो या अफग़ानिस्तान के मुद्दे पर हो या अमेरिका के साथ नज़दीकियों को लेकर के हो. इसके अलावा भारत अपनी सामरिक साझीदारों में भी काफी विविधता लेकर आया है. और अब वह सिर्फ रूस पर पर ही निर्भर नहीं है. इसतरह से दोनों देश अपने रक्षा साझीदारों में काफी विविधता लाए हैं. रूस पहले अपने-आप को काफ़ी समय तक एक यूरोपीय शक्ति के रूप में मानता था. रूस का अमेरिका और यूरोप के प्रति जो दृष्टिकोण रहा है ख़ासतौर से यूक्रेन और क्रीमिया संकट के बाद से उस पर प्रतिबंध लगे, उसकी वजह से ना चाहते हुए भी रूस चीन की तरफ खींचता चला गया. रूस पर प्रतिबंध लगने के बाद से उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं रही.

आज भी रूस को पैसे की जरूरत है, इन्वेस्टमेंट की ज़रूरत है. और इस तरह वह चीन के आगोश में खींचता चला गया. रूस कभी नहीं चाहता था की चीन उसके ऑयल एंड गैस के क्षेत्र में चीन इन्वेस्टमेंट करें. आज के समय में चीन रूस के गैस क्षेत्र में बहुत बड़ा ग्राहक है. पर यह भी समझने की बात है रूस का आज भी नाता यूरोप के साथ बरकरार है. चीन चाहे कितना भी व्यापार रूस के साथ बढ़ा ले रूस का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर यूरोप ही रहेगा. रूस एवं यूरोप के मध्य कच्चे तेल एवं गैस का जो एक दूसरे पर जो आत्मनिर्भरता है वह इतने मजबूत हैं कि अमेरिका की लाख कोशिश करने के बावजूद भी वह संबंध खत्म होने वाले नहीं है. राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों हमेशा से यह कहते आ रहे हैं रूस को चीन के संदर्भ में कभी भी इस प्रकार से धक्का नहीं देना चाहिए. रूस हमारे लिए मददगार साबित हो सकता है. तो इस बारे में पश्चिमी देशों को सोचने की ज़रूरत है और यूरोप में ऐसी सोच चलती भी रहती है. यदि हम फ़्रांस और जर्मनी को देखें तो इस मामले में अमेरिका से उनके मतभेद हैं.

इस प्रकार इन खेलों के कई सामरिक पहलू हैं. और नासमझी में यह कह देना कि रूस चीन के साथ काफी नज़दीक आ गया है ठीक नहीं है. उनके भी कई कारण हैं. उन्हें समझना की आवश्यकता है. ऐसे समय में जब भारत और चीन के बीच सीमा पर सैन्य टकराव चल रहा हो तो रूस का महत्व कम नहीं होता बल्कि बढ़ जाता है क्योंकि दुश्मन का दोस्त कई बार दुश्मन को नियंत्रित करने में ज्यादा कामयाब और सफल होता है. इस बात का हमें ख्य़ाल रखना चाहिए.

चीन दूसरे देशों की कमज़ोरी का फायदा उठाकर उनपर दबाव बनाना चाहता है कि किसी न किसी रूप में एशिया में उसके वर्चस्व को स्वीकार करें. भारत को यह किसी भी मायने में स्वीकार्य नहीं है

क्या इसका असर हमारे सैन्य उपकरणों पर पड़ेगा?

यह रूस के बिल्कुल हित में नहीं है कि एशिया में भारत और चीन के बीच शक्ति का संघर्ष उत्पन्न हो. और रूस यह कभी नहीं चाहेगा इस मौक़े का फायदा उठाकर एशिया में कोई बाहरी शक्ति हस्तक्षेप करें. रूस की अर्थव्यवस्था चीन से ही नहीं, भारत से भी छोटी है. इसके बावजूद रूस के क़दम पश्चिम एशिया में अमेरिका जैसे बाहरी देशों के वर्चस्व को किसी ना किसी तरह से संतुलित किया जाए. जहां तक भारत और चीन के बीच शांति बहाली का सवाल है एलएसी (वास्तविक नियंत्रण रेखा) के विवादों को सुलझाने का सवाल है और उस मामले में रूस ज़रूर चीन पर दबाव बनाएगा और बराबर बनाता रहेगा कि इन बातों को आगे बढ़ाया जाए. भारत को भी चाहिए कि वह किसी भी परिस्थिति से निपटने के लिए अपने आपको तैयार रखें. हमें कभी भी दुश्मन को कम करके नहीं आंकना चाहिए. आज हम जो चीन की हालत देख रहे हैं इससे यह पता चलता है कि चीन कुछ भी करने को तैयार हैं. चीन दूसरे देशों की कमज़ोरी का फायदा उठाकर उनपर दबाव बनाना चाहता है कि किसी न किसी रूप में एशिया में उसके वर्चस्व को स्वीकार करें. भारत को यह किसी भी मायने में स्वीकार्य नहीं है. भारत हर मायने में अपनेआप में एक सक्षम शक्ति हैं. भारत को हर परिस्थिति में तैयार रहते हुए परिस्थितियों को नियंत्रित करने की कला रखनी चाहिए. और जैसा कि पहले भी चर्चा की जा चुकी है कि बाघ और बकरी के इस खेल में हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि बकरी काली है या सफेद. अगर उसे घेरने की कला आती है तो उसे अवश्य करना चाहिए.

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में क्वॉड पर रूस की क्या प्रतिक्रिया रही हैं?

रायसीना डायलॉग में लेब्रोन ने स्पष्ट रूप से कहा था कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र की जो अवधारणा है उससे रूस को ज़रूर समस्या है. समस्या यह है कि यह एक नियम आधारित व्यवस्था का परित्याग करके एक ऐसी व्यवस्था की परिकल्पना करता है जो किन्हीं चिन्हित देशों के विरुद्ध इशारा करता हो. चाहे चीन हो या चाहे रूस हो या चाहे और चीन को रूस से अलग करने की बात हो, तो रूस को इससे अवश्य आपत्ति है. पर जहां तक क्वॉड का संबंध है भारत अमेरिका के साथ यह बात लगातार कहता चला आ रहा है की हम लोग हिंद-प्रशांत का हिस्सा हैं पर उसी शर्त पर जबतक कि यह किसी देश विशेष के विरुद्ध न हो. कई बार जब हिंद-प्रशांत क्षेत्र की अवधारणा की बात होती हैं तो लोकतांत्रिक देशों द्वारा गैर-लोकतांत्रिक देशों को अलग करने के लिए बनाया जा रहा है तो रूस और चीन इस बात से चिंतित होते हैं. जहां तक भारत का सवाल है भारत एक संप्रभु राष्ट्र हैं और वह नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था पर विश्वास करता है. अगर क्वॉड को देखा जाए तो इसके हिस्सेदार देश इस बात को लेकर चिंतित रहते हैं कि आज जो डोनाल्ड ट्रंप का रुख हिंद-प्रशांत क्षेत्र और यूरोप के प्रति जो सौदेबाजी वाला नीति है उससे कहीं ना कहीं अपनेआप को सक्षम बनाया जाए. एक शक्ति पर निर्भर रहने के बजाय किसी एलायंस पर निर्भर रहा जाए. यही कारण हैं कि साउथ कोरिया भी नॉर्दन एलायंस में अपनी दिलचस्पी दिखाता है जिसका रूस हिस्सा है. इसी तरह जापान और रूस भी एलायंस चाह रहे हैं. पर अभी उनके कुछ पुराने विवाद है जिसको सुलझाने में अभी कुछ समय लगेगा. रूस इस बात के लिए भी प्रयासरत है कि अपने संबंधों को आसियान देशों के साथ बढ़ाएं और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी पैठ को मजबूत करें. क्योंकि आर्कटिक शिपिंग रूट रूस के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. इस रूट को लेकर रूस और चीन में के बीच वास्तव में बहुत गहरी भिन्नताएं हैं. चीन अपनेआप को आर्कटिक देश मानने लगा है. यह बात रूस को बिल्कुल भी पसंद नहीं हैं. आर्कटिक रूस का आँगन है और वहां उसका वर्चस्व हैं. रूस यह कभी नहीं चाहेगा की चीन इसमें अपना दख़ल दे. इसको लेकर आगे आने वाले समय में दोनों देशों के मध्य विवाद अवश्य रूप से उभरकर सामने आएगा. यह जो सामरिक से काउंटर बैलेंसिंग का खेल हैं इसमें कुछ मुद्दों पर दोनों देश एक साथ होंगे और कुछ मुद्दों पर वो एक दूसरे से मत भिन्न रखेंगे. इस प्रकार समानताओं और भिन्नताओं को समझकर राष्ट्रों का एक दूसरे से मध्य उनका उपयोग करके संतुलित करते हुए राष्ट्रों को खेलना पड़ेगा और देश खेल भी रहें हैं.

चीन अपनेआप को आर्कटिक देश मानने लगा है. यह बात रूस को बिल्कुल भी पसंद नहीं हैं. आर्कटिक रूस का आँगन है और वहां उसका वर्चस्व हैं. रूस यह कभी नहीं चाहेगा की चीन इसमें अपना दख़ल दे

ट्रंप प्रशासन की नीति में क्या है विरोधाभास? 

यूरोप से ट्रंप प्रशासन द्वारा अपने सैनिकों को हटाए जाने को लेकर यूरोप खुद भी चिंतित है. ट्रंप प्रशासन का अपने सहयोगी देशों के प्रति रक्षा करने के बदले में जो हफ्त़ा वसूली

वाला अंदाज़ है इससे उसके सहयोगी देश काफी चिंतित हैं. यही काम वो दक्षिण कोरिया के साथ, जापान के भी साथ और यूरोप में जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों के साथ भी कर रहा है. जहां तक यूरोप की बात है वहां के लोगों का सोचना है कि ट्रंप एडमिनिस्ट्रेशन ऐसा सिर्फ़ पैसा बढ़ाना के लिए कर रहा है. और इसीलिए वह भारत-चीन के सैन्य संघर्षों का बहाना लेकर ऐसा कह रहा है. यह सेनाएं कहां जाती हैं, क्या करती हैं, अमेरिका वास्तव में इसमें कितना इन्वेस्ट करता है ये सब आगे आने वाले समय में हमें पता चलेगा.

जब हम हिंद-प्रशांत क्षेत्र की बात करते हैं तो इसमें अमेरिका और अन्य दूसरे देशों के बीच में एक सौदेबाजी वाली बात आ गयी है. यह एक चिंता का विषय है. और यह इंडो-पेसिफिक एलाइंस को कहीं ना कहीं कमजोर कर रहा है

जब हम हिंद-प्रशांत क्षेत्र की बात करते हैं तो इसमें अमेरिका और अन्य दूसरे देशों के बीच में एक सौदेबाजी वाली बात आ गयी है. यह एक चिंता का विषय है. और यह इंडो-पेसिफिक एलाइंस को कहीं ना कहीं कमजोर कर रहा है. इतना ही नहीं इससे क्वाड के देशों का आपस में जो संबंध है उसको भी कहीं ना कहीं कमजोर कर रहा है. और उसी की वजह से इस क्षेत्र के देश अमेरिका के अलावा दूसरे देशों की तरफ भी हाथ बढ़ाते रहते हैं. यही अमेरिका की पॉलिसी में एक विरोधाभास है. इसका समाधान चुनाव के बाद हो सकता है. तब शायद अधिक स्थिरता आएगी. फिलहाल, अमेरिका के रुख को लेकर के असमंजस की स्थिति अभी बनी रहेगी.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.